Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 144.

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कथन करवानी शक्ति छे, पण वस्तुनुं परिणमन करवानी शक्ति नथी. हवे कोई जीव शब्दो सांभळीने, तेनो विकल्प मटाडीने चित्स्वभावनो पुंज एवा आत्मामां एकाग्र थाय छे तो ते समकितनी दशाने, स्वानुभवनी दशाने पामे छे. त्यारे शब्दोने निमित्त कहेवामां आवे छे. पण निमित्तथी वस्तु जणाय छे, प्राप्त थाय छे एम छे नहि.

अरे! मुंबईथी मद्रास जतां दरियामां एकाएक एरोप्लेन तूटी पडयुं अने ९० माणसो क्षणमां मरणने शरण थया! भाई! आवां (मरणनां) दुःख तें अनंतवार सहन कर्यां छे. जे क्षणे देह छूटवानो होय ते क्षणे छूटी जाय, एक क्षण पण आगळ-पाछळ न थाय. आ लसण अने डुंगळीनी कटकीमां असंख्य शरीर छे. प्रत्येक शरीरमां अनंत जीवो छे. तेलमां नाखीने तळे त्यां ते जीवोना दुःखनुं शुं कहेवुं? ए बधा कंदमूळ अनंतकाय अभक्ष्य छे. जैन के आर्यने एवो खोराक न होय. पण अरे! एने तळीने खाय! (नामधारी जैनने पण न शोभे.) भाई! स्वरूपने भूलीने आम अनंतवार तुं तळाई गयो छुं, अनंतवार भरखाई गयो छुं. भगवान! तुं तने भूली गयो! तुं चित्स्वभावनो पुंज छे प्रभु! अहीं कहे छे-एवा चैतन्यस्वभाव वडे पोतानां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कराय छे. विकल्पमात्र आत्माना स्वभावमां नथी. धीरानां काम छे, बापा! आ तो वीतरागनो मार्ग छे. ते वीतराग भावथी ज प्रगट थाय छे. त्रिकाळी तेजनो पुंज प्रभु आत्मा छे, ते वडे भावित थईने निर्मळ पर्यायनी दशा उत्पन्न थाय छे अने तेने धर्म कहेवामां आवे छे.

भगवान सर्वज्ञदेवनुं आ फरमान छे. श्रीमदे एकवार कह्युं के अमारो नाद कोण सांभळशे? के एक तणखलाना बे टुकडा करवानी ताकात आत्मामां नथी. मतलब के जडनी पर्यायनो कर्ता आत्मा नथी. तणखलाना टुकडा एना स्वकाळे जे थवाना होय ते तेना कारणे थाय छे, आंगळीथी नहि, चप्पुथी नहि के आत्माथी नहि. ए बधां तो निमित्त छे. निमित्त छे, निमित्त छे ए वातनो अहीं निषेध नथी पण निमित्तथी उपादाननुं कार्य थाय ए वातनो अहीं निषेध करवामां आवे छे.

अहो! शुं सरस वात करी छे! के आत्मानो चित्स्वभाव छे; रागभाव नहि, पुण्यभाव नहि, संसारभाव नहि, एक समयनो पर्यायभाव पण एनो स्वभाव नहि. आवा पोताना चित्स्वभावना पुंज वडे पोतानां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कराय छे. अहाहा...! पोतानी वीतरागी निर्मळ पर्याय उत्पन्न थाय, पूर्वनी पर्यायनो व्यय थाय अने ध्रुव ध्रुवपणे रहे ते चित्स्वभावना पुंज वडे कराय छे, होय छे.

भाई! क्षणमां आ देह स्वकाळे छूटी जशे. माटे चित्स्वभावना पुंजरूप तारी वस्तु छे तेनी भावना कर. आ रागनी भावनामां तने दुःखनो अनुभव छे. माटे विकल्पो छोडीने स्वरूपमां सावधान था.


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हवे कहे छे-ज्ञानस्वभावना पुंज वडे ज पोतानां उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्य कराय छे- एवुं जेनुं परमार्थस्वरूप होवाथी जे एक छे एवा ‘अपारम् समयसारम्’ अपार समयसारने हुं, ‘समस्तां बंधपद्धतिम्’ समस्त बंधपद्धतिने ‘अपास्य’ दूर करीने अर्थात् कर्मना उदयथी थता सर्व भावोने छोडीने ‘चेतये’ अनुभवुं छुं.

आवुं ज आत्मानुं परमार्थ स्वरूप छे माटे ते एक छे. तेमां विकल्प आदि बीजी चीज छे ज नहि. आवा निज स्वभावनी भावना थतां एकरूप निर्मळ दशा प्रगट थाय छे, पर्याय अने द्रव्य एकमेक थई जाय छे; एटले के त्यां भेदनुं लक्ष रहेतुं नथी.

प्रभु तुं कोण छो अने तने धर्म केम थाय एनी आ वात चाले छे. कहे छे-आवुं जेनुं परमार्थस्वरूप होवाथी जे एक छे एवा अपार समयसारने हुं अनुभवुं छुं. जेनो ज्ञान, आनंद, शांति, स्वच्छता इत्यादि-अपार अनंत स्वभाव छे एवो समयसार छे. एवा समयसारने हुं समस्त बंधपद्धतिने-विकल्पोने छोडीने अनुभवुं छुं. जुओ, हुं शुद्ध छुं एवो विकल्प पण बंधपद्धतिरूप छे, तेने छोडीने हुं समयसारने अनुभवुं छुं. कर्मना उदयथी उत्पन्न थता सर्व भावोने छोडीने हुं अपार एवा समयसारने अनुभवुं छुं पंचमहाव्रतनो जे विकल्प उठे छे ते बंधपद्धतिमय छे; ते विकल्पने छोडीने हुं समयसारने अनुभवुं छुं एम आचार्यदेव कहे छे. मानो के न मानो; भगवान! मार्ग तो आ छे.

