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क्रम गाथा / कळश प्रवचन नंबर पृष्ठांक प१ गाथा १८४-१८प २पप थी २प७ ३९४ प२ गाथा-१८६ २प७ ४०प प३ कळश-१२७ ’’ ४०६ प४ गाथा १८७ थी १८९ २प८ ४१४ पप कळश-१२८ ’’ ४१६ प६ गाथा १९० थी १९२ २प९ थी २६३ ४२२ प७ कळश १२९ थी १३० ’’ ४२४ प८ कळश १३१ थी १३२ ’’ ४२प
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अथैकमेव कर्म द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति–
द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन्।
ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं
स्वयमुदेत्यवबोधसुधापॢवः।। १०० ।।
शुद्धात्मा जेणे लह्यो, नमुं चरण हित जाणी.
प्रथम टीकाकार कहे छे के ‘हवे एक ज कर्म बे पात्ररूप थईने पुण्य-पापरूपे प्रवेश करे छे.’
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दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव।
द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः
शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण।। १०१ ।।
जेम नृत्यना अखाडामां एक ज पुरुष पोताने बे रूपे बतावी नाचतो होय तेने यथार्थ जाणनार ओळखी ले छे अने एक ज जाणे छे, तेवी रीते जोके कर्म एक ज छे तोपण पुण्य- पापना भेदे बे प्रकारनां रूप करी नाचे छे तेने, सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान के जे यथार्थ छे ते एकरूप जाणी ले छे. ते ज्ञानना महिमानुं काव्य आ अधिकारनी शरूआतमां टीकाकार आचार्य कहे छेः-
गाथार्थः– [अथ] हवे (कर्ताकर्म अधिकार पछी), [शुभ–अशुभ–भेदतः] शुभ अने अशुभना भेदने लीधे [द्वितयतां गतम् तत् कर्म] बे-पणाने पामेला ते कर्मने [ऐक्यम् उपानयन्] एकरूप करतो, [ग्लपित–निर्भर–मोहरजा] जेणे अत्यंत मोहरजने दूर करी छे एवो [अयं अवबोध–सुधाप्लवः] आ (प्रत्यक्ष-अनुभवगोचर) ज्ञान-सुधांशु (सम्यग्ज्ञानरूपी चंद्रमां) [स्वयम्] स्वयं [उदेति] उदय पामे छे.
भावार्थः– अज्ञानथी एक ज कर्म बे प्रकारनुं देखातुं हतुं तेने ज्ञाने एक प्रकारनुं बताव्युं. ज्ञानमां मोहरूपी रज लागी रही हती ते दूर करवामां आवी त्यारे यथार्थ ज्ञान थयुं; जेम चंद्रने वादळां तथा धुम्मसनुं पटल आडुं आवे त्यारे यथार्थ प्रकाश थतो नथी परंतु आवरण दूर थतां चंद्र यथार्थ प्रकाशे छे, तेवी रीते अहीं पण जाणवुं. १००.
हवे पुण्य-पापना स्वरूपना द्रष्टांतरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– (शूद्राणीना एकीसाथे जन्मेला बे पुत्रोमांथी एक ब्राह्मणने त्यां ऊछर्यो अने बीजो शूद्रना घेर ज रह्यो.) [एकः] एक तो [ब्राह्मणत्व–अभिमानात्] ‘हुं ब्राह्मण छुं’ एम ब्राह्मणत्वना अभिमानने लीधे [मदिरां] मदिराने [दूरात्] दूरथी ज [त्यजति] छोडे छे अर्थात् स्पर्शतो पण नथी; [अन्यः] बीजो [अहम् स्वयम् शूद्रः इति] ‘हुं पोते शूद्र छुं’ एम मानीने [तया एव] मदिराथी ज [नित्यं] नित्य [स्नाति] स्नान करे छे अर्थात् तेने पवित्र गणे छे. [एतौ द्वौ अपि] आ बन्ने पुत्रो [शूद्रिकायाः उदरात् युगपत् निर्गतौ] शूद्राणीना उदयथी एकीसाथे जन्म्या छे तेथी [साक्षात् शूद्रौ] (परमार्थे) बन्ने साक्षात् शूद्र छे, [अपि च]
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कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि।। १४५ ।।
कथं तद्भवति सुशीलं यत्संसारं प्रवेशयति।। १४५।।
तोपण [जातिभेद–भ्रमेण] जातिभेदना भ्रम सहित [चरतः] तेओ प्रवर्ते छे-आचरण करे छे. (आ प्रमाणे पुण्य-पापनुं पण जाणवुं.)
भावार्थः– पुण्य-पाप बन्ने विभावपरिणतिथी ऊपज्यां होवाथी बन्ने बंधरूप ज छे. व्यवहारद्रष्टिए भ्रमने लीधे तेमनी प्रवृत्ति जुदी जुदी भासवाथी, सारुं अने खराब-एम बे प्रकारे तेओ देखाय छे. परमार्थद्रष्टि तो तेमने एकरूप ज, बंधरूप ज, खराब ज जाणे छे. १०१.
हवे शुभाशुभ कर्मना स्वभावनुं वर्णन गाथामां करे छेः-
ते केम होय सुशील जे संसारमां दाखल करे? १४प.
गाथार्थः– [अशुभं कर्म] अशुभ कर्म [कुशीलं] कुशील छे (-खराब छे) [अपि च] अने [शुभकर्म] शुभ कर्म [सुशीलम्] सुशील छे (-सारुं छे) एम [जानीथ] तमे जाणो छो! [तत्] ते [सुशीलं] सुशील [कथं] केम [भवति] होय [यत्] के जे [संसारं] (जीवने) संसारमां [प्रवेशयति] प्रवेश करावे छे?
टीकाः– कोई कर्मने शुभ जीवपरिणाम निमित्त होवाथी अने कोई कर्मने अशुभ जीवपरिणाम निमित्त होवाथी कर्मना कारणमां भेद-तफावत छे (अर्थात् कारण जुदां जुदां छे); कोई कर्म शुभ पुद्गलपरिणाममय अने कोई कर्म अशुभ पुद्गलपरिणाममय होवाथी कर्मना स्वभावमां भेद छे; कोई कर्मनो शुभ फळरूपे अने कोई कर्मनो अशुभ फळरूपे विपाक थतो होवाथी कर्मना अनुभवमां (-स्वादमां) भेद छे; कोई कर्म शुभ (सारा) एवा मोक्षमार्गने आश्रित होवाथी अने कोई कर्म अशुभ (खराब) एवा बंधमार्गने आश्रित होवाथी कर्मना आश्रयमां भेद छे. माटे-जोके (परमार्थे) कर्म एक ज छे तोपण-केटलाकनो एवो पक्ष छे के कोई कर्म शुभ छे अने कोई कर्म अशुभ छे. परंतु ते (पक्ष) प्रतिपक्ष सहित छे. ते प्रतिपक्ष (अर्थात् व्यवहारपक्षनो निषेध करनार निश्चयपक्ष) आ प्रमाणे छेः-
शुभ के अशुभ जीवपरिणाम केवळ अज्ञानमय होवाथी एक छे; ते एक होवाथी कर्मना कारणमां भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे. शुभ के अशुभ पुदगल-
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परिणाम केवळ पुद्गलमय होवाथी एक छे; ते एक होवाथी कर्मना स्वभावमां भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे. शुभ के अशुभ फळरूपे थतो विपाक केवळ पुद्गलमय होवाथी एक छे; ते एक होवाथी कर्मना अनुभवमां (-स्वादमां) भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे. शुभ (सारो) एवो मोक्षमार्ग तो केवळ जीवमय होवाथी अने अशुभ (खराब) एवो बंधमार्ग तो केवळपुदगलमय होवाथी तेओ अनेक (-जुदां जुदां, बे) छे; तेओ अनेक होवा छतां कर्म तो केवळ पुद्गलमय एवा बंधमार्गने ज आश्रित होवाथी कर्मना आश्रयमां भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे.
भावार्थः– कोई कर्म तो अरहंतादिमां भक्ति-अनुराग, जीवो प्रत्ये अनुकंपाना परिणाम, मंद कषायथी चित्तनी उज्ज्वळता इत्यादि शुभ परिणामोना निमित्ते थाय छे अने कोई कर्म तीव्र क्रोधादिक अशुभ लेश्या, निर्दयपणुं, विषयासक्ति, देव-गुरु आदि पुज्य पुरुषो प्रत्ये विनयभावे न प्रवर्तवुं इत्यादि अशुभ परिणामोना निमित्तथी थाय छे; आम हेतुनो भेद होवाथी कर्मना शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे. शातावेदनीय, शुभ-आयु, शुभनाम अने शुभगोत्र-ए कर्मोना परिणाम (-प्रकृति वगेरे-) मां तथा चार घातिकर्मो, अशातावेदनीय, अशुभ-आयु, अशुभनाम, अशुभगोत्र-ए कर्मोना परिणाम (-प्रकृति वगेरेमां-) मां भेद छे; -आम स्वभावनो भेद होवाथी कर्मना शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे. कोई कर्मना फळनो अनुभव सुखरूप छे अने कोई कर्मना फळनो अनुभव दुःखरूप छे; आम अनुभवनो भेद होवाथी कर्मना शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे. कोई कर्म मोक्षमार्गनेआश्रित छे (अर्थात् मोक्षमार्गमां बंधाय छे) अने कोई कर्म बंधमार्गना आश्रये छे; आम आश्रयनो भेद होवाथी कर्मना शुभ अने अशुभ एवा बे भेद छे. आ प्रमाणे हेतु, स्वभाव, अनुभव अने आश्रय- ए चार प्रकारे कर्ममां भेद होवाथी कोई कर्म शुभ छे अने कोई अशुभ छे एम केटलाकनो पक्ष छे.
हवे ए भेदपक्षनो निषेध करवामां आवे छेः-जीवना शुभ अने अशुभ परिणाम बन्ने अज्ञानमय छे तेथी कर्मनो हेतु एक अज्ञान ज छे; माटे कर्म एक ज छे. शुभ अने अशुभ पुद्गलपरिणामो बन्ने पुद्गलमय ज छे तेथी कर्मनो स्वभाव एक पुद्गलपरिणामरूप ज छे; माटे कर्म एक ज छे. सुखरूप अने दुःखरूप अनुभव बन्ने पुद्गलमय ज छे तेथी कर्मनो अनुभव एक पुद्गलमय ज छे; माटे कर्म एक ज छे. मोक्षमार्ग अने बंधमार्गमां, मोक्षमार्ग तो केवळ जीवना परिणाममय ज छे अने बंधमार्ग केवळ पुद्गलना परिणाममय ज छे तेथी कर्मनो आश्रय केवळ बंधमार्ग ज छे (अर्थात् कर्म एक बंधमार्गना आश्रये ज थाय छे-मोक्षमार्गमां थता नथी); माटे कर्म एक ज छे.
आ प्रमाणे कर्मना शुभाशुभ भेदना पक्षने गौण करी तेनो निषेध कर्यो;
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सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः।
तद्बन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं
स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः।। १०२।।
कारण के अहीं अभेदपक्ष प्रधान छे, अने अभेदपक्षथी जोवामां आवेतो कर्म एक ज छे-बे नथी.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [हेतु–स्वभाव–अनुभव–आश्रयाणां] हेतु, स्वभाव, अनुभव अने आश्रय-ए चारनो (अर्थात् ए चार प्रकारे) [सदा अपि] सदाय [अभेदात्] अभेद होवाथी [न हि कर्मभेदः] कर्ममां निश्चयथी भेद नथी; [तद् समस्तं स्वयं] माटे समस्त कर्म पोते [खलु] निश्चयथी [बन्धमार्ग–आश्रितम्] बंधमार्गने आश्रित होवाथी अने [बन्धहेतुः] बंधनुं कारण होवाथी, [एकम् इष्टं] कर्म एक ज मानवामां आव्युं छे-एक ज मानवुं योग्य छे. १०र.
जुओ, श्री जयचंद पंडित आ दोहामां स्पष्ट कहे छे के पुण्य अने पाप बन्ने भावकर्म छे, अने ए बंधरूप छे. त्यारे केटलाक (पंडितो) अत्यारे एम कहे छे के ए तो पुण्य-पापरूप कर्मनी (पुद्गलकर्मनी) वात छे. एमां शुभाशुभ भावनी कयां वात करी छे? पुण्यकर्मनो (पुद्गलकर्मनो) निषेध कर्यो छे, एमां शुभभावनो निषेध कर्यो नथी-एवो अर्थ तेओ करे छे; पण ते बराबर नथी. आगळ टीकाकार आचार्य आनो चार बोलथी खुलासो करशे.
जुओ, अहीं कर्म शब्द पडयो छे ने! एनो अर्थ एम छे के पुण्य-पाप बन्ने कर्म एटले कार्य-परिणाम छे, अशुद्धता छे. ए भाव बंधरूप छे एम जाणी जेणे ए पुण्य-पापना (भाव) बंधने छेदीने अंदरमां शुद्धात्मा ग्रहण कर्यो-नमुं
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चरण हित जाणी-तेना चरणकमळमां मारुं हित जाणी नमस्कार करुं छुं -आम श्री जयचंदजीए मंगलाचरण कर्युं छे.
प्रथम टीकाकार कहे छे के-‘हवे एक ज कर्म बे पात्ररूप थईने पुण्य-पापरूपे प्रवेश करे छे.’
‘जेम नृत्यना अखाडामां एक ज पुरुष पोताने बे रूपे बतावी नाचतो होय तेने यथार्थ जाणनार ओळखी ले छे अने एक ज जाणे छे.’ शुं कह्युं? आ नाचवानो अखाडो होय छे ने! नाटक-नाटक, जेने लोको नाटक कहे छे तेमां एक ज पुरुष इन्द्रनो वेश ले अने वळी पछी भरथरीनो वेश पण लईने आवे. परंतु तेने जे यथार्थ ओळखे छे ते तो एने एक ज जाणे छे.
‘तेवी रीते जोके कर्म तो एक ज छे तोपण पुण्य-पापना भेदे बे प्रकारनां रूप करी नाचे छे तेने, सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान के जे यथार्थ छे ते एकरूप जाणी ले छे.’
जुओ, कर्म तो अनादिथी एक ज छे. पुण्य अने पाप कर्मपणे एक ज वस्तु छे. तोपण पुण्य-पापना भेदे बे प्रकारनुं रूप (पुण्यनुं रूप अने पापनुं रूप) लईने प्रगट थाय त्यारे अज्ञानी तेने (कर्मने) बे जुदा जुदा रूपे माने छे. पुण्य भलुं अने पाप बुरुं एम अज्ञानी जाणे छे. परंतु ज्ञानी समकिती जेनुं ज्ञान यथार्थ परिणम्युं छे ते बन्ने कर्म (पुण्य अने पाप) एक ज छे एम जाणी ले छे. अहाहा...! भला-बुराना भेदरहित सम्यक् ज्ञानी बन्ने एक ज छे एम जाणे छे केमके बन्नेमांथी एकेमांय आत्मा नथी. चाहे पुण्यभाव हो के चाहे पापभाव हो, बन्नेय भाव राग छे, एकेय वीतराग परिणाम नथी.
पुण्यना फळमां कोई पांच-पचास करोडनी संपत्तिनो स्वामी मोटो शेठ होय, के पापना फळमां कोई सो वार मागे तोय मांड एक कोळियो मळे एवो दरिद्री होय, बन्नेय सरखा छे, केमके बन्नेय भिखारी छे, बन्नेय मागण छे, दुःखी छे. एक, बीजा पासे आशा करतो दुःखी छे तो बीजो, पुण्यनी आशा धरतो दुःखी छे. अर्थात् एक अन्य पासे मागे छे के तुं मने दे तो बीजो पुण्यना परिणामथी मने सुख थाय एम मानी पुण्यनी आशा करे छे. (सुखी तो एकेय नथी). ज्यारे ज्ञानी तो कर्म अने कर्मना फळ बन्नेने एक ज जाणे छे.
जेम एकनो एक पुरुष पहेलां पींगळानो वेश लईने आवे अने पाछो ते फरी भरथरीनो वेश लईने आवे तेम एकनुं एक कर्म कोई वार पुण्यरूपे आवे अने वळी कोई वार पापरूपे (वेश लईने) आवे तेने सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान जे यथार्थ छे ते एकरूप जाणी ले छे. चाहे तो पुण्यना फळरूपे स्वर्गनो वेश होय के पापना फळरूपे नरकनो वेश होय, ज्ञानी बेयने एकसरखा माने छे. कह्युं छे ने के-
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अहाहा...! शुं कहे छे? सम्यग्द्रष्टि धर्मी जीव पुण्यना गमे तेवां ऊंचां फळोने पण कागडानी विष्टा समान तुच्छ माने छे. पोतानी चैतन्यनिधिनुं भान नथी तेथी लोकोने आकरुं लागे छे, पण शुं थाय? अहीं तो कहे छे बेय कर्म (पुण्य अने पाप) समान एक ज छे एम सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान यथार्थपणे जाणी ले छे. हवे-
ते ज्ञानना महिमानुं काव्य आ अधिकारनी शरूआतमां टीकाकार आचार्य कहे छेः-
‘अथ’-हवे एटले के कर्ता-कर्म अधिकार पछी, ‘शुभ–अशुभ–भेदतः’ शुभ अने अशुभना भेदने लीधे ‘द्वितयतां गतम् तत् कर्म’ बेपणाने पामेला ते कर्मने ‘ऐक्यम् उपानयन्’ एकरूप करतो-
शुं कहे छे आ? जे भाव वडे तीर्थंकर-नामकर्म बंधाय एवो शुभभाव हो के हिंसादिनो अशुभभाव हो, बन्ने भाव बंधनरूप छे एम जाणतो ज्ञानी बन्नेने एकरूप माने छे.
शुभ अने अशुभना भेदने लीधे बेपणाने पामेला कर्मने प्रमाणे एकरूप करते, ‘ग्लपित–निर्भर–मोहरजा’ जेणे अत्यंत मोहरजने दूर करी छे-अहीं मोहरज शब्द पडयो छे एनो अर्थ मोहनो भाव, मिथ्यात्वनो भाव-एम थाय छे. जेणे मिथ्यात्वनो भाव दूर कर्यो छे एम अर्थ छे. गाथा १६० मां ‘रज’ शब्दनो अर्थ कर्यो छे. त्यां गाथामां एम आवे छे के भगवान आत्मा स्वरूपथी तो सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी ज छे. अहाहा...! सर्वज्ञता अने सर्वदर्शिता ए आत्मानो सहज भाव छे, गुण छे, शक्ति छे, सामर्थ्य छे, स्वभाव छे. एम होवा छतां आत्मद्रव्य ‘कर्मरज’ वडे एटले के ‘पोताना पुरुषार्थना अपराधथी प्रवर्तता कर्ममळ वडे लेपायुं-व्याप्त थयुं होवाथी ज........’ आम ‘रज’ शब्दनो अर्थ त्यां पोताना पुरुषार्थनो अपराधरूप (मलिन) भाव कर्यो छे.
अज्ञानी जीव पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी अज्ञानपणाने उत्पन्न करी पुण्य अने पाप बेमां भेद माने छे. पुण्य ठीक अने पाप अठीक एम ते माने छे पण ए रीते बन्नेमां भेद पाडवो योग्य नथी; केमके कोई जीव नग्न दिगंबर (द्रव्यलिंगी) साधु थईने पुण्यना फळ तरीके नवमी ग्रैवेयक जाय अने त्यां पण मिथ्याद्रष्टि रहे छे (अर्थात् मिथ्याद्रष्टि रही चारगतिमां परिभ्रमण करे छे.) अने कोई जीव पापना फळमां सातमी नरके जाय अने त्यां समकित पामे छे. (अर्थात् समकित पामीने
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अल्पकाळमां मोक्ष जाय छे.) आवी झीणी वात, भाई! पुण्यनी रुचिवाळाने आकरी लागे पण शुं थाय? वस्तुस्वरूप ज आवुं छे.
आ रीते जेणे अत्यंत मोहरजने दूर करी छे अर्थात् मोहभावने दूर कर्यो छे एवो ‘अयं अवबोध–सुधाप्लवः’ आ (प्रत्यक्ष-अनुभवगोचर) ज्ञानसुधांशु (सम्यग्ज्ञानरूपी चंद्रमां) ‘स्वयं’ स्वयं ‘उदेति’ उदय पामे छे.
जुओ! अहीं चैतन्यस्वभावने शीतळ-शीतळ-शीतळ एवा चंद्रनी उपमा आपी छे. वीतरागस्वभावरूप शांतिथी भरेलो भगवान मोहने दूर करीने कोईनी अपेक्षा विना स्वयं उदय पामे छे अर्थात् स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव-गोचर थाय छे. जे ज्ञान रागने वेदतुं हतुं ते ज्ञान पुण्य-पापना भावने एकरूप-बंधरूप जाणी, मोहथी हठीने अबंधस्वभावी भगवान आत्माना आश्रये उत्पन्न थतुं थकुं आत्माने प्रत्यक्ष अनुभवगोचर करे छे. अहाहा...! कहे छे के ज्ञानसुधांशु स्वयं उदय पामे छे. भगवान आत्मा वस्तुपणे सहज ज्ञानसुधांशु छे अने तेना आश्रये उत्पन्न थयेल सम्यग्ज्ञान पण ज्ञानसुधांशु (पर्यायरूप) छे. जुओ, सम्यग्ज्ञानने पण चंद्रमानी उपमा आपी छे केमके सम्यग्ज्ञान छे ते शीतळता अने शांतिमय छे ज्यारे पुण्य- पापना बन्नेय भाव परिताप अने अशांतिमय छे.
अहाहा...! जेनो सर्वज्ञ-सर्वदर्शीपणानो स्वभाव छे एवो ज्ञानसुधांशु स्वयं उदय पामे छे. ‘स्वयं उदेति’ एम भाषा छे ने! मतलब के व्यवहाररत्नत्रय छे तो ज्ञानसुधांशु प्रगट थाय छे एम नथी. व्यवहाररत्नत्रय हो भले, पण एने लईने अहीं निश्चयरत्नत्रय प्रगट थाय छे एम नथी. व्यवहाररत्नत्रय तो निमित्तमात्र छे. जेम कोई द्रव्यना कार्यकाळे बाह्य अन्य निमित्त होय छे पण ते निमित्त कांई करतुं नथी तेम व्यवहाररत्नत्रय बाह्य निमित्त छे पण ए कांई (-निश्चयरत्नत्रय) करतुं नथी. अहो! कलश दीठ अने गाथा दीठ आवी वात छे! आचार्य भगवंतोए जगतने न्याल करी दीधुं छे!
भाई! त्रणलोकना नाथ देवाधिदेव अरिहंत परमात्मानी दिव्यध्वनिमां जे वात आवी ते आ छे. जरा मध्यस्थ थईने सत्यने शोधवुं होय तेने कहीए छीए के-पहेलां पक्ष (निश्चय) तो कर के मार्ग आ छे, वस्तु आ छे; तो एनुं लक्ष थईने दक्ष थशे. पण ज्यां पक्ष (निश्चय) ज नथी, रस्तो ज ऊंधो पकडयो छे एने मार्गनी प्राप्ति कई रीते थाय? भगवान! आ तारा हितनी वात छे हों. भाई! व्यवहार-पुण्यना परिणामने लईने सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय एवुं एनुं स्वरूप ज नथी. ‘स्वयं उदेति’-शीतळ चंद्रमानी जेम ज्ञानसुधांशु व्यवहाररत्नत्रयनी के अन्यनी अपेक्षा कर्या विना स्वयं सम्यग्ज्ञानरूपे उदय पामे छे.
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अहा! एक कलशमां पण केवो गजबनो खुलासो कर्यो छे! अहो! संतोनी जगत पर अपार करुणा छे. कहे छे-भाई! पुण्य-पापमां ठीक-अठीकपणुं मानीने तुं दुःखना डुंगर तळे दटाई गयो छे, प्रभु! पुण्य-पापना भाव बन्नेय दुःखरूप छे, बन्नेय आकुळतामय छे केमके बन्नेय स्वभावथी विरुद्धभाव छे. आवा विरुद्धभावोने जे (कर्मपणे) एकसरखा माने छे तेने आत्मा पोताथी प्रत्यक्ष थईने सम्यग्ज्ञानरूपी चंद्रमापणे स्वयं उदय पामे छे. जुओ, स्वयं उदय पामे छे एम कह्युं एमां एने व्यवहारनी अपेक्षा नथी एम आवी गयुं के नहि? अरे प्रभु! तारुं बळ एटलुं छे के स्वरूपनां द्रष्टि-ज्ञान-रमणतामां परनी के व्यवहारनी कोई अपेक्षा छे ज नहि. भगवान! तारी वस्तु ज एवी छे के तेनी (शुद्धात्मानी) उपलब्धि थवामां व्यवहाररत्नत्रयना शुभरागनो सहारो के मदद छे ज नहि.
शुभराग छे ए रोग छे. व्यवहार छे ए संसार छे. आगळ गाथा १४प मां आवशे के जे संसारमां दाखल करे ए पुण्यने भलुं केम कहेवाय? जुओ, पांच पांडवो मुनि अवस्थामां शत्रुंजय उपर ध्यानस्थ ऊभेला हता. त्यारे तेमने उपसर्ग थयो. तेमने धगधगतां लोढानां आभूषणो पहेराववामां आव्यां. तेमनामांथी त्रण (युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन) तो ध्यानमां अविचल रही अंदर आत्माना आनंदमां एवो निमग्न थई गया के केवळज्ञान उपजावी मोक्षे गया. परंतु बे (सहदेव अने नकुळ)ने एवो विकल्प आव्यो के-अरे! मोटाभाई के जेओ साधर्मी हता तेमने केम हशे! आवा एक शुभ विकल्पना कारणे तेमने ३३ सागरोपमनुं सर्वार्थसिद्धिनुं आयुष्य बंधाई गयुं, मतलब के एटलुं केवळज्ञान दूर गयुं. स्वर्गमां हमणां ते बन्नेने सम्यग्दर्शन-ज्ञान अने स्वरूपाचरण छे, परंतु एम ज ३३ सागर सुधी त्यां रहेवुं पडशे. त्यांथी (स्वर्गमांथी) मनुष्यपणे माताना पेटमां आववुं पडशे अने सवानव महिना माताना पेटमां ऊंधा मस्तके रहेवुं पडशे. जुओ, आ शुभभावनुं फळ! अरे भाई! जेम अशुभ बंधनुं कारण छे तेम शुभ पण बंधनुं ज कारण छे. बंधननी अपेक्षाए अहीं बन्नेनेय सरखा गण्या छे.
अहाहा...! आत्मा नित्यानंद प्रभु प्रच्चिदानंदस्वरूप भगवान छे. ते एकने द्रष्टिमां लई तेनो अनुभव करवो ते धर्म छे. भगवान आनंदना नाथनी प्राप्तिमां रागनी मंदतानी के व्यवहाररत्नत्रयना रागनी कोई अपेक्षा छे नहि.
त्यारे कोई कहे के-‘निरपेक्षा नया मिथ्या’ अर्थात् बे नय न माने अने एक ज नय माने तो ते मिथ्यात्व छे.
समाधानः– बापु! आमां (कळशमां) आवी गयुं ने के-‘ग्लपित-निर्भर-
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मोहरजा’-जेणे अंतरमांथी मोहभाव अर्थात् मिथ्यात्वभावने दूर कर्यो छे एटले के रागनो अने परनो पक्ष छोडी दीधो छे-जुओ, आटली परनी अपेक्षा आवी के नहि? निश्चयमां आव्यो छे त्यारे व्यवहारनी उपेक्षा करी एटली अपेक्षा एमां आवी के नहि? (अर्थात् व्यवहारनी एटले के परनी ने रागनी उपेक्षा करी, एमां ज व्यवहारनयनी अपेक्षा आवी गई माटे एकांत नथी.) पंडित श्री फूलचंदजीए ‘जैन तत्त्व-मीमांसा’मां आनो सरस खुलासो कर्यो छे. अहीं तो स्वयं उदय पामे छे ‘स्वयं उदेति’ एना पर जोर (वजन) छे.
‘अज्ञानथी एक ज कर्म बे प्रकारनुं देखातुं हतुं तेने ज्ञाने एक प्रकारनुं बताव्युं.’ शुं कह्युं! जेम नाटकमां एक ज पुरुष बे पाठ भजवे त्यां बन्ने वेशमां पुरुष तो एक ज छे. तेम कर्म पुण्यरूप होय के पापरूप होय, बेय कर्म तो एक ज जात छे, बन्नेय दुःखरूप छे, बन्नेय बंधनुं कारण छे.
त्यारे कोई कहे छे-बन्नेना फळमां फेर छे ने!
समाधानः– भाई! बन्नेनुं फळ पण एक ज छे. बन्नेय संयोग आपे छे. पुण्य स्वर्गादिनुं फळ आपे अने पाप नरकादि आपे पण ए बधी गति दुःखरूप संसार ज छे.
अहीं कहे छे के अज्ञानथी एक ज कर्म बे प्रकारनुं देखातुं हतुं. भाई! पुण्य हो के पाप हो, शुभभाव हो के अशुभभाव हो, बन्नेनो एक ज प्रकार छे. बन्ने बंधननुं कारण छे. बेमांथी एकेय धर्मनुं के मोक्षनुं कारण नथी. अज्ञानथी ठीक-अठीकपणे कर्म बे प्रकारनुं देखातुं हतुं ते शुद्ध चैतन्यस्वभावना ज्ञानद्वारा एकपणे देखाडवामां आव्युं. एटले के ज्ञान थतां बन्नेय कर्म बंधस्वरूप एकरूप छे एम भासवा मांडयुं.
हवे कहे छे-‘ज्ञानमां मोहरूपी रज लागी रही हती ते दूर करवामां आवी त्यारे यथार्थ ज्ञान थयुं.’
आत्मा त्रिकाळ ज्ञानानंदस्वरूप भगवान छे. तेनी दशामां अनादिथी मोहरूपी रज लागी हती अर्थात् मिथ्यात्वनो भाव थई रह्यो हतो. ए मिथ्यात्वनी दशामां कर्म (पुण्य- पापरूप) बे प्रकारे देखातुं हतुं. परंतु निज स्वरूपनी सन्मुखता द्वारा मोहभाव दूर करवामां आव्यो त्यारे यथार्थ ज्ञान थयुं. ठीक-अठीक एम बे-पणारूपे देखातुं कर्म हवे बंधपणे एकरूप भासवा मांडयुं.
‘जेम चंद्रने वादळां तथा धुम्मसनुं पटल आडुं आवे त्यारे यथार्थ प्रकाश थतो नथी परंतु आवरण दूर थतां चंद्र यथार्थ प्रकाशे छे, तेवी रीते अहीं पण
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जाणवुं.’ मतलब के भगवान आत्मामां (पर्यायमां) जे पुण्य-पापना भाव थाय तेथी बंधन थाय छे. ते बंधन वादळांनी जेम आवरणरूप छे. आ पुण्य-पापना भाव आत्माने आवरणनुं कारण छे. एने दूर करीने एटले के शुभाशुभभावने दूर करीने ज्ञाननी निर्मळ पर्यायद्वारा आत्मानो ज्ञानप्रकाश थवाथी आत्मा चंद्रनी पेठे शीतळ शांत-शांत-शांत अत्यंत शान्त उज्ज्वळ प्रकाशे छे.
जुओ, पुण्य-पापना बन्ने भाव अशांत छे. देव-गुरु-धर्मनी श्रद्धानो राग अशांत छे, आकुळतामय छे. आवी वात आकरी लागे लोकोने, पण शुं थाय? पुण्य-पापथी रहित शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप भगवान आत्माने निर्मळ चैतन्यनी परिणति द्वारा ग्रहण करीने ते एकनो ज अनुभव करवो ते धर्म छे, ते ज वीतरागी शान्ति छे. आवी वात छे.
हवे पुण्य-पापना स्वरूपना द्रष्टांतरूप काव्य कहे छेः-
(शूद्राणीना एकीसाथे जन्मेला बे पुत्रोमांथी एक ब्राह्मणने त्यां ऊछर्यो अने बीजो शूद्रना घेर ज रह्यो) ‘एकः’ एक तो ‘ब्राह्मणत्व–अभिमानात्’ हुं ब्राह्मण छुं’ एम ब्राह्मणत्वना अभिमानने लीधे ‘मदिरां’ मदिराने ‘दूरात् त्यजति’ दूरथी ज छोडे छे अर्थात् स्पर्शतो पण नथी. जुओ, छे तो चंडालणीनो दीकरो; पण ब्राह्मणने त्यां ऊछर्यो एटले एने एम थयुं के-अमे ब्राह्मण छीए, अमने मदिरा खपे नहि, आवा गौरवथी ते मदिराने स्पर्शतो पण नथी.
‘अन्यः’ बीजो ‘अहम् स्वयं शूद्रः इति’ हुं पोते शूद्र छुं एम मानी ‘तया एव’ मदिराथी ज ‘नित्यम् स्नाति’ नित्य स्नान करे छे अर्थात् तेने पवित्र गणे छे. शुं कह्युं? एना हाथ नित्य मदिराथी खरडायेला रहे तोपण तेने वांधो नथी. हुं शूद्र छुं, मने तो मदिरा खपे एम मानी ते नित्य मदिरानुं सेवन करे छे.
‘एतौ द्वौ अपि’ आ बन्ने पुत्रो ‘शूद्रिकायाः उदरात् युगपत् निर्गतौ’ शूद्राणीना उदरथी एकीसाथे जन्म्या छे तेथी ‘साक्षात् शूद्रौ’ (परमार्थे) बन्ने साक्षात् शूद्र छे, ‘अपि च’ तोपण ‘जातिभेद–भ्रमेण’ जातिभेदना भ्रम सहित ‘चरतः’ तेओ प्रवर्ते छे-आचरण करे छे. जे ब्राह्मणने त्यां ऊछर्यो छे ते पण छे तो शूद्राणीनो ज पुत्र अने तेथी शूद्र ज छे. तोपण बन्ने जातिभेदना भ्रम सहित आचरण करे छे. आ द्रष्टांत छे. आ प्रमाणे पुण्य-पापनुं पण जाणवुं. आनो कळशटीकामां पंडित श्री राजमलजीए खूब सरस खुलासो कर्यो छे.
त्यां (कळशटीका कळश १०१मां) कह्युं छे के-‘‘कोई जीवो दया, व्रत, शील, संयममां मग्न छे, तेमने शुभकर्मबंध पण थाय छे, कोई जीवो हिंसा-विषय-कषायमां
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मग्न छे, तेमने पापबंध पण थाय छे, ते बन्ने पोत पोतानी क्रियामां मग्न छे, मिथ्या द्रष्टिथी एम माने छे के शुभकर्म भलुं, अशुभकर्म बूरुं; तेथी आवा बन्ने मिथ्याद्रष्टि छे, बन्ने जीवो कर्मबंधकरणशील छे.’’
जुओ, शुभरागने भलो जाणनारा कोई जीवो अमने विषय-कषाय खपे नहि, अमने हिंसा-जूठ-चोरी-कुशील आदि खपे नहि, अमे तो दयाना पाळनारा, व्रत पाळनारा छीए एम मानीने परना त्यागपणानुं मिथ्या अभिमान करे छे. परंतु भाई! ए दया, दान, व्रत, ब्रह्मचर्य आदि परिणाम पण विभावपरिणाम छे, अशुद्ध परिणाम छे. एने भला (धर्मरूप) जाणवा अने मानवा ते मिथ्यादर्शन छे.
त्यां आगळ कह्युं छे के-‘‘भावार्थ आम छे के-शूद्राणीना पेटे ऊपज्यो छुं एवा मर्मने जाणतो नथी, ‘हुं ब्राह्मण, मारा कुळमां मदिरा निषिद्ध छे’ एम जाणीने मदिरा छोडी छे ते पण विचारतां चंडाळ छे; तेवी रीते कोई जीव शुभोपयोगी थतो थको-यतिक्रियामां मग्न थतो थको-शुद्धोपयोगने जाणतो नथी, केवळ यतिक्रियामात्र मग्न छे, ते जीव एम माने छे के ‘हुं तो मुनीश्वर, अमने विषय-कषाय-सामग्री निषिद्ध छे’ एम जाणीने विषयकषायसामग्रीने छोडे छे, पोताने धन्यपणुं माने छे, मोक्षमार्ग माने छे, परंतु विचार करतां एवो जीव मिथ्याद्रष्टि छे, कर्मबंधने करे छे, कांई भलापणुं तो नथी.’’
शुं कह्युं आ? आत्मा त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यस्वभावमय वस्तु छे. तेना लक्षे प्रगट थतो चैतन्यनो जे निर्मळ उपयोग-शुद्धोपयोग तेने तो जाणतो नथी अने मात्र दया, दान, व्रत, तप आदि बाह्य यतिक्रियामां एटले २८ मूलगुण आदिना पालनमां कोई मग्न छे अने ते वडे पोताने मोक्षमार्गी माने छे पण खरेखर ते मिथ्याद्रष्टि छे, ते कर्मबंधने ज करे छे. तेने किंचित् पण धर्म थतो नथी, केमके ए बधोय जे शुभोपयोग छे ते चंडालणीना पुत्रनी जेम विभावथी उत्पन्न थयेली दशा छे. (स्वभावजनित दशा नथी.)
आवी वात अत्यारे जगतना लोकोने आकरी पडे छे. तेओ कहे छे-जुओ, अमे कांई हिंसादि करता नथी, विषय-कषायनुं सेवन करता नथी. अमे तो स्त्री, कुटुंब-परिवार, संपत्ति आदि बधुंय छोडी दीधुं. (माटे अमे मोक्षमार्गी छीए).
समाधानः– अरे भाई! खरेखर तो परवस्तुनो त्याग आत्मामां छे ज नहि. ‘अनुभवप्रकाश’मां कह्युं छे के जो आत्मामां परवस्तुनुं ग्रहण-त्याग होय तो ग्रहण-त्याग निरंतर थया ज करे, कोई दिवस छूटे नहि.
समयसारमां ४७ शक्तिओना वर्णनमां आवे छे के-आत्मामां त्याग-उपादान-शून्यत्व शक्ति छे. एटले के आत्मा परवस्तुना त्याग अने परवस्तुना ग्रहणथी शून्य
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एटले रहित छे. आने बदले कोई एम माने के में आ छोडयुं, में ते छोडयुं तो तेनो ए मिथ्या अभिप्राय छे. ते कर्मबंधने ज करे छे. भाई! स्वरूपथी ज आत्मा परना ग्रहण-त्याग रहित छे. एणे कोई दि परने ग्रह्यो ज नथी अने कोई दि परने छोडतोय नथी. अहा! एणे पर्यायमां ऊंधी मान्यताथी एटले के अज्ञानभावे रागने ग्रह्यो छे अने ज्ञानभावे तेने ते छोडे छे. पोते निज चैतन्यस्वभावनी द्रष्टि करी तेमां एकाग्र थईने रहे छे त्यारे तेने रागादि उत्पन्न ज थता नथी एटले रागने छोडे छे एम कहेवामां आवे छे. आवो जन्म-मरण रहित थवानो मार्ग बहु सूक्ष्म छे, भाई!
केटलाक लोको एम कहे छे के हमणां तो शुभभाव करो अने व्रतादि व्यवहार पाळो, पछी हळवे हळवे निश्चय प्रगट थशे. परंतु एम नथी, भाई! अहीं तो अति स्पष्ट कहे छे के शुभभावथी बंध ज थशे. निश्चयस्वरूपनी प्राप्ति तो शुभाशुभभाव रहित जे पोतानो त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वभाव छे तेमां पोतानो उपयोग वाळीने थंभावतां थशे. वस्तुनी स्थिति ज आवी छे. अहाहा...! वस्तु स्वयं शुद्ध चैतन्यघन छे. उपयोग एमां ज रमे अने जामे तो ते शुद्ध छे. बाकी परद्रव्यना लक्षे जेटला कोई परिणाम थाय ते बधा शुभाशुभभावरूप मलिन परिणाम छे अने ते बंधनरूप अने बंधनना कारणरूप छे. समजाणुं कांई...! भाई! आ तो भगवाननी दिव्यध्वनिमां आवेली वात अहीं कुंदकुंदाचार्यदेव जाहेर करे छे.
व्यवहारनी अपेक्षाए शुभ-अशुभमां फेर छे. (बेमां अंदर-अंदर विचारतां फेर छे). पण बंधनी अपेक्षाए निश्चयथी बन्नेय एक ज जात छे, बंधननी अपेक्षाए बेमां कोई फरक नथी. कळशटीका, कळश १०० मां कह्युं छे के- दया, व्रत, तप, शील, संयम आदिथी मांडीने जेटली छे शुभक्रिया अने शुभक्रियाने अनुसार छे ते-रूप जे शुभोपयोगरूप परिणाम तथा ते परिणामोना निमित्तथी बंधाय छे जे शाताकर्म आदिथी मांडीने पुण्यरूप पुद्गलपिंड, ते भलां छे, जीवने सुखकारी छे-एम अज्ञानी माने छे. ज्ञानी तो जेम अशुभकर्म जीवने दुःख करे छे तेम शुभकर्म पण जीवने दुःख करे छे, कर्ममां तो भलुं कोई नथी एम ज यथार्थ समजे छे. हवे आवी वात माणसने आकरी लागे केमके अत्यारे तो व्रत करो, ने तप करो ने त्याग करो एम क्रियाकांडमां ज धर्म मानीने लोको मग्न थई रह्या छे. परंतु शुभमां विकारना परिणाममां शुद्धोपयोग मानीने अभिमानथी आचरण करे छे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे एम अहीं कहे छे.
भाई! व्रत, दया, तप, शील, संयम इत्यादि बधी शुभ क्रिया शुभपरिणामरूप छे. एनाथी पुण्यबंधन छे, मोक्षमार्ग नहि; अने एनुं फळ स्वर्गादि गति छे (मुक्ति नहि). अरे! अनादिथी जीव ८४ना अवतार करी चारगतिमां रखडी रह्यो छे! ए परिभ्रमण वडे महा दुःखी छे. पुण्यना फळमां मोटो देव थाय के बहारमां
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मोटो करोडपति के अबजोपति शेठ थाय अने शरीर रूपाळुं सुंदर होय परंतु ए बधी जडनी सामग्री छे भाई! मसाणमां जेम हाडकां होय अने तेमां भडका थाय ते फोस्फरसना छे तेम आ बधां महेल, संपत्ति अने शरीरनी सुंदरता ए बधी चमक अने दमक मसाणना हाडकाना फोस्फरस जेवी छे (बळीने राख थवा योग्य छे). ए विषय-कषायनी सर्व सामग्री (अनुकूळ होय तोपण) हेय छे. हेय छे एटले त्यागवा योग्य छे एम नहि, एनो तो त्याग ज छे, पण एना तरफनुं जे लक्ष छे ते त्यागवा योग्य छे, तथा एनाथी मने सुख छे ए अभिप्राय त्यागवा योग्य छे. आवी वात छे.
‘पुण्य-पाप बन्ने विभावपरिणतिथी ऊपज्यां होवाथी बन्ने बंधरूप ज छे.’
ल्यो, आ शुं कहे छे? चाहे तो दया, दान, व्रत, तप, भक्ति के पूजाना भाव हो के चाहे हिंसा, जूठ, चोरी, विषयभोगनी वासनाना परिणाम हो; बन्नेय विभावपरिणतिथी ऊपज्यां होवाथी बन्ने बंधरूप ज छे. लोकोने आ आकरुं लागे छे एटले आ सोनगढथी नीकळ्युं छे एम कही टाळे छे पण भाई! आ कयां सोनगढनुं छे? आ तो पंडित श्री जयचंदजीए जे कह्युं छे (जे अंदर छे) एनो खुलासो थाय छे.
कहे छे-पुण्य-पाप बन्ने विभावपरिणतिथी नीपजेला भावो छे. अहाहा...! अंदर आनंदकंदस्वरूप चैतन्य महाप्रभु त्रिकाळ विराजे छे तेनी ए परिणति नथी. ए शुभाशुभभावरूप विकारनी दशा उदयजनित छे, विभावभावरूप मलिन छे अने बंधरूप छे.
त्यारे हमणां हमणां कोई पंडितो सामयिकोमां लेख लखवा मांडया छे के शुभकर्म करतां करतां, व्यवहार करतां करतां अर्थात् शास्त्रनुं व्यवहारुं ज्ञान करतां करतां अने बाह्य व्रत-नियम पाळतां पाळतां निश्चयधर्म थशे, शुद्ध रत्नत्रय थशे. परंतु एम नथी, भाई! अगाउना श्लोकमां-कळशमां (कळश १०० मां) न आव्युं के-आ ज्ञान-सुधांशु (सम्यग्ज्ञानरूपी चंद्रमा) स्वयं उदय पामे छे. ‘स्वयं उदेति’–एनो अध्यात्मतरंगिणीमां अर्थ कर्यो छे के सम्यग्दर्शन थवामां, शुद्ध रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग थवामां परनी कोई अपेक्षा छे ज नहि. ‘कर्मनिरपेक्ष’ एम त्यां संस्कृतमां शब्द पडयो छे. स्वयंनो अर्थ एम छे के सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान आत्माना आश्रये प्रगट थाय छे; कोई व्यवहार छे तो प्रगटे छे एम छे नहि.
बापु! तुं आ शुभना वलण वडे अनादिथी रखडी-रखडीने दुःखी थई रह्यो छो. छहढालामां आवे छे के-
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प्रभु! एणे पंचमहाव्रत निरतिचार पाळ्यां, प्राण जाय तोपण पोताना माटे चोका करी बनावेलां भोजन न लीधां, चामडी उतारीने खार छांटया तोपण क्रोध न कर्यो-आवी आवी तो जेणे व्यवहारक्रिया अनंतवार पाळी अने अनंतवार नवमी ग्रैवेयक सुधी गयो. पण शुभनो पक्ष अंतरंगमां छूटयो नहि तेथी आत्मज्ञान विना एने लेश पण सुख न थयुं अर्थात् परिभ्रमणनुं दुःख ज थयुं.
भाई! तारे धर्म करवो छे ने! तो शुभाशुभभावथी रहित अंदर निर्मळानंदनो नाथ त्रिकाळ परमात्मस्वरूपे विराजमान छे तेमां तारा उपयोगने जडी दे. तेथी तने शुद्धोपयोगरूप धर्म थशे. बाकी तो अशुभोपयोगनी जेम शुभोपयोगनी दशा पण विभावनी ज विपरीत दशा छे; एना वडे धर्म नहि थाय.
दया, व्रत, शील, संयम इत्यादि मुनिधर्म जे व्यवहारधर्म कहेवाय छे ते बधोय मात्र शुभभाव छे. ए कांई आत्मरूप धर्म नथी. प्रवचनसार गाथा १७२ ना अलिंगग्रहणना १७ मा बोलमां आवे छे के-‘लिंगोनुं एटले के धर्मचिन्होनुं ग्रहण जेने नथी ते अलिंगग्रहण छे; आ रीते आत्माने बहिरंग यतिलिंगोनो अभाव छे एवा अर्थनी प्राप्ति थाय छे.’ जुओ, आ बधो व्यवहारधर्म आत्माना स्वरूपमां नथी. परमात्मप्रकाशमां तो एथीय विशेष वात छे के-भावलिंग जे निर्विकल्प मुनिदशा अर्थात् आत्माना आश्रये उत्पन्न थयेली शुद्धरत्नत्रयनी वीतरागी चारित्रदशा ए पण आत्मानुं स्वरूप नथी. पर्याय छे ने! मोक्षनो साचो मार्ग ए पण पर्यायधर्म छे, ए कांई आत्मद्रव्यनुं अंतरंग स्वरूप नथी. हवे आवी वात छे त्यां यतिनुं द्रव्यलिंग-व्यवहारधर्मनी क्रिया तो आत्मस्वरूपथी कयांय बहार रही गई.
भाई! तारे आत्मकल्याण करवुं छे के नहि! बापु! अनंतकाळमां तुं प्रतिक्षण भावमरणे मरी रह्यो छे! अहा! अंतरमां चैतन्यनां परम निधान पडयां छे पण अंतरमां तें कदीय नजर करी नथी. अहाहा...! प्रभु! तुं अंदर अनंत शक्तिओनो अखंड एक ज्ञानानंदस्वरूप गुप्त भंडार छो. एने ज्ञाननी परिणति वडे खोल, ए शुभरागनी परिणति वडे नहि खुले; शुभरागनी परिणति वडे त्यां ताळु पडशे केमके शुभराग स्वयं बंधरूप ज छे. हवे कहे छे-
‘व्यवहारद्रष्टिए भ्रमने लीधे तेमनी प्रवृत्ति जुदी जुदी भासवाथी, सारुं अने खराब- एम बे प्रकारे तेओ देखाय छे. परमार्थद्रष्टि तो तेमने एकरूप ज, बंधरूप ज, खराब ज जाणे छे.’
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कषायनुं सेवन करतो होय, ज्यारे बीजो राजपाट छोडीने नग्न थईने त्यागी थई बेठो होय. आ प्रमाणे बहारनी प्रवृत्ति जुदी जुदी भासवाथी अंदरमां कांईक फेर हशे एम अज्ञानी भ्रमथी माने छे. परंतु बापु! ज्यां अंतर्द्रष्टि थई नथी, द्रष्टिमां चैतन्यनां निधान आव्यां नथी, आनंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप सर्वज्ञस्वभावी प्रभु नजरमां आव्यो नथी त्यां कांई फेर पडयो नथी. शुभाशुभ बन्ने भाव तो एकला बंधना ज कारणरूप छे. सारुं अने खराब-एम तेओ देखाय छे पण ए तो भ्रम छे. शुभाशुभ प्रवृत्तिना भेदे तेओ ठीक-अठीक जणाय छे पण वास्तवमां बेय बंधरूप छे, बेय संसार छे, तेमां मुक्तिनुं कारण तो एकेय नथी.
समयसार नाटक, मोक्षद्वारना ४० मा छंदमां तो त्यांसुधी कह्युं छे के साचा भावलिंगी मुनिवरने जेने प्रचुर स्वसंवेदन सहित पर्यायमां आनंदनी छोळो उडे छे तेने पण छठ्ठा गुणस्थाने प्रमत्तदशामां जे पंचमहाव्रतादिनो विकल्प ऊठे छे ते जगपंथ छे.
साचा मुनिने पण जे विकल्प छे एटलो संसार छे अने सातमे गुणस्थाने अप्रमत्तदशामां अंतर आनंदमां रमे छे ते शिवमार्ग छे.
हवे आवी वात छे त्यां कोई एकलां बाह्य व्रत, तप करे अने धर्म माने ए तो मिथ्यादर्शन छे, भाई! वळी जेनी एवी प्ररूपणा छे के व्रत करो, तप करो-एथी धर्म छे ए तो जैन साधु ज नथी. भाई! आ तो जे सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वरे कह्युं ते ज कुंदकुंदाचार्ये समयसारमां कह्युं छे, अने ते ज अमृतचंद्राचार्ये टीकामां कह्युं अने बनारसीदासे पण ए ज समयसार नाटकमां कह्युं छे.
ए ज वात अहीं जयचंदजी कहे छे के-पुण्य सारुं अने पाप खराब एम भ्रमने लीधे देखाय छे, पण परमार्थद्रष्टि तो तेमने एकरूप ज, बंधरूप ज, खराब ज जाणे छे.
समयसार कळशटीका, कळश १०८ मां राजमलजी कहे छे के-‘‘अहीं कोई जाणशे के शुभ-अशुभ क्रियारूप ने आचरणरूप चारित्र छे ते करवा योग्य नथी तेम वर्जवा योग्य पण नथी. उत्तर आम छे के-वर्जवा योग्य छे, कारण के व्यवहार चारित्र होतुं थकुं दुष्ट छे, अनिष्ट छे, घातक छे; तेथी विषय-कषायनी माफक क्रियारूप चारित्र निषिद्ध छे.’’ जेम विषय-कषायनो निषेध छे तेम शुभक्रियारूप चारित्रनो पण निषेध ज छे. ज्ञान अने आनंदनुं निधान भगवान आत्मा पोतानी अंतर्मुख ज्ञाननी परिणतिथी स्वसंवेदनज्ञान द्वारा वेदनमां प्रत्यक्ष जणाय तेम छे. पण आत्मवस्तु कांई
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इन्द्रियज्ञानमां जणाय तेम नथी. स्वसंवेदनज्ञानमां एनी प्रत्यक्षनी भावना (अनुभव) करतां करतां प्रत्यक्ष केवळज्ञान थई जाय छे. परंतु व्यवहारनी क्रिया करतां करतां ए केवळज्ञाननो प्रकाश थई जाय एम कदीय नथी. आवुं ज स्वरूप छे.
हवे शुभाशुभ कर्मना स्वभावनुं वर्णन गाथामां करे छेः-
‘ते केम होय सुशील जे संसारमां दाखल करे’-आ शुभकर्म छे ते संसारमां दाखल करनार छे एम कहे छे. त्यारे केटलाक कहे छे के शुभकर्म एटले पुण्यबंधरूप जड पुद्गलकर्मनी आ वात छे. पण भाई! अहीं तो टीकामां शुभकर्मनुं कारण जे शुभभाव ते संसारमां दाखल करनार छे एनी वात छे. अहा! शुं थाय? अध्यात्मशास्त्र जे सत्ने सिद्ध करे छे तेनो माणसोने जिज्ञासापूर्वक स्वाध्याय नहि, अभ्यास नहि एटले अत्यारे मोटा गोटा ऊठया छे.
जुओ, अज्ञानीओनो आ पक्ष छे केः-
१. ‘कोई कर्मने शुभ जीवपरिणाम निमित्त होवाथी अने कोई कर्मने अशुभ जीवपरिणाम निमित्त होवाथी कर्मना कारणमां भेद-तफावत छे.’ पुण्य भलुं छे एम जेनो पक्ष छे एवो अज्ञानी एम कहे छे के जे शुभकर्म बंधाय छे तेने पुण्यभावनुं निमित्त छे अने जे अशुभकर्म बंधाय छे तेने पापभावनुं निमित्त छे. अर्थात् पुण्यबंधनमां जीवना शुभपरिणाम निमित्त छे अने पापबंधनमां जीवना अशुभपरिणाम -संकलेशपरिणाम निमित्त छे. आम बन्नेनां कारण जुदां जुदां छे माटे बन्नेमां फेर छे. आ अज्ञानीनी दलील छे. एक वात.
२. एनी बीजी दलील एम छे के- ‘कोई कर्म शुभ पुद्गलपरिणाममय अने कोई कर्म अशुभ पुद्गलपरिणाममय होवाथी कर्मना स्वभावमां भेद छे.’ एक कर्म तो शातावेदनीय आदिरूप बंधाय छे अने बीजुं अशाता-वेदनीय आदिरूप बंधाय छे. आ प्रमाणे शुभाशुभरूप कर्मना स्वभावमां पण फेर छे. बंने जडकर्मना स्वभावमां फेर छे. एम व्यवहारना पक्षवाळानो अभिमत छे.
३. वळी एनी त्रीजी दलील एम छे के-‘कोई कर्मनो शुभफळरूपे अने कोई कर्मनो अशुभफळरूपे विपाक थतो होवाथी कर्मना अनुभवमां (-स्वादमां) भेद छे.’
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पुण्यकर्मना फळरूपे स्वर्गादि गति मळे, उच्च आयु बंधाय, उच्च गोत्र बंधाय आदि अने पापकर्मना अशुभफळरूपे नरकादिने प्राप्त थाय. आम बन्नेना फळमां फेर छे के नहि? आ तो अहीं अज्ञानीनो पक्ष रजु कर्यो छे. पुण्यना फळमां करोडोनी संपत्तिनो स्वामी मोटो शेठ थाय अने पापना फळमां साव दरिद्री थाय. आम बन्नेना फळमां फेर छे. धूळेय फेर नथी, सांभळने? बन्नेय एक ज जात छे. शेठ के दरिद्री के दि हतो आत्मा? आ तो अज्ञानीनी-मूढ जीवनी दलीलनी अहीं वात करी छे.
प्रश्नः– पण पुण्यना फळमां जीव धन-पैसा कमाय छे ए तो बराबर छे ने?
उत्तरः– शुं कमाय? शुं धूळ कमाय? भाई! पैसा तो जड माटी छे, धूळ छे, अजीव पुद्गल छे, रूपी छे. ए चैतन्यमय आत्माना केवी रीते थाय? जड पैसानो-धननो जे स्वामी थाय ए तो महा मूढ जीव छे. अरे! पुण्यभाव पण ज्यां आत्मानो नथी त्यां तेना निमित्ते बंधायेला कर्मना फळमां प्राप्त पैसा-धन आत्मानां कयांथी थाय? बापु! आ तो वीतरागनो मार्ग, बहु सूक्ष्म छे भाई! जे समये पैसानी-धननी (-परमाणुओनी) जे अवस्था थवा योग्य होय ते समये ते ज थाय केमके ते एनी जन्मक्षण छे. पण ते अवस्थाने अन्य करे ए वात एक दोकडोय सत्य नथी, समजाणुं कांई...? (पुण्यना फळमां पैसा कमाय छे ते पण व्यवहारनयनुं कथन छे.) आ प्रमाणे अज्ञानीना पक्षना त्रण बोल थया.
४. अज्ञानीनी चोथी दलील एम छे के-‘कोई कर्म शुभ (सारा) एवा मोक्षमार्गने आश्रित होवाथी अने कोई कर्म अशुभ (खराब) एवा बंधमार्गने आश्रित होवाथी कर्मना आश्रयमां भेद छे.’ कोई कर्म एटले के शुभकर्म जेने सारो एवो मोक्षमार्ग प्रगट थयो होय ते भूमिकामां बंधाय छे एटले सारुं छे अने कोई कर्म एटले अशुभकर्म खराब एवा बंधमार्गनी (-संसारमार्गनी) भूमिकामां बंधाय छे माटे खराब छे. आम बेना आश्रयमां फेर छे. आ प्रमाणे चार प्रकारे कर्ममां भेद-फेर होवाथी कोई कर्म शुभ-सारुं छे अने कोई कर्म अशुभ- खराब छे एवो अज्ञानी जीवनो पक्ष छे. हवे कहे छे-
‘माटे-जोके (परमार्थे) कर्म एक ज छे तोपण-केटलाकनो एवो पक्ष छे के कोई कर्म शुभ छे अने कोई कर्म अशुभ छे. परंतु ते (पक्ष) प्रतिपक्ष सहित छे. ते प्रतिपक्ष (अर्थात् व्यवहारनो निषेध करनार निश्चय-पक्ष आ प्रमाणे छे’ः-
१. ‘शुभ के अशुभ जीवपरिणाम केवळ अज्ञानमय होवाथी एक छे; ते एक होवाथी कर्मना कारणमां भेद नथी; माटे कर्म एक ज छे.’ शुं कहे छे? के तें (-अज्ञानीए) कीधुं के कोई कर्मने (-पुण्यबंधनमां) जीवना शुभ परिणाम निमित्त छे अने कोई कर्मने (-पापबंधनमां) जीवना अशुभ परिणाम निमित्त छे,
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माटे बन्ने कर्मना कारणमां फेर छे अर्थात् बन्ने परिणाममां फेर छे. तो अमे कहीए छीए के शुभाशुभपरिणाम बन्नेय केवळ अज्ञानमय होवाथी कर्म एक ज प्रकारनुं छे. अज्ञानमय एटले मिथ्याज्ञानमय एम नहि, पण अज्ञानमय एटले ज्ञानना-चैतन्यना अभावमय छे. शुभ अने अशुभ भाव बन्नेय अज्ञानमय छे एटले के बेमांय चैतन्यनो-ज्ञाननो अभाव छे. जुओ, भगवान आत्मा केवळ चैतन्यनो सूर्य छे; पण शुभाशुभ भावमां चैतन्यनो अंश नथी तेथी ते भावो बन्नेय अज्ञानमय छे. गाथा ७२ मां आवी गयुं के-शुभाशुभ भाव अशुचि छे, जड छे, दुःखनुं कारण छे. शुभाशुभ कर्म अज्ञानमय छे एटले के तेओ जड आंधळा छे केमके तेमां चैतन्यनी जागृतिनो अभाव छे.
हवे आवी वात साधारण माणसने बिचाराने अभ्यास होय नहि अने मांड नवरो थतो होय-आखो दि’ बायडी-छोकरां साचववामां अने धंधा-वेपारमां बळदनी जेम एकली पापनी मजूरी करवामां काढतो होय त्यां केम समजाय? हुं कोण छुं? अने आ शुं थई रह्युं छे- ए विचारवानो एने कयां वखत छे? पण भाई! आ तो जीवन (अमूल्य अवसर) वीती जाय छे हों.
अहीं कहे छे-आ वृत्तिओ जे ऊठे छे ते चाहे तो पंचमहाव्रतनी होय के दया, दान के भक्तिनी होय-ए बधीय शुभरागरूप छे अने शुभराग छे ते अज्ञानमय छे; अज्ञानमय छे एटले एमां चैतन्यना स्वभावनो अभाव छे. समजाणुं कांई...? भाषा तो जुओ. ‘अज्ञानमय होवाथी’-एम कह्युं छे. एकलुं अज्ञान एम नहि, पण ‘अज्ञानमय’ एम कह्युं छे. शुभाशुभभाव बन्नेय जड छे, अजीव छे. जीव-अजीव अधिकारमां एने अजीव कह्या छे, अहीं एने अज्ञानमय एटले जड कह्या छे, केमके एमां चैतन्यना विलासनो अभाव छे, एमां चैतन्यनी जागृतिनो प्रकाश नथी. शुं कह्युं आ? जेम अशुभ तेम शुभभाव पण आंधळो छे.
चाहे तो व्रतनो शुभराग हो के अव्रतनो अशुभ राग हो-बन्नेय केवळ अज्ञानमय होवाथी एक ज जात छे. हवे आवी वात आकरी पडे पण शुं थाय? प्रभु! आ समज्या विना तुं अनंतकाळथी जन्म-मरणना धोका खाई-खाईने अधमुओ थई गयो छे. बापु! तने खबर नथी. नरकमां ठंडीनी एटली पीडा होय छे के त्यांनी ठंडीनो एक कण पण अहीं आवी जाय तो एनाथी दश योजनना मनुष्यो ए ठंडीमां मरी जाय. भाई! आवा नरकना संजोगमां तुं अनंतवार गयो अने रह्यो, पण तुं ते भूली गयो छे बापु! अत्यारे मांड जरी शरीर ठीक मळ्युं होय, कुटुंब-परिवार अनुकूळ होय अने मकान मोटा हजीरा होय एटले एम माने के हुं सुखी छुं. पण धूळेय सुखी नथी, भाई! आ बधी सामग्री तो मसाणना हाडकाना फोस्फरसनी चमक छे. ए शुभनां फळ बधां झेर छे भाई! कर्मनी १४८ प्रकृति छे ए बधांय झेरनां फळ छे एम कह्युं छे.