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अहा! भगवान सर्वज्ञदेवनुं कहेलुं आ सत्य तत्त्व छे. कोईने ते न बेसे अने न गोठे एटले विरोध करे पण तेथी शुं करीए? अहीं तो कोई साथे विरोध छे ज नहि. प्रभु! भगवान आत्मा केवो छे अने ते केम प्राप्त थाय तेनी तने खबर नथी. भगवान आत्मा अनादिअनंत, केवळ एक, निराकुळ, अखंड प्रतिभासमय, विज्ञानघन-स्वरूप परमात्म-द्रव्य छे. अने ते विकल्प रहित निर्विकल्पदशाथी प्राप्त थाय छे, व्यवहारना विकल्पथी प्राप्त थतो नथी. अहाहा...! स्वरूपमां एकाग्र थयेली ज्ञाननी पर्यायनुं एटलुं सामर्थ्य छे के एमां परिपूर्ण परमात्मरूप समयसारनो प्रतिभास थाय छे अने ते ज समये आत्मा आवो परिपूर्ण छे एवुं श्रद्धान प्रगट थाय छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे अने आ ज जैनदर्शन छे.
इन्द्रो अने गणधरोनी सभामां त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञदेव जे वात कहे छे ते वात अहीं आचार्यदेव कहे छे. कहे छे-केवळ एक, अनंत विज्ञानघनरूप परमात्मा जे वखते ज्ञाननी दशामां प्रतिभासे छे ते ज समये आवो ज आत्मा छे एम श्रद्धाय छे. आवुं श्रद्धान ते सम्यग्दर्शन छे. बाकी शास्त्र द्वारा के नयना विकल्प द्वारा आत्मा सम्यक् प्रकारे देखवामां आवतो नथी. बार अंगनो सरवाळो आ छे. बापु! सम्यग्दर्शन कोई अपूर्व चीज छे.
सम्यग्दर्शन शुं चीज छे? तो कहे छे-भावबंध अने भावमोक्षनी पर्यायना भेदथी रहित जे त्रिकाळी शुद्ध अनंत विज्ञानघनस्वरूप निज परमात्मद्रव्य छे तेनो निर्विकल्प अनुभव थवो ते सम्यग्दर्शन छे. भावबंध अने भावमोक्ष पर्याय छे अने वस्तु आत्मा तो एनाथी रहित त्रिकाळी द्रव्य छे. द्रव्यबंधनी तो वात ज शी? जडकर्म तो तद्न भिन्न छे. जडकर्म तो बाह्य निमित्त छे. रागमां अटकवुं ते भावबंध छे अने रागरहित थवुं ते भावमोक्ष छे. बन्ने पर्याय छे अने वस्तु आत्मा जे छे ते भावबंध अने भावमोक्षथी रहित सदाय अबंध मुक्तस्वरूप ज छे.
वीतराग सर्वज्ञदेव अरिहंत परमात्मानी समोसरणमां ॐकारध्वनि छूटे छे. ते निरक्षरी एटले एकाक्षरी होय छे. ते सांभळी गणधरदेव आदि आचार्यो शास्त्ररचना करे छे. ए भगवाननी वाणीथी के सांभळवाना विकल्पथी आत्मा जाणवामां आवे छे एम नथी, परंतु भगवाने जेवो एक, अखंड, अनंत विज्ञानघनस्वरूप आत्मा कह्यो एवा आत्मानो निर्विकल्प अनुभव करे छे त्यारे ते काळमां आत्मा सम्यक् प्रकारे देखवामां आवे छे. स्वद्रव्यमां ढळेली ज्ञाननी पर्यायमां पूर्ण परमात्मस्वरूप द्रव्यनो प्रतिभास जे समये थाय छे ते ज समये ए पूर्ण वस्तुनुं श्रद्धान प्रगट थाय छे अने एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
जुओ, अहीं आगममंदिरमां चारे बाजु जिनवाणी कोतरायेली छे. पोणाचार
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लाख शब्दो छे. जेम पांच परमेश्वर छे तेम आ पांच शास्त्र छे-समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय अने अष्टपाहुड. आ बधां शास्त्र आ परमागममंदिरमां आरसमां कोतराई गयां छे. तेनी समीप बेसीने आ वात चाले छे के जे समये परमात्मरूप समयसारनो ज्ञानमां अखंड प्रतिभास थाय छे ते ज समये आत्मा श्रद्धामां-प्रतीतिमां आवे छे अने ए ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.
सम्यग्दर्शनमां अनंतगुणनी अंशे निर्मळ पर्याय प्रगट थाय छे. भगवान आत्मा चैतन्यराजा परमात्मस्वरूपे नित्य विराजमान छे. तेनो निर्विकल्प अनुभव थतां ते ज समये ते जेवो छे तेवो सम्यक् श्रद्धाय छे अने जणाय छे. तेथी समयसार ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान भगवान समयसारथी भिन्न नथी, अभिन्न छे. ते आत्मानी पर्याय छे माटे आत्मा ज छे. जेम जगतथी भिन्न छे तेम समयसार सम्यग्दर्शनथी भिन्न नथी. माटे समयसार ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान शुं चीज छे अने ते केम प्रगट थाय ए वात आ गाथामां कही छे. मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानने आत्मसंमुख करी, अत्यंत विकल्परहित थईने, तत्काळ निजरसथी ज प्रगट थता समयसारने ज्यारे आत्मा अनुभवे छे ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे श्रद्धामां आवे छे अने जणाय छे. तेथी समयसार ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे, अर्थात् सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान समयसारथी जुदां नथी, एक ज छे.
निजरसथी ज प्रगट थतो ते समयसार केवो छे? तो कहे छे-
१. आदि-मध्य-अंतरहित छे अर्थात् अनादिअनंत, त्रिकाळ, शाश्वत, नित्य वस्तु छे. २. अनाकुळ छे. श्रुतज्ञानमां जे विकल्प ऊठे छे ते आकुळतारूप छे अने भगवान आत्मा निराकुळ आनंदस्वरूप छे. अतीन्द्रिय आनंदनो सागर प्रभु आत्मा छे.
३. केवळ एक छे. आ द्रव्य अने आ पर्याय एवो भेद पण जेमां नथी एवो केवळ एक छे. अनंतगुणनो पिंड प्रभु गुण-गुणीना भेदथी रहित अभेद एकरूप ध्रुव वस्तु छे.
४. आखाय विश्व उपर जाणे के तरतो होय एवो छे. एटले के रागथी मांडीने आखाय लोकालोकथी भिन्न वस्तु छे.
प. अखंड प्रतिभासमय छे. स्वसंवेदनज्ञानमां जेवो पूर्णस्वरूप छे तेवो प्रतिभासमान थाय छे. जिनस्वरूप परिपूर्ण आत्मा छे तेवो ज्ञानमां प्रतिभासित थाय छे. कह्युं छे ने के-
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जेमां गुण-पर्यायना खंड नथी, भेद नथी, भंग नथी एवो अभेद आत्मा परिपूर्णरूपे ज्ञानमां प्रतिभासे छे ते अखंड प्रतिभासमय छे. ज्ञानमां अखंडनो प्रतिभास थवो ते सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.
६. अनंत, विज्ञानघन छे. जेमां सूक्ष्म रागनो पण कदी प्रवेश नथी एवो अनंत विज्ञानघनस्वरूप समयसार छे.
७. आवो परमात्मरूप समयसार छे. द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मथी भिन्न चित्स्वरूप सदा सिद्धस्वरूप एवो परमात्मरूप समयसार छे.
आवा समयसारने ज्यारे आत्मा विकल्परहित थईने अनुभवे छे ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे श्रद्धामां आवे छे अने ज्ञानमां जणाय छे. तेथी समयसार ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.
आत्माने पहेलां आगमज्ञानथी ज्ञानस्वरूप निश्चय करीने पछी इन्द्रियबुद्धिरूप मतिज्ञानने ज्ञानमात्रमां ज मेळवी दईने, तथा श्रुतज्ञानरूपी नयोना विकल्पो मटाडी श्रुतज्ञानने पण निर्विकल्प करीने, एक अखंड प्रतिभासनो अनुभव करवो ते ज ‘सम्यग्दर्शन’ अने ‘सम्यग्ज्ञान’ एवां नाम पामे छे; सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कांई अनुभवथी जुदां नथी.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘नयानां पक्षैः विना’ नयोना पक्षो रहित, ‘अचलं अविकल्पभावम्’ अचळ निर्विकल्पभावने ‘आक्रामन्’ पामतो ‘यः समस्य सारः भाति’ जे समयनो (आत्मानो) सार प्रकाशे छे ‘सः एषः’ ते आ समयसार (शुद्ध आत्मा)-‘निभृतैः स्वयं आस्वाद्यमानः’ के जे निभृत (निश्चळ, आत्मलीन) पुरुषो वडे स्वयं आस्वाद्यमान छे (-आस्वाद लेवाय छे, अनुभवाय छे) ते-’
आत्मा सदा विज्ञानघनस्वरूप छे. पर्यायमां जे दया, दान, व्रत, भक्ति आदि व्यवहारना स्थूळ विकल्प उठे ए तो बहारनी चीज छे. ए विकल्प कांई (आत्म-प्राप्तिनुं) साधन नथी. ए तो छे. अहीं कहे छे-हुं द्रव्ये शुद्ध छुं, अबद्ध छुं अने पर्याये अशुद्ध छुं, रागथी बद्ध छुं एवा जे बे नयना बे पक्ष छे ते निषेधवा योग्य छे, समयसार गाथा-१४४ ] [ ३६३
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तो ‘निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी’ -एम (गाथा २७२ मां) कह्युं छे ने?