संवत ४९नी सालमां श्री कुंदकुंदाचार्य विदेहक्षेत्रमां पधार्या हता. आठ दिवस त्यां रह्या हता. केवळी अने श्रुतकेवळीनो परिचय करीने पछी भरतमां पधार्या हता. पोते वीतरागभावमां झूलता हता. तेमणे आ परमागम शास्त्रो रच्यां छे. तेओ एम कहे छे के छठ्ठा गुणस्थाने पंचमहाव्रतादिनो शुभराग होय छे. तेने छोडीने मुनि पोताना चित्स्वभावने अनुभवे छे. मुनिने सातमुं गुणस्थान निर्विकल्प ध्यानमां प्रगट थाय छे. आवी अलौकिक मुनिदशा छे.

* कशळ ९२ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘निर्विकल्प अनुभव थतां, जेना केवळज्ञानादि गुणोनो पार नथी एवा समयसाररूपी परमात्मानो अनुभव ज वर्ते छे, ‘हुं अनुभवुं छुं’ एवो पण विकल्प होतो नथी-एम जाणवुं.’

चोथा गुणस्थाने आत्माना स्वरूपनो निर्विकल्प अनुभव थतां जेना केवळज्ञानादि गुणोनो पार नथी एवा समयसाररूपी परमात्मानो अनुभव ज वर्ते छे. पांचमा गुणस्थानवाळा श्रावकने तो सम्यग्दर्शन उपरांत घणी शांति वधी छे. अने मुनिदशानी तो शी वात! ए तो प्रचुर आनंद अने शांतिना स्वामी छे. अहाहा...! केवळज्ञानादि एटले एकलुं ज्ञान, एकलुं दर्शन, एकलुं सुख, एकलुं वीर्य, एकली प्रभुता इत्यादि


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अपार अनंत-गुणनो पिंड प्रभु समयसार आत्मा छे. मुनिराजने तेनुं स्वानुभवमां प्रचुर संवेदन छे. अनुभव काळे ‘हुं अनुभवुं छुं’ एवो विकल्प होतो नथी; मात्र परमस्वरूप परमात्मानो अनुभव ज वर्ते छे.

आ लक्ष्मीनो स्वामी थाय ए तो जडनो स्वामी छे; अने धर्मी स्वानुभवजनित आनंदनो स्वामी छे. अहा! धर्मीने निर्विकल्प अनुभव थाय त्यारे ‘हुं अनुभवुं छुं’ एवो विकल्प पण रहेतो नथी एवी अद्भुत अलौकिक धर्मीनी दशा छे.

[प्रवचन नं. १९७-१९८ * दिनांक १०-१०-७६ अने ११-१०-७६]

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पक्षातिक्रान्त एव समयसार इत्यवतिष्ठते–

सम्मद्दंसणणाणं एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं।
सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो।। १४४ ।।
सम्यग्दर्शनज्ञानमेष लभत इति केवलं व्यपदेशम्।
सर्वनयपक्षरहितो भणितो यः स समयसारः।। १४४ ।।

पक्षातिक्रांत ज समयसार छे एम नियमथी ठरे छे-एम हवे कहे छेः-

सम्यक्त्व तेम ज ज्ञाननी जे एकने संज्ञा मळे,
नयपक्ष सकल रहित भाख्यो ते ‘समयनो सार’ छे. १४४.

गाथार्थः– [यः] जे [सर्वनयपक्षरहितः] सर्व नयपक्षोथी रहित [भणितः] कहेवामां आव्यो छे [सः] ते [समयसारः] समयसार छे; [एषः] आने ज (-समयसारने ज) [केवलं] केवळ [सम्यग्दर्शनज्ञानम्] सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान [इति] एवी [व्यपदेशम्] संज्ञा (नाम) [लभते] मळे छे. (नाम जुदां होवा छतां वस्तु एक ज छे.)

टीकाः– जे खरेखर समस्त नयपक्षो वडे खंडित नहि थतो होवाथी जेनो समस्त विकल्पोनो व्यापार अटकी गयो छे एवो छे, ते समयसार छे; खरेखर आ एकने ज केवळ सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननुं नाम मळे छे. (सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान समयसारथी जुदां नथी, एक ज छे.)

प्रथम, श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञानस्वभाव आत्मानो निश्चय करीने, पछी आत्मानी प्रगट प्रसिद्धिने माटे, पर पदार्थनी प्रसिद्धिनां कारणो जे इंद्रियद्वारा अने मन द्वारा प्रवर्तती बुद्धिओ ते बधीने मर्यादामां लावीने जेणे मतिज्ञान-तत्त्वने (-मतिज्ञानना स्वरूपने) आत्मसंमुख कर्युं छे एवो, तथा नाना प्रकारना नयपक्षोना आलंबनथी थता अनेक विकल्पो वडे आकुळता उत्पन्न करनारी श्रुतज्ञाननी बुद्धिओने पण मर्यादामां लावीने श्रुतज्ञान-तत्त्वने पण आत्मसंमुख करतो, अत्यंत विकल्परहित थइने, तत्काळ निज रसथी ज प्रगट थता, आदि-मध्य-अंत रहित, अनाकुळ, केवळ एक, आखाय विश्वना उपर जाणे के तरतो होय तेम अखंड प्रतिभासमय, अनंत, विज्ञानघन, परमात्मारूप समयसारने ज्यारे आत्मा अनुभवे छे ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे


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(शार्दूलविक्रीडित)
आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना
सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम्।
विज्ञानैकरसः स एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान्
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किञ्चनैकोऽप्ययम्।। ९३ ।।

(शार्दूलविक्रीडित)
दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्च्युतो
दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात्।
विज्ञानैकरसस्तदेकरसिनामात्मानमात्माहरन्
आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत्।। ९४ ।।

देखाय छे (अर्थात् श्रद्धाय छे) अने जणाय छे तेथी समयसार ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.

भावार्थः– आत्माने पहेलां आगमज्ञानथी ज्ञानस्वरूप निश्चय करीने पछी इंद्रियबुद्धिरूप मतिज्ञानने ज्ञानमात्रमां ज मेळवी दईने, तथा श्रुतज्ञानरूपी नयोना विकल्पोने मटाडी श्रुतज्ञानने पण निर्विकल्प करीने, एक अखंड प्रतिभासनो अनुभव करवो तेज ‘सम्यग्दर्शन’ अने ‘सम्यग्ज्ञान’ एवां नाम पामे छे; सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान कांइ अनुभवथी जुदां नथी.

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [नयानां पक्षैः विना] नयोना पक्षो रहित, [अचलं अविकल्पभावम्] अचळ निर्विकल्पभावने [आक्रामन्] पामतो [यः समयस्य सारः भाति] जे समयनो (आत्मानो) सार प्रकाशे छे [सः एषः] ते आ समयसार (शुद्ध आत्मा) - [निभृतैः स्वयम् आस्वाद्यमानः] के जे निभृत (निश्चळ, आत्मलीन) पुरुषो वडे स्वयं आस्वाद्यमान छे (-आस्वाद लेवाय छे, अनुभवाय छे) ते- [विज्ञान–एक–रसः भगवान्] विज्ञान ज जेनो एक रस छे एवो भगवान छे, [पुण्यः पुराणः पुमान्] पवित्र पुराण पुरुष छे; [ज्ञानं दर्शनम् अपि अयं] ज्ञान कहो के दर्शन कहो ते आ (समयसार) ज छे; [अथवा किम्] अथवा वधारे शुं कहीए? [यत् किञ्चन अपि अयम् एकः] जे कांई छे ते आ एक ज छे (-मात्र जुदां जुदां नामथी कहेवाय छे). ९३.

आ आत्मा ज्ञानथी च्युत थयो हतो ते ज्ञानमां ज आवी मळे छे एम हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– [तोयवत्] जेम पाणी पोताना समूहथी च्युत थयुं थकुं दूर गहन वनमां भमतुं होय तेने दूरथी ज ढाळवाळा मार्ग द्वारा पोताना समूह तरफ बळथी


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(अनुष्टुभ्)
विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम्।
न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति।। ९५ ।।

वाळवामां आवे; पछी ते पाणी, पाणीने पाणीना समूह तरफ खेंचतुं थकुं प्रवाहरूप थईने, पोताना समूहमां आवी मळे; तेवी रीते [अयं] आ आत्मा [निज–ओधात् च्युतः] पोताना विज्ञानघनस्वभावथी च्युत थयो थको [भूरि–विकल्प–जाल–गहने दूरं भ्राम्यन्] प्रचुर विकल्पजाळना गहन वनमां दूर भमतो हतो तेने [दूरात् एव] दूरथी ज [विवेक–निम्न– गमनात्] विवेकरूपी ढाळवाळा मार्ग द्वारा [निज–ओधं बलात् नीतः] पोताना विज्ञानघनस्वभाव तरफ बळथी वाळवामां आव्यो; [तद्–एक–रसिनाम्] केवळ विज्ञानघनना ज रसीला पुरुषोने [विज्ञान–एक–रसः आत्मा] जे एक विज्ञानरसवाळो ज अनुभवाय छे एवो ते आत्मा, [आत्मानम् आत्मनि एव आहरन्] आत्माने आत्मामां ज खेंचतो थको (अर्थात् ज्ञान ज्ञानने खेंचतुं थकुं प्रवाहरूप थईने), [सदा गतातुगतताम् आयाति] सदा विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे.

भावार्थः– जेम जळ, जळना निवासमांथी कोइ मार्गे बहार नीकळी वनमां अनेक जग्याए भमे; पछी कोइ ढाळवाळा मार्ग द्वारा, जेम हतुं तेम पोताना निवासस्थानमां आवी मळे; तेवी रीते आत्मा पण मिथ्यात्वना मार्गे स्वभावथी बहार नीकळी विकल्पोना वनमां भ्रमण करतो थको कोइ भेदज्ञानरूपी ढाळवाळा मार्ग द्वारा पोते ज पोताने खेंचतो पोताना विज्ञानघनस्वभावमां आवी मळे छे. ९४.

हवे कर्ताकर्म अधिकारनो उपसंहार करतां, केटलांक कळशरूप काव्यो कहे छे; तेमां प्रथम कळशमां कर्ता अने कर्मनुं संक्षिप्त स्वरूप कहे छेः-

श्लोकार्थः– [विकल्पकः परं कर्ता] विकल्प करनार ज केवळ कर्ता छे अने [विकल्पः केवलम् कर्म] विकल्प ज केवळ कर्म छे; (बीजां कोई कर्ता-कर्म नथी;) [सविकल्पस्य] जे जीव विकल्पसहित छे तेनुं [कर्तृकर्मत्वं] कर्ताकर्मपणुं [जातु] कदी [नश्यति न] नाश पामतुं नथी.

भावार्थः– ज्यां सुधी विकल्पभाव छे त्यां सुधी कर्ताकर्मभाव छे; ज्यारे विकल्पनो अभाव थाय त्यारे कर्ताकर्मभावनो पण अभाव थाय छे. ९प.

जे करे छे ते करे ज छे, जे जाणे छे ते जाणे ज छे-एम हवे कहे छेः-


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(रथोद्धता)
यः करोति स करोति केवलं
यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम्।
यः करोति न हि वेत्ति स क्वचित्
यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित्।। ९६ ।।
(इन्द्रवज्रा)
ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासतेऽन्तः
ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः।
ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने
ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च।। ९७ ।।

श्लोकार्थः– [यः करोति सः केवलं करोति] जे करे छे ते केवळ करे ज छे [तु] अने [यः वेत्ति सः तु केवलम् वेत्ति] जे जाणे छे ते केवळ जाणे ज छे; [यः करोति सः क्वचित् न हि वेत्ति] जे करे छे ते कदी जाणतो नथी [तु] अने [यः वेत्ति सः क्वचित् न करोति] जे जाणे छे ते कदी करतो नथी.

भावार्थः– कर्ता छे ते ज्ञाता नथी अने ज्ञाता छे ते कर्ता नथी. ९६.

एवी ज रीते करवारूप क्रिया अने जाणवारूप क्रिया बन्ने भिन्न छे एम हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– [करोतौ अन्तः ज्ञप्तिः न हि भासते] करवारूप क्रियानी अंदरमां जाणवारूप क्रिया भासती नथी [च] अने [ज्ञप्तौ अन्तः करोतिः न भासते] जाणवारूप क्रियानी अंदरमां करवारूप क्रिया भासती नथी; [ततः ज्ञप्तिः करोतिः च विभिन्ने] माटे ज्ञप्तिक्रिया अने ‘करोति’ क्रिया बन्ने भिन्न छे; [च ततः इति स्थितं] अने तेथी एम ठर्युं के [ज्ञाता कर्ता न] जे ज्ञाता छे ते कर्ता नथी.

भावार्थः– ‘हुं परद्रव्यने करुं छुं’ एम ज्यारे आत्मा परिणमे छे त्यारे तो कर्ताभावरूप परिणमनक्रिया करतो होवाथी अर्थात् ‘करोति’ क्रिया करतो होवाथी कर्ता ज छे अने ज्यारे ‘हुं परद्रव्यने जाणुं छुं’ एम परिणमे छे त्यारे ज्ञाताभावे परिणमतो होवाथी अर्थात् ज्ञप्तिक्रिया करतो होवाथी ज्ञाता ज छे.

अहीं कोई पूछे छे के अविरत-सम्यग्द्रष्टि आदिने ज्यां सुधी चारित्रमोहनो उदय छे त्यां सुधी ते कषायरूपे परिणमे छे तो तेने कर्ता कहेवाय के नहि? तेनुं समाधानः-अविरत- सम्यग्द्रष्टि वगेरेने श्रद्धा-ज्ञानमां परद्रव्यना स्वामीपणारूप कर्तापणानो अभिप्राय नथी; कषायरूप परिणमन छे ते उदयनी बळजोरीथी छे; तेनो ते ज्ञाता छे; तेथी अज्ञान संबंधी कर्तापणुं तेने नथी. निमित्तनी बळजोरीथी थता परिणमननुं फळ किंचित् होय छे ते संसारनुं कारण नथी. जेम वृक्षनी जड काप्या पछी ते वृक्ष किंचित् काळ रहे


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(शार्दूलविक्रीडित)
कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि
द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः।
ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थिति–
र्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम्।। ९८।।

अथवा नानटयतां, तथापि–

(मंदाक्रान्ता)
कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव
ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि।
ज्ञानज्योतिर्ज्वलितमचलं व्यक्तमन्तस्तथोच्चै–
श्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तगम्भीरमेतत्।। ९९।।

अथवा न रहे-क्षणे क्षणे तेनो नाश ज थतो जाय छे, तेम अहीं समजवुं. ९७.

फरीने ए ज वातने द्रढ करे छेः-

श्लोकार्थः– [कर्ता कर्मणि नास्ति, कर्म तत् अपि नियतं कर्तरि नास्ति] कर्ता नक्की कर्ममां नथी, अने कर्म छे ते पण नक्की कर्तामां नथी- [यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते] एम जो बन्नेनो परस्पर निषेध करवामां आवे छे [तदा कर्तृकर्मस्थितिः का] तो कर्ताकर्मनी स्थिति शी? (अर्थात् जीव-पुद्गलने कर्ताकर्मपणुं न ज होय शके.) [ज्ञाता ज्ञातरि, कर्म सदा कर्मणि] आ प्रमाणे ज्ञाता सदा ज्ञातामां ज छे अने कर्म सदा कर्ममां ज छे [इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता] एवी वस्तुस्थिति प्रगट छे [तथापि बत] तोपण अरे! [नेपथ्ये एषः मोहः किम् रभसा नानटीति] नेपथ्यमां आ मोह केम अत्यंत जोरथी नाची रह्यो छे? (एम आचार्यने खेद अने आश्चर्य थाय छे.)

भावार्थः– कर्म तो पुद्गल छे, तेनो कर्ता जीवने कहेवामां आवे ते असत्य छे. ते बन्नेने अत्यंत भेद छे, जीव पुद्गलमां नथी अने पुद्गल जीवमां नथी; तो पछी तेमने कर्ताकर्मभाव केम होई शके? माटे जीव तो ज्ञाता छे ते ज्ञाता ज छे, पुद्गलकर्मनो कर्ता नथी; अने पुद्गलकर्म छे ते पुद्गल ज छे, ज्ञातानुं कर्म नथी. आचार्ये खेदपूर्वक कह्युं छे के-आम प्रगट भिन्न द्रव्यो छे तोपण ‘हुं कर्ता छुं अने आ पुद्गल मारुं कर्म छे’ एवो अज्ञानीनो आ मोह (-अज्ञान) केम नाचे छे? ९८.

अथवा जो मोह नाचे छे तो भले नाचो; तथापि वस्तुस्वरूप तो जेवुं छे तेवुं ज छे- एम हवे कहे छेः-

श्लोकार्थः– [अचलं] अचळ, [व्यक्तं] व्यक्त अने [चित्–शक्तीनां निकर–भरतः


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अत्यन्त–गम्भीरम्] चित्शक्तिओना (-ज्ञानना अविभागपरिच्छेदोना) समूहना भारथी अत्यंत गंभीर [एतत् ज्ञानज्योतिः] आ ज्ञानज्योति [अन्तः] अंतरंगमां [उच्चैः] उग्रपणे [तथा ज्वलितम्] एवी रीते जाज्वल्यमान थई के- [यथा कर्ता कर्ता न भवति] आत्मा अज्ञानमां कर्ता थतो हतो ते हवे कर्ता थतो नथी अने [कर्म कर्म अपि न एव] अज्ञानना निमित्ते पुद्गल कर्मरूप थतुं हतुं ते कर्मरूप थतुं नथी; [यथा ज्ञानं ज्ञानं भवति च] वळी ज्ञान ज्ञानरूप ज रहे छे अने [पुद्गलः पुद्गलः अपि] पुद्गल पुद्गलरूप ज रहे छे.

भावार्थः– आत्मा ज्ञानी थाय त्यारे ज्ञान तो ज्ञानरूप ज परिणमे छे, पुद्गलकर्मनो कर्ता थतुं नथी; वळी पुद्गल पुद्गल ज रहे छे, कर्मरूपे परिणमतुं नथी. आम यथार्थ ज्ञान थये बन्ने द्रव्यना परिणामने निमित्तनैमित्तिकभाव थतो नथी. आवुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टिने होय छे. ९९.

टीकाः– आ प्रमाणे जीव अने अजीव कर्ताकर्मनो वेश छोडीने बहार नीकळी गया.

भावार्थः– जीव अने अजीव बन्ने कर्ता-कर्मनो वेश धारण करी एक थईने रंगभूमिमां दाखल थया हता. सम्यग्द्रष्टिनुं ज्ञान के जे यथार्थ देखनारुं छे तेणे ज्यारे तेमनां जुदां जुदां लक्षणथी एम जाणी लीधुं के तेओ एक नथी पण बे छे, त्यारे तेओ वेश दूर करी रंगभूमिमांथी बहार नीकळी गया. बहुरूपीनुं एवुं प्रवर्तन होय छे के देखनार ज्यां सुधी ओळखे नहि त्यां सुधी चेष्टा कर्या करे, परंतु ज्यारे यथार्थ ओळखी ले त्यारे निज रूप प्रगट करी चेष्टा करवी छोडी दे. तेवी रीते अहींपण जाणवुं.

जीव अनादि अज्ञान वसाय विकार उपाय बणै करता सो,
ताकरि बंधन आन तणूं फल ले सुख दुःख भवाश्रमवासो;
ज्ञान भये करता न बने तब बंध न होय खुलै परपासो,
आतममांहि सदा सुविलास करै सिव पाय रहै निति थासो.

आम श्री समयसारनी (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमनी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामनी टीकामां कर्ताकर्मनो प्ररूपक बीजो अंक समाप्त थयो.

* * *
समयसार गाथा १४४ः मथाळुं

पक्षातिक्रान्त ज समयसार छे एम नियमथी ठरे छे-एम हवे कहे छेः-

हुं अबद्ध छुं, एक छुं, शुद्ध छुं-एवो जे पक्षनो राग छे एने जे छोडी दे छे ते समयसार छे, एनुं नाम आत्मा छे एम नियमथी ठरे छे ए वात हवे गाथामां कहे छे.


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* गाथा १४४ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जे खरेखर समस्त नयपक्षो वडे खंडित नहि थतो होवाथी जेनो समस्त विकल्पोनो व्यापार अटकी गयो छे एवो छे, ते समयसार छे; खरेखर आ एकने ज केवळ सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननुं नाम मळे छे. (सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान समयसारथी जुदां नथी, एक ज छे.)’

हुं शुद्ध छुं, अबद्ध छुं, एक छुं-एवा जे नयपक्षना विकल्प उठे ते वडे जे खंडित थतो नथी ते समयसार छे. शुं कह्युं? भगवान आत्मा सदा ज्ञानानंदस्वभावी नित्यानंद प्रभु छे; आ नयपक्षनो विकल्प छे ते तेनी शांतिनो खंड करे छे. जे जीव नयपक्षना विकल्प करे छे ते आत्मानी शान्तिनो खंड एटले भंग करे छे. समस्त नयपक्षो वडे खंडित नहि थतो होवाथी एम कह्युं त्यां मतलब एम छे के पूर्वे नयपक्ष वडे खंडित थतो हतो ते हवे शुद्ध चैतन्यस्वरूपना लक्षे समस्त नयपक्ष छूटी जवाथी जेने सर्व विकल्पोनो व्यापार अटकी गयो छे एवो ते समयसार छे. जुओ, आ वीतराग सर्वज्ञदेवनी वाणीनो सार भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव जाहेर करे छे.

महाविदेहमां वर्तमानमां साक्षात् सीमंधरस्वामी सर्वज्ञपदे बिराजी रह्या छे. प०० धनुष्यनो देह छे, क्रोड पूर्वनुं आयुष्य छे. अबजो वर्षोथी बिराजे छे अने हजु अबजो वर्ष पछी निर्वाणपदने पामशे. भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव त्यां पधार्या हता. आठ दिवस त्यां रहीने भरतमां भगवाननो आ संदेश लाव्या छे. देवसेन आचार्य नामना महामुनि थई गया. तेओ श्री दर्शनसार नामना शास्त्रमां कहे छे-‘(महाविदेहक्षेत्रना वर्तमान तीर्थंकरदेव) श्री सीमंधरस्वामी पासेथी मळेला दिव्यज्ञान वडे श्री पद्मनंदिनाथे (श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे) बोध न आप्यो होत तो मुनिजनो साचा मार्गने केम जाणत?’ अहा! आवा श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के जे खरेखर समस्त नयपक्षो वडे खंडित नहि थतो होवाथी जेनो समस्त विकल्पोनो व्यापार अटकी गयो छे एवो छे ते समयसार छे. जडकर्म, शरीरादि नोकर्म अने विकल्परूपी भावकर्मथी जे रहित थयो छे ते सम्यक् प्रकारे समयसार छे. खरेखर आ एकने ज केवळ सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननुं नाम मळे छे.

भगवान आत्मा ज्ञाता-द्रष्टाना स्वभावथी, एकला चैतन्यरसथी भरेलुं अनादि अनंत निर्मळ तत्त्व छे. आत्मा त्रिकाळी शुद्ध, एक, परम पवित्र परमात्मद्रव्य छे ए तो बराबर ज छे. पण आवो जे नयपक्षनो विकल्प उठे छे ते वस्तुना स्वभावमां नथी. विकल्प छे ते चैतन्यस्वभावथी भिन्न छे. अंतरस्वभावनी द्रष्टि थतां ज सर्व नयपक्षना विकल्प खंडित थईने विलय पामी जाय छे अर्थात् नाश पामी जाय छे. (उत्पन्न थता नथी.) अहाहा...! हुं ज्ञानस्वभावी त्रिकाळी ध्रुव परमात्मद्रव्य छुं एवो विकल्प पण


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जेमां नथी एवो चैतन्यमहाप्रभु आत्मा छे. तेना उपर द्रष्टि पडतां अर्थात् वर्तमान ज्ञाननी पर्याय त्रिकाळी द्रव्यमां एकत्व पामतां समस्त विकल्पनो व्यापार जेने अटकी गयो छे एवो ते समयसार छे. जेवो शुद्ध चैतन्यमय आत्मा छे तेवो निर्विकल्प अनुभवमां आवतां आ समयसार छे एम जाणवामां आवे छे अने ए ज आत्मा छे. आ अपूर्व वात छे, भाई! आ सिवाय रागनी के विकल्पनी वृत्ति उठे ते अनात्मा छे, जड छे, अचेतन छे.

स्वानुभव दशामां प्रगट थता सम्यग्दर्शन विनानां व्रत, तप, भक्ति इत्यादि एकडा वगरनां मीडां छे. वळी ए रागमां तन्मय थवुं ए मिथ्यात्वभाव छे. अहा! जीव पूर्वे अनंतवार नग्न जैन साधु थयो अने पंचमहाव्रत अने अठ्ठावीस मूलगुणनुं एणे पालन कर्युं. पण ए तो बधो शुभराग हतो. तेमां (शुभरागमां) एकता करीने परिणमवुं ए मिथ्यात्वभाव छे अने एनुं फळ संसार ज छे.

अहीं कहे छे-नयपक्षथी रहित थईने जे पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपने अनुभवे छे ते समयसार छे. अहाहा...! एकलुं ज्ञान-ज्ञान-ज्ञान! जाणगस्वभावनुं दळ प्रभु आत्मा छे. तेनी सन्मुख थईने तेने अनुभवतां समस्त विकल्पनो नाश थई जाय छे अर्थात् त्यारे कोई विकल्प उत्पन्न ज थतां नथी. आने समयसार अर्थात् आत्मा कहे छे अने ते एकने ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननुं नाम मळे छे. जुओ, आ चोथा गुणस्थाननी वात छे. श्रावकपणुं अने मुनिपणुं तो तेनाथी आगळनी कोई अद्भुत अलौकिक दशाओ छे. देव-गुरु-शास्त्रनुं बाह्य श्रद्धान के नवतत्त्वनुं भेदरूप श्रद्धान ए सम्यग्दर्शन नथी.

रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए कह्युं छे के-‘‘जैनमतमां कहेलां देव, गुरु अने धर्म ए त्रणेने माने छे तथा अन्यमतमां कहेलां देवादि वा तत्त्वादिने माने नहि तो एवा केवळ व्यवहारसम्यक्त्व वडे ते सम्यक्त्वनी नामने पामे नहि, माटे स्व- परभेदविज्ञानपूर्वक जे तत्त्वार्थश्रद्धान होय ते सम्यक्त्व जाणवुं.’’ वीतरागस्वभावी शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु आत्मा छे, तेनो अंतर-अनुभव करवो ते एकने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान एवुं नाम मळे छे, ते सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान सयमसारथी जुदा नथी, समयसार ज छे.

जेम सिद्ध परमात्माने कोई परद्रव्य के विकल्प साथे संबंध नथी तेम परमानंदस्वरूप भगवान आत्माने कोई परद्रव्य के विकल्प साथे संबंध नथी. अरे भाई! परद्रव्यनी व्यवस्था करे एवुं आत्मानुं स्वरूप नथी. शुभाशुभ राग करे एवुं पण आत्मानुं स्वरूप नथी. शुभाशुभ रागनो जे कर्ता थाय ए मिथ्याद्रष्टि छे, अनात्मा छे. परद्रव्यनी कोई पर्यायने आत्मा करे (करी शके) ए तो वात छे ज नहि, पण पोतानी पर्यायमां राग करे, विकल्प करे (कर्ता थईने) ए मिथ्याद्रष्टि छे. जुओ, आ कर्ताकर्म अधिकार


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छे ने! विकल्प करवो ए चैतन्यना स्वरूपमां नथी. तथापि कोई विकल्पनो कर्ता थाय अने विकल्प पोतानुं कर्तव्य माने ते मिथ्याद्रष्टि छे.

आत्मा विज्ञानघन प्रज्ञाब्रह्मस्वरूप परमात्मा छे, एमां परनो अने विकल्पनो कयां अवकाश छे? क्षुल्लक धर्मदासजीए एने सप्तम् द्रव्य कह्युं छे. समयसार गाथा ४९ नी टीकामां अव्यक्तना छ बोल छे. तेमां पहेला बोलमां कह्युं छे के-‘‘छ द्रव्यस्वरूप लोक जे ज्ञेय छे अने व्यक्त छे तेनाथी जीव अन्य छे माटे अव्यक्त छे.’’ छ द्रव्य ज्ञानमां जणावा लायक छे माटे व्यक्त छे. तेनाथी भगवान आत्मा भिन्न छे. छमां होवा छतां छ द्रव्यथी भिन्न छे माटे तेने सप्तम् द्रव्य कह्युं छे. एककोर राम अने एककोर आखुं गाम, अर्थात् आ विश्वना छ द्रव्यो बधा आत्माथी भिन्न छे अने आत्मा ए सर्वथी भिन्न छे. पोते स्वने जाणतां ए सर्वने जाणे एवो एनो ज्ञानस्वभाव छे. पोतानो स्वपरप्रकाशकस्वभाव होवाथी पोताने जाणतां ए बधुं सहज जणाई जाय छे. परंतु एकलुं परने ज जाणवुं ए मिथ्याज्ञान छे. स्वभावमां तन्मय थईने पोताने जाणतां पर जणाई जाय तेने व्यवहार कहे छे. आनुं नाम सम्यग्ज्ञान छे. सम्यग्ज्ञान स्वरूपना अनुभव सहित होय छे. सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान ए कांई आत्माथी जुदो भाव नथी. आटली वात प्रथम करीने हवे शरूआत केम करवी ते हवे कहे छेः-

‘प्रथम, श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञानस्वभाव आत्मानो निश्चय करीने-’ शुं कह्युं? के वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनां जे शास्त्रो छे तेना अवलंबनथी प्रथम ज्ञानस्वभाव आत्मानो निश्चय करवो. आ निर्णय प्रथम विकल्प द्वारा करवानी वात छे. निर्विकल्प थवा माटे ज्ञानस्वभावी आत्मानो विकल्पथी निर्णय करवो एम कह्युं त्यां एम न समजवुं के आ विकल्पात्मक निर्णय निर्विकल्पनुं कारण छे. आ तो विकल्पात्मक निर्णय प्रथम दशामां होय छे एनी अहीं वात करी छे. हुं त्रिकाळी शुद्ध ज्ञानस्वभावी नित्यानंदस्वरूप प्रभु आत्मा छुं एम प्रथम श्रुतज्ञानना अवलंबनथी रागमिश्रित विचारथी निर्णय करे छे. ‘श्रुतज्ञानना अवलंबनथी’-एम कह्युं एनो अर्थ एम छे के जीव सर्वज्ञदेव अने साचा निर्ग्रंथ गुरु आगमनी जे वात कहे ते सांभळीने निर्णय करे छे. गुरुए कह्युं-विकल्पथी मांडीने सर्व लोकालोकथी भिन्न तारो आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वभावी छे तेने तुं जाण. आम सांभळीने प्रथम ते मनना संबंधथी विकल्पात्मक निर्णय करे छे तेनी आ वात छे. सम्यग्दर्शन तो हजी पछीनी वात छे. आ तो (विकल्पना) आंगणामां ऊभो रहीने प्रथम अंदरनो निर्णय करे छे एनी वात छे.

प्रथम, आत्माना अनुभवनी शरूआत जेने करवी छे, जेने सम्यग्दर्शन प्राप्त करवुं छे तेणे प्रथम श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञानस्वभाव आत्मानो निश्चय करवो एम कहे छे. दया, दान आदिना विकल्प छे ते विभाव छे, चैतन्यनो स्वभाव नथी अने भगवान आत्मा एनाथी भिन्न एकलो जाणग-जाणगस्वभावी चैतन्यनो पिंड छे. अनादिनुं


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आ ज प्रभु आत्मानुं अस्तित्व छे एम श्रीगुरु पासेथी सांभळीने हुं एकलो ज्ञानपुंज निर्विकल्पस्वरूप आत्मा छुं एम विकल्प द्वारा प्रथम निर्णय करे छे. हवे कहे छे-

आम निर्णय करीने, ‘पछी आत्मानी प्रगट प्रसिद्धिने माटे पर पदार्थनी प्रसिद्धिनां कारणो जे इंद्रिय द्वारा अने मन द्वारा प्रवर्तती बुद्धिओ ते बधीने मर्यादामां लावीने जेणे मतिज्ञान-तत्त्वने (-मतिज्ञानना स्वरूपने) आत्मसंमुख कर्युं छे...’

शुं कहे छे आ? -के ज्ञानस्वरूप आत्मा छे एवो विकल्प द्वारा निर्णय कर्यो पण एमां आत्मानी प्रगट प्रसिद्धि न थई. निर्णय तो कर्यो के आत्मा केवळज्ञानस्वभावी (केवळज्ञान पर्यायनी वात नथी) एटले के एकलो ज्ञाननो पिंड छे, पण ए विकल्परूप निर्णयमां आत्मप्रसिद्धि कहेतां आत्मख्याति प्रगट न थई. आ टीकानुं नाम आत्मख्याति छे. आत्मख्याति ज प्रयोजन छे ने? कहे छे-विकल्प द्वारा अव्यक्तपणे आत्मानो निर्णय कर्यो पण तेमां आत्मप्रसिद्धि अर्थात् आत्मानुभव न थयो.

जुओ, सर्वज्ञ परमेश्वरनी जे वाणी छे ते द्रव्यश्रुतरूप छे. धवलमां आवे छे के केवळी भगवान श्रुतज्ञान द्वारा उपदेश आपे छे. आशय एम छे के समजनार द्रव्यश्रुतद्वारा समजे छे एटले भगवाननी वाणी द्रव्यश्रुतरूप छे एम कह्युं छे. अने ते भावश्रुतज्ञान प्रगट थवामां निमित्त छे. खरेखर वाणी तो जड छे अने भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति अंदर भिन्न छे. पण जे भगवाननी वाणी सांभळीने हुं भिन्न चैतन्यतत्त्व छुं एवो निर्णय करी विकल्परहित थईने अंतर-स्वरूपमां एकाग्र थई जाय छे तेने वाणी भावश्रुतज्ञान प्रगट थवामां निमित्त थाय छे.

अहीं कहे छे के भगवाननी वाणी सांभळीने हुं ज्ञानस्वभावी आत्मा छुं एवो विकल्पमां निर्णय कर्यो पण हजी आत्मानी प्रगट प्रसिद्धि अर्थात् आत्मानो अनुभव नथी थयो. जेम कोई झवेरातनी दुकाननी बहार आंगणामां ऊभो रहे पण अंदर दुकानमां प्रवेशे नहि तो तेने झवेरातनी कांई समज नथी, तेम विकल्पना आंगणामां ऊभो रहीने निर्णय करे के आत्मा ज्ञानस्वभावी छे पण अंदर वस्तुमां प्रवेशे नहि त्यांसुधी तेने आत्मानुभव थतो नथी, आत्मानी प्रगट प्रसिद्धि थती नथी. विकल्प द्वारा निर्णय करे पण विकल्पमां आत्मानुभव प्रगट करवानी गुंजाश (शक्ति) नथी.

पर्यायमां आत्मानी प्रगट प्रसिद्धि माटे मतिज्ञान-तत्त्वने आत्मसंमुख करवानी वात कहे छे. जुओ, आ सम्यग्दर्शन प्रगट करवानी विधि बतावे छे. बहारमां देव-गुरु-शास्त्र अने नवतत्त्वनुं भेदरूप श्रद्धान करे एनुं नाम सम्यग्दर्शन नथी. नवतत्त्वने भेदथी जाणे ए तो राग छे अने भगवान आत्मा तो त्रिकाळ शुद्ध भिन्न ज्ञायक तत्त्व छे. अहाहा...! निगोदनी अवस्थामां जीव होय ते काळे पण ते भिन्न ज्ञायक तत्त्व छे. आवो ज्ञायकस्वरूप आत्मा पर्यायमां प्रगट केम थाय एनी अहीं वात चाले छे.


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कहे छे-आ इंद्रियो अने मन छे ते पर पदार्थनी प्रसिद्धिनां कारणो छे. स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु अने कर्ण-एम जे पांच इंद्रियो छे ते पर पदार्थनी प्रसिद्धिनां कारणो छे. इन्द्रियो वडे भगवान आत्मा प्रसिद्ध थाय एवी चीज आत्मा नथी. वीतरागनी वाणी अने पंच परमेष्ठी भगवान ए बधां परद्रव्य छे. इन्द्रियो अने मन द्वारा आ बधा पर पदार्थ प्रसिद्ध थाय छे पण आत्मा प्रसिद्ध थतो नथी. ‘जो इंदिये जिणित्ता...’ एम गाथा ३१मां जे वात करी हती ए वात अहीं बीजी रीते कहे छे. अहाहा...! भगवान आत्मा चैतन्यमूर्ति महा चैतन्यहीरलो छे, तेनी प्रसिद्धि माटे एटले पर्यायमां तेनो अनुभव करवा माटे पर पदार्थना प्रसिद्धिनां कारणो जे इन्द्रिय द्वारा अने मन द्वारा प्रवर्तती बुद्धिओ ते बधाने मर्यादामां लावीने मतिज्ञानतत्त्वने आत्मसंमुख करवुं एम कहे छे.

शरीर, मन, वाणी ए बधा पर पदार्थ छे. भगवाननी प्रतिमा पण पर पदार्थ छे. त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञदेव साक्षात् समोसरणमां बिराजमान होय ते पण पर पदार्थ छे. ए बधा परपदार्थ इन्द्रियो द्वारा प्रसिद्धि थाय छे अर्थात् जणाय छे. अहीं तो स्वद्रव्यने-आत्माने जाणवानी वात छे. तेथी कहे छे-इन्द्रिय अने मन द्वारा प्रवर्तती जे बुद्धिओ एटले ज्ञाननी अवस्थाओ-ते बधीने मर्यादामां लावीने मतिज्ञानतत्त्वने आत्मसन्मुख करतां आत्मा प्रसिद्ध थाय छे. इन्द्रिय अने मन द्वारा प्रवर्तता ज्ञाननो जे परसन्मुख झुकाव छे तेने त्यांथी समेटी लईने स्वसन्मुख करतां भगवान आत्मा जणाय छे, अनुभवाय छे.

जेने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं छे ते प्रथम स्वरूपनो विकल्प द्वारा निश्चय करीने पछी पांच इन्द्रिय अने छठ्ठा मन द्वारा पर पदार्थनी प्रसिद्धि करनारुं जे ज्ञान तेने त्यांथी मर्यादामां लावीने अर्थात् समेटी लईने जेणे मतिज्ञानना स्वरूपने आत्मसंमुख कर्युं छे एवो थाय छे. अहाहा...! मतिज्ञानना स्वरूपने तेणे जाणनार प्रति वाळी दीधुं छे, परज्ञेयथी हठावीने मतिज्ञानना स्वरूपने स्वज्ञेयमां जोडी दीधुं छे. आवो मार्ग अने आवी विधि छे. बापु! एने जाण्या विना एम ने एम अवतार पूरो थई जाय छे! अरेरे! आवुं सत्य स्वरूप सांभळवा मळे नहि ते बिचारा के दि धर्म पामे? केटलाक तो मिथ्यात्वने अति पुष्ट करता थका संप्रदायमां पडया छे. अहा! क्रियाकांडना रागमां तेओ बिचारा जिंदगी वेडफी नाखे छे!

अहीं कहे छे के मतिज्ञान जे मन अने इन्द्रियो द्वारा पर पदार्थ प्रति झुकेलुं हतुं तेने त्यांथी वाळीने आत्मसंमुख कर्युं छे एवो थयो छे. आ एक वात थई. हवे बीजी वात करे छे-


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‘तथा नाना प्रकारना नयपक्षोना आलंबनथी थता अनेक विकल्पो वडे आकुळता उत्पन्न करनारी श्रुतज्ञाननी बुद्धिओने पण मर्यादामां लावीने श्रुतज्ञान-तत्त्वने पण आत्मसंमुख करतो, अत्यंत विकल्परहित थईने,.. .’

जुओ, श्रुतज्ञानना अनेक प्रकारना नयपक्षोना आलंबनथी अनेक प्रकारना विकल्पो उत्पन्न थाय छे. हुं अबद्ध छुं, एक छुं, अभेद छुं, शुद्ध छुं इत्यादि नयपक्षना आलंबनथी अनेक विकल्प उत्पन्न थाय छे. ते बधा रागना भाव आकुळता उत्पन्न करनारा छे. हुं बद्ध छुं, अशुद्ध छुं इत्यादि नयपक्षना विकल्प तो आकुळता उत्पन्न करनारा छे जे, पण हुं अबद्ध छुं, शुद्ध छुं इत्यादि जे स्वरूप संबंधी विकल्प छे ते पण आकुळता उत्पन्न करनारा छे. व्रत, तप, भक्ति इत्यादिनो जे राग छे ए तो आकुळता उपजावनार छे ज, पण नयपक्षनो जे राग छे ते पण आकुळता उपजावनारो छे, दुःखकारी छे.

परