Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Part 6; Introduction; Samaysaar Stuti; Gurudev Stuti; Contents List; Punya-Paap Adhikar Contents; Aasrav Adhikar Contents; Sanvaar Adhikar Contents.

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व्यवहारथी निश्चय थाय एवुं जे शास्त्रमां कथन आवे छे ए तो आरोपथी त्यां वात करेली छे; खरेखर एम छे नहि. क्षुल्लक श्री धर्मदासजीए हाथीना दांतनुं द्रष्टांत आप्युं छे के हाथीने चाववाना दांत जुदा होय छे अने बहारना देखाडवाना दांत जुदा होय छे. तेम व्यवहारनां कथन शास्त्रमां आवे तेथी शुं? ए तो आरोपनां उपचारकथन छे, ए कांई वस्तुस्वरूप नथी.

भगवान आत्मानी सन्मुख थईने जेने ज्ञान, श्रद्धान अने शान्तिनी क्रियानुं परिणमन थयुं छे तेने रागनी क्रियानो हुं कर्ता छुं एम नथी; एम नथी माटे एने करोति क्रियानुं कर्तापणुं भासतुं नथी. जुओ, भरतचक्रवर्तीने छ खंडनुं राज्य, छन्नु हजार राणीओ, छन्नु क्रोड पायदळ इत्यादि महा वैभव बहारमां हतो, छतां तेमने अंतरमां ज्ञातापणानुं परिणमन थई रह्युं हतुं. ‘भरत घरमें वैरागी’ एम कहेवाय छे ने! मतलब के आवा समृद्ध वैभवना संयोग वच्चे पण तेओ अंदरमां उदास उदास हता. ज्ञानीनुं अंतर तो ज्ञानपरिणमनथी समृद्ध होय छे. जेम नाळियेरमां अंदर काचलीथी गोळो छूटो पडी जाय तेम ज्ञानीने अंदर चैतन्यगोळो रागथी छूटो पडी गयो होय छे अने तेथी तेने जाणवा-देखवानी क्रिया होय छे पण तेमां रागना कर्तापणानी क्रिया होती नथी; अने होती नथी माटे भासती नथी.

प्रश्नः– तो शुं ज्ञानीने राग थतो ज नथी?

उत्तरः– ना, एम नथी. ज्ञानीने राग थाय छे पण ते रागनी क्रिया मारी छे एम तेने भासतुं नथी. आ चोथा गुणस्थाननी वात छे. पुरुषार्थनी कचाशने लईने अल्प रागनी रचना थाय छे पण ते क्रिया मारी छे, हुं तेनो करनारो छुं एम सम्यग्द्रष्टि मानतो नथी. ज्ञानीने ज्ञाननी रचना थाय छे एमां रागनी रचना भासती नथी. मतलब के जे राग थाय छे तेनो धर्मी स्वामी नथी. ‘भासती नथी’ एनो अर्थ एम छे के जे अल्प राग थाय छे एनो ज्ञानी स्वामी नथी. जेम जाणवाना परिणमननो स्वामी छे तेम ते रागनी क्रियानो स्वामी नथी. आत्मामां एक स्व-स्वामित्व नामनी शक्ति छे. पोतानां द्रव्य-गुण अने शुद्ध पर्याय ते स्व; अने ज्ञानी तेनो स्वामी छे. अशुद्धतानो स्वामी ज्ञानी नथी.

अरे भाई! आत्मामां एवो एकेय गुण नथी के तेने अशुद्धता थाय. परवशपणे परना लक्षे पर्यायमां अशुद्धता थाय छे. पर करावे छे एम नहि, पण परनो-निमित्तनो पोते आश्रय करे छे माटे पर्यायमां अशुद्धता थाय छे. (अशुद्धता पण पर्यायनो धर्म छे), परंतु ज्ञानी तेनो स्वामी थतो नथी.

धर्मीने जे रागनी क्रिया थाय छे तेनुं ज्ञान थाय छे; केमके ज्ञाननो एवो स्वभाव छे के जे प्रकारे त्यां रागद्वेष, विषयवासना आदि भाव उत्पन्न थाय ते काळे तेनुं ज्ञान


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अहीं पोताथी ज उत्पन्न थाय. रागने लईने तेनुं ज्ञान थाय एम नहि; पण ज्ञानना स्वपरप्रकाशक स्वभावना कारणे ज्ञानीने स्वपरप्रकाशक परिणति प्रगट थाय छे. माटे कहे छे के ज्ञाननी क्रियामां अशुद्धतानी क्रिया भासती नथी. हवे कहे छे-

‘ततः ज्ञप्तिः करोतिः च विभिन्ने’ माटे ज्ञप्तिक्रिया अने ‘करोति’ क्रिया बन्ने भिन्न छे; ‘च ततः इति स्थितं’ अने तेथी एम ठर्युं के ‘ज्ञाता कर्ता न’ जे ज्ञाता छे ते कर्ता नथी.

शुं कहे छे? के ‘करोति’ एटले रागनी करवारूप क्रिया अने ज्ञप्ति एटले जाणनारने जाणवारूप क्रिया-ए बन्ने भिन्न छे. अज्ञानीने रागनी क्रिया छे, तेने ज्ञाननी क्रिया नथी अने ज्ञानीने ज्ञाननी क्रिया छे, तेने रागनी क्रिया नथी. अहाहा...! बन्ने भिन्न छे तेथी एम सिद्ध थयुं के जे ज्ञाता छे ते कर्ता नथी. समकिती धर्मी जीव पोताना शाश्वत ध्रुव ज्ञातास्वभावनो जाणनार छे. शुद्ध चैतन्यनी द्रष्टिमां ते वर्तमान अशुद्ध कृत्रिम रागनी क्रियानो मालिक नथी. तेथी ते बन्ने क्रिया भिन्न छे अर्थात् बंने एकसाथे होती नथी. चोथा गुणस्थाने ज्ञानीने अशुद्ध क्रिया होवा छतां तेनो ते स्वामी नथी माटे ते ज्ञाता ज छे. कळश ११० मां आवे छे के- ज्ञानधारा ज्ञानपणे प्रवहे छे अने रागधारा रागपणे प्रवहे छे. बंने साथे छे पण बन्ने एकमेक नथी. एम त्यां सिद्ध कर्युं छे. ज्ञानधारा छे ते धर्म छे, संवर निर्जरानुं कारण छे अने रागधारा ते कर्मधारा छे अने ते बंधनुं कारण छे.

अहीं तो ज्ञानीने एकली ज्ञानधारा छे एम कह्युं छे. राग होवा छतां ते एनो कर्ता नथी ने? जे समये रागादि भाव थाय छे ते ज समये ते संबंधीनुं स्वपरप्रकाशक ज्ञान पोताथी उत्पन्न थाय छे. काळ एक ज छे पण बन्नेना भाव भिन्न छे. राग छे माटे रागनुं ज्ञान थयुं छे एम नथी. रागना काळे ज स्वपरने जाणवानी ज्ञानक्रिया स्वतः पोताथी ज उत्पन्न थाय छे. आ वात गाथा ७प मां आवी गई छे. ज्ञानमां राग निमित्त छे एम कह्युं छे; रागने ज्ञान निमित्त छे एम त्यां कह्युं नथी.

समयसार गाथा १००मां कह्युं छे के परद्रव्यनी क्रिया एना काळे एनाथी थाय छे. तेमां निमित्त कोण छे? के जे जीव जोग अने रागनो कर्ता थाय छे एवा अज्ञानीना जोग अने राग ते काळे तेमां निमित्त छे अने तेने निमित्तकर्ता कहेवामां आवे छे. ज्ञानी तो जोग अने रागनो कर्ता नथी. तेथी तेना स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्यायमां राग अने जोग निमित्त छे, उपादान तो त्यां पोतानुं छे. रागनुं जे ज्ञान थाय छे ते रागथी थाय छे एम नथी. स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्याय स्वयं पोताना सामर्थ्यथी ते काळे उत्पन्न थाय छे. जाणवा-देखवानो जे स्वभाव छे ते जाणवा-देखवारूपे परिणमे छे तेमां ज्ञानीने राग अने परवस्तु निमित्त कहेवामां आवे छे. माटे ज्ञाता छे ते ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी.


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ज्ञाताने ज्ञानरूप परिणमन थाय ते काळे तेने रागादि होय छे. चोथा गुणस्थाने अनंतानुबंधी सिवायनो बीजो राग होय छे, पांचमे बे कषायनो राग होय छे. परंतु ज्ञानीने ज्ञानना परिणमनमां ते राग निमित्त कहेवामां आवे छे. निमित्त एटले निमित्तकर्ता नहि. ज्ञानी रागमां तन्मय नथी अने राग ज्ञानमां तन्मय नथी. ज्ञानी रागनो कर्ता नथी अने राग ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्यायनो कर्ता नथी. आवुं ज सहज वस्तुस्वरूप छे.

सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां आवे छे के केवळज्ञानमां लोकालोक निमित्त छे अने लोकालोकने केवळज्ञान निमित्त छे. निमित्त छे एनो अर्थ शुं? शुं लोकालोक छे माटे लोकालोकनुं ज्ञान थाय छे? ना, एम छे नहि. लोकालोकनुं ज्ञान पोतानी पर्यायना काळे पोतानी उपादान योग्यताथी स्वतः थाय छे अने तेमां लोकालोक निमित्त होय छे. वळी लोकालोकने केवळज्ञान निमित्त छे, तो शुं केवळज्ञान छे माटे लोकालोक छे? एम बिलकुल नथी. लोकालोक तो अनादिस्थित छे अने केवळज्ञान तो नवुं उत्पन्न थाय छे. भाई, निमित्तनो अर्थ ए छे के लोकालोक अने केवळज्ञान बंने परस्परमां कांई करतां नथी; मात्र छे, बस एटलुं ज.

बीजी चीज निमित्त हो; पण बीजी चीज कर्ता छे एवी मान्यतामां मोटो फेर छे, बे वच्चे पूर्व-पश्चिमनो फेर छे.

अहीं कहे छे-जे ज्ञाता छे ते कर्ता नथी. अहाहा...! एक कळशमां तो आचार्यदेवे केटलुं गंभीर अने गूढ रहस्य भर्युं छे! धर्मी रागनो ज्ञाता छे एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे केमके रागमां ज्ञानी तन्मय नथी. ज्ञानी तो राग संबंधी जे ज्ञान थयुं ते ज्ञानमां तन्मय छे अने ते ज्ञाननो ते जाणनार छे.

लोकालोकने केवळी जाणे छे ए पण असद्भूत व्यवहारनय छे; कारण के लोकालोक परद्रव्य छे, भगवान केवळी लोकालोकमां तन्मय थईने जाणता नथी. लोकालोक छे माटे केवळज्ञान छे एम छे ज नहि. भगवानने केवळज्ञाननी पर्याय वर्तमान पोताना सामर्थ्यथी ज प्रगट थई छे, लोकालोकने कारणे नहि. आवुं ज स्वरूप छे. तेथी जे ज्ञाता छे ते कर्ता नथी.

* कळश ९७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘हुं परद्रव्यने करुं छुं’ एम ज्यारे आत्मा परिणमे छे त्यारे तो कर्ताभावरूप परिणमनक्रिया करतो होवाथी अर्थात् ‘करोति’ क्रिया करतो होवाथी कर्ता ज छे अने ज्यारे ‘हुं परद्रव्यने जाणुं छुं’ एम परिणमे छे त्यारे ज्ञाताभावे परिणमतो होवाथी अर्थात् ज्ञप्तिक्रिया करतो होवाथी ज्ञाता ज छे.

निश्चयथी राग परद्रव्य छे. तेनो हुं कर्ता छुं एम ज्यारे परिणमे छे त्यारे कर्ताभावरूप परिणमननी क्रिया करतो होवाथी ते जीव कर्ता ज छे. ‘करोति’ क्रिया


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करतो होवाथी ते कर्ता ज छे. रागनो करनारो अने रागनो रचनारो ज ते छे.

परंतु ज्यारे परद्रव्यने हुं जाणुं ज छुं एम परिणमे छे त्यारे ज्ञाताभावे परिणमे छे. एटले के ते जीव ज्ञप्तिक्रिया करतो होवाथी ज्ञाता ज छे. स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्यायना परिणमनमां स्वने जाणतां परने पण, परनी हयातीने पण पोताना ज्ञाननी पर्यायना सामर्थ्यथी जाणे ज छे. आ ज्ञाताभावरूप परिणमननी ज्ञप्तिक्रिया करतो होवाथी ते ज्ञाता ज छे.

‘अहीं कोई पूछे छे के अविरत सम्यग्द्रष्टि आदिने ज्यांसुधी चारित्रमोहनो उदय छे त्यां सुधी ते कषायरूपे परिणमे छे तो तेने कर्ता कहेवाय के नहि?’

जुओ, आ शीष्यनो प्रश्न छे. चोथा, पांचमा, छठ्ठा गुणस्थानवाळाने चारित्रमोहना उदयथी राग तो छे, अने तमे तेने ज्ञाता ज कहो छो. तो ते केवी रीते छे? जो राग छे तो ते रागनो कर्ता कहेवाय के नहि? ज्ञानीने हजु राग-द्वेषना परिणाम थाय छे. धमसाण युद्ध चालतुं होय त्यां ज्ञानी ऊभो होय छे, तो ते संबंधीना रागनो ते कर्ता छे के नहि?

भरत अने बाहुबलीजी वच्चे युद्ध थयुं. बन्ने क्षायिक समकिती अने तद्भवमोक्षगामी हता. बन्ने सामसामा जळयुद्ध, मल्लयुद्ध, द्रष्टियुद्धमां उतर्यां. तो ते जातना रागद्वेषना परिणामना ते कर्ता खरा के नहि? कोईने विषयवासनाना परिणाम थाय छे. भरत चक्रवर्तीने ९६००० राणीओ साथे भोगना परिणाम हता. चारित्र न होय त्यारे भोगना परिणाम होय छे, तो तेनो ते कर्ता कहेवाय के नहि? आम शिष्यनो प्रश्न छे.

तेनुं समाधानः– ‘अविरत सम्यग्द्रष्टि वगेरेने श्रद्धा-ज्ञानमां परद्रव्यना स्वामीपणारूप कर्तापणानो अभिप्राय नथी; कषायरूप परिणमन छे ते उदयनी बळजोरीथी छे; तेनो ते ज्ञाता छे; तेथी अज्ञान संबंधी कर्तापणुं तेने नथी.’

सम्यग्द्रष्टि वगेरे एटले चोथा, पांचमा, छठ्ठागुणस्थानवाळानी वात छे. अविरत सम्यग्द्रष्टि वगेरेने परद्रव्यना स्वामीपणारूप कर्तापणानो अभिप्राय नथी. रागने करुं एवो अभिप्राय नथी. रागनुं परिणमन छे पण ते करवा लायक छे, कर्तव्य छे एम ज्ञानी मानता नथी.

प्रवचनसारमां ४७ नयना अधिकारमां कह्युं छे के ज्ञानीने जेटलुं रागनुं परिणमन छे तेनो ते पोते कर्ता छे एम र्क्तृनयथी जाणे छे. अहीं ए वात नथी. अहीं तो द्रष्टिप्रधान वात छे. द्रष्टिनी प्रधानतामां निश्चयथी ज्ञानीने रागनुं कर्तापणुं नथी. जे अपेक्षाथी वात होय ते अपेक्षाथी यथार्थ समजवुं जोईए.

समयसारना त्रीजा कळशमां श्री अमृतचंद्राचार्यदेव कहे छे के-मोह नामना कर्मना उदयरूप विपाकने लीधे जे रागादि परिणामोनी व्याप्ति छे तेनाथी मारी परिणति कल्माषित (मेली) छे. ते आ समयसारनी व्याख्याथी ज मारी अनुभूतिनी परम विशुद्धि


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थाओ. द्रव्ये तो हुं शुद्ध छुं, पण पर्यायमां कलुषितपणुं छे एटलुं दुःख छे. तेनो आ टीका करवाना काळमां नाश थाओ. स्वभावनी द्रष्टिनुं अमने जोर छे, ते जोरना कारणे टीका करवाना काळमां अशुद्धतानो नाश थशे एम अर्थ छे. ज्ञानीने रागनी रुचि नथी, स्वभावनी ज रुचि छे.

ज्ञानी चारित्रमोहना उदये कषायरूपे परिणमे छे, माटे तेनो कर्ता कहेवाय के नहि तेनुं समाधान करे छे-

१. सम्यग्द्रष्टि वगेरेने श्रद्धा-ज्ञानमां परद्रव्यना स्वामीपणारूप अभिप्राय नथी; २. कषायरूप परिणमन छे ते उदयनी बळजोरीथी छे; ३. तेनो ते ज्ञाता छे; तेथी अज्ञान संबंधी कर्तापणुं तेने नथी.

प्रश्नः– कषायरूप परिणमन छे ते उदयनी बळजोरीथी छे. तो शुं ज्ञानीने रागनुं परिणमन कर्मना उदयने लईने छे?

उत्तरः– ना, एम नथी. ज्ञानीने रागनी रुचि नथी, राग करवानो तेने अभिप्राय नथी. छतां राग थाय छे. राग थाय छे ते ते काळनो पर्यायधर्म छे अने ते तेनी पुरुषार्थनी कमजोरी सूचवे छे, पण परने लईने वा परनी (कर्मनी) जोरावरीने लईने राग थाय छे एम छे ज नहि. द्रष्टिनी प्रधानतामां रागने पुद्गलना परिणाम कहे छे अने तेने अहीं उदयनी बळजोरीथी थाय छे एम कह्युं छे.

राग तो स्वतंत्रपणे पोताथी थाय छे. तेमां निमित्तनी बळजोरी केवी? पण ज्ञानीने रागनी रुचि नथी, तेने रागना स्वामीपणारूप अभिप्राय नथी. छतां थाय छे तो निमित्तनी बळजोरीथी थाय छे एम आरोप करीने कथन कर्युं छे. खरेखर त्यां उदयनी बळजोरी छे एम अर्थ नथी. द्रष्टिप्रधान कथनमां रागनुं परिणमन उदयनी बळजोरीनुं कार्य छे एम कहेवामां आव्युं छे.

जेम कोईने रोग थाय अने तेनी दवा करे, पण तेने तेनी रुचि होती नथी. तेम ज्ञानीने रागनुं पोषण नथी, रुचि नथी. नबळाईने लईने थाय छे तेनो ते ज्ञाता छे. तेथी अज्ञान संबंधी कर्तापणुं ज्ञानीने नथी.

ज्ञानीने अस्थिरतानुं परिणमन छे. परिणमननी अपेक्षाए एटलुं तेने कर्तापणुं छे. प्रवचनसारमां ४७ नय अधिकारमां आ वात आवे छे. अस्थिरताना परिणामनो ज्ञानी कर्ता पण छे अने भोक्ता पण छे. परंतु द्रष्टिनी अपेक्षाए तेने शुद्धतारूप ज परिणमन छे एम कहेवाय छे, केमके अशुद्धताना परिणामनी एने रुचि नथी. ज्ञान जाणे छे के पोतानी


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नबळाईथी राग परिणाम थाय छे अने रागने भोगवे पण छे; पण ते कर्तव्य छे अने भोगववा लायक छे एम मानता नथी. तेथी अज्ञान संबंधी कर्तापणुं ज्ञानीने नथी.

हवे कहे छे-‘निमित्तनी बळजोरीथी थता परिणमननुं फळ किंचित् होय छे ते संसारनुं कारण नथी. जेम वृक्षनी जड काप्या पछी ते वृक्ष किंचित् काळ रहे अथवा न रहे-क्षणे क्षणे तेनो नाश ज थतो जाय छे, तेम अहीं समजवुं.’

निमित्तनी बळजोरीथी एटले के पुरुषार्थनी नबळाईथी थता परिणमननुं फळ किंचित् होय छे. कर्मनां तीव्र स्थिति के रस पडतां नथी; अल्प स्थिति अने रस होय छे. ते अल्प राग अनंत संसारनुं कारण नथी. एकाद बे भव होय ते ज्ञानीने ज्ञातानुं ज्ञेय छे. भव अने भवनो भाव ज्ञानीने ज्ञातानुं ज्ञेय छे.

कोई एम कहे के ज्ञानीने राग के दुःख छे ज नहि तो भाई! एम नथी. द्रव्य-द्रष्टि प्रकाशमां श्री न्यालचंदभाईए कह्युं छे के ज्ञानीने शुभराग धधकती भट्ठी जेवो लागे छे. वात बराबर छे. चोथे, पांचमे, छट्ठे गुणस्थाने ज्ञानीने जेटलो राग छे ते दुःखरूप भाव छे, दुःखना वेदनरूप छे. अंदर अकषाय आनंदनुं वेदन छे, साथे जेटलो राग छे तेटलुं दुःखनुं वेदन पण छे-एम ज्ञान यथार्थ जाणे छे. दुःखनुं बिलकुल वेदन न होय तो सर्वज्ञ वीतराग होय.

केवळी भगवानने एकलुं परिपूर्ण आनंदनुं वेदन छे, मिथ्याद्रष्टिने एकलुं दुःखनुं वेदन छे अने समकिती साधकने आनंद अने साथे कंईक दुःखनुं पण वेदन छे. तथापि द्रष्टि अने द्रष्टिना विषयनी अपेक्षाए ज्ञानीने राग नथी एम कहेवाय छे. माटे ज्यां जेम छे त्यां तेम यथार्थ समजवुं.

* * *

फरीने ए ज वातने द्रढ करे छेः-

* कळशः ९८ श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कर्ता कर्मणि नास्ति, कर्म तत् अपि नियतं कर्तरि नास्ति’ कर्ता नक्की कर्ममां नथी, अने कर्म छे ते पण नक्की कर्तामां नथी.

शुं कहे छे? जे विकल्प थाय छे ते हुं करुं छुं एवा मिथ्यात्वभावे परिणमेलो जीव कर्ता छे. ते कर्ता जड कर्मनी (ज्ञानावरणादिनी) पर्यायमां नथी. कर्तानी जडकर्ममां नास्ति छे अर्थात् मिथ्यात्वभावे परिणमेलो जीव जड कर्मनो कर्ता नथी. वळी जड कर्म छे ते पण कर्तामां नथी. मतलब के जड कर्म छे ते मिथ्यात्वभावे परिणमेला जीवनुं कर्म नथी. जड कर्मनी कर्तामां नास्ति छे.


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‘यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते’ जो एम बन्नेनो परस्पर निषेध करवामां आवे छे ‘तदा कर्तृकर्मस्थितिः का’ तो कर्ताकर्मनी स्थिति शी? (अर्थात् जीव-पुद्गलने कर्ताकर्मपणुं न ज होई शके.)

आत्मा पोताना अशुद्ध परिणामने करे पण जड कर्मने न करे; अने जड कर्म जडनी पर्यायने करे पण जीवना मिथ्यात्वना परिणामने न करे. आम स्थिति छे पछी ए बंने वच्चे कर्ताकर्मपणुं कयां रह्युं?

आत्मा कर्ता अने जड कर्म एनुं कार्य एम छे नहि. तथा जड कर्मनी पर्याय कर्ता अने जीवना मिथ्यात्वना परिणाम एनुं कार्य एम पण नथी. बन्नेनो एकबीजामां अभाव छे. भाई! शरीर, मन, वाणीनी क्रियानो कर्ता आत्मा अज्ञानभावे पण नथी, केमके परस्पर द्वन्द्व छे, भिन्नता छे. ज्यां भिन्नता छे त्यां कर्ताकर्मनी मर्यादा केवी? आत्मा अज्ञानभावे मिथ्यात्वना परिणामने करे अने जड कर्मनी पर्यायने पण करे एम छे नहि. तेवी रीते जड कर्म जड कर्मनी पर्यायने करे अने जीवना मिथ्यात्वना परिणामने पण करे एम छे नहि; कारण के जीव- पुद्गलने परस्पर द्वन्द्व छे, भिन्नता छे. तेथी जीव अने पुद्गलने परस्पर कर्ताकर्मपणुं न होई शके. बे चीज ज्यां भिन्न छे त्यां कर्ताकर्मपणुं केम होई शके? न ज होई शके.

परनां कार्य पोतानाथी (जीवथी) थाय एम लोको माने छे पण ए भ्रम छे. तन, मन, वचन, धन इत्यादि बधुं पुद्गल छे. आत्मा एनाथी अत्यंत भिन्न छे. माटे जड पुद्गलनी अवस्थानो आत्मा कर्ता नथी. लक्ष्मीने लावे, लक्ष्मी आपे-ए कार्य आत्मानुं नथी. अज्ञानभावे रागद्वेष अने मिथ्यात्वना जे भाव थाय ते आत्मानुं कार्य छे, पण जड पुद्गलनुं कार्य आत्मा कदीय शकतो नथी.

बापु! तारुं तो एकलुं चैतन्यघनस्वरूप छे. एक समयनी पर्यायमां जे भूल छे तेनी द्रष्टि छोडी दे तो वस्तु अंदर एकली चिदानंदघनस्वरूप छे. रागनो उपद्रव एमां नथी. व्यवहारनो जे विकल्प-राग छे ते उपद्रव छे, दुःख छे, आकुळता छे, परद्रव्य छे. एनाथी रहित चित्स्वरूप भगवान आत्मा छे. जेम रूनुं धोकडुं होय छे तेम भगवान आत्मा एकलुं ज्ञान अने आनंदनुं धोकडुं छे. आवा निज स्वरूपमां अंतर्द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे अने ते दिगंबर धर्म छे. दिगंबर धर्म ए कोई पंथ छे? ना; ए तो वस्तुधर्म-आत्मधर्म छे.

पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपने जाण्या विना लोकोने एम लागे छे के आ बधां परनां कार्य अमे करीए छीए. पण भाई! ए तो तारी भ्रमणा ज छे केमके परनुं कार्य आत्मा करी शकतो ज नथी. पर साथे आत्माने कर्ताकर्मभाव छे ज नहि. आ तो हजु सम्यग्दर्शन केम थाय एनी वात छे. मुनिदशा ए तो एनाथी आगळनी कोई अलौकिक दशा छे.


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अहाहा...! अंतरमां जेने त्रणकषायना अभावपूर्वक वीतरागी शांति प्रगट होय अने बहारमां देहनी जेने नग्न दिगंबर अवस्था होय, वस्त्रनो एक धागो पण राखवानी जेने वृत्ति उठती नथी, पोता माटे बनावेल आहार जे प्राण जाय तोपण लेता नथी अने जेओ जंगलवासी थया छे-आवी जेनी दशा थई छे ते भावलिंगी संतने साची मुनिदशा छे. अहो! मुनिदशा कोई अलौकिक आनंदनी दशा छे! अहीं तो प्रथम भूमिकानी सम्यग्दर्शननी वात छे. कहे छे-

पोताना शुद्ध ज्ञानस्वरूपने भूलीने, अज्ञानवश आत्मा रागनो कर्ता थाय अने राग एनुं कार्य थाय पण जडकर्मनी अवस्थाने आत्मा करे ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी. तेवी रीते जडकर्म जडकर्मनी अवस्थाने करे पण जीवना रागादिना परिणामने करे ए त्रणकाळमां सत्यार्थ नथी. कह्युं ने के कर्ता कर्ममां नथी अने कर्म कर्तामां नथी. एटले के जीव मिथ्यात्वनो कर्ता छे पण जड कर्मनो कर्ता नथी अने जडकर्म छे ते जीवना मिथ्यात्वभावनो कर्ता नथी. परस्पर अभाव छे ने? तेथी परस्पर कर्ताकर्मभाव नथी.

हवे कहे छे-‘ज्ञाता ज्ञातरि, कर्म सदा कर्मणि’ आ प्रमाणे ज्ञाता सदा ज्ञातामां ज छे अने कर्म सदा कर्ममां ज छे ‘इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता’ एवी वस्तुस्थिति प्रगट छे.

शुं कह्युं? ज्यारे परना कर्तापणानी बुद्धि छूटी जाय छे त्यारे हुं ज्ञायक छुं -एम ज्ञातापणानी द्रष्टि खीली जाय छे. छठ्ठी गाथामां आवे छे के परद्रव्यनी पर्याय उपरथी लक्ष छूटी जतां स्वद्रव्य उपर लक्ष जाय छे. अर्थात् परद्रव्यनो हुं कर्ता नथी एम ज्यां अंदर निर्णय कर्यो त्यां एकदम स्वद्रव्य उपर लक्ष जाय छे अने स्वद्रव्यनुं लक्ष थतां रागनुं पण कर्तापणुं छूटी जाय छे. आम ज्ञाता ज्ञातामां ज छे अने कर्म कर्ममां ज छे एवुं सहज भान थाय छे. भाई! आ समजवानो अत्यारे अवसर छे.

जुओने! आ शरीर तो धूळ, माटी छे. आयु पूरुं थतां एक क्षणमां छूटी जशे. स्थिति पूरी थये क्रोड उपाय करीने पण कोई राखवा समर्थ नथी. माटे देहनी स्थिति पूरी न थाय त्यां सुधी आवुं तत्त्व समजी ले, भाई! दुनिया माने के न माने. एनाथी तने शुं संबंध छे? अहाहा...! आ तो चीज ज जुदी छे; बस ज्ञाता छे. शुभाशुभ विकल्प सहित आखा जगतथी भगवान जगदीश भिन्न ज्ञाता छे एम जिनेश्वर प्रभु कहे छे.

शुभराग हो भले, पण ते जड अचेतन छे. ते शुद्ध चैतन्यमय आत्मानी चीज नथी. गमे तेवो मंद होय तोपण राग चैतन्यस्वरूप आत्मानुं ज्ञान करावे एवी एनामां ताकात नथी. तेम व्यवहार छे ते निश्चयने पमाडे एवी व्यवहारमां ताकात नथी. जेनो वस्तुमां अभाव छे ते वस्तुने केम पमाडे? अरे! भगवानना विरह पडया! अवधिज्ञानी अने मनःपर्ययज्ञानी पण रह्या नहि! भावश्रुतज्ञानना आधारे पोताने समजवानुं अने बीजाने समजाववानुं रह्युं!


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बीजाने समजाववाना परिणाम के दया, दानना परिणाम ए कांई धर्म नथी. क्रोड रूपिया दानमां आपे त्यां रागना मंद परिणाम होय तो पुण्य थाय, धर्म न थाय. जन्म-मरण रहित थवानो राग कांई उपाय नथी. अहीं कहे छे-आत्मा ज्ञाता छे ते ज्ञातामां ज छे. रागमांय ते नथी अने जड कर्ममांय ते नथी. भाई! आवी अंतर्द्रष्टि थवी एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. ए सिवाय बीजुं धूळधाणी छे.

भाई! तुं कोण छो! जडनी पर्याय अने परनी पर्याय थाय तेनो तुं कर्ता नथी. भगवान! तुं तो ज्ञाता छो. स्त्री, पुरुष के नपुंसकना लिंग तारामां नथी. मनुष्य, तिर्यंच, देव आदि गति तारा स्वरूपमां नथी. ते गतिना कारणरूप जे शुभाशुभभाव छे ते पण तारा स्वरूपमां नथी. आवो भगवान ज्ञाता तुं ज्ञातामां ज छे. तुं कदीय रागमां के परमां आव्यो नथी. हुं रागी छुं. राग मारुं कर्तव्य छे एम मान्युं भले होय, पण रागमां तुं कदीय आव्यो नथी.

प्रवचनसार गाथा २०० मां कह्युं छे के ज्ञायक तो ज्ञायक ज रह्यो छे. सदा शुद्ध चिद्रूप, एकरूप, शाश्वत वस्तु हुं छुं एम ज्यां अंतरमां अनुभव थयो त्यां भान थयुं के ज्ञाता तो त्रिकाळ ज्ञातापणे ज रह्यो छे. ते कदीय रागमां के व्यवहारमां आव्यो नथी. व्यवहार तो मननो धर्म छे, चिंता छे, विकल्प छे. ज्यारे भगवान आत्मा तन, मन, वचन अने विकल्पथी रहित वस्तु छे. माटे हे भाई! बहारथी द्रष्टि खसेडीने शुद्ध द्रव्यमां द्रष्टि लगाव. व्यवहारना विकल्पथी खसीने शुद्ध चैतन्यतत्त्वमां अंतर्द्रष्टि कर.

प्रभु! आ तारा हितनी वात छे. व्यवहारना विकल्पथी आत्मा जणाय एम नथी केमके राग छे ते अचेतन छे, अंधकार छे. जेम सूर्य प्रकाश अने अंधकार ए बेमां फेर छे तेम चैतन्यस्वभाव अने रागमां फेर छे. आत्मा चैतन्यमय झळहळ ज्योति ज्ञाता प्रभु-सदा ज्ञाता ज छे. अहाहा...! एक शब्दमां तो केटलुं भर्युं छे! जाणनार जाणनारमां ज छे. जाणनार परने जाणे एम पण नहि. जाणनार पोताने जाणे एवो ए पोते छे. जाणनार सदा जाणनार ज छे. माटे विकल्पथी खसी जा अने ज्यां पूर्णानंदस्वरूप भगवान ज्ञायक छे त्यां द्रष्टि दे. ज्ञाता सदा ज्ञातामां ज रह्यो छे अने कर्म सदा कर्ममां ज छे; राग सदा रागमां ज छे.

प्रथम जड कर्ममां आत्मा नथी अने आत्माना अशुद्ध परिणाममां जड कर्म नथी एटलुं सिद्ध करीने पछी वात फेरवीने कह्युं के भगवान आत्मा चिद्रूप, ज्ञानरूप, आनंदस्वरूप, इश्वर अपरिमित स्वभावरूप छे. तेना स्वभावनी शक्ति बेहद-अपरिमित्त छे. एवो ज्ञाता सदा ज्ञातामां ज छे. तेनी अंतर्द्रष्टि करवी एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे, ए धर्मनी प्रथम दशा छे.

बापु! चारित्र तो कोई अलौकिक दशा छे! अहाहा...! धन्य अवतार! धन्य ए मुनिदशा!! ज्यां अतीन्द्रिय आनंदनी छोळो उछळे छे ए मुनिदशा धन्य छे. जाणे


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चालता सिद्ध! ज्यां पंचमहाव्रतनो विकल्प के दया पाळवानो विकल्प अंतरनी शांतिने खलेल करनारा भासे छे ते मुनिदशा कोई अपूर्व चीज छे. अहाहा...! ज्ञाता सदा ज्ञातामां ज छे, कर्म सदा कर्ममां ज छे अने राग रागमां ज छे आवी वस्तुस्थिति जेमां प्रगट भासे छे ते मुनिदशानी शी वात!

सम्यग्दर्शन पामवामां परनी अपेक्षा नथी, व्यवहारनी पण अपेक्षा नथी. आवी वस्तुनी मर्यादा प्रगट छे. ‘तथापि बत’ तोपण अरे! ‘नेपथ्ये एषः मोहः किम् रभसा नानटीति’ नेपथ्यमां आ मोह केम अत्यंत जोरथी नाची रह्यो छे? (एम आचार्यने खेद अने आश्चर्य थाय छे.)

अहा! अज्ञानीने ज्यां त्यां मोह नाची रह्यो छे. में दान कर्यां, में दया पाळी, में व्रत कर्यां, में पुण्य कर्यां-एलो अज्ञानीने परना अने रागना कर्तापणानो मोह नाची रह्यो छे. शरीर, मन, वाणीनी क्रियानो हुं कर्ता तथा वीतराग स्वभावथी विरुद्ध एवा विकारना परिणामने करे त्यारे ते जातना कर्मनो जे बंध थाय ते कर्मनो हुं कर्ता-एवो मोह भगवान! तने केम नाचे छे? आचार्यदेव खेद अने आश्चर्य प्रगट करे छे के-प्रभु! आ तने शुं थयुं? तुं भगवान स्वरूप छो ने! तुं पामरतामां केम नाची रह्यो छे? तारी अखंड प्रभुताने छोडी तुं दया, दानना विकल्पनी पामरतामां केम भराई गयो छे?

भाई! जगतमां चालता प्रवाहथी आ तद्न जुदी वात छे. बापु! आ तो अनादिनो मार्ग छे. अनंत तीर्थंकरो, अनंत केवळीओ अने अनंत संतोए कहेलो आ मार्ग छे. भाई! तुं चैतन्य-चैतन्य परमात्मरूप परमस्वरूप छे. ज्ञानपरमस्वरूप, आनंदपरमस्वरूप, सुखपरमस्वरूप, वीर्यपरमस्वरूप, वीतरागता परमस्वरूप -एम अनंत अनंत परमस्वरूपनो महासागर तुं छो. तेमां आ राग अने मोह केम नाचे छे? तारा परमस्वरूपमां नथी, छतां अरेरे! पर्यायमां आ मोह केम नाचे छे? एम आचार्यदेवने खेद अने आश्चर्य थाय छे.

* कळश ९८ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कर्म तो पुद्गल छे, तेनो कर्ता जीवने कहेवामां आवे ते असत्य छे. ते बंनेने अत्यंत भेद छे, जीव पुद्गलमां नथी अने पुद्गल जीवमां नथी; तो पछी तेमने कर्ताकर्मभाव केम होई शके?’

आत्मा कर्ता अने जड कर्मनी अवस्था एनुं कार्य एम केम होई शके? वळी जड कर्म कर्ता अने जीवना विकारना परिणाम एनुं कार्य एम केम होई शके? (न होई शके.) घणानो मोटो भ्रम छे के कर्मने लईने विकार थाय, पण एम छे नहि. निमित्तथी विकार थाय एम कथन शास्त्रमां आवे तेनो अर्थ निमित्तथी विकार थाय


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एम नथी पण निमित्तना आश्रयथी विकार थाय एम एनो अर्थ छे. अहीं तो आ स्पष्ट वात छे के जीव पुद्गलमां नथी, पुद्गल जीवमां नथी; तो पछी तेमने कर्ता-कर्मभाव केम होई शके? हवे कहे छे.

‘माटे जीव तो ज्ञाता छे ते ज्ञाता ज छे, पुद्गलकर्मनो कर्ता नथी; अने पुद्गलकर्म छे ते पुद्गल ज छे, ज्ञातानुं कर्म नथी. आचार्ये खेदपूर्वक कह्युं छे के-आम प्रगट भिन्न द्रव्यो छे तोपण ‘‘हुं कर्ता छुं अने आ पुद्गल मारुं कर्म छे’’ एवो अज्ञानीओनो आ मोह (- अज्ञान) केम नाचे छे?’

जुओ, जडकर्मनी पर्यायनो अने परद्रव्यनो आत्मा कर्ता नथी एम आचार्यदेव अहीं सिद्ध करे छे. त्यारे कोई वळी एम कहे छे के परद्रव्यनो आत्माने कर्ता न माने ते दिगंबर नथी. अरे भाई! आ तुं शुं कहे छे? भगवान! तने शुं थयुं छे? जरा विचार कर. आत्मा अने पुद्गलने कर्ताकर्मभाव त्रणकाळमां नथी.

संप्रदायमां स्त्रीने मुक्ति माने, वस्त्रसहित साधुपणुं माने, केवळी भगवानने आहार माने ए बधी जूठी मान्यताओ छे, कल्पित छे. वळी भगवान केवळीने एक समये केवळदर्शन अने केवळज्ञान बंने होय छे. एवी ज ए अवस्थानी अद्भुतता छे; छतां एक समयमां ज्ञान अने बीजा समयमां दर्शन केवळीने होय एवुं जे माने ते यथार्थ नथी, वस्तुस्वरूप नथी. केवळीना केडायतो दिगंबर संतो एम कहे छे के केवळज्ञान अने केवळदर्शन भगवान केवळीने एक समयमां होय छे. अरे! धर्मनुं वास्तविक स्वरूप शुं छे अने ते केम प्रगट थाय एनी लोकोने खबर नथी, दरकार पण नथी.

मांदगीनो खाटलो बार महिना रहे तो एने मुंझवण थाय; परंतु अनंतकाळथी जन्म- मरण करतो आवे छे एनी एने मूंझवण थती नथी! अरे भाई! आत्माना सुखना तने विरहा पडया छे. तुं सुखना विरहे दुःखना वेदनमां पडयो छुं तेनी तने केम दरकार नथी, केम मूंझवण नथी? तारुं स्वरूप तो सदा ज्ञातारूप छे. भाई! आ देह तो क्षणमां छूटी जशे. तुं परना कर्तापणाना मोहनी जाळमां फसायो छे त्यांथी नीकळी जा.

अज्ञानी हुं परद्रव्यनां कार्य करुं छुं एवी भ्रमणानी भूल-भूलामणीमां भराई गयो छे. तेने ज्ञानीओ अहीं मार्ग बतावे छे के-जीव ज्ञाता छे ते ज्ञाता ज छे, पुद्गलकर्मनो कर्ता नथी, अने पुद्गलकर्म छे ते पुद्गल ज छे, ज्ञातानुं कर्म नथी. आचार्यदेवे खेदपूर्वक कह्युं छे के-आ प्रगट भिन्न द्रव्यो छे तोपण ‘हुं कर्ता छुं अने आ पुद्गल मारुं कर्म छे’ एवो अज्ञानीनो आ मोह केम नाचे छे?

* * *

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अथवा जो मोह नाचे छे तो भले नाचो; तथापि वस्तुस्वरूप तो जेवुं छे तेवुं ज छे- एम हवे कहे छेः-

* कळश ९९ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अचलं’ अचळ, ‘व्यक्तं’ व्यक्त अने ‘चित्–शक्तीनां निकरभरतः अत्यन्त गम्भीरम्’ चित्शक्तिओना (-ज्ञानना अविभाग परिच्छेदाना) समूहना भारथी अत्यंत गंभीर ‘एतत् ज्ञानज्योतिः’ आ ज्ञानज्योति ‘अन्तः’ अंतरंगमां ‘उच्चैः’ उग्रपणे ‘तथा ज्वलितम्’ एवी रीते जाज्वल्यमान थई के-

अहाहा...! शुं कहे छे? के आत्मा चित्शक्तिओना समूहनो भर छे, मोटो ज्ञाननो ढगलो छे. जेम गाडामां ठांसीने घास भरे एने भर भर्यो कहेवाय छे. तेम भगवान आत्मा ज्ञानशक्तिओनो भर कहेतां भंडार छे. वळी ते अचळ नाम चळे नहि तेवो नित्य धातुमय छे, व्यक्त अर्थात् प्रगट छे. चैतन्यधातुमय भगवान आत्मा प्रगट छे. पर्यायनी अपेक्षाए अव्यक्त कह्यो छे पण वस्तु अपेक्षाए तो ए सदा व्यक्त छे, प्रगट छे.

पर्याय छे ते द्रव्यनी उपर ने उपर तरे छे, द्रव्यमां प्रवेशती नथी. शुं कह्युं? आ शरीर, मन, वाणी अने दया, दान आदि विकल्पो वस्तुमां प्रवेशता नथी ए तो छे, पण दया, दान आदि विकल्पने जाणनारी ज्ञाननी जे पर्याय छे ते पण द्रव्यमां प्रवेशती नथी. चीज बहु सूक्ष्म, भाई! आत्मा आवो चित्शक्तिओना एटले ज्ञानना अविभाग परिच्छेदोना समूहना भारथी अत्यंत गंभीर ज्ञानज्योतिस्वरूप छे.

अहाहा...! आत्माना ज्ञान अने आनंदना गंभीर स्वभावनुं शुं कहेवुं? एनी शक्तिना सत्त्वनी मर्यादा शुं होय? अहाहा...! अनंत अनंत अनंत एवुं ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत आनंद, अनंत शांति, अनंत स्वच्छता, अनंत वीर्य, अनंत प्रभुता-अहाहा...! आवी अनंत चित्शक्तिना समूहथी भरेलो अत्यंत गंभीर भगवान आत्मा छे. चित्शक्ति कहो के गुण कहो; ज्ञानगुण एवा अनंत गुणोनो समूह प्रभु आत्मा छे. अत्यंत गंभीर छे अर्थात् एनी शक्तिनी उंडपनो पार नथी, अपरिमित शक्तिना समूहथी भरेलो छे. संख्याए शक्तिओ अनंत छे अने एकेक शक्तिनो स्वभाव पण अनंत छे.

आवा अनंत स्वभावथी भरेला अनंत महिमावंत पोताना आत्माने जाणे नहि अने परनी दया करे ते आत्मा अने दान आपे ते आत्मा एम खोटी मान्यता करी करीने प्रभु! तुं अनंतकाळथी संसारमां आथडे छे. अहीं कहे छे-भगवान! जेनो देखवा-जाणवानो बेहद स्वभाव छे एवा देखनाराने देख अने जाणनाराने जाण. तेथी तारुं अविचळ कल्याण थशे.


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भगवाननी भक्तिमां भक्तो कहे छे ने-के भगवान! आप सिद्ध छो, मने सिद्धपद देखाडो. त्यां सामेथी पडघो पडे छे के-आप सिद्ध छो, तुं तारामां सिद्धपद जो. अहाहा...! आवो आत्मा स्वभावे सिद्धस्वरूप छे, केवळज्ञानस्वरूप छे. तेमां अंतर्निमग्न थई स्थित थतां पर्यायमां व्यक्त सिद्धस्वरूप थई जाय छे.

भगवान! तने आत्माना सामर्थ्यनी खबर नथी. आत्मा चित्शक्तिओना अर्थात् ज्ञानना अविभाग परिच्छेदोना समूहना भारथी भरेली गंभीर ज्ञानज्योतिस्वरूप वस्तु छे. जेना बे विभाग न थाय तेवा आखरी सूक्ष्म अंशने अविभाग परिच्छेद कहे छे. एवा अनंत अनंत अविभाग अंशनो पिंड ते ज्ञान छे. एवा चित्शक्तिना समूहना भारथी भरेली ज्ञाननी ज्योत प्रभु आत्मा छे. अहीं कहे छे-ते ज्ञानज्योति ‘अन्तः उच्चैः तथा ज्वलितम्’ अंतरंगमां उग्रपणे एवी रीते जाज्वल्यमान थई के ‘यथा कर्ता कर्ता न भवति’ आत्मा अज्ञानमां कर्ता थतो हतो ते हवे कर्ता थतो नथी; ‘यथा ज्ञानं ज्ञानं भवति च’ वळी ज्ञान ज्ञानरूप ज रहे छे अने ‘पुद्गलः पुद्गलः अपि’ पुद्गल पुद्गलरूप ज रहे छे.

अज्ञानमां पहेलां रागनो अने परनो कर्ता मानतो हतो ते हवे ज्यां पोताना ज्ञानस्वरूप थयो त्यां कर्ता थतो नथी. वळी रागना निमित्ते जे पुद्गल कर्मरूपे थतुं हतुं ते हवे अज्ञान मटतां पुद्गल कर्मरूप थतुं नथी. अहीं पोते रागनो कर्ता थतो नथी, अने त्यां पुद्गल कर्मरूप थतुं नथी. वळी ज्ञान ज्ञानरूप ज रहे छे, अने पुद्गलरूप ज रहे छे. भगवान चिद्घन चिद्घन ज रहे छे. बे जुदां जाण्यां तेनुं नाम भेदज्ञान छे अने तेनुं फळ केवळज्ञान छे, सिद्धपद छे.

* कळश ९९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आत्मा ज्ञानी थाय त्यारे ज्ञान तो ज्ञानरूप ज परिणमे छे, पुद्गलकर्मनो कर्ता थतुं नथी; वळी पुद्गल पुद्गल ज रहे छे, कर्मरूपे परिणमतुं नथी. आम यथार्थ ज्ञान थये बन्ने द्रव्यना परिणामने निमित्तनैमित्तिक भाव थतो नथी. आवुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टिने होय छे.’

अज्ञानअवस्थाने लईने विकार थतो हतो अने तेना निमित्ते पुद्गल कर्मरूपे बंधातुं हतुं. वळी कर्मनो उदय आवतां तेना निमित्ते विकाररूप परिणमतो हतो अने नवां कर्म बंधातां हतां. परंतु हवे ज्ञानभाव प्रगट थतां एवी जातनो निमित्तनैमित्तिकभाव थतो नथी.

टीकाः– ‘आ प्रमाणे जीव अने अजीव कर्ताकर्मनो वेश छोडीने बहार नीकळी गया.’

* भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जीव अने अजीव बन्ने कर्ताकर्मनो वेश धारण करी एक थईने रंगभूमिमां


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दाखल थया हता. सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान के जे यथार्थ देखनारुं छे तेणे ज्यारे तेमनां जुदां जुदां लक्षणथी एम जाणी लीधुं के तेओ एक नथी पण बे छे, त्यारे तेओ वेश दूर करी रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गया. बहुरूपीनुं एवुं प्रवर्तन होय छे के देखनार ज्यां सुधी ओळखे नहि त्यां सुधी चेष्टा कर्या करे, परंतु ज्यारे यथार्थ ओळखी ले त्यारे निजरूप प्रगट करी चेष्टा करवी छोडी दे. तेवी रीते अहीं पण जाणवुं.

ज्यां आत्मानुं भान थयुं, सम्यग्ज्ञान थयुं त्यां ज्ञान ज्ञानरूपे रही गयुं अने पुद्गलकर्म पुद्गलरूप ज थई जाय छे अने कर्ताकर्मपणुं छूटी जाय छे.

‘‘जीव अनादि अज्ञान वसाय विकार उपाय बणै करता सो,
ताकरि बंधन आन तणूं फल ले सुख दुःख भवाश्रमवासो;
ज्ञान भये करता न बने तब बंध न होय खुलै परपासो,
आतममांहि सदा सुविलास करै सिव पाय रहै निति थासो.’’

जीव अनादिथी पोताना चैतन्यस्वरूपना अज्ञानने कारणे राग-द्वेषरूप विकार उपजावीने कर्ता थतो हतो, तेथी बंधन थतुं हतुं अने तेने लईने चोरासीना चक्करमां भववास करतो सुखदुःख भोगवतो हतो. हवे ज्यारे आत्मानुं भान थयुं त्यारे कर्ता थतो नथी, मात्र जाणनार ज रहे छे. तेथी बंधन थतुं नथी, परनो पास (बंधन) छूटी जाय छे, अने पोताना आनंदमां सदा विलास करे छे, अने मोक्ष जाय छे. मोक्ष प्रगट थया पछी अनंतकाळ सुधी नित्य अनंतसुखरूप रहे छे.

आम आ समयसारशास्त्र उपर परम कृपाळु सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीनां प्रवचननो बीजो कर्ताकर्म अधिकार समाप्त थयो.

* * *
[प्रवचन नं. १९९ चालु थी २०६ * दिनांक १२-१०-७६ थी १९-१०-७६]


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प्रवचन रत्नाकर
[भाग-६]
परम पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामीनां
श्री समयसार परमागम उपर अढारमी वखत थयेलां प्रवचनो
ः प्रकाशकः
श्री कुंदकुंद कहान परमागम प्रवचन ट्रस्ट
मुंबई


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We are extremely grateful to
www.AtmaDharma.comfrom where we have
source the present shashtra of “Pravachan
Ratnakar Part- 1”.
Since we have sourced the shashtra of
“Pravachan Ratnakar Part- 1” from
“www.AtmaDharma.com” for which they have
taken enough care to reproduced the paper
version of the original script. Incase if you find
any inconsistency or error then please address

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(हरिगीत)
संसारी जीवनां भावमरणो टाळवा करुणा करी,
सरिता वहावी सुधा तणी प्रभु वीर! तें संजीवनी;
शोषाती देखी सरितने करुणाभीना हृदये करी,
मुनिकुंद संजीवनी समयप्राभृत तणे भाजन भरी.
(अनुष्टुप)
कुंदकुंद रच्युं शास्त्र, साथिया अमृते पूर्या,
ग्रंथाधिराज! तारामां भावो ब्रह्मांडना भर्या.
(शिखरिणी)
अहो! वाणी तारी प्रशमरस-भावे नीतरती,
मुमुक्षुने पाती अमृतरस अंजलि भरी भरी;
अनादिनी मूर्छा विष तणी त्वराथी ऊतरती,
विभावेथी थंभी स्वरूप भणी दोडे परिणति.
(शार्दूलविक्रिडित)
तुं छे निश्चयग्रंथ भंग सघळा व्यवहारना भेदवा,
तुं प्रज्ञाछीणी ज्ञान ने उदयनी संधि सहु छेदवा;
साथी साधकनो, तुं भानु जगनो, संदेश महावीरनो,
विसामो भवक्लांतना हृदयनो, तुं पंथ मुक्ति तणो.
(वसंततिलका)
सुण्ये तने रसनिबंध शिथिल थाय,
जाण्ये तने हृदय ज्ञानी तणां जणाय;
तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ,
तुं रीझतां सकलज्ञायकदेव रीझे.
(अनुष्टुप)
बनावुं पत्र कुंदननां, रत्नोना अक्षरो लखी;
तथापि कुंदसूत्रोनां अंकाये मूल्य ना कदी.

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(हरिगीत)
संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली,
ज्ञानी सुकानी मळ्‌या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्‌यो अहो! गुरु क्हान तुं नाविक मळ्‌यो.
(अनुष्टुप)
अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर-वीर-कुंदना!
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
(शिखरिणी)
सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे,
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
(शार्दूलविक्रीडित)
हैयुं ‘सत सत, ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छूटे,
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
-रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां-अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञान महिमा हृदये रहे सर्वदा.
(वसंततिलका)
नित्ये सुधाझरण चंद्र! तने नमुं हुं,
करुणा अकारण समुद्र! तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेघ! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं.
(स्रग्धरा)
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती,
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं, -मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!

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क्रम गाथा / कळश प्रवचन नंबर पृष्ठांक १ कळश-१०० २०८ थी २१० २ कळश-१०१ ’’ ३ गाथा-१४प ’’ ४ कळश-१०२ ’’ प गाथा-१४६ २१० ४० ६ गाथा-१४७ २११ ४प ७ गाथा १४८-१४९ २१२ प६ ८ गाथा-१प० २१२ थी २१४ ६२ ९ कळश-१०३ ’’ ६२ १० कळश-१०४ ’’ ६३ ११ गाथा-१प१ २१४-२१प ८३ १२ गाथा-१प२ २१प ९२ १३ गाथा-१प३ २१६ ९प १४ कळश-१०प २१६ ९६ १प गाथा-१प४ २१७ १०प १६ गाथा-१पप २१८-२१९ ११४ १७ गाथा-१प६ २१९ थी २२१ १२८ १८ कळश १०६ थी १०८ ’’ १२९ १९ गाथा १प७ थी १प९ २२१ १४६ २० गाथा-१६० २२२ १पप २१ गाथा १६१ थी १६३ २२३ थी २२८ १६६ २२ कळश-१०९ ’’ १६७ २३ कळश-११० ’’ १६८ २४ कळश-१११ ’’ १६९ २प कळश-११२ ’’ १७०


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क्रम गाथा / कळश प्रवचन नंबर पृष्ठांक २६ कळश-११३ २२८-२२९ २१८ २७ गाथा १६४-१६प ’’ २१९ २८ गाथा-१६६ २३० २३३ २९ गाथा-१६७ २३१ २४३ ३० गाथा-१६८ २३२ २प० ३१ कळश-११४ ’’ २प१ ३२ गाथा-१६९ २३३ २प९ ३३ कळश-१२प २३३ २६० ३४ गाथा-१७० २३४ २६७ ३प गाथा-१७१ २३४ २७० ३६ गाथा-१७२ २३प-२३६ २७४ ३७ कळश-११६ ’’ २७प ३८ कळश-११७ ’’ २७६ ३९ गाथा १७३-१७६ २३७ थी २४० २९२ ४० कळश-११८ ’’ २९४ ४१ कळश-११९ ’’ २९प ४२ गाथा १७७-१७८ २४० थी २४३ ३१४ ४३ कळश-१२० ’’ ३१प ४४ कळश-१२१ ’’ ३१६ ४प गाथा १७९-१८० २४४ थी २४७ ३३६ ४६ कळश १२२-१३३ ’’ ३३७ ४७ कळश-१२४ ’’ ३३८

संवर अधिकार

४८ कळश-१२प २प२ थी २प४ ३६० ४९ गाथा-१८१ थी १८३ ’’ ३६१ प० कळश-१२६ ’’ ३६३