हा, त्यां स्वना आश्रये निर्वाण थाय छे एम कह्युं छे. पण अहीं तो स्वना आश्रय संबंधी जे विकल्प उठे तेनी वात छे. निश्चयनयना पक्षनो जे विकल्प उठे छे ए तो राग छे, दुःखदायक छे अने तेथी ते छोडवा योग्य छे. ए सूक्ष्म रागनो पण पोताने कर्ता माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. आत्मा तो विज्ञानघनस्वरूप प्रभु छे. ते रागनो कर्ता केम होई शके? अने ते राग वडे प्राप्त केम थाय? तेथी समस्त नयपक्षनो राग छोडावी नयपक्षरहित थवानी अहीं वात छे.
व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात तो कयांय रही गई. शास्त्रमां कोई ठेकाणे एवुं कथन आवे त्यां बीजी अपेक्षाथी वात छे. छठ्ठा गुणस्थानमां भावलिंगी मुनिराजने विकल्प होय छे. ते छूटीने सातमा गुणस्थानमां निर्विकल्प अनुभव थाय छे. खरेखर तो छठ्ठा गुणस्थाननी जे शुद्धि छे ते सातमा गुणस्थाननुं कारण छे. तेने कारण न कहेतां छठ्ठा गुणस्थानना शुभ विकल्पने कारण कह्युं ए तो उपचारथी निमित्तनुं वा सहचरनुं ज्ञान कराववा कथन कर्युं छे. पण तेथी छठ्ठाना शुभ विकल्पथी सातमुं गुणस्थान थाय छे एम न समजवुं.
अहीं कहे छे नयपक्षना जे विकल्प छे ते आकुळतामय छे अने तेनाथी आत्मा जणाय एवो नथी. जेम सूर्यबिंब तेना प्रकाश वडे जणाय, अंधकार वडे न जणाय तेम भगवान आत्मा तेना ज्ञानपर्यायरूप प्रकाशथी जणाय पण विकल्परूप अंधकारथी न जणाय.
भगवान आत्मा सदा अचळ एटले चळे नहि तेवो निर्विकल्प विज्ञानघनरूप समयसार छे. ते अचळ निर्विकल्पभावने पामतो एटले निर्विकल्प निर्मळ ज्ञाननी दशाने प्राप्त थईने प्रकाशे छे. अर्थात् समयनो सार प्रभु आत्मा चैतन्यनी निर्मळ निर्विकल्प ज्ञानप्रकाशरूप पर्याय द्वारा प्रकाशे छे पण व्यवहारथी के नयपक्षना विकल्पथी ते प्रकाशतो नथी. आवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे. विज्ञानघनस्वरूप आत्मा निर्विकल्प ज्ञाननी निर्मळ दशाथी प्राप्त थाय एवो छे पण श्रुतज्ञानना बाह्य विकल्पथी प्राप्त थाय एम नथी.
आवो समयसार एटले शुद्धात्मा निभृत एटले निश्चळ, आत्मलीन पुरुषो वडे स्वयं आस्वाद्यमान छे. अहाहा...! जे पुरुषो चिंतारहित, विकल्परहित थईने स्वरूपमां लीन थया छे तेमने आत्मा स्वयं आस्वाद्यमान छे एटले के आस्वादमां आवे छे.
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निर्मळ ज्ञान अने आनंदनी पर्याय द्वारा तेमने ज्ञानानंदस्वरूप आत्माना आनंदना स्वादनुं वेदन थाय छे. आत्मा आवो छे ने तेवो छे-एवी चिंताथी रहित आत्मलीन पुरुषो स्वयं आत्माना आनंदने अनुभवे छे.
पुरुषनो अर्थ आत्मा थाय छे. पुरुषनुं के स्त्रीनुं शरीर ते कांई आत्मा नथी. देह तो जड छे. स्त्रीनो देह हो के पुरुषनो, आत्मलीन पुरुषो वडे, अंतरना ज्ञानना प्रकाशना भाव वडे आत्मा अनुभवाय छे. आवी वस्तु छे. आ तो हजु सम्यग्दर्शननी वात चाले छे. आ १४४मी गाथानो कळश छे. अहीं सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननी वात उपाडी छे. चारित्रनी अहीं व्याख्या नथी. कहे छे-वस्तु आत्मा निर्विकल्प ज्ञानप्रकाशनो पुंज छे. ते निर्विकल्प ज्ञानना प्रकाश द्वारा प्रकाशे छे अने ते वडे ज ते आस्वाद्यमान छे. ज्ञाननी निर्मळ पर्याय द्वारा आनंदनुं वेदन थाय छे. ए वेदनमां आत्मा पूर्ण प्रतिभासे अर्थात् जणाय एवो छे. नयपक्षनो जे विकल्प छे ए तो दुःख छे, अंधकार छे. एनाथी (विकल्पथी) आत्मा जणाय एवो नथी.
आवो समयसार आत्मलीन पुरुषो द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान छे. अहीं ‘स्वयं’नो अर्थ एम छे के आत्मानुभवमां विकल्प के व्यवहारनी अपेक्षा नथी. आवी वात छे. केटलाकने पोताने गोठती वात न होय एटले राड पाडे के-एकान्त छे, एकान्त छे; एम के निश्चयथी थाय अने व्यवहारथी पण थाय एम वात नथी माटे एकान्त छे. प्रभु! तने खबर नथी. अहीं आचार्य भगवान तो एम कहे छे के-व्यवहारना पक्षथी तो धर्म न थाय पण हुं शुद्ध छुं, अबद्ध छुं, एक छुं, चेत्य छुं, द्रश्य छुं, वेद्य छुं -इत्यादि जे निश्चयनयना पक्षरूप विकल्प उठे छे एनाथी पण भगवान आत्मा प्राप्त थाय एवो नथी. आचार्य अमृतचंद्रस्वामीए नयपक्षना २० कळशमां २० बोल कह्या छे. ए नयपक्षना जे विकल्प छे ते बधा आत्मानुभव थवामां बाधक छे.
निश्चळ, आत्मलीन पुरुषो वडे आत्मा स्वयं आस्वाद्यमान छे. अहीं ‘स्वयं’ शब्द उपर वजन छे. मतलब के निर्विकल्प निर्मळ पर्याय वडे आत्मा स्वयं अनुभवाय छे; तेने कोई व्यवहार के निश्चयना पक्षना विकल्पनी अपेक्षा नथी. नियमसारनी बीजी गाथामां कह्युं छे के शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष छे, एने राग के भेदनी अपेक्षा नथी. तेम अहीं पण आत्मा स्वयं आस्वाद्यमान छे एम कह्युं छे; एटले के पोते पोताथी पोताना आनंदनुं वेदन करी शके एवो आ आत्मा छे.
हवे, जे त्रिकाळी वस्तु आत्मलीन पुरुषो वडे स्वयं अनुभवाय छे ते केवी छे? तो कहे छे-‘विज्ञान–एक–रसः भगवान्’ ते विज्ञान ज जेनो एक रस छे एवो भगवान छे. निर्मळ पर्यायमां जे वेदनमां आवे छे ते आत्मा एक विज्ञानरसमय वस्तु छे. विशेष ज्ञाननो घन एकरूप द्रव्य ते एकलो ज्ञानस्वभावनो पिंड प्रभु छे. शास्त्रनुं ज्ञान-ते ज्ञाननी आ वात नथी. आ तो सामान्य एकरूप विज्ञानघनस्वभाव वस्तुनी वात
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छे. विज्ञान ज जेनो एक रस छे एटले जेमां कोई भेद छे ज नहि एवो भगवान आत्मा छे. आ सम्यग्दर्शननो विषय अने ध्याताना ध्याननुं ध्येय छे. आवो विज्ञान-एकरसरूप आत्मा पोते पोताथी जणाय एवो छे. तेने कोई परनी अपेक्षा नथी एवी ते निरपेक्ष वस्तु छे.
प्रश्नः– आ तो एक नयनी वात आवी; साक्षेप कथन तो आव्युं नहि? बीजो नय तो आमां आव्यो नहि?
उत्तरः– भाई! परनी उपेक्षा करी एटली अपेक्षा तेमां आवी जाय छे. परनी उपेक्षा करीने आ तरफ स्वनी अपेक्षा (एकाग्रता, सन्मुखता) करी-ए रीते बन्ने नय एमां आवी जाय छे. जैनतत्त्वमीमांसामां पं. श्री फूलचंदजीए आनो सरस खुलासो कर्यो छे.
आ चोथा गुणस्थानमां सम्यग्दर्शन पामवाना काळे केवी दशा होय छे तेनी वात चाले छे. सम्यग्दर्शन अने तेनी साथे थतुं सम्यग्ज्ञान-ए बेनी वात अहीं अत्यारे चाले छे. अहीं चारित्रनी वात नथी. जोके ए वखते धर्मीने स्वरूपाचरण-चारित्रनो अंश प्रगट थाय छे, पण पांचमा गुणस्थान अने छठ्ठा-सातमा गुणस्थाननुं जे चारित्र छे ते होतुं नथी.
निर्विकल्प ज्ञानमां ज्यारे विज्ञान ज जेनो एक रस छे एवो आत्मा वेदाय छे त्यारे दर्शन पण छे, ज्ञान पण छे अने चारित्रनो अंश पण त्यां छे. आत्मामां संख्याए जेटली अनंत शक्तिओ छे ते बधानो एक अंश व्यक्तपणे वेदनमां आवे छे. श्रीमदे कह्युं छे के-‘सर्व गुणांश ते समकित.’ आत्मामां अनंत शक्तिओ छे. ज्ञान द्वारा ज्यारे द्रव्य जाणवामां आवे त्यारे द्रव्यनी ए सर्व शक्तिओनो एक अंश पर्यायमां व्यक्त थईने तेनो स्वाद आवे छे. केवळज्ञानमां सर्वदेश अने अहीं एकदेश पर्याय व्यक्त थाय छे. ते द्वारा विज्ञान-एकरसस्वरूप भगवान जाणवामां आवे छे, अने त्यारे द्रष्टिमां आवतां देखवामां-श्रद्धवामां आव्यो एम कहेवाय छे. १४४मी गाथानी टीकामां आवी गयुं के परमात्मरूप समयसारने ज्यारे आत्मा अनुभवे छे ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे श्रद्धाय छे अने जणाय छे.
वळी निर्मळ ज्ञान द्वारा जे वेदनमां आव्यो ते केवो छे? तो कहे छे-
‘पुण्यः पुराणः पुमान्’ -ते पवित्र पुराण पुरुष छे. पुण्य शब्दनो अर्थ अहीं पवित्र थाय छे. पुण्य एटले शुभभावनी अहीं वात नथी. शुभभावरूप पुण्यथी तो ए रहित छे. आत्मा स्वरूपथी परम पवित्र वस्तु छे. वळी ते पुराण कहेतां शाश्वत, त्रिकाळ वस्तु छे. शाश्वत मोजूदगीवाळी अनादिनी चीज एवो विज्ञानघनस्वरूप भगवान छे ते सम्यग्दर्शननो विषय छे. ए अनादिनी हयातीवाळी पुराणी चीज छे, कोई थी ए नवो
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करायेलो नथी, कोईए तेने उत्पन्न कर्यो छे एवुं एनुं स्वरूप नथी. टीकामां जे आव्युं के आदि- मध्य-अंतरहित छे एनो ज अर्थ अहीं पुराण कर्यो छे. ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव अनादि-अनंत प्रवाहरूप छे. प्रवाह एटले अहीं पर्यायनी वात नथी; ध्रुवप्रवाहरूप सामान्यनी वात छे.
वळी ते पुरुष छे. आत्माने सेवे ते पुरुष छे. रागने सेवे ते पुरुष नहि, ते नपुंसक छे. ४७ शक्तिना अधिकारमां एक वीर्यशक्तिनुं वर्णन छे. स्वरूपनी रचनाना सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति छे. पोताना परिपूर्ण पवित्रपदनी रचना करे तेनुं नाम वीर्य अने पुरुषार्थ छे. रागने जे रचे ते वीर्यगुणनुं कार्य नथी. अरे, व्यवहाररत्नत्रयना रागने रचे ते पण वीर्यगुणनुं कार्य नथी, ए तो नपुंसकता छे; केमके जेम नपुंसकने प्रजा न होय तेम शुभभाववाळाने पण आत्मधर्मरूप प्रजा होती नथी. रागनी रुचिवाळाने लागे के आ ते शुं वात छे! बापु! मार्ग तो आवो छे. भाई! तुं पण भगवान छो. द्रव्ये बधा आत्मा साधर्मी छे. बधा आत्मा विज्ञान ज जेनो एक रस छे एवा भगवान छे. एनी द्रष्टिमां ए भले न आवे, पण ए भगवान छे. कोई साथे वेर-विरोध न होय. अहीं पांच विशेषणथी आत्मा कह्यो छे-
१. विज्ञान ज जेनो एकरस छे एवो विज्ञान-एकरसस्वरूप छे; २. एवो भगवान छे; ३. पवित्र छे; ४. पुराण छे; प. पुरुष छे. पुमान्नो अर्थ पुरुष थाय छे.
हवे कहे छे-आवो विज्ञान ज एकरस जेनो छे तेने ‘ज्ञानं दर्शनम् अपि अयं’ ज्ञान कहो के दर्शन कहो-ते आ (समयसार) ज छे. अहाहा...!! आवो विज्ञानघन प्रभु छे! तेने ज्ञान कहो तो ते, दर्शन कहो तो ते, आनंद कहो तो ते, परमेश्वर कहो तो ते-एम अनंत नामथी कहो तो ते आ ज छे. भगवानना एक हजार आठ नामनुं वर्णन आदिपुराणमां छे. पं. श्री बनारसीदासे पण जिनसहस्रनाम स्तोत्र बनाव्युं छे; तेमां १००८ नामनुं वर्णन कर्युं छे. अहीं कहे छे-तेने ज्ञान कहो के दर्शन कहो-ते बधुं आत्मा ज छे, समयसार ज छे. अनंतगुणनुं धाम परिपूर्ण वस्तु आत्मा पोते छे. ज्ञान, दर्शन, आनंद इत्यादि बधुं कांई आत्माथी जुदी चीज नथी.
निश्चयमां व्यवहारनी अपेक्षा नथी. व्यवहार हो, बीजो नय हो; बीजो नय छे, बीजा नयनो विषय पण छे; पण ते बीजा नयनी अपेक्षा नथी. एवो निरपेक्ष मार्ग छे.
प्रश्नः– तो ‘निरपेक्षा नया मिथ्याः’ एम शास्त्रमां कह्युं छे ने?
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उत्तरः– हा, ‘निरपेक्षा नया मिथ्याः’ एम जे वात आवे छे तेनो अर्थ ए छे के- व्यवहार छे एवुं एनुं ज्ञान न करे तो ते मिथ्याज्ञान छे. पण व्यवहारथी निश्चय थाय एम एनो अर्थ नथी. निमित्त छे खरुं; निमित्त वस्तु ज नथी एम नथी. ‘उपादान जिंदाबाद, निमित्त मुर्दाबाद’-एम एकांत नथी. भाई, निमित्त बीजी बाह्य चीज छे, पण ते उपादानना कार्यनी कर्ता नथी एम वात छे. हमणां कोईए लख्युं छे के-सोनगढवाळा निमित्तने मानता नथी माटे निषेधे छे एम नथी; निमित्तथी (परमां) कार्य थाय ए वातनो तेओ निषेध करे छे-ए बराबर छे. निमित्त नथी, व्यवहार नथी-एम वात नथी; निमित्त छे, पण निमित्त परना कार्यनुं कर्ता नथी. ए रीते व्यवहार छे, पण व्यवहार निश्चयनुं वास्तविक कारण नथी. आम यथार्थ समजवुं जोईए.
हवे कहे छे-‘अथवा किम्’ अथवा वधारे शुं कहीए? ‘यत् किञ्चन अपि अयम् एकः’ जे कांई छे ते आ एक ज छे. (मात्र जुदां जुदां नामथी कहेवाय छे.) विज्ञान-एकरस भगवान आत्मा छे तेने परमेश्वर कहो, भगवान कहो, विष्णु कहो, ब्रह्मानंद कहो, सहजानंद कहो, वीतराग कहो, चारित्रनिधि कहो-गमे ते नामथी कहो; वस्तु तो जे कांई छे ते आ एक ज छे.
प्रवचनसारनी गाथा २०० नी टीकामां आवे छे के-‘‘जे अनादि संसारथी आ ज स्थितिए (ज्ञायकभावपणे ज) रह्यो छे अने जे मोह वडे अन्यथा अध्यवसित थाय छे (अर्थात् बीजी रीते जणाय छे-मनाय छे), ते शुद्धात्माने, आ हुं मोहने उखेडी नाखीने, अति निष्कंप रहेतो थको, यथास्थित ज (जेवो छे तेवो ज) प्राप्त करुं छुं.’’
ज्ञायकभावनी साथे अविनाभावपणे अनंत गुणो छे. ते ज्ञायकभाव एक ज्ञायकभाव ज छे. अज्ञानीने ते प्रसिद्ध नथी एटले बीजी रीते जणाय छे. अज्ञानी तेने बीजी रीते माने छे. हुं राग छुं, पुण्य छुं. अल्पज्ञ छुं-एम अज्ञानी अनेक प्रकारे माने छे. परंतु वस्तु तो जे छे ते ज छे. मात्र जुदां जुदां नामथी ते कहेवाय छे, छतां वस्तु विज्ञानघन पूर्णानंदस्वरूप भगवान एक ज छे; अने ते ज ध्याननो, द्रष्टिनो अने स्वसंवेदनज्ञाननो विषय छे. अहा! १४४मी गाथाना कळशमां अलौकिक वात करी छे! आवा समयसारनो निर्विकल्प अनुभव थाय तेनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.
रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां पं. टोडरमलजी साहेबे कह्युं छे-‘‘जैनमतमां कहेलां देव, गुरु अने धर्म ए त्रणेने माने छे तथा अन्यमतमां कहेलां देवादि वा तत्त्वादिने माने नहि तो एवा केवळ व्यवहार सम्यक्त्व वडे ते सम्यक्त्वी नामने पामे नहि, माटे स्व-परभेदविज्ञानपूर्वक जे तत्त्वार्थश्रद्धान होय ते सम्यक्त्व जाणवुं.’’
शुद्धात्मानां द्रष्टि, ज्ञान अने अनुभव-एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. ‘व्यपदेशम्’ एवो शब्द गाथामां छे. समयसारने ज केवळ सम्यग्दर्शन अने
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सम्यग्ज्ञान एवी संज्ञा मळे छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान समयसारथी कोई भिन्न चीज नथी, समयसार ज छे.
आ आत्मा ज्ञानथी च्युत थयो हतो ते ज्ञानमां ज आवी मळे छे एम हवे कहे छेः-
‘तोयवत्’ जेम पाणी पोताना समूहथी च्युत थयुं थकुं दूर गहन वनमां भमतुं होय तेने दूरथी ज ढाळवाळा मार्ग द्वारा पोताना समूह तरफ बळथी वाळवामां आवे; पछी ते पाणी, पाणीने पाणीना समूह तरफ खेंचतुं थकुं प्रवाहरूप थईने, पोताना समूहमां आवी मळे...’
नदीनुं पाणी चाल्युं आवतुं होय एमांथी थोडुं पाणी वहेळारूपे बीजे रस्ते चढी जाय एने गहन वनमां भमतुं दूर चाल्युं जाय तेने दूरथी ज ढाळवाळा मार्ग द्वारा पाणीना मूळ समूह तरफ बळथी वाळवामां आवे पछी ते पाणी, पाणीने पाणीना समूह तरफ खेंचतुं थकुं प्रवाहरूप थईने पाणीना मूळ समूहमां भळी जाय छे. आ द्रष्टांत छे.
पर्यायमां भूल छे ते कई रीते थई ते समजावे छे. अहीं द्रष्टांतमां पण पाणीने बळथी वाळवामां आवे तेम कह्युं छे. पाणी छूटुं पडीने गहनवनमां चाल्युं गयुं तेने कोई ढाळवाळा मार्ग द्वारा बळथी वाळवामां आवतां प्रवाहरूप थईने पाणीना समूह साथे भळी गयुं. आ द्रष्टांत छे ते सिद्धांत समजवा माटे छे. द्रष्टांत वडे सिद्धांत समजावे छे-
तेवी रीते ‘अयं’ आ आत्मा ‘निज–ओघात् च्युतः’ पोताना विज्ञानघनस्वभावथी च्युत थयो थको ‘भूरि–विकल्प–जाल–गहने दूरं भ्राम्यन्’ प्रचुर विकल्पजाळना गहन वनमां दूर भमतो हतो तेने ‘दूरात् एव’ दूरथी ज ‘विवेक–निम्नगमनात्’ विवेकरूपी ढाळवाळा मार्ग द्वारा ‘निज–ओघं बलात् नीतः’ पोताना विज्ञानघनस्वभाव तरफ बळथी वाळवामां आव्यो;....
आ भगवान आत्मा पोताना विज्ञानघनस्वभावथी अनादि काळथी च्युत थयो छे, भ्रष्ट थयो छे. पोतानो त्रिकाळ ध्रुव प्रवाह पडयो छे, पोतानी आखी वस्तु त्रिकाळ ज्ञान अने आनंदना स्वभावथी भरी पडी छे तेनाथी ते पर्यायमां च्युत थयो छे. ध्रुवनो-विज्ञानघन वस्तुनो-एकरूप प्रवाह तो एमनो एम छे. एमांथी ते जरा पर्यायमां अनादिथी भ्रष्ट थयो छे. तेने, कहे छे-दूरथी ज एटले के एकदम पुरुषार्थथी विवेकरूपी गंभीर मार्ग द्वारा पोताना विज्ञानघनस्वभाव तरफ बळथी वाळवामां आव्यो.
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कळशटीकामां राजमलजीए ‘विवेक-निम्नगमनात्’ ए पदनो आम अर्थ कर्यो छे के- ‘‘शुद्ध स्वरूपनो अनुभव एवो जे नीचो मार्ग, ते कारणथी जीवद्रव्यनुं जेवुं स्वरूप हतुं तेवुं प्रगट थयुं.’’ अहा! ज्ञाननो समूह एवो भगवान आत्मा अनादिथी पर्यायमां रागादिमां चाल्यो गयो छे; तेने भेदज्ञानरूपी गंभीर मार्ग द्वारा पोताना विज्ञानघनस्वभाव तरफ वाळवामां आव्यो-एम कहे छे.
जुओ, विज्ञानघनस्वभावथी च्युत थयो हतो ते कर्मना कारणे च्युत थयो हतो एम नथी. दर्शनमोहनीय कर्मना कारणे भ्रष्ट थयो हतो एम नथी कह्युं. कर्म तो निमित्तमात्र छे. पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी ज पोते च्युत थयो हतो, कर्मने लीधे नहि. अनादिथी ज भ्रष्ट थयेलो छे त्यां कर्मनुं शुं काम छे? लोकोना आ ज वांधा छे के कर्मने लईने रागादि भाव थाय. पण भाई! समाधान एम छे के पोते ज पोताना विज्ञानघनस्वभावथी अनादिथी भ्रष्ट थयेलो छे. जडकर्म तो परद्रव्य छे. जडनी पर्याय तो निश्चयथी आत्माने अडती ज नथी. एकबीजामां बन्नेनो अभाव छे.
अनादिथी पोताना विज्ञानघनस्वभावथी च्युत थयो हतो तेने दूरथी ज विवेकरूपी ढाळवाळा मार्ग द्वारा पोताना विज्ञानघनस्वभाव भणी बळथी वाळवामां आव्यो. पोतानो पुरुषार्थ रागथी खसीने स्वभाव तरफ वळ्यो एटले विवेकरूपी ढाळवाळा मार्ग द्वारा बळथी वाळवामां आव्यो एम कह्युं छे. दर्शनमोहकर्मनो अभाव थयो माटे स्वभाव तरफ वळ्यो एम नथी. ‘निज–ओघं बलात् नीतः’ एम कह्युं छे. पोते ज स्वभावथी भ्रष्ट थईने रागना वलणमां रह्यो हतो, ते पोताना अंतर-पुरुषार्थथी भेदज्ञान प्रगट करीने आत्मा तरफ वळ्यो. रागनुं वलण छोडीने, रागथी भिन्न पडी विवेकरूपी निज बळथी आत्माने आत्मामां वाळ्यो. पोताना बळथी पोते ज पोता तरफ दोराई गयो, ढळी गयो. आ मूळ मुदनी रकमनी वात छे.
विज्ञानघनस्वभावथी भ्रष्ट थयेलो ते प्रचुर विकल्पजाळना गहन वनमां दूर भमतो हतो. भगवान आत्मा स्व-स्वरूपथी भ्रष्ट थईने अनेक प्रकारना रागनी विकल्पजाळमां भमतो हतो. असंख्य प्रकारना विकल्पो छे, अने सूक्ष्मपणे अनंत प्रकारना विकल्पोनी जाळमां पोते पोताथी भ्रष्ट थईने भमतो हतो. दया, दान, व्रत आदि अने हिंसा, जूठ, चोरी आदि पुण्य- पापरूप अनेक प्रकारना शुभाशुभ विकल्पोनी वा अनेक प्रकारना नयविकल्पोनी इन्द्रजाळमां पोते स्वभावथी दूर भमतो हतो. तेने दूरथी ज एटले के रागमां भळ्या विना, रागमां जोडाया विना आम स्वभाव तरफ जोडी दीधो; भेदज्ञान वडे प्राप्त पोताना बळथी पोताना चैतन्यस्वभाव तरफ वाळी दीधो. खूब गंभीर वात छे, भाई!
अहो! जेम मंदिरना शिखर उपर सोनाना कळश चढावे छे तेम अमृतचंद्राचार्यदेवे आ परमागमना शिखर उपर अमृतना कळश चढाव्या छे!
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हवे कहे छे-‘तद्–एक–रसिनाम्’ केवळ विज्ञानघनना ज रसीला पुरुषोने ‘विज्ञान– एक–रसः आत्मा’ जे एक विज्ञानरसवाळो ज अनुभवाय छे एवो ते आत्मा, ‘आत्मानम् आत्मनि एव आहरन्’ आत्माने आत्मामां ज खेंचतो थको (अर्थात् ज्ञान ज्ञानमां खेंचतुं थकुं प्रवाहरूप थईने), ‘सदा गतानुगतताम् आयाति’ सदा विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे.
अहाहा...! विज्ञानघनना रसीला पुरुषोने आत्मा विज्ञानरसवाळो ज अनुभवाय छे. रस एटले स्वभाव, शक्ति. आत्माना रसिक पुरुषो पोताने विज्ञानस्वभावमय ज अनुभवे छे. आवो आत्मा घणा विकल्पोनी जाळमां भमतो हतो त्यांथी छूटीने स्वरूपमां ढळतां ते एक विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे.
करवानुं तो आ छे, भाई! बहारनी संपदा ए तो बधी आपदा छे. आ तो अंदर आनंदनी संपदाथी भरेलो आनंदघन प्रभु आत्मा छे एनो अनुभव करवानी वात छे. आत्माना रसिक पुरुषोने जे एकलो आनंदरसमय अनुभवाय छे ते आत्माने अनुभववानी वात छे. आवो आत्मा आत्माने आत्मामां ज खेंचतो थको सदा विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे. आत्माने आत्मामां ज खेंचतो एटले पर्यायने आत्मा तरफ वाळतो एम समजवुं. विकल्प जे राग हतो ते अनात्मा हतो. त्यांथी खसीने पर्याय आत्मा भणी वाळीने पोते शुद्ध चैतन्यपणे परिणमतो सदा विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे. जे निर्मळ परिणति थई ते द्रव्यमां भळी गई. निर्विकल्प दशाथी आत्मा तरफ गयो तेने आत्माने आत्मामां खेंचतो-एम कह्युं छे. भाई! आ तो समयसार छे! द्रव्यानुयोगनुं कथन बहु सूक्ष्म अने गंभीर छे. निर्मळ परिणति ध्रुव प्रवाहरूप आत्मामां ठरी गई, भळी गई एनुं नाम सदा विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे अने एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. जे छे, छे, ने छे एवो सदा विज्ञानघनस्वभाव आत्मा छे. तेमां परिणति एकाग्रपणे स्थित थई एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. अहीं चारित्रनी वात नथी. आ तो चोथा गुणस्थाननी सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननी वात छे.
भाई! तने सूक्ष्म पडे तोपण मार्ग तो आ ज छे. अरे! अनादिकाळथी हेरान-हेरान थईने चार गतिमां रखडे छे. अनंतकाळमां अनंत अनंत भव करीने तुं दुःखी ज दुःखी थयो छे. पूर्वे अनंत दुःख तें सहन कर्यां छे. बापु! हवे पाछो वळ अने तारा विज्ञानघनस्वभावमां जा. परमां अने रागमां तुं नथी; त्यांथी वळी जा अने तारी अनाकुळ आनंदघनस्वरूप चीजमां भळी जा. बस, ए ज दर्शन अने ज्ञान छे अने ए ज मोक्षनो उपाय छे.
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‘जेम जळ, जळना निवासमांथी कोई मार्गे बहार नीकळी वनमां अनेक जग्याए भमे; पछी कोई ढाळवाळा मार्ग द्वारा, जेम हतुं तेम पोताना निवासस्थानमां आवी मळे; तेवी रीते आत्मा पण मिथ्यात्वना मार्गे स्वभावथी बहार नीकळी विकल्पोना वनमां भ्रमण करतो थको कोई भेदज्ञानरूपी ढाळवाळा मार्ग द्वारा पोते ज पोताने खेंचतो पोताना विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे.’
पाणी पोताना निवासमांथी कोई मार्गे बहार नीकळी वनमां भमे, अने पछी ढाळवाळा मार्ग द्वारा जेम हतुं तेम पोताना निवासस्थानमां आवीने मळी जाय छे. तेवी रीते आत्मा पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावथी बहार नीकळी अनादिथी मिथ्यात्वना मार्गे विकल्परूपी वनमां भमे छे. दया, दान अने काम, क्रोध आदि जे पुण्य-पापना भाव थाय छे ते मारा छे एम जे माने ते अज्ञानी मिथ्यात्वना मार्गे छे. भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघनस्वभावरूप छे. रागादि विकल्प एनी चीज नथी, एना स्वरूपमां नथी. छतां रागादि भाव मारा छे एम जे माने ते मिथ्यात्वना मार्गे छे; ते स्वरूपथी भ्रष्ट थईने एटले के बहार नीकळीने पुण्य-पापरूप अनेक विकल्पोना वनमां भमे छे. परनी दया पाळुं, परने सहाय करुं, परने जीवाडुं, परने मारुं-एवा अनेक प्रकारना विकल्पोना वनमां जीव मिथ्यात्वना मार्गे परिभ्रमण करे छे.
अज्ञानी स्वभावथी बहार नीकळी मिथ्यात्वना मार्गे अनेक विकल्पोना वनमां भ्रमण करी रह्यो छे. पुण्य-पापना विकल्प जे पोतानी चीज नथी तेने पोतानी मानतो थको ते बहिरात्मा छे. अहीं हवे ते बहिरात्मपणुं छोडी केवी रीते सम्यक्त्वना मार्गे पडी पोताना स्वभावमां आवी मळे छे ते बतावे छे. कहे छे-भेदज्ञानरूपी ढाळवाळा मार्ग द्वारा पोते ज पोताने खेंचतो पोताना विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे. ‘विवेक-निम्नगमनात्’ एम श्लोकमां पाठ छे एनो अर्थ ए के भेदज्ञानरूपी गंभीर मार्ग द्वारा पोते पोताना ज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे. ढाळवाळो मार्ग एटले भेदज्ञानरूपी गंभीर मार्ग-एम अर्थ छे.
विज्ञानघनस्वभावमय आत्मा चैतन्यतत्त्व छे. शुभाशुभ रागादि भाव छे ते पुण्य अने पापतत्त्व छे. अज्ञानी पोताना चैतन्यतत्त्वने पुण्य-पाप तत्त्वरूप मानीने अनादिथी विकल्पना वनमां परिभ्रमण करी रह्यो छे. तेणे पोताना चैतन्यतत्त्वने छोडी दीधुं छे. पण हवे ते भेदज्ञानरूपी गंभीर मार्ग द्वारा अंतरमां स्वभावसन्मुख थाय छे. जे विकल्प ऊठे छे एनाथी एणे भेद कर्यो छे के आ राग ते हुं नहि, हुं तो शुद्ध चैतन्यतत्त्व छुं, विज्ञानघनस्वभावमय छुं आ प्रमाणे विवेक अर्थात् भेदज्ञान करीने, ढाळवाळा गंभीर मार्ग द्वारा, पोते ज पोताने
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खेंचतो अर्थात् पोतानी परिणतिने पोताना तरफ वाळतो पोताना विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे.
रागथी भिन्न पोताना चैतन्यस्वभावने जाणीने पोतानी निर्मळ ज्ञाननी पर्याय द्वारा पोताना पुरुषार्थथी अंतरस्वभावमां गति करे छे. रागथी भिन्न पडेली ज्ञाननी पर्यायने अंतरस्वभाव साथे जोडी दे छे.
प्रश्नः– ज्ञानीने पण विकल्प तो आवे छे?
उत्तरः– हा, ज्ञानीने विकल्प आवे छे तेने ते पोतानी चीज नथी एम जाणे छे. ज्ञानी विकल्पना स्वामित्वपणे परिणमतो नथी. ज्ञानी जे विकल्प आवे छे तेनो कर्ता थतो नथी. समयसार नाटकमां कह्युं छे के-
अहाहा...! वीतराग परमेश्वरे मिथ्याद्रष्टि अने सम्यग्द्रष्टिना मार्ग साव भिन्न कह्या छे. शुभाशुभ राग छे ते खरेखर पुद्गलमय परिणाम छे. तेने पोताना मानी अज्ञानी गहन विकल्प-वनमां परिभ्रमण करे छे; ज्यारे ज्ञानी राग अने विकल्पथी भिन्न पोतानी ज्ञानानंदस्वभावी वस्तु छे एम जाणी स्वभाव भणी गति करी स्वभावमां जईने मळे छे. भेदज्ञानरूपी जे गंभीर ढाळवाळो मार्ग छे ते अंदर स्वभावमां जतो मार्ग छे अने जे विकल्प छे ते बहार पर तरफ जतो मार्ग छे. भेदज्ञान वडे जेने स्वभावनो आश्रय थाय छे ते विकल्पथी भिन्न पडी गयो होय छे अने तेथी ते विकल्पनो कर्ता थतो नथी. अज्ञानी दया, दान, व्रत आदि शुभ विकल्पोने पोतानुं स्वरूप मानी, विकल्पनो कर्ता थई, निज चैतन्यस्वरूपथी भ्रष्ट थईने विकल्पवनमां चिरकाळ परिभ्रमे छे.
मोक्षमहेलनुं प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन छे. रागथी भिन्न थई, भेदज्ञान द्वारा पोताना विज्ञानघनस्वभावमां एकाकार थई परिणमवुं तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे अने ते मोक्षमहेलनुं प्रथम पगथियुं छे. शुभाशुभ रागथी भिन्न निज चैतन्यतत्त्वनो आश्रय करीने जेणे स्वरूपनी परिणति प्रगट करी छे ते समकिती जीव रागनो कर्ता नथी; केमके रागथी भिन्न ते निर्मळदशारूपे परिणमे छे, रागने ते पोतामां भेळवतो ज नथी. ज्यारे अज्ञानी जीव आ शरीर, मन, वाणी मारां, हुं परने जीवाडुं, सुखी-दुःखी करुं इत्यादि अनेक विकल्पनी जाळमां गुंचाई जईने संसारवनमां दीर्घ परिभ्रमण करे छे. कयारेक ते भेदज्ञान मार्ग द्वारा रागथी अने परथी खसीने बळपूर्वक पुरुषार्थ वडे पोतानी परिणतिने स्वभाव भणी वाळी चैतन्यस्वभावमां जोडी दे छे त्यारे तेने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान प्रगट थाय छे. अहो! भगवान श्री जिनेश्वरदेवे अने दिगंबर संतोए कहेलो आ कोई दिव्य अलौकिक मार्ग छे!
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हवे कर्ताकर्म अधिकारनो उपसंहार करतां, केटलांक कळशरूप काव्यो कहे छे; तेमां प्रथम कळशमां कर्ता अने कर्मनुं संक्षिप्त स्वरूप कहे छेः-
‘विकल्पकः परं कर्ता’ विकल्प करनार ज केवळ कर्ता छे. विकल्प एटले जे राग उत्पन्न थाय छे तेनो करनार ज केवळ कर्ता छे. बीजो कोई कर्ता नथी. पोताने विकल्पनो कर्ता माने ते मिथ्याद्रष्टि जीव ज विकल्पनो केवळ कर्ता छे; अने विकल्पनो भेद करी भेदज्ञान करनार, जाणनार ज्ञानी ज्ञाता छे, धर्मी छे. अहा! रागनो कर्ता थाय ते केवळ कर्ता छे (ज्ञाता नथी). शरीर, मन, वाणी इत्यादि परनो कर्ता तो आत्मा छे ज नहि. परनी दया करवी के हिंसा करवी-ए त्रणकाळमां आत्मा करतो नथी, करी शकतो नथी. परद्रव्यनी अवस्थानो आत्मा कदीय कर्ता नथी. अज्ञानपणे ते रागनो कर्ता थाय छे अने त्यारे ते रागनो केवळ कर्ता छे. आ सिवाय आत्मा जडकर्मनो कर्ता नथी अने जड द्रव्यकर्म रागनुं कर्ता नथी. अज्ञानपणे रागने करनार मिथ्यात्वी जीव रागनो केवळ कर्ता छे. लोकोने आ वात सूक्ष्म पडे छे, पण भाई! जन्म-मरणरहित थवानो आ एक ज मार्ग छे.
वीतराग मार्ग वीतरागस्वरूप ज छे, ते रागथी केम उत्पन्न थाय? रागथी उत्पन्न थाय ते बीजी चीज छे, वीतरागमार्ग नथी. अहीं तो कहे छे के रागनो करवावाळो केवळ एटले एकलो कर्ता छे. हवे कहे छे-
‘विकल्पः केवलं कर्म’ विकल्प ज केवळ कर्म छे. जुओ, आ वीतराग परमेश्वर देवाधिदेव जिनेन्द्रदेवनो हुकम छे. महाविदेहक्षेत्रमां सीमंधर परमात्मा ‘णमो अरिहंताणं’ पदमां बिराजे छे. तेमनी दिव्यध्वनि त्यां निरंतर छूटी रही छे. संवत ४९मां श्री कुंदकुंदाचार्यदेव त्यां गया हता. त्यांथी आवीने आ शास्त्रो बनाव्यां छे. तेओ कहे छे-आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होवा छतां ज्यांसुधी रागनो कर्ता थाय त्यांसुधी ते एकलो कर्ता छे, अने ते राग तेनुं केवळ कर्म छे. अज्ञानीनुं राग एकलुं कार्य छे. परना कार्यनो कर्ता तो आत्मा छे नहि, तेथी रागनो कर्ता थनार अज्ञानीनुं केवळ राग कर्म छे. आवुं वस्तुस्वरूप छे; तेना भान विना अनादि काळथी अज्ञानी मूढ थईने चार गतिमां रूले छे.
भगवान आत्मा सदा जिनपदरूप छे, सिद्धपदरूप छे; अत्यारे पण हों! वर्तमानमां पण ते वीतरागस्वरूप ज छे. जो स्वरूपथी वीतराग न होय तो वीतरागता प्रगटशे कयांथी? वीतरागता कांई बहारथी आवती नथी. आवा वीतरागस्वभावने भूलीने पोताने रागनो कर्ता माने, रागने पोतानुं कर्म माने तेने आत्मानी शांति बळी रही छे, दाझी रही छे. भगवान आत्मा सदा विज्ञानघनस्वरूप छे. तेनाथी भ्रष्ट थईने जे
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रागनो कर्ता थाय तेनुं राग एकलुं कार्य छे. मिथ्याद्रष्टिनुं राग एकलुं कार्य छे, पछी भले ते श्रावकपद धरावतो होय के मुनिपद धरावतो होय. छहढालामां आवे छे के-
अहा! एणे अनंतवार मुनिव्रत धारण कर्यां, पंचमहाव्रत अने अट्ठावीस मूलगुणनुं अनंतवार पालन कर्युं; पण ते बधुं शुभरागना केवळ कर्ता थईने कर्युं तेथी केवळ राग तेनुं कर्म थयुं, परंतु आत्मज्ञान प्राप्त न थयुं. परिणामे तेने लेशमात्र आत्मानुं सुख न मळ्युं. पंचमहाव्रतना परिणाम पण तेने दुःखरूप बोजारूप थया. भाई! वीतरागना मार्ग सिवाय आवी सत्य वात बीजे कयांय नथी. अहो! दिगंबर संतोए मोक्षमार्ग अति अति स्पष्ट खोली दीधो छे, सुगम करी दीधो छे. हवे कहे छे-
‘सविकल्पस्य’ जे जीव विकल्पसहित छे तेनुं ‘कर्तृकर्मत्वं’ कर्ताकर्मपणुं ‘जातु नश्यति न’ कदी नाश पामतुं नथी. विकल्प मारी चीज छे एम जे विकल्पसहित होय तेने ‘हुं विकल्पनो कर्ता अने विकल्प मारुं कार्य’ -एवुं कर्ताकर्मपणुं अविरत चाल्या ज करे छे, तेने निश्चय सम्यग्दर्शन कदी प्रगट थतुं नथी.
त्यारे कोई कहे छे व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय; तेने अहीं कहे छे-न थाय. जे रागनो कर्ता थाय तेनुं राग ज केवळ कर्म छे अने तेनुं कर्ताकर्मपणुं नाश पामतुं नथी. भाई! जेनाथी भिन्न पडवुं छे, जेनाथी भेदज्ञान करवुं छे ते रागथी धर्म केम थाय? न थाय. भले आ वात दुर्गम लागे तोपण मार्ग तो आ ज सत्य छे के भगवान आत्मा रागथी कदी प्राप्त थतो नथी; व्यवहारथी निश्चय कदी प्रगटतो नथी. पोते ज्ञानानंदस्वरूप परमात्मद्रव्य छे तेने छोडीने हुं रागवाळो छुं, रागमय छुं एम जे माने तेने रागनुं कर्ताकर्मपणुं कदी मटतुं नथी.
त्यारे कोई कहे-अमे तो मोटां मोटां वेपारनां-झवेरात आदिनां काम करीए अने अमारी होशियारीथी खूब धन कमाईए-ए तो काम अमे करीए छीए ने?
समाधानः– धूळेय तुं धन कमातो नथी, सांभळने; ए धन तो पूर्वनां पुण्य होय तो आवे छे. तुं तो मात्र रागनी-मोहनी मजूरी करे छे अने हुं कमाउं छुं एम माने छे ते अज्ञान छे, मिथ्यात्व छे. पहेलां कह्युं ने के परद्रव्यनुं कार्य अज्ञानी पण करी शकतो नथी. परद्रव्यनी अवस्था ते ते द्रव्यथी पोताथी थाय छे. पोतानी पर्यायनी व्यवस्थित व्यवस्था करनार पोतानुं द्रव्य छे, तेने बीजुं द्रव्य करे ए वात त्रणकाळमां सत्य नथी. तुं वेपारनी बाह्य क्रिया अने धन कमावानुं काम करे छे ए वात तद्न असत्य छे; हा, अज्ञानवश तेवा रागनो कर्ता थई मिथ्यात्वने सेवे छे, पण तेनुं फळ बहु आकरुं आवशे. भाई! मिथ्यात्वनुं परंपरा फळ निगोद छे.
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वळी तुं धन कमावामां पोतानी होशियारी माने छे पण होशियारी तो ज्ञाननो क्षयोपशम छे. ते शुं परद्रव्यमां घुसी जाय छे? ना, कदीय नहि. तो परना कार्यमां तारो क्षयोपशम शुं करे? कांई नहि. धनना-पैसाना परमाणुओ जे ते काळे यथासमये धनरूप थई जमा थई जाय छे एमां तारुं के तारी होशियारीनुं कांई कार्य नथी. कोई द्रव्य कोई परद्रव्यनुं कार्य करे एवुं वस्तुस्वरूप ज नथी.
पोताना ज्ञातास्वभावनी द्रष्टि छोडीने रागनो कर्ता थाय ते ज केवळ एक कर्ता छे, बीजो कोई तेनो कर्ता नथी. रागनो करनारो जीव पण कर्ता, अने निमित्त पण कर्ता-एम बे कर्ता नथी. (बे प्रकारे कथन छे.)
आत्मामां कर्ता, कर्म नामनी शक्ति छे. पोतानी निर्मळ पर्यायनो आत्मा कर्ता अने निर्मळ पर्याय तेनुं कर्म-एवी त्रिकाळ शक्ति छे. जेम जीवमां ज्ञान, आनंद आदि स्वभाव छे तेम कर्ता, कर्म पण स्वभाव छे. तेनुं कार्य शुं? के निर्मळ परिणतिनो जीव कर्ता अने निर्मळ परिणति तेनुं कर्म होय ए तेनुं कार्य छे. ४७ शक्तिओमां अुशद्धतानी वात ज लीधी नथी. कोई शक्तिमां अशुद्धता छे ज नहि. दरेक द्रव्यमां गुणो अक्रमे छे अने पर्यायो क्रमसर एक पछी एक थाय छे. द्रव्यमां त्रिकाळी द्रव्य अने अनंतशक्तिओ अक्रमे छे अने निर्मळ पर्याय क्रमसर उत्पन्न थाय छे. आ निर्मळ परिणमन ते जीवनुं कार्य छे; राग जीवनुं कार्य नथी अने जीव रागनो कर्ता नथी.
ज्ञानीने राग थाय छे पण तेनो कर्ता ज्ञानी नथी. परंतु राग संबंधी जे ज्ञान पोतामां पोताथी उत्पन्न थाय छे ते ज्ञाननो ते कर्ता छे. ज्ञानीने राग थाय छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे. खरेखर ज्ञानीने पोतानुं ज्ञान अने रागनुं ज्ञान वर्तमान ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्यायमां पोताथी क्रमबद्ध थाय छे, पोतानी शक्तिनुं सहज आवुं कार्य छे. आवुं समज्या विना कोई पुण्यना फळमां मोटो देव थाय वा अबजोपति शेठ थाय, पण ते बिचारो दुःखी छे. जेने लौकिकमां सुखी कहे छे तेओ मोहभावने लीधे वास्तवमां दुःखी ज छे.
जुओ, आ धूळपतिओनी (लक्ष्मीवंतोनी) बहारनी लक्ष्मी छे ते अजीव तत्त्व छे अने लक्ष्मीनो जे राग-आसक्ति छे ते आस्रव तत्त्व छे; तेनाथी भिन्न भगवान आत्मा ज्ञायक तत्त्व छे. परंतु आ अजीव लक्ष्मी अने तेना प्रत्येनो राग जे आस्रव तत्त्व ते मारां छे एम जे माने छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. तेने रागनुं-आस्रवनुं-कर्ताकर्मपणुं कदी मटतुं नथी.
अहाहा...! प्रभु! तुं भगवान छो ने! भग कहेतां ज्ञान, आनंद आदि अनंत गुणोथी भरेली स्वरूपलक्ष्मी; अने एनो तुं स्वामी एवो भगवान छो. प्रभु! तारां स्वरूपसंपदानां अनंतां अखूट निधान छे. ते तरफ अंतर्मुख थई अंतर्द्रष्टि कर. रागथी
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खसीने अंतर्द्रष्टि करतां तने तारी स्वरूपसंपदा प्राप्त थशे. प्रभु! तुं न्याल थई जईश केमके तारी चैतन्यसंपदा अनंत शांतिनुं कारण छे.
‘ज्यांसुधी विकल्पभाव छे त्यांसुधी कर्ताकर्मभाव छे; ज्यारे विकल्पनो अभाव थाय त्यारे कर्ताकर्मभावनो पण अभाव थाय छे.
बहु थोडामां खूब गंभीर वात करी छे. ज्यांसुधी विकल्पनो भाव मारो छे एम माने त्यांसुधी कर्ताकर्मभाव छे. परंतु विकल्पथी भिन्न मारो तो ज्ञाताद्रष्टास्वभाव छे एम भेदज्ञान- विवेक प्रगट करे त्यारे कर्ताकर्मभावनो अभाव थई जाय छे अने त्यारे अंतरमां धर्म प्रगट थाय छे.
जे करे छे ते करे ज छे, जे जाणे छे ते जाणे ज छे-एम हवे कहे छेः-
‘यः करोति सः केवलं करोति’ जे करे छे ते केवळ करे ज छे ‘तु’ अने ‘यः वेत्ति सः तु केवलम् वेत्ति’ जे जाणे छे ते केवळ जाणे ज छे; ‘यः करोति सः क्वचित् न हि वेत्ति’ जे करे छे ते कदी जाणतो नथी ‘तु’ अने ‘यः वेत्ति सः क्वचित् न करोति’ जे जाणे छे ते कदी करतो नथी.
जे कर्ता छे ते केवळ कर्ता ज छे अने जे जाणे छे ते केवळ जाणे ज छे. कह्युं छे ने (समयसार नाटकमां)
अज्ञानी राग मारो छे एवुं माने छे, ते कर्ता ज छे. जे ज्ञानी छे ते जाणे ज छे, ते रागना जाणनार ज छे. रागने अने पोताने ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्याय द्वारा मात्र जाणे ज छे. कथंचित् जाणे छे अने कथंचित् रागने करे छे एम नथी. बापु! धर्म कोई अलौकिक चीज छे! कोई मागण कहेता होय छे-‘‘दादा! बीडी आपजो, एक दिवासळी आपजो; तमने धर्म थशे.’’ धर्म आवी चीज नथी, भाई! अज्ञानी कहे छे के परनी दया पाळवी ते धर्म, पैसा दानमां आपे ते धर्म; पण भाई धर्मनुं आवुं स्वरूप नथी. धर्म शुं चीज छे तेने जाहेर करतां दिगंबर संतो कहे छे-जे कर्ता छे ते केवळ कर्ता ज छे. रागनो कर्ता छे ते मात्र कर्ता ज छे. तेनो ते कर्ता पण छे अने जाणनार पण छे एवुं स्वरूप नथी.
प्रभु! तुं विज्ञानघनस्वरूप छो ने! जगतथी तद्न भिन्न तुं जगदीश छो ने!
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रागथी मांडीने आखुं लोकालोक छे ते जगत छे. ए जगतथी भिन्न, एनो जाणनार देखनार तुं जगदीश छो. परने जीवाडी शके वा मारी शके एवुं भगवान! तारुं स्वरूप नथी. शुं तुं परने आयुष्य दई शके छे? ना; माटे तुं बीजाने जीवाडी शकतो नथी. शुं तुं परनुं आयुष्य हरी शके छे? ना; माटे तुं परने मारी शकतो नथी. भाई! आवुं ज स्वरूप छे.
लौकिकमां कोईनी चीज कोई हरी ले तो ते चोर कहेवाय. तेम पोताना चैतन्यस्वरूपमां जे चीज नथी तेने पोतानी मानवी ते चोरी छे. बीजानी चीजने पोतानी माने ते चोर छे. राग चीज पोतानी नथी तेने पोतानी माने ते चोर छे. बनारसीदासे कह्युं छे के-
पोतानी चैतन्यस्वरूप सत्ताथी बहार जई रागनो कर्ता थाय ते चोर छे.
अहीं कहे छे-रागनो जे कर्ता थाय ते कर्ता ज छे; ते कर्ता पण छे अने ज्ञाता पण होय एम कदी होई शके नहि. कर्तापणुं अने ज्ञातापणुं बे साथे रही शके नहि. जे कर्ता छे ते एकलो करनार ज छे, तेने ज्ञातापणुं नथी. एक म्यानमां बे तलवार रही शके नहि. रागनो कर्ता पण थाय अने एनो ज्ञाता पण रहे एम कदीय बनी शके नहि.
ज्ञानी रागना कर्ता नथी. राग छे ते निश्चयथी पुद्गलना परिणाम छे. रागने पुद्गलना परिणाम केम कह्या? कारण के राग आत्माना चैतन्यस्वरूपमां नथी तथा ते पुद्गलना निमित्ते थाय छे माटे तेने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. आत्माना चैतन्यस्वभावथी राग विरुद्ध भाव छे. तेथी रागने अचेतन, अजीव अने पुद्गलनो भाव कह्यो छे. ७२मी गाथामां रागने अशुचि, जड अने दुःखनुं कारण कहेल छे.
आत्मा विज्ञानघनस्वभाव प्रभु छे. ते दुःखनुं अकारण छे. आत्मा रागनुं कारण नथी, रागनुं कार्य पण नथी. व्यवहारनो राग छे तो समकित थयुं एम रागनुं आत्मा कार्य नथी. तेवी रीते आत्मा रागनुं कारण नथी, आत्मा रागनो कर्ता नथी.
व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय एम केटलाक माने छे पण व्यवहारथी जो निश्चय थाय तो सम्यग्दर्शन रागनुं कार्य सिद्ध थशे. पण एम छे नहि, केमके वीतरागता ते वळी रागनुं कार्य केम होय? धर्मी जीव रागनो मात्र जाणनार ज छे. जेने पोताना शुद्ध चैतन्यनो अनुभव थयो ते रागनो मात्र जाणनार ज छे. जाणनार पण छे अने रागनो करनार पण छे एम नथी. ज्ञातापणुं अने रागनुं कर्तापणुं बे साथे होई शकतां
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नथी. ज्ञाता ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. सम्यग्द्रष्टि रागनो जाणनार छे एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे. खरेखर तो राग संबंधीनुं जे पोतानुं ज्ञान छे तेनो ते जाणनार छे. आ प्रमाणे ते जाणनार ज छे, कर्ता नथी.
‘कर्ता छे ते ज्ञाता नथी अने ज्ञाता छे ते कर्ता नथी.’
ओहोहोहो...! एक लीटीमां घणुं भरी दीधुं छे. शुं कहे छे? सदा विज्ञानघनस्वरूप भगवान आत्मानी द्रष्टि छोडीने शुभाशुभ रागनो कर्ता थाय ते ज्ञाता न होई शके. स्वरूपनी द्रष्टि रहित अज्ञानी जीव अशुद्ध परिणामनो कर्ता थाय छे अने अशुद्ध परिणाम ज केवळ तेनुं कर्म बने छे. अशुद्धता ज अज्ञानीनुं कर्म छे, ए सिवाय बीजुं कोई एनुं कर्म नाम कार्य नथी; तथा अशुद्धता छे ते बीजा कोईनुं पण कर्म नथी.
प्रश्नः– तो श्री समंतभद्राचार्यदेवे कार्यमां बे कारण कह्यां छे ने?
उत्तरः– हा, कार्य थवामां बे कारण कह्यां छे, पण त्यां तो प्रमाणज्ञान कराववा माटे जोडे बीजी चीज निमित्त छे एनी वात करी छे. पण निमित्त छे ते कांई वास्तविक कारण नथी. परमार्थे वास्तविक कारण तो एक (उपादान) ज छे. पं. श्री टोडरमलजीए कह्युं छे के-मोक्षमार्ग बे नथी पण तेनुं निरूपण बे प्रकारे छे. हवे मोक्षनो मार्ग कहो, कारण कहो के उपाय कहो-ए बधुं एक ज छे. मोक्षना कारणनुं निरूपण बे प्रकारे छे. वास्तविक कारण तो एक ज छे. बीजुं कारण तो सहचर निमित्त देखीने आरोपथी कह्युं छे. बे कारणनी वात जे शास्त्रमां कही छे त्यां तो प्रमाणनुं ज्ञान कराव्युं छे-एम समजवुं, पण निमित्त पण वास्तविक कारण छे एम न मानवुं.
अहीं कहे छे-राग छे ते बहिर्मुख भाव छे, ते चैतन्यना स्वरूपभूत नथी. तेनो जे कर्ता थाय छे ते ज्ञाता होई शके नहि. रागनो रचनारो छे ते कर्ता ज छे, ते ज्ञातापणे रही शके नहि. तथा पोताना ज्ञानस्वरूप आत्मानुं जेने स्वाश्रये भान थयुं छे ए ज्ञानी तो ज्ञाता ज छे, ते रागनो कर्ता थतो नथी.
रागद्वेषना परिणाम थाय ते आत्मानो धर्म नथी; रागद्वेषना परिणाम थाय ते भावमननो धर्म छे अने द्रव्यमन तेमां निमित्तमात्र छे. पुण्य-पापना भाव ते आत्मानो धर्म नथी. संकल्प-विकल्परूप विकृत अवस्था ते मननुं कार्य छे. तेने पोतानुं कर्तव्य मानीने जे कर्ता थाय छे ते एनाथी भिन्न पडीने ज्ञातापणे रही शके नहि. तथा जे शुद्ध चैतन्यतत्त्व जे अंतःतत्त्व छे तेनो अनुभव करीने ज्ञातापणे परिणम्यो छे ते रागनो कर्ता थतो नथी. एक म्यानमां बे तलवार रही शकती नथी. ल्यो, आ कर्ताकर्मनी व्याख्या करी. हवे क्रियानी वात करे छे.
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एवी ज रीते करवारूप क्रिया अने जाणवारूप क्रिया बन्ने भिन्न छे एम हवे कहे छेः-
‘करोतौ अन्तः ज्ञप्ति न हि भासते’ करवारूप क्रियानी अंदरमां जाणवारूप क्रिया भासती नथी ‘च’ अने ‘ज्ञप्तौ अन्तः करोतिः न भासते’ जाणवारूप क्रियानी अंदरमां करवारूप क्रिया भासती नथी.
शुं कहे छे? जे जीव रागना परिणामरूप क्रिया करे छे तेने जाणवारूप मारो स्वभाव छे एम भासतुं नथी. शुभरागनी क्रिया मारी छे एम जे माने ते ज्ञातापणानी क्रिया करी शकतो नथी. जुओ, अहीं जडनी क्रियानी अत्यारे वात नथी. पुद्गलनो कर्ता आत्मा नथी ए वात पछी करशे. अहीं तो अत्यारे अशुद्धता अने आत्मा ए बे वच्चेनी वात छे. कहे छे-हुं रागनी क्रिया करुं छुं एम जेने भासे छे तेने जाणनक्रिया छे ज नहि, छे नहि एटले भासती नथी. गंभीर वात छे, भाई!
शुभरागनी क्रिया हुं करुं छुं एम माने ए तो नपुंसकता छे, केमके ते आत्माना वीर्यनुं कार्य नथी. आत्मामां वीर्य नामनो एक गुण छे, शक्ति छे. ज्ञातापणानी रचना करवी ते एनुं कार्य छे, रागनी रचना करवी ते एनुं कार्य नथी. रागनी रचना करे ए तो नपुंसकता छे. अहीं कहे छे-रागनी क्रिया करवामां ज्ञातापणानी क्रिया भासती नथी एटले के जाणवारूप क्रिया त्यां होती नथी. रागनी क्रिया करवाना काळमां हुं ज्ञाता छुं एवी ज्ञाननी दशा होती नथी. होती नथी एटले भासती नथी.
लोको दया, दान, व्रत आदि बाह्य क्रियामां रोकाईने तेने धर्मनुं साधन माने छे. पण बापु! आवी मान्यतामां तने भारे नुकशान छे. अहीं आ तारा हितनी वात छे, आ कांई तारा अनादर माटे नथी, अहा! अंदर विज्ञानघनस्वभावमय प्रभु परिपूर्ण परमात्मा पडयो छे तेनो आदर छोडीने तुं रागनी रचनामां जोडाई जाय ए नपुंसकपणुं छे, केमके ते काळे शुद्ध ज्ञाननी रचनारूप निर्मळ क्रिया होती नथी, तेथी ज्ञाननी क्रिया त्यां भासती नथी.
रागनी क्रियाना करवापणामां ज्ञातापणानुं परिणमन होतुं नथी. ज्ञातापणानुं परिणमन एटले के स्वनुं ज्ञान अने रागनुं ज्ञान-एवुं जे ज्ञाननुं परिणमन ते अज्ञानीने होतुं नथी. ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मानुं संवेदन थईने जे जाणवारूप क्रिया थाय छे तेने ज्ञाननी क्रिया कहे छे. ज्ञानरूपे, श्रद्धारूपे, वीतरागी शांतिरूपे, आनंदरूपे जे परिणमन थाय ते ज्ञाननी क्रिया छे. अहीं कहे छे आवी ज्ञाननी क्रियाना काळमां (रागना) करवारूप क्रिया भासती नथी. ज्ञाननी क्रियामां रागनी करवारूप क्रिया होती नथी; होती नथी एटले भासती नथी.