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अहाहा...! आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु एकलो अमृतनो पिंड छे. एनी द्रष्टि थया विना अर्थात् स्वानुभूतिना आनंदने प्राप्त थया विना अरेरे! ए जगतमां झेरनां फळ पामीने रखडशे! भाई! केवळ शुभरागमय एवां व्रत अने तप तो तें अनंतवार कर्यां. पण एमां कयां चैतन्यनो-अमृतनो अंश हतो? ए तो बधा अचेतन झेररूप परिणाम हता. बापु! तारा घरमां (-स्वरूपमां) ए चीज (-शुभाशुभ परिणाम) कयां छे? प्रभु! तारुं घर (-स्वरूप) तो एकला पवित्र अमृतथी भरेलुं छे. ज्यारे आ शुभाशुभ परिणाम बधा अशुचि छे, झेर छे, अचेतन छे. भाई! तारे जो आत्मा प्राप्त करवो होय अने सुखी ज थवुं होय तो बेय परिणामने छोडी शुद्धात्मानी द्रष्टि कर. त्यां तने अवश्य सुख मळशे.
आ रीते शुभ अने अशुभ परिणाम केवळ अज्ञानमय होवाथी बन्ने एक ज छे; बेमां कोई फेर नथी. तेओ एक होवाथी कर्मना कारणमां कोई भेद नथी; कर्मनुं कारण अज्ञान एक ज छे; माटे कर्म एक ज छे.
२. ‘शुभ के अशुभ पुद्गलपरिणाम केवळ पुद्गलमय होवाथी एक छे; ते एक होवाथी कर्मना स्वभावमां भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे.’ जुओ, जड कर्मनी प्रकृति चाहे तो शातावेदनीय बंधाय के अशातावेदनीय बंधाय, यशकीर्ति बंधाय के अपयशकीर्ति बंधाय इत्यादि ए बधाय पुद्गलपरिणाम होवाथी केवळ पुद्गलमय होवाथी एक छे. ते एक होवाथी कर्मना स्वभावमां पण फेर नथी. पुण्य ने पाप, शाता ने अशाता-ए बधाय पुद्गलना परिणाम होवाथी कर्मना स्वभावमां भेद नथी. माटे कर्म एक ज छे.
३. ‘शुभ के अशुभ फळरूपे थतो विपाक केवळ पुद्गलमय होवाथी एक छे; ते एक होवाथी कर्मना अनुभवमां (-स्वादमां) भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे.’ शुं कह्युं आ? शुभनुं फळ अने अशुभनुं फळ केवळ पुद्गलमय छे. शुभना फळथी आ लक्ष्मी आदि के स्वर्गादि मळे अने अशुभना फळमां नरकादि मळे ए बधुंय पुद्गलमय छे. (एमां एकेमांय आत्मा नथी.) पापना फळमां पुद्गल मळे अने पुण्यना फळमांय पुद्गल मळे, माटे ते एक होवाथी कर्मना अनुभवमां-फळमां भेद नथी. बेनोय स्वाद-वेदन दुःखरूप छे. माटे कर्म एक ज छे.
४. ‘‘शुभ (-सारो) एवो मोक्षमार्ग तो केवळ जीवमय होवाथी अने अशुभ (खराब) एवो बंधमार्ग तो केवळ पुद्गलमय होवाथी तेओ अनेक (-जुदां जुदां, बे) छे; तेओ अनेक होवा छतां कर्म तो केवळ पुद्गलमय एवा बंधमार्गने ज आश्रित होवाथी कर्मना आश्रयमां भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे.’’
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ज्ञान अने चारित्र-एवो जे निश्चय मोक्षमार्ग तेने अहीं शुभ एटले सारो कह्यो छे. पुण्य ते शुभ अने पाप ते अशुभ (कर्म) ए वात आमां नथी. अहीं तो मोक्षमार्गने शुभ कह्यो अने शुभाशुभभावरूप बंधमार्गने अशुभ कह्यो छे. समजाणुं कांई...? शुभाशुभभावरूप जे बंधमार्ग छे ते केवळ पुद्गलमय छे. अहा! जे अज्ञानमय छे ते जीवमय केम होय? (न ज होय). शुभ-सारो एवो मोक्षमार्ग केवळ जीवमय छे. शुं कह्युं? शुद्ध रत्नत्रयरूप जे मोक्षमार्गनी वीतरागी पर्याय ते केवळ जीवमय छे अने तेथी ते शुभ छे. अने शुभाशुभकर्मरूप जे बंधमार्ग ते केवळ अज्ञानमय-पुद्गलमय छे तेथी ते अशुभ छे.
हवे कहे छे-तेथी तेओ (-शुभाशुभ कर्म) अनेक (-बे) होवा छतां कर्म तो केवळ बंधमार्गने ज आश्रित छे. भाई! जे तुं एम कहे छे के शुभकर्म मोक्षमार्गने आश्रित थाय छे पण एम छे नहि. (ए तो तारी मिथ्या कल्पना छे). शुभकर्म पण बंधमार्गने आश्रित थाय छे. समजाणुं कांई...? आवो जे शुभभाव ए केवळ बंधमार्गने आश्रित होवाथी शुभभाव करतां करतां निश्चय सम्यग्दर्शन थाय ए वात कयां रहे छे? (ए मान्यता यथार्थ नथी).
तो व्यवहारने कारण कह्युं छे ने?
भाई! ए तो आरोप करीने कह्युं छे. व्यवहार कारण तो आरोपित कारण-आरोपित साधन छे अने ते पण निश्चयनी हयातीमां तेने व्यवहार कारण कहेवामां आवे छे.
आ प्रमाणे शुभाशुभ कर्म केवळ बंधमार्गने आश्रित होवाथी कर्मना आश्रयमां भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे.
आम केवळ व्यवहारना पक्षने लीधे अज्ञानीने शुभाशुभकर्ममां जे ठीक-अठीकरूप भेद जणातो हतो तेनुं अहीं निराकरण करवामां आव्युं.
‘कोई कर्म तो अरहंतादिमां भक्ति-अनुराग, जीवो प्रत्ये अनुकंपाना परिणाम, मंद कषायथी चित्तनी उज्ज्वळता इत्यादि शुभ परिणामोना निमित्ते थाय छे...’
जुओ, कोई कर्म तो अरहंतादिमां एटले पंचपरमेष्ठीमां भक्ति-अनुरागना निमित्ते थाय छे. भाई! पंचपरमेष्ठीमां अनुराग ए राग छे, आकुळता छे. पोताना आत्माना आनंदनी दशा प्रगट करवामां ए राग सहायक एटले निमित्त हो पण सहायक एटले मददगार नथी. ‘सहायक’ एटले ‘साथे छे.’ बस एटलुं ज. ‘सहायक’ एटले मदद करे छे एम अर्थ नथी; केमके अरहंतादि पंच-परमेष्ठी भगवान अने
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तेमना प्रत्येनो अनुराग ए बन्नेय परद्रव्य छे. समजाणुं कांई...? बहु सूक्ष्म वात छे, भाई!
प्रश्नः– (ए रागनी) पर्याय तो एनी (जीवनी पोतानी) छे ने?
उत्तरः– ए पर्याय खरेखर एनी (आत्मद्रव्यनी) छे ज नहि. ए तो पहेलां कीधुं ने के पुण्य अने पाप ए बन्ने विभावपरिणतिरूप चंडालणीना ज पुत्रो छे. जेम एक चंडालणी पुत्र ब्राह्मणीने त्यां रही मोटो थयो एटले कहे के-मने मदिरा आदि खपे नहि तेम एक शुभभावनी व्यवहारक्रियामां आव्यो एटले कहे के-मने हिंसा, विषयभोग आदि खपे नहि; पण ए वास्तवमां छे विभावपरिणतिरूप चंडालणीनो ज पुत्र. अशुभनी जेम शुभ परिणाम पण विभावपरिणतिजन्य परिणाम छे; ए कांई शुद्ध चैतन्यस्वभावजन्य परिणाम नथी. माटे ए राग आत्मपरिणतिरूप नथी.
अहीं कहे छे के अरहंतादि पंचपरमेष्ठीमां भक्तिनो अनुराग ए शुभराग छे पण ए आत्मस्वभाव नथी अने आत्मानां श्रद्धान-ज्ञान थवामां सहायक एटले मददकर्ता पण नथी.
प्रश्नः– तो व्यवहार (साधन)थी निश्चय थाय एम शास्त्रमां आवे छे ने?
उत्तरः– हा, आवे छे. आचार्य जयसेननी टीकामां घणे ठेकाणे ए प्रमाणे आवे छे. पण ए व्यवहारनयनुं कथन छे. जेने निश्चय (धर्म) प्रगट थयो होय एने एनी भूमिकायोग्य व्यवहार होय छे ए सिद्ध करवुं होय त्यारे ए रीते व्यवहारनयनुं कथन शास्त्रमां आवे छे. परंतु अरहंतादिमां भक्तिनो अनुराग इत्यादि शुभराग पुण्यबंधनुं ज कारण छे; ए कांई अबंध परिणाम एवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं सहायक-मददगार नथी.
सम्यग्दर्शन आदि अबंध वीतरागी परिणाम छे. अबंध स्वभाव अबंध परिणामनुं कारण थाय. (कांई रागना बंधरूप परिणाम अबंध परिणामनुं कारण न थाय). भगवान आत्मा त्रिकाळ अबंधस्वभावी छे. गाथा १४-१प मां आवे छे ने-‘जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं......’ त्यां ‘अबद्ध’ ए तो नास्तिथी कथन छे. अस्तिथी कहीए तो भगवान आत्मा त्रिकाळ मुक्तस्वरूप ज छे. अहाहा...! सदाय मुक्तस्वरूप एवा भगवान आत्मामां अंतर्द्रष्टि करी एनो अनुभव करवो एनुं नाम जैनशासन छे. रागनो अनुभव ए कांई जैनशासन नथी. अहीं तो वीतराग शासन लेवुं छे ने? माटे अरहंतादि प्रत्ये अनुराग अने जीवो प्रत्ये अनुकंपाना परिणाम ए शुभराग छे, पण वीतरागशासन नथी.
श्वेतांबरमां कथा आवे छे के-मेघकुमारे हाथीना भवमां ससलानी अनुकंपा
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करी (दया पाळी); एथी एनो संसार परित थई गयो-अर्थात् दीर्घ संसार नष्ट थई गयो. आवी वात बीलकुल अयथार्थ छे. पर जीवनी अनुकंपानो भाव तो शुभराग छे अने शुभराग छे ते बंधनुं ज कारण छे, अबंध परिणामनुं कारण नथी, समकितनुं कारण नथी. (बंधना परिणामथी अबंध केम थाय? संसार केम मटे? न ज मटे).
प्रश्नः– तो प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा, आस्तिकयने सम्यग्दर्शननां लक्षण कह्यां छे ने?
उत्तरः– ए अनुकंपा अरागी-वीतरागी अनुकंपा छे, ज्यारे आ अनुकंपा तो शुभरागरूप छे. (शुभरागने समकितनुं लक्षण कहेवुं ए तो उपचार छे.) चैतन्यस्वरूपना वीतरागशासननी बहु झीणी वात भाई!
अनुभवप्रकाशमां एक दाखलो आप्यो छे के-एक चांपो भरवाड हतो. ते धतूरो पीने उन्मत्त थयो. तेथी ते भूली गयो के-‘हुं चांपो छुं.’ थोडी वारे ते घेर गयो. त्यां तेनी पत्नी सूती हती एटले बारणुं खखडाव्युं अने पूछवा लाग्यो के-चांपो छे घरमां? त्यारे अंदरथी पत्नी बोली-तमे कोण छो? त्यारे ते सावधान थयो अने कहेवा लाग्यो-‘हा, हुं चांपो छुं.’ एम अनादिथी जीव आत्माने (-पोताने) भूली गयो छे. ते पूछे छे के आत्मा (पोते) कोण छे? तेने पूछीए छीए के आ बधुं छे, छे, छे-एम कोण जाणे छे? जाणनारो पोते तो जाणे छे. ए जाणनारो जे छे ते ज पोते आत्मा छे. अनुभवप्रकाशमां ज्यां ज्यां ज्ञान त्यां त्यां आत्मा अने ज्यां ज्यां आत्मा त्यां त्यां ज्ञान-एवो द्रढ प्रतीतिभाव ते सम्यक्त्व छे एम लीधुं छे, केमके आत्मा ज्ञानमय छे अने ते ज्ञाननी सम्यक् परिणति द्वारा जणाय छे.
अहाहा...! आत्मा सच्चिदानंदस्वरूप भगवान त्रिकाळ परमानंदस्वभावी छे. पण ए जणाय कयारे? आनंदना स्वादरूप स्वसंवेदन परिणति द्वारा ते जणाय छे. परमानंदस्वभावी प्रभु आत्मा त्रिकाळ अस्तिरूप छे; पण पर्यायमां परमानंदना परिणामन विना, आनंदनो स्वाद (-संवेदन) आव्या विना आ अस्ति छे एम प्रतीतिमां केम आवे? अहाहा...! जेनो नमूनो (-स्वसंवेदन) आवे नहि तो ‘ए आखी चीज आवी छे’ एम प्रतीतिमां कयांथी आवे?
भाई! आ (आत्माना) स्वरूपनी वात चाले छे. एटले अहीं कहे छे के- अनुकंपा ए शुभराग छे, ए आत्मानो स्वभाव नथी. ए शुभराग द्वारा निश्चय स्वरूप पमाय नहि. ल्यो, आना हवे वांधा छे बधाने; एम के आवो व्यवहार होय तो निश्चय पमाय. पण बापु! एवो व्यवहार तो अनंतवार कर्यो अने एना फळमां
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नवग्रैवेयक पण अनंतवार गयो. पण भाई! संसार अने दुःख तो माथे ऊभां ज रह्यां. छहढालामां कह्युं छे ने के-
ए छ कायना जीवोनी अनुकंपा अने महाव्रतादिना परिणाम पण दुःखरूप छे भाई! ए दुःखना-आकुळताना परिणामथी सुखस्वरूपनी प्राप्ति कदीय न थाय. पोतानी अंतर्मुखाकार आनंदनी परिणति वडे सुखस्वरूपनी प्राप्ति थाय. हवे आवी वात आकरी पडे, पण शुं थाय? मार्ग ज आवो छे, भाई!
अनुकंपा, मंद कषाय, चित्तनी उज्ज्वळता इत्यादि बधो शुभराग छे. श्रवण करवुं, उपदेश देवो ए बधो शुभराग छे. ए बधो छद्मस्थदशामां हो, पण ए शुभ परिणामोना निमित्ते (शुभ) कर्म थाय छे. ‘कोई कर्म........निमित्ते थाय छे’ एम शब्द छे ने? एटले के शुभरागना निमित्ते शुभ कर्मबंधन थाय छे. तेथी शुभ-भलुं छे एवो अज्ञानीनो पक्ष छे. हवे कहे छे-
‘अने कोई कर्म तीव्र क्रोधादिक अशुभ लेश्या, निर्द्रयपणुं, विषयासक्ति, देव-गुरु आदि पूज्य पुरुषो प्रत्ये विनयभावे न प्रवर्तवुं इत्यादि अशुभ परिणामोना निमित्तथी थाय छे. आम हेतुनो भेद होवाथी कर्मना शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे.’ जुओ, शुभ परिणामना निमित्ते पुण्यकर्म अने अशुभ परिणामना निमित्ते पापकर्म बंधाय छे माटे हेतुभेद होवाथी कर्मना पण शुभ अने अशुभ एम बे भेद छे एम अज्ञानीनी दलील छे.
वळी ते कहे छे-कर्मनी प्रकृति-स्वभावमां शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे. जेमके ‘शातावेदनीय, शुभ-आयु, शुभनाम अने शुभगोत्र-ए कर्मोना परिणाम (-प्रकृति वगेरे-)मां तथा चार घातिकर्मो, अशातावेदनीय, अशुभआयु, अशुभनाम, अशुभगोत्र-ए कर्मोना परिणाम (-प्रकृति वगेरे-)मां भेद छे.’ आ अज्ञानीनो भेदनो पक्ष छे. एकमां शाता बंधाय तो एकमां अशाता बंधाय, एकमां उच्च (स्वर्गादि) आयुष्य बंधाय तो एकमां नीच (नरकादि) आयुष्य बंधाय, एकमां यशकीर्ति बंधाय तो एकमां अपयशकीर्ति बंधाय-इत्यादि कर्मनी प्रकृतिना स्वभावमां भेद होवाथी कर्ममां शुभ अने अशुभ एम बे भेद छे. वळी ते दलील करे छे के-
‘कोई कर्मना फळनो अनुभव सुखरूप छे अने कोई कर्मना फळनो अनुभव दुःखरूप छे; आम अनुभवनो भेद होवाथी कर्मना शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे.’
जुओ, पुण्यकर्मना फळमां स्वर्ग मळे, करोडपति-धूळपति मोटो शेठियो थाय अने पापकर्मना फळमां सातमी नरके अत्यंत दुःख अने वेदनाना संयोगमां पडे;
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३३-३३ सागर सुधी बिचारो नरकना दुःखमां सडे; वा निगोदमां चाल्यो जाय. शुं कर्मना फळमां फेर नथी? अवश्य छे-एम भेदवाळा अज्ञानीनो पक्ष छे. आ प्रमाणे अनुभवनो भेद होवाथी कर्म शुभ अने अशुभ एवा बे भेदवाळुं छे. वळी कहे छे-
‘कोई कर्म मोक्षमार्गने आश्रित छे (अर्थात् मोक्षमार्गमां बंधाय छे) अने कोई कर्म बंधमार्गना आश्रये छे; आम आश्रयनो भेद होवाथी कर्मना शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे.’
जुओ, मोक्षमार्गना प्रसंगमां (साधकदशामां) धर्मी जीवने शुभभाव होय छे. माटे ते शुभभाव मोक्षमार्गना आश्रये छे अर्थात् शुभभाव जेनुं निमित्त छे एवुं शुभकर्म मोक्षमार्गना आश्रये बंधाय छे एम अज्ञानीनो मत छे. तथा अशुभकर्म बंधमार्गना आश्रये छे. आम आश्रयनो भेद होवाथी कर्म शुभ अने अशुभ एम बे भेदवाळुं छे.
‘आ प्रमाणे हेतु, स्वभाव, अनुभव अने आश्रय-ए चार प्रकारे कर्ममां भेद होवाथी कोई कर्म शुभ छे अने कोई कर्म अशुभ छे एम केटलाकनो पक्ष छे.’ केटलाकनो एटले अज्ञानीओनो आवो भेद-पक्ष छे.
हवे ए भेदपक्षनो निषेध करवामां आवे छेः-
‘जीवना शुभ अने अशुभ परिणाम बन्ने अज्ञानमय छे तेथी कर्मनो हेतु एक अज्ञान ज छे; माटे कर्म एक ज छे.’
शुं कह्युं आ? भाई! तुं नवा कर्मबंधनमां (निमित्त एवा) जीवना परिणामना एक शुभ परिणाम अने एक अशुभ परिणाम एम बे भेद पाडे छे पण अमे तने कहीए छीए के ए बन्नेय परिणाम अज्ञानमय छे अने तेथी एक ज जातना छे. अरे भाई! ए शुभाशुभ परिणाममां चैतन्यनुं-ज्ञाननुं किरण कयां छे! ए तो बन्नेय आंधळा अज्ञानमय छे. शुभमां कांई ओछुं अज्ञान अने अशुभ परिणाममां विशेष अज्ञान एम पण नथी. बन्ने समानपणे अज्ञान छे, अंध छे; माटे बेमांथी एकेय धर्मरूप नथी. शुभाशुभ भावथी रहित जे ज्ञान (चैतन्यमय परिणाम) छे ते धर्म छे अने शुभाशुभभाव अज्ञानमय होवाथी अधर्म छे. आवी स्पष्ट वात छे; समजाणुं कांई...?
आ दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रौषध इत्यादि जे बधा करे छे ते रागनी मंदतानो शुभभाव छे, पण ते कांई धर्म-बर्म नथी. हा, ए पुण्यभाव छे अने एने अहीं त्रिलोकीनाथ भगवान अज्ञान कहे छे. भगवान! तारुं स्वरूप तो चिदानंदरूप सदाय जागृत चैतन्यज्योतिमय ज्ञानस्वभावमय छे. अने आ शुभाशुभभाव तारा चैतन्यस्वभावथी विपरीत भाव छे. माटे अमे ए बन्नेने अज्ञान कहीए छीए.
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जुओ, शुभभाव छे ते पोते अज्ञान छे; पण अज्ञान छे एटले शुभभाव मिथ्यात्व छे एम अर्थ नथी. जो शुभभावने धर्म (शुद्ध रत्नत्रयरूप) माने तो ते मान्यता मिथ्यात्व छे. केटलाक लोको कहे छे के अहीं (सोनगढमां) देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा करे एने मिथ्यात्व कहे छे तो ते वात खोटी छे. भाई! देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धा छे ते शुभराग छे, ए कांई मिथ्यात्व नथी अने ए धर्म पण नथी. तथापि एने धर्म मान वो एनाथी (रागथी) धर्म थाय एम माने तो ते मान्यता विपरीत होवाथी मिथ्यात्व छे. समजाणुं कांई...? भाई! आ तो न्याय छे! न्यायमां किंचित् फरक पडे तो बधुं फरी जाय, मोटो फेर पडी जाय. शुं करीए? आ वस्तुस्थितिनो हमणां बहु विरोध आवे छे तेथी वधु स्पष्टीकरण थतुं जाय छे. बापु! मार्ग तो जेवो छे तेवो आ छे. अनंत संतो अने तीर्थंकरोए आ ज कह्युं छे अने वस्तुनुं स्वरूप पण आ ज छे.
अहाहा...! भगवान! तारुं द्रव्य त्रणकाळमां कदीय शुभाशुभभावना विकल्पथी तन्मय नथी. हुं शुभ छुं, अशुभ छुं-एम तें अज्ञानवश मान्युं छे पण कदीय तुं शुभाशुभभावना स्वभावे थयो नथी. छठ्ठी गाथामां आव्युं ने के-आ त्रिकाळी एक ज्ञायकभाव कदीय शुभाशुभभावना स्वभावे थयो नथी, केमके जो ते-पणे थाय तो आत्मा जड थई जाय; मतलब के शुभाशुभ भावमां जाणपणानो अंश नहि होवाथी तेओ जड अचेतन छे, अज्ञान छे, अजीव छे. ज्यारे आत्मा अरूपी भगवान शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप नित्य ज्ञायकपणे विराजमान चैतन्यमहाप्रभु छे. अहाहा...! आवो पूर्ण स्वभावथी भरेलो एक ज्ञायकस्वभावी आत्मा शुभाशुभभावना स्वभावे केम थाय? (न ज थाय).
प्रभु! तुं त्रिकाळ भगवत्-स्वरूप चैतन्यस्वरूप देव छो. तने एनी खबर नथी पण स्वरूपथी ज जो भगवत्-स्वरूप न होय तो भगवत्-स्वरूप थशे कयांथी? आ तो प्राप्तिनी प्राप्ति छे भाई! माटे जेने अहीं अने गाथा छ मां पण अज्ञानमय भाव कह्या छे ते शुभाशुभभावनुं लक्ष छोडी अंतर्द्रष्टि कर, तेथी तने निराकुळ आनंद प्राप्त थशे, धर्म थशे.
बापु! तुं शुभ अने अशुभ बेय भाव करी करीने मरी गयो छे. (दुःखी थयो छे). आ दुनियानी बहारनी चमकमां अंजाईने तुं भ्रममां पडयो छे. अनादिथी पुण्यनां फळ-सुंदर रूपाळुं शरीर, करोडोनी सायबी, अने मनगमतां बायडी अने छोकरां-ए बधांमां तुं मुंझाई गयो छे, मूर्छाई गयो छे, घेराई गयो छे. ए बधां तने ठीक लागे पण भाई! ए बधां हाडकांनी फोस्फरसनी चमक जेवां छे. आ बधां अनुकूळ जोईने तुं राजीपो बतावे अने कोई वार प्रतिकूळ जाणीने तुं नाराज थाय, खीजाय पण भाई! ए बधां कयां तारा स्वरूपमां छे? भगवान! तने आ शुं थयुं? जो शुभाशुभभाव तारा स्वरूपमां नथी तो एनां फळ जे अनुकूळ-प्रतिकूळ संयोग
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ए तारा कयांथी थया? बापु! ए तो तारा ज्ञाननां ज्ञेयमात्र छे. भाई! वस्तु तो वस्तु छे; तेमां अनुकूळ-प्रतिकूळ कांई नथी. आम जे (शुभाशुभभाव, शुभाशुभ कर्म) एक छे तेमां बे भाग पाडवा ए ज मिथ्यात्व छे.
बहारनी अनुकूळता होय, रूपाळुं शरीर होय, इन्द्रियो सशक्त होय, आयुष्य ८०-९० नुं लांबु होय, कदीय सूंठ चोपडवी न पडे एवुं शरीर नीरोगी तंदुरस्त होय अने स्त्री-पुत्र परिवार ठीक होय, संपत्ति पण होय पण तेथी शुं? ए तो बधी जडनी क्रिया छे. एमां आ ठीक छे एवुं कयां आव्युं? केमके ए तो अज्ञान अने अज्ञाननुं फळ छे. आ अनुकूळता अने प्रतिकूळता ए बधां शुभाशुभभाव जे अज्ञान एनां ज फळ छे. भाई! एमां तने भेद लागे पण ए तारो भ्रम छे.
प्रश्नः– शरीर नीरोगी होय तो धर्म-साधन थाय ने? शास्त्रमां पण एम उपदेश आवे छे के-ज्यां सुधी शरीरमां जीर्णता थई नथी, रोग आव्यो नथी, इन्द्रियो हीणी पडी नथी त्यां सुधीमां धर्म करी ले.
उत्तरः– भाई! शरीर तो जड अचेतन छे, अने धर्म तो आत्मस्वरूप छे. माटे शरीर नीरोगी होय तो धर्मसाधन करी शकाय ए वात बीलकुल बराबर नथी. शास्त्रमां जे उपदेश छे ए तो प्रमाद टाळीने उग्र पुरुषार्थ द्वारा तत्काल धर्मसाधनमां प्रवृत्त थवानो छे. एमां तो जीवने प्रमाद टाळवानी वात छे; पण रोग-ग्रस्त अवस्थामां धर्म न ज थाय एम एनो अभिप्राय नथी.
जुओ, सातमी नरकनो नारकी-एना पीडाकारक संजोगोनी शी वात! एने जन्मथी सोळ रोग-जन्मथी श्वास, दम, केन्सर, शीत-ठंडी, भूख, तरस इत्यादिनी भारे पीडा-वेदना होय छे. त्यांनी शीतनो एक कणियो पण मनुष्यलोकमां आवी जाय तो दश जोजनमां माणसो एनाथी मरी जाय. तेत्रीस सागर सुधी अनाजनो कण न मळे, पाणीनुं बूंद न मळे, ऊंध न मळे. आवी अतिशय पीडाना संजोगमां रहीने पण कोई कोई नारकी जीव आत्मानुं भान प्रगट करीने समकित प्राप्त करी ले छे. भाई! शरीर नीरोगी अने बहारना संयोग अनुकूळ होय तो ज धर्मसाधन थई शके अने तेना वडे धर्मसाधन करी शकाय एवी मान्यता तद्न जूठी छे.
अहा! आवा नरकना पीडाकारी संयोगमां तें अनेकवार तेत्रीस सागर गाळ्या; वळी अनंतवार तुं देव पण थयो. आ शुं छे बधुं? बापु! ए बधां अज्ञाननां फळ छे, ज्ञाननां नहि. ज्ञाननुं फळ तो वीतरागी शांति अने आनंद छे. आ अनुकूळ अने प्रतिकूळ संजोग ए बधां शुभाशुभभावरूप अज्ञाननां फळ छे. तेथी आचार्य कहे छे के कर्मनो हेतु एक अज्ञान ज छे. शुभ के अशुभ जे कर्मबंधन थाय एनुं कारण एक अज्ञान ज छे.
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आचार्य अमृतचंद्रदेवे पुरुषार्थसिद्धयुपायमां कह्युं छे के समकिती संतने जे शुभभावथी तीर्थंकर गोत्र बंधाय ते भाव अपराध छे. अहीं एने अज्ञान कह्युं छे. अज्ञान एटले जेमां ज्ञाननो अंश नथी तो अहीं अज्ञान एटले मिथ्यात्व नहि; पण चैतन्यप्रकाशनो परिपूर्ण पुंज एवा भगवान आत्माना चैतन्यप्रकाशनुं एक किरण पण शुभरागमां नथी माटे तेने अज्ञान कहेवामां आवे छे. भाई! अज्ञानमय एवो शुभराग पोते मिथ्यात्व नथी, पण एनाथी धर्म थाय एवी मान्यता मिथ्यात्व छे. आ प्रमाणे अज्ञान अने मिथ्यात्वमां फेर छे.
प्रश्नः– तो भावपाहुडमां समकितीने जे भावथी तीर्थंकर गोत्र बंधाय एवी सोळ भावना भाववानुं कथन आवे छे ने?
उत्तरः– हा, आवे छे; पण ए तो बधो त्यां व्यवहारनय दर्शाव्यो छे; अर्थात् समकितीने ते ते समये जे (सोलहकारणनो) भाव होय छे तेने त्यां जणाव्यो छे. पण ए बधो व्यवहार-राग अज्ञानभाव छे, बंधनुं कारण छे; अधर्म छे. हवे आवी वात आकरी पडे, पण शुं थाय! भाई! जे भावे बंध थाय ते भाव धर्म नथी एटले के ते अधर्म छे.
भगवान आत्मा सदा अबंधस्वरूप-मुक्तस्वरूप ज छे. श्रीमद् राजचंद्रमां आवे छे के दिगंबर आचार्योए आत्मानो मोक्ष थाय एम मान्युं नथी पण मोक्ष जणाय छे. अर्थात् समजाय छे के आत्मा मोक्षस्वरूप ज छे. ज्यारे रागथी मुक्त थईने मुक्तस्वरूपनी प्रतीति करी त्यां ए प्रतीतिमां जणायो के आ (आत्मा) तो मोक्षस्वरूप ज छे. मोक्ष थाय ए तो पर्यायनी अपेक्षाए वात छे. निश्चयथी वस्तुमां (आत्मद्रव्यमां) बंध-मोक्ष छे ज नहि. पर्यायमां हो, वस्तु तो सदा मुक्त ज छे. आवो मुक्तस्वभाव शुभभावमां आवतो नथी, जणातो नथी. माटे तेने-बंधभावने अज्ञानभाव कहेवामां आव्यो छे. आ प्रमाणे अशुभनी जेम शुभभाव पण अज्ञानमय होवाथी कर्मनो हेतु एक अज्ञान ज छे. हवे कहे छे-
२. ‘शुभ अने अशुभ पुद्गलपरिणामो बन्ने पुद्गलमय ज छे तेथी कर्मनो स्वभाव एक पुद्गलपरिणामरूप ज छे; माटे कर्म एक ज छे.’
ल्यो, शाता होय के अशाता होय, बेय पुद्गल ज छे एम कहे छे. बेय कर्म पुद्गलस्वभावमय ज छे केमके बन्ने पुद्गल परमाणुनी पर्याय छे. भाई! कर्मनी १४८ प्रकृति सघळीने झेरनां झाड कह्यां छे केमके एनां फळ झेर छे. एक भगवान आत्मा ज अमृतस्वरूप छे. पुण्यबंधरूप जे पुद्गलरजकणो छे ते झेररूप छे. शुभभाव झेरस्वरूप छे तो एनाथी जे बंधन थाय ए पण झेरस्वरूप छे. गजब वात छे भाई! व्यवहारना पक्षवाळाने आकरी लागे; एने एम के अमे आटलो व्यवहार (क्रियाकांड)
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करीए छीए ते करतां करतां मोक्ष थशे अने तमे एनो निषेध करो छो! अरे भगवान! तुं शुं करे छे? ए तो धूळेय नथी, सांभळने. तुं अनंतवार नवमी ग्रैवेयक गयो त्यारे जे शुकल लेश्याना शुभपरिणाम थया हता ते तो अत्यारे छे ज नहि. हवे ए शुकल लेश्याना परिणामथी पण तने धर्म थयो नहि ए तो विचार. छहढालामां कह्युं छे ने के-
सुख न पायो तो शुं पायो? दुःख ज पायो. भाई! २८ मूलगुण अने पंचमहाव्रतना शुभरागना परिणाम दुःख छे, सुख नथी. वीतराग मार्गनी आवी वात बेसवी कठण-महाकठण पडे केमके शुभभावनी एने पकड छे ने?
पेलुं वांदरानुं द्रष्टांत नथी आवतुं? के एक वांदरो हतो. तेणे एक सांकडा मोंवाळो घडो दीठो. पासे आवीने जोयुं तो अंदर बोर हतां. बोर लेवा वांदराए घडामां हाथ नाख्यो अने बोरनो मूठो भर्यो. पण घडानुं मों सांकडुं एटले भरेली मुट्ठी साथे हाथ बहार नीकळ्यो नहि. तेथी ए मानवा लाग्यो कोई भूत के जंतरवाळाए मने पकडयो छे. जो मुट्ठी छोडी दे तो हाथ नीकळी जाय. पण मुट्ठी छोडे नहि अने हाथ नीकळे नहि. तेम अज्ञानी जीव पोते रागने पकडीने बेठो छे तेथी ते छूटी शक्तो नथी अने माने छे के रागे मने पकडयो छे, बांध्यो छे. जो राग छोडी दे तो मुक्त थई जाय. पण रागने छोडे नहि अने ते मुक्त थाय पण नहि. आवी सख्त एने रागनी-शुभभावनी पकड छे.
अहीं कहे छे के शुभाशुभ रागना निमित्ते जे शुभाशुभ कर्म बंधाय ते कर्म सघळुं पुद्गलस्वभावमय ज छे तेथी कर्म एक ज छे. हवे कहे छे-
३. ‘सुखरूप अने दुःखरूप अनुभव बन्ने पुद्गलमय ज छे; माटे कर्म एक ज छे.’
जुओ, आ स्वर्गनां सुख अने पैसावाळा मोटा शेठियानां सुख ए बधां पुद्गलमय छे एम कहे छे. तथा तिर्यंच अने नरकनां दुःख ए पण पुद्गलमय छे. सुख-दुःखनो अनुभव सघळो रागादिमय छे ते पुद्गलमय ज छे, जीवमय नथी. आ प्रमाणे कर्मनो सुखरूप अनुभव अने दुःखरूप अनुभव बन्ने पुद्गलमय ज छे तेथी कर्म एक ज छे. त्रण बोल थया, हवे चोथो-
४. ‘मोक्षमार्ग अने बंधमार्गमां, मोक्षमार्ग तो केवळ जीवना परिणाममय ज छे अने बंधमार्ग केवळ पुद्गलना परिणाममय ज छे तेथी कर्मनो आश्रय केवळ बंधमार्ग ज छे. (अर्थात् कर्म एक बंधमार्गना आश्रये ज थाय छे-मोक्षमार्गमां थतां नथी); माटे कर्म एक ज छे.’
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अज्ञानीए एम कह्युं हतुं के शुभभाव मोक्षमार्गना आश्रये एटले के मोक्षमार्गमां थाय छे माटे ते शुभ-सारो छे. परंतु पाठमां ‘शुभ एवो मोक्षमार्ग तो केवळ जीवमय छे’ एम कह्युं छे. त्रिकाळी शुद्धद्रव्यना आश्रये जे निर्मळ रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गना परिणाम प्रगट थाय ते जीवमय अने शुभ छे अने शुभाशुभ भाव अने तेनाथी थतो बंध पुद्गलमय अने अशुभ छे.
‘मोक्षमार्ग तो केवळ जीवना परिणाममय ज छे.’ शुं कीधुं आ? के जे भावे बंधन थाय ए जीवना परिणाम नहि, अर्थात् शुभाशुभ भाव ते अजीव, अज्ञानमय, पुद्गलमय छे. केवळ एक शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आत्माना आश्रये प्रगट थयेलां निर्मळ श्रद्धा-ज्ञान-रमणता ज जीवना परिणाम छे, अने ते ज शुभ एटले के भला छे. बाकी शुभाशुभ परिणाम बधा अशुभ एटले बुरा छे.
अरे! नरक अने निगोदना भवमां जीव केटलो दुःखी थतो होय छे? अने हमणां पण ते केटलो दुःखी छे? आ बधा राजाओ, अने करोडपति के अबजोपति शेठियाओ बधा भिखारी विचारा दुःखी छे; केमके तेमने अंतरनी निजनिधि-स्वरूप-लक्ष्मीनी खबर नथी. अरेरे! सुख माटे बिचारा तृष्णावंत थई बहार झावां नाखे छे!
मृगनी नाभिमां कस्तूरी होय छे. पवनना झकोरे तेनी गंध प्रसरतां तेने गंध आवे छे. पोतानी नाभिमां कस्तूरी होवा छतां जाणे कस्तूरीनी गंध कयांय बहारथी आवे छे एम जाणी ते बहार गोतवा दोडादोड करी मूके छे अने थाकीने खेदखिन्न थाय छे. तेम भगवान आत्मा अंदर आनंदनुं परम निधान आनंदधाम छे. पण खबर नथी बिचाराने एटले पैसामांथी, बायडीमांथी, राज्यमांथी, विषयभोगमांथी जाणे आनंद आवे छे एम मानी अहींतहीं बहार गोते छे अने खेदखिन्न थाय छे. आम पोतानुं परमनिधान छोडी जेओ बहारमां सुख माटे झावां नाखे छे तेओ मृगला जेवा मूढ छे. श्लोकमां आवे छे ने के-मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति’ तेओ मनुष्यना वेशमां खरेखर मृग जेवा मूढ छे.
अहीं कहे छे के मोक्षनो मार्ग केवळ जीवना परिणाममय ज छे. मतलब के शुभाशुभ भाव जीवना परिणाम नथी एटले के पुद्गलना परिणाम छे; तेथी कर्मनो आश्रय केवळ बंधमार्ग ज छे. गंभीर वात छे भाई!
जे निर्मळ रत्नत्रयने अहीं जीवना परिणाम कह्या तेने नियमसारमां परद्रव्य कह्युं छे. त्यां ए बीजी अपेक्षाथी वात छे. जेम परद्रव्यमांथी जीवनी नवी पर्याय आवती नथी तेम मोक्षमार्गनी पर्यायमांथी नवी पर्याय आवती नथी. नवी पर्याय आववानो भंडार तो त्रिकाळी द्रव्य छे. त्यां द्रव्यनो आश्रय कराववाना प्रयोजनथी त्रिकाळ द्रव्यने स्वद्रव्य कह्युं अने निश्चय मोक्षमार्गना परिणामने परद्रव्य कह्युं.
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अहीं आ (मोक्षमार्गना) परिणामने जीवना कह्या अने शुभाशुभ भावने पुद्गलमां नाख्या.
वळी तत्त्वार्थसूत्रमां अध्याय बेना प्रथम सूत्रमां शुभाशुभ भावने जीवतत्त्व कह्युं छे. पांचेय भावने जीवतत्त्व कह्युं छे. त्यां अपेक्षा एम छे के शुभाशुभ भाव जीवनी पर्यायमां थाय छे माटे एने जीवतत्त्व कह्युं छे. ए पर्यायनयनो-व्यवहारनयनो ग्रंथ छे ने! तेमां व्यवहारनयनथी शुभाशुभ भावने जीवना कह्या छे. ज्यारे अहीं रागद्वेषना जे शुभाशुभ परिणाम ते अज्ञानमय होवाथी जीवना परिणाम नथी अने तेथी निश्चयथी पुद्गलना परिणाममय छे एम कह्युं छे.
जुओ, आचार्यश्री कुंदकुंददेव आचार्यश्री उमास्वामीना गुरु हता. गुरु (कुंदकुंदाचार्य) शुभाशुभ भावने पुद्गलना कहे अने शिष्य (उमास्वामी) तेने जीवतत्त्व कहे! आवडो मोटो फेर! भाई! एमां विरोध तो कांई नथी. गुरुनुं कथन निश्चयनयना आश्रये छे अने शिष्यनुं कथन व्यवहारनयथी छे. जिनवाणीमां ज्यां जे नयविवक्षाथी कथन कर्युं होय तेने ते प्रमाणे यथार्थ समजवुं जोईए.
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ एवुं जे सूत्र छे ते पर्यायार्थिकनयनुं कथन छे, निश्चयनयनुं नहि. निश्चयथी तो त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनो जे आश्रय एक ज मोक्षमार्ग छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना परिणाम जेने अहीं जीवना परिणाम कह्या ते भेदरूप पर्यायार्थिकनयनुं कथन छे. प्रवचनसार गाथा २४२ मां आवे छे के-‘‘ते भेदात्मक होवाथी ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग छे’ एम पर्यायप्रधान व्यवहारनयथी तेनुं प्रज्ञापन छे; ते (मोक्षमार्ग) अभेदात्मक होवाथी ‘एकाग्रता मोक्षमार्ग छे’ एम द्रव्यप्रधान निश्चयनयथी तेनुं प्रज्ञापन छे.’’
समयसार कळशटीका, कळश १६ मां कह्युं छे के-निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रना जे निर्मळ परिणाम छे ए भेद छे, पर्याय छे माटे मेचक छे, मलिन छे अने तेथी व्यवहार छे; अने अभेदथी जे आत्मा एकस्वरूप छे ते अमेचक छे, निर्मळ छे. भाई! शैली तो जुओ! कयां केम कह्युं छे एनी खबर विना एकान्त खेंची जाय ए चाले नहि. कळश-टीकाकारे मोक्षमार्गना परिणामने भेद पडतो होवाथी मेचक कह्या अने सम्यग्ज्ञान दीपिकामां श्री धर्मदास क्षुल्लकजीए एने अशुद्ध कह्या छे. मोक्षना परिणाम ए भेद छे, मेचक छे, माटे अशुद्ध छे.
अहीं कहे छे-मोक्षमार्ग तो केवळ जीवना परिणाममय ज छे. आ अभेदथी वात करी छे. अने बंधमार्ग केवळ पुद्गलना परिणाममय ज छे. मतलब के कर्म एक बंधमार्गना आश्रये ज छे, मोक्षमार्गमां थतुं नथी; माटे कर्म एक ज छे.
‘आ प्रमाणे कर्मना शुभाशुभ भेदना पक्षने गौण करी तेनो निषेध कर्यो.’
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गजबनी भाषा छे ने! ‘‘गौण करीने’’ एम कह्युं, मतलब के भेद छे खरो, पण एकला अभेदनी द्रष्टि कराववा भेदने गौण करीने कह्युं छे. भेदनुं ज्ञान करवा माटे तो भेद छे, परंतु तेनो निषेध कर्यो, कारण के अहीं अभेदपक्ष प्रधान छे. द्रष्टिना विषयमां पुण्य-पापनो पक्ष छे ज नहि. माटे अभेद पक्षथी जोवामां आवे तो कर्म एक ज छे-बे नथी. आ प्रमाणे भेदनो निषेध करीने स्वभावनो आश्रय कराव्यो छे एम यथार्थ समजवुं.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
जुओ, अत्यारे केटलाक पंडितोने मोटो वांधो छे, अने तेओ कहे छे के-आ व्रत, तप, भक्ति, पूजा आदि व्यवहाररूप शुभ आचरण छे तेनाथी शुद्धता प्रगट थशे. अशुभभावथी शुद्धता न थाय पण शुभभावना काळे शुभभावथी शुद्धता थाय छे.
आनो आ कळशमां अति स्पष्ट खुलासो छे. अशुभभावथी शुद्धता न थाय ए तो यथार्थ ज छे, पण शुभभावना काळमां शुभभावथी शुद्धता थाय एवो तारो मत यथार्थ नथी भाई! केमके शुभभाव पण अशुभनी जेम अशुद्ध ज छे.
त्यारे ते कहे छे-सम्यग्दर्शननो निर्विकल्प अनुभव थवा पहेलां छेल्ले शुभभाव ज होय छे ने!
भाई! ए शुभभावनो अभाव थईने निर्विकल्प अनुभव थाय छे, कांई शुभरागथी निर्विकल्प अनुभव थाय छे एम नथी. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यस्वभावनो आश्रय करवाथी निर्विकल्प अनुभव थाय छे. शुभभाव छे ए तो विभावस्वभाव जडस्वभाव छे, ए कांई चैतन्यस्वभाव नथी. समजाणुं कांई...!
अहीं कहे छे-‘हेतु–स्वभाव–अनुभव–आश्रयाणां’ हेतु, स्वभाव, अनुभव अने आश्रय- ए चारनो अर्थात् ए चार प्रकारे ‘सदा अपि’ सदाय ‘अभेदात्’ अभेद होवाथी ‘न हि कर्मभेदः’ कर्ममां निश्चयथी भेद नथी.
शुं कहे छे! पुण्य-पापना परिणाम जेओ बंधनना हेतु छे ते एक ज प्रकारना छे. बंधनमां शुभपरिणाम निमित्त हो के अशुभपरिणाम निमित्त हो-बेय एक ज प्रकारना अज्ञानमय अने अशुद्ध छे. तारो (-अज्ञानीनो) जे एम मत छे के शुभपरिणाम पुण्यबंधमां निमित्त छे अने अशुभपरिणाम पापबंधमां निमित्त छे तेथी बे परिणाममां फेर छे ए यथार्थ नथी. अहीं कहे छे के बेमां कोई फरक नथी केमके बन्नेय अज्ञानमय छे, अशुद्धरूप छे अने बंधना कारण छे.
अरे भाई! शुभभाव जो वस्तुनो (-आत्मानो) स्वभाव होय तो ते सम्यग्दर्शन पामवामां मददरूप थाय, पण शुभ के अशुभ बेमांथी एकेय चैतन्यना स्वभावरूप नथी
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पण विभाव ज छे. तेथी ते सम्यग्दनरूप निर्मळ स्वभावपरिणतिनुं साधन केम थाय? (न ज थाय). स्वभावनुं साधन स्वभाव थाय पण विभाव एनुं साधन कदी न थाय.
प्रश्नः– तो पंचास्तिकायमां भिन्न साध्यसाधनभाव कह्यां छे ने?
समाधानः– हा, त्यां (-पंचास्तिकायमां) व्यवहारनयथी एम कह्युं छे. भिन्न साधननुं त्यां आरोपथी कथन करेलुं छे; एटले के निश्चय निज शुद्ध आत्मतत्त्वनी जेने द्रष्टि अने अनुभव थयेलां छे तेने (सहकारी) शुभभाव कई जातनो होय छे तेनुं ज्ञान कराववा राग उपर आरोप आपीने कथन कर्युं छे. अहा! शास्त्रोना अर्थ समजवा भारे कठण छे भाई!
जेमके-निश्चय सम्यग्दर्शनना काळमां जे देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धानो राग छे तेने समकित कह्युं छे; छे तो ए राग पण व्यवहारथी एने समकित कह्युं छे. खरेखर शुं ए (-शुभराग) समकितनी पर्याय छे? ना; ए तो चारित्रगुणनी दोषरूप पर्याय छे, उलटी पर्याय छे, पण सहचर देखीने उपचारथी तेने समकित कह्युं छे. ए प्रमाणे पंचमहाव्रतना परिणाम छे तो राग, तोपण तेने चारित्र-मोक्षमार्ग कह्यो. हवे ए चारित्र तो नथी, परंतु शुद्धोपयोगरूप वीतराग निर्विकार चारित्रनो सहचर-निमित्त देखीने तेमां उपचारथी मोक्षमार्गनो आरोप कर्यो छे. हवे आ रीते भाव यथास्थिति न पकडे अने एकला शब्दोने पकडे तो तेने बधेय (समग्र जिनवाणीमां) वांधा ऊठे. पण शुं थाय? जे विवक्षाथी वात होय ते यथार्थपणे समजवी जोईए.
अहीं कहे छे-बापु! शुभ अने अशुभ भाव बन्नेय बंधनना हेतु-कारणरूप अशुद्धभाव छे. बन्ने स्वभावथी विमुखताना भाव छे. भाई! स्वभावसन्मुखताना भाव तो शुद्ध चैतन्यमय होय छे. अने आ बन्ने भाव चैतन्यथी रहित अज्ञानमय भाव छे माटे बन्ने भेदरहित एक ज जातना छे.
प्रश्नः– व्यवहार होय छे तो खरो?
उत्तरः– भूमिका अनुसार व्यवहार होय छे एनी कोण ना कहे छे? परंतु ए व्यवहारथी-शुभरागथी समकित के निश्चयधर्म प्रगट थाय छे ए वात यथार्थ नथी एम वात छे. निमित्त हो भले; पण निमित्तथी (अन्य चीजथी) कार्य नीपजे छे ए वात तद्न खोटी छे.
जुओ, निमित्तने सिद्ध करवा शास्त्रमां एम पण आवे छे के-काळद्रव्य न होय तो जीवादि सर्वद्रव्योमां परिणमन नहि थाय अने तो कोई द्रव्य रहेशे नहि. आ काळद्रव्यनी (-निमित्तनी) सिद्धि करवा माटेनुं कथन छे. आमां जीवादि द्रव्यो पोताना
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परिणमन माटे काळद्रव्यनी अपेक्षा राखे छे एम सिद्ध नथी करवुं, पण काळद्रव्यनी अस्ति छे एम सिद्ध करवुं छे. भाई! परिणमन तो प्रत्येक द्रव्यनो स्वतःसिद्ध स्वभाव छे. शुं कोई द्रव्य कदीय परिणमनथी खाली होय छे? परिणमननी धारा तो प्रत्येक द्रव्यमां प्रतिसमय प्रवर्तती अनादिथी स्वतः चाले छे अने अनंतकाळ सुधी चालशे. काळद्रव्य छे तो सर्वद्रव्यमां परिणमन थाय छे एम छे ज नहि. बीजी चीज (-काळद्रव्य) निमित्त छे बस एटलुं ज; निमित्तथी अन्यद्रव्यमां कार्य (-परिणमन) थाय छे एम छे नहि. आम जेम छे तेम वस्तुनुं स्वरूप यथार्थ जाणवुं जोईए.
प्रश्नः– कोई कोई कार्य निमित्तथी थाय एम मानीए तो शुं वांधो?
उत्तरः– भाई! निमित्तथी कोई पण कार्य त्रणकाळमां न थाय. पंचास्तिकाय गाथा ६२ मां पाठ छे के-एक समयना विकारना परिणाममां पर्याय पोते ज कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान अने अधिकरण एम षट्कारकरूपे परिणमे छे. एने अन्य कारकोनी अपेक्षा नथी. त्यां पर्यायनुं स्वतंत्र परनिरपेक्ष अस्तित्व सिद्ध कर्युं छे. अहाहा...! पर्यायनुं अस्तित्व एनामां एनाथी स्वतंत्र छे, कोई परने लईने तेनुं अस्तित्व नथी. हवे परना लक्षे थतुं जे विकारी परिणमन तेने ज्यां परनी (अन्य कारकोनी) अपेक्षा नथी तो स्वना लक्षे थता सम्यग्दर्शन आदि निर्विकार परिणमनने परनी (-रागनी, निमित्तनी) अपेक्षा केम होय? (न ज होय). भाई! सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी निर्मळ पर्याय पोताना षट्कारकना परिणमनथी स्वतःसिद्ध पोतानी जन्मक्षणे, पोताना उत्पत्तिकाळमां उत्पन्न थाय छे. आवुं ज सहज वस्तु स्वरूप छे.
वळी कर्ता-कर्म अधिकारमां सम्यग्दर्शननी वात ले त्यारे एम आवे के आत्मा कर्ता अने सम्यग्दर्शनना निर्विकार परिणाम तेनुं कर्म छे. सम्यग्दर्शनना विषय परिपूर्ण अखंड एक शुद्ध आत्मद्रव्य छे ने! शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आत्माना आश्रये जे सम्यग्दर्शन आदि धर्मना परिणाम प्रगट थाय तेनो कर्ता आत्मा छे अने ते धर्मरूप निर्मळ कार्य आत्मानुं कर्म छे. तथा जे अशुद्धता छे ते कर्मकृत पुद्गलना परिणाम छे. गाथा ७प-७६ मां अशुद्धतानुं निमित्त जे कर्म (-पुद्गल) ते अशुद्धतानो कर्ता अने अशुद्धता तेनुं कार्य छे एम लीधुं छे. विकार आत्मानी अने आत्माना आश्रये थती चीज नथी ने; तेथी कर्म व्यापक अने विकारी पर्याय कर्मनुं व्याप्य छे एम त्यां लीधुं छे. समजाणुं कांई...?
जुओ, पंचास्तिकाय, गाथा ६२मां विकारना षट्कारक स्वतः पोताना पोतामां छे एम कह्युं त्यां अस्तिकाय सिद्ध कर्युं छे.
तथा समयसार गाथा ७प-७६ मां एम कह्युं के जेनी द्रष्टि त्रिकाळी द्रव्य उपर पडी छे एवा ज्ञानीने द्रव्यस्वभाव व्यापक थईने स्वभावपर्यायने व्याप्यपणे करे छे.
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अहाहा...! वस्तु जे सदा चिदानंदनस्वरूप छे ते पोते व्यापक थईने-प्रसरीने-फेलाईने शुद्धतानी अवस्थाने व्याप्यपणे प्राप्त करे छे.
तथा विकारना जे परिणाम छे ते शुद्ध आत्मद्रव्यनुं व्याप्यकर्म नथी तेथी पुद्गलकर्म जेनुं निमित्त छे एवा ते विकारना परिणाम पुद्गलकर्मनुं व्याप्य कर्म छे अने पुद्गलकर्म तेनो कर्ता छे एम त्यां कह्युं छे. अहो! वीतरागनो मार्ग बहु सूक्ष्म छे, भाई! ज्यां जे विवक्षा होय ते यथार्थ समजवी जोईए.
आवी वात-हवे एमां माणस आटले ऊंडे पहोंचे नहि एटले पछी शुं करे? तेओ बिचारा दुःखी छे; दुःख टाळीने सुख इच्छे छे, सुखने माटे मंथन पण करे छे, पण एमने बिचाराने अंदर घेड बेसती नथी. परिचय नथी ने! तेथी सम्यक् पद्धति-रीत ख्यालमां आवती नथी. तेथी विपरीत मान्यतावश विरोध करे छे. पण शुं थाय? ते पण आत्मा छे ने? तेमनो अनादर के तिरस्कार न होय. तेओ करुणाने ज योग्य छे. श्रीमदे आत्मसिद्धिमां कह्युं छे ने के-
अरे! आ तुं शुं करे छे, भगवान! भाई! तने वर्तमानमां ठीक लागे छे पण ‘शुभभावथी समकित थाय’-एवी विपरीत श्रद्धा वर्तमान दुःखरूप छे अने एना फळ तरीके दुःखनी पंरपरा भविष्यमां धारावाही चालशे भाई! एमां तुं पीडाई जईश बापा! त्यारे तने कोई शरण नहि होय भाई!
अहीं आचार्य महाराज फरमावे छे के-शुभ अने अशुभ बेय परिणाम अशुद्ध छे अने बेय बंधनना हेतु-कारण छे तेथी बन्ने एक ज जातना छे; बन्नेमां कोई भेद नथी.
वळी पुद्गलकर्ममां कोई शातापणे अने कोई अशातापणे बंधाय पण ए छे तो पुद्गलनो स्वभाव. एमां भेद कयांथी आव्यो?
त्यारे कोई कहे छे-पण जे तीर्थंकर प्रकृति बंधाय छे एने श्री जयसेन आचार्यनी टीकामां परंपरा मोक्षनुं कारण कह्युं छे.
हा, पण भाई! एनो अर्थ शुं? एनो अर्थ तो एम छे के जे शुभभावथी तीर्थंकर प्रकृति बंधाई ए शुभभावनो नाश करशे त्यारे ते प्रकृतिनो उदय आवशे. तेरमे गुणस्थाने केवळज्ञान थशे त्यारे तीर्थंकर प्रकृतिनो उदय आवशे. हवे ए प्रकृतिना उदये आत्मानुं शुं कर्युं? कांई ज नहि. आवी झीणी वात छे, भाई!
आ बधी बहारनी अनुकूळतामां-रूपाळुं शरीर, बाग-बंगला, धन-संपत्ति, ईज्जत- आबरू इत्यादिमां मने ठीक छे एम तुं अंदरमा माने छे पण भाई! ए तो
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बधा भूतावळना भडका छे. तने खबर नथी पण बापु! ए सर्व परचीज छे. अनुभवप्रकाशमां कह्युं छे के-श्रद्धा-गुण केम विपरीत थयो? तो कहे छे के जेटली परचीज छे ते सर्वने पोतानी मानी-मानीने, जोके श्रद्धा-गुण तो निर्मळ छे तोपण, एनी परिणति विपरीत करी नाखी छे. अहा! शुभथी मने लाभ थाय, शुभनां फळ मने ठीक पडे, परवस्तु मने मदद करे अने परने हुं मदद करुं इत्यादि अनेक प्रकारे पोताने पररूपे अने परने पोतारूपे मान्युं छे. विश्वमां अनंत चीजो छे. एक-एक अनुकूळ चीजमां सुखबुद्धि अने प्रतिकूळ चीजमां दुःखबुद्धि करीने परचीजमां एणे पोतापणुं मान्युं छे, अने आ प्रमाणे परचीजमां ज पोतानुं श्रद्धान रोकी राख्युं छे.
परंतु भाई! ए सर्व परचीज छे ए तो मात्र ज्ञेय छे. परचीजमां अनुकूळ-प्रतिकूळ एवो भेद कयां छे? चाहे तो समोसरण होय के सातमुं नरक होय-ए बधुं ज्ञाननुं ज्ञेय छे, एक ज प्रकार छे.
जेम पाणीनो प्रवाह एकरूपे चालतो होय अने वचमां नाळां आवे तो खंड पडी जाय, पण पाणी तो एकरूपे ज छे-तेम भगवान आत्मानुं ज्ञान अनंत ज्ञेयोने जाणतुं थकुं एकरूप ज छे. पण नाळारूप भेदनी माफक अनुकूळतामां ठीक अने प्रतिकूळतामां अठीक एम जाणेला ज्ञेयमां भेद पाडे छे ते मिथ्यात्वभाव छे. पर चीजो तो एक ज प्रकारे ज्ञेय छे. तेमां अनुकूळ- प्रतिकूळ एम भेद पाडवा ए मिथ्या कल्पना छे, अज्ञान छे.
तेम कर्मप्रकृति शाता बंधाई के अशाता, यशकीर्ति बंधाई के अपयशकीर्ति, उंच आयुष्यनी बंधाई के नीच आयुष्यनी-ए बधीय कर्मप्रकृति पुद्गलना ज परिणाम होवाथी पुद्गलमय ज छे. जेम शुभ-अशुभभावमां भेद नथी तेम एक पुद्गलस्वभावमय कर्मप्रकृतिमां भेद नथी, एक ज प्रकार छे.
वळी अज्ञानी जीव एम कहे छे के बे पुद्गलकर्मना फळना अनुभवमां एक शुभकर्मना फळमां स्वर्गनुं सुख मळे छे अने बीजा अशुभकर्मना फळमां नरकनुं दुःख मळे छे; माटे बेना अनुभवमां फेर छे. तेने अहीं कहे छे-बापु! बेय गतिमां दुःखनो ज अनुभव छे तेथी एना फळना अनुभवमां कोई फेर नथी.
भाई! चारेय गति पराधीन अने दुःखमय छे. स्वर्गनी गति पण पराधीन अने दुःखनी दशारूप ज छे. भाई! तें बहारना विषयोने सुख-दुःखरूप मान्या छे पण ए विषयो तो (सुखदुःख देवामां अकिंचित्कर छे. प्रवचनसारमां (गाथा ६७ मां) विषयोने अकिंचित्कर कह्या छे. आ शरीरनी रूपाळी सुंवाळी चामडी भोगना काळमां आम जरी ठीक लागे पण बापु! ए तने सुख उपजाववा अकिंचित्कर छे, असमर्थ छे. तारी खोटी मान्यताए घर घाल्युं छे पण भाई! ए मान्यता बहु आकरी पडशे.
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पांचे इन्द्रियना विषयो निमित्त छे, पण तेओ सुख-दुःख उपजाववामां अकिंचित्कर छे. आ निंदा-प्रशंसाना शब्दो, सुगंध-दुर्गंध, रूप-कुरूप, माठो अने सुंवाळो स्पर्श इत्यादि विषयो बधाय आत्माने राग उपजाववा माटे अकिंचित्कर छे. जुओ, आ निमित्तने उडावी दीधुं. एटले निमित्त हो भले, पण ए तने अनुकूळता वखते राग उपजावे छे अने प्रतिकूळता वखते द्वेष उपजावे छे एम नथी. जे ते वखते विकारनुं परिणमन पोताना षट्कारकथी थाय छे. हवे एमां कर्मना कारकोनी अपेक्षा नथी तो पछी आ बहारनी सामग्री जे निमित्तरूप छे तेनी अपेक्षा केम होय? (न ज होय).
तेथी अहीं कहे छे के कर्मना फळमां फेर नथी. तने स्वर्ग अने नरकना संजोगमां फेर लागे छे पण ए बन्नेय संसाररूप दुःखनी ज दशा छे.
प्रश्नः– तो नरकनो भय तो लागे छे?
उत्तरः– हा, नरकनो भय शाथी लागे छे? के नरक प्रतिकूळ अने दुःखमय छे अने स्वर्ग अनुकूळ अने सुखमय छे एवी तारी मान्यताने लीधे नरकनो भय लागे छे. पण भाई! ए मान्यता खोटी छे. योगसागर दोहा प मां तो एम कह्युं छे के-
एटले चारेय गति दुःखरूप छे एम त्यां कह्युं छे. एकलो नरकनो भव भयकारी- दुःखकारी छे एम नथी कह्युं. तने एकला नरकनो भय छे केमके तने नरकथी द्वेष छे; तथा तुं स्वर्ग चाहे छे केमके तने स्वर्गथी राग छे. आवा राग-द्वेष थवा एनुं ज नाम संसार छे. वळी त्यां दोहा ३ मां आचार्य योगीन्द्रदेव कहे छे के-जेओ भवथी भयभीत छे अने मोक्षना इच्छुक छे तेमना चित्तनी शुद्धि माटे हुं आ मार्ग कहुं छुं. भाई! भवमात्र (चाहे स्वर्गनो हो तोपण) इच्छवा योग्य नथी. समजाणुं कांई...! माटे अहीं कहे छे के कर्मना फळना अनुभवमां फेर नथी.
हवे चोथो आश्रयनो बोलः-अज्ञानीनो आ पक्ष छे के मोक्षमार्गमां शुभ आवे छे, बंधमार्गमां नहि. जुओ, मोक्षमार्गना आश्रये तीर्थंकर प्रकृति बंधाय, आहारक शरीर बंधाय, सर्वार्थसिद्धिनुं आयुष्य बंधाय इत्यादि. आ बधुं समकितीने मोक्षमार्गमां संभवे छे पण मिथ्याद्रष्टिने होतुं नथी. जुओ, आ अज्ञानीनो पक्ष छे के मोक्षमार्गने लईने शुभभाव छे, अज्ञानीने ते होतो नथी. माटे शुभाशुभकर्ममां भेद छे.
तेने कहे छे-भाई! शुभ अने अशुभ कर्म बन्ने बंधमार्गना ज आश्रये छे, बन्ने बंधपद्धतिरूप छे. एकेय मोक्षमार्गरूप नथी माटे शुभ मोक्षमार्गना आश्रये नथी. गंभीर वात छे प्रभु! पण शुं थाय? माणसने जे वात कोठे पडी गई होय अने ते-रूपे जाणे आत्मा थई गयो होय एवी मान्यता द्रढ थई गई होई एटले एने एमांथी खसवुं केम गोठे? शुभभावथी मोक्षमार्ग छे एवी द्रढ मान्यतावाळाने ‘हुं आत्मा छुं’ अने निज स्वभावना आश्रये मोक्षमार्ग छे एम फेरववुं केम गोठे?
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अहीं कहे छे-हेतु, स्वभाव, अनुभव अने आश्रय ए चारनो अर्थात् चारे प्रकारे सदाय अभेद होवाथी कर्ममां निश्चयथी भेद नथी.
अरे! अज्ञानी जीव पोतानुं जे शुद्ध अंतःतत्त्व छे तेने जोवानी नवराश लेतो नथी. अनादिथी एणे स्वने जोवामां प्रमादी थईने परने ज जोवानो मिथ्या पुरुषार्थ कर्यो छे. पण भाई! ए परने जाणनार तुं पोते आत्मा छो के नहि? परने जाणुं एम तुं कहे छे पण ए जाणनारो कोण छे? ए ज तुं छो. परने जाण्युं. जाण्युं एम जे कहेवुं छे ए तो बीजी अपेक्षा थई गई. (व्यवहार थई गयो). आ स्त्री जोई, पुत्र जोयो, दुकान जोई, आ जोयुं, ते जोयुं- एम कहेवुं ए असद्भूत व्यवहारनय छे अने जोवामां जे भेद पाडयो ए मिथ्यात्व छे.
जुओ, प० स्त्रीओ ऊभी होय एमांथी कहे के आ मारी स्त्री, भाई! ए कयांथी आव्युं? प० छोकरा हारबंध ऊभा होय ए तो बधा मात्र ज्ञेय छे, पण एमांथी आ दसमा नंबरे छे ते मारो एम कयांथी आव्युं? भाई! ए ज तो भ्रमणा छे. एक हारमां प० दुकान होय. ए पचासने य जाणवानो आत्मानो स्वभाव छे तेथी जाणे छे; पण आ दुकान आनी अने आ मारी एम भेद कयांथी पाडयो? भाई! ए एकत्वबुद्धिए भेद पाडयो छे. आ प्रमाणे अज्ञानी जीव परमां मारापणानुं परिणमन करीने मिथ्यात्वने सेवे छे. ज्ञानीने तो आखुंय जगत मात्र ज्ञेय छे, पोताना चैतन्यघनस्वरूप आत्मा सिवाय कयांय एने मारापणानी एकत्वबुद्धि नथी.
अहाहा...! अशुभभाव जेम बंधना आश्रये छे तेम शुभभाव पण बंधना ज आश्रये छे. अशुभ छे माटे बंधना आश्रये छे अने शुभ छे माटे मोक्षमार्गना आश्रये छे एम छे नहि. ए ज कहे छे-
‘तद् समस्तं स्वयं’ माटे समस्त कर्म पोते ‘खलु’ निश्चयथी ‘बन्धमार्ग–आश्रितम्’ बन्धमार्गने आश्रित होवाथी अने ‘बन्ध हेतुः’ बंधनुं कारण होवाथी, ‘एकम् इष्टम्’ कर्म एक ज मानवामां आव्युं छे-एक ज मानवुं योग्य छे.
अहीं ‘बंधमार्गने आश्रित’नो अर्थ ए छे के ए शुभाशुभभावो पोते बंधरूप छे. समजाणुं कांई...? आगळ कहेशे के जे मुक्तस्वरूप होय ए ज मुक्तनुं कारण थाय. जे बंधरूप होय ते मोक्षनुं कारण केम थाय? (न थाय). अहाहा...! सदाय मुक्तस्वभाव तो एक भगवान आत्मा छे अने ते ज मुक्तिनुं कारण छे. आवी वात छे.
श्रीमद् राजचंद्रे कह्युं छे ने के-दिगंबरना आचार्योए एम मान्युं छे के जीवनो मोक्ष थतो नथी पण मोक्ष जणाय छे अर्थात् समजाय छे के आत्मा मोक्षस्वरूप ज छे. एणे अज्ञानवश एम मान्युं छे के हुं रागना बंधनमां छुं पण पोते जे
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सदाय ज्ञायक छे ते रागरूपे कयां थयो छे? भले ए रागनी साथे एकत्व माने पण भगवान ज्ञायक छे ते रागथी एकत्वपणे थयो नथी. प्रवचनसार, गाथा २००नी टीकामां आवे छे के- ‘‘जे (शुद्ध आत्मा) सहज अनंतशक्तिवाळा ज्ञानस्वभाव वडे एकरूपताने छोडतो नथी, जे अनादि संसारथी आ ज स्थितिए (ज्ञायकभावपणे ज) रह्यो छे अने जे मोह वडे अन्यथा अध्यवसित थाय छे, ते शुद्ध आत्माने, आ हुं मोहने उखेडी नाखीने, अति निष्कंप रहेतो थको, यथास्थित ज (जेवो छे तेवो ज) प्राप्त करुं छुं.’’
जुओ, ज्ञायक तो ज्ञायक ज रह्यो छे; पण एनी मान्यताए फेर पाडयो छे के-आ राग मारो ने आ राग तारो, आ चीज मारी अने आ तारी, आ कर्म भलुं अने आ बुरुं. आ मान्यता ज भ्रान्ति छे.
अरे भाई! ज्ञायक तो सदा ज्ञायक ज छे. ए बंधनमां केम आवे? अने एने वळी मुक्ति केवी? वस्तुमां-द्रव्यमां बंधन अने मुक्ति कयां छे? द्रव्यसंग्रहमां आवे छे के-बंधायेलाने छूटवुं कहेवुं ए तो ठीक छे पण जे बंधायेलो नथी एने छूटवुं कहेवुं ए तो जूठ छे. जे सदा मुक्तस्वरूप ज छे तेमां नजर स्थिर करतां ते मुक्त जणाय छे; बस आ ज मोक्ष छे-समजाणुं कांई...?
अहीं कहे छे-कर्म एक ज मानवामां आव्युं छे अर्थात् एक ज मानवुं योग्य छे. ल्यो, कळश पूरो थयो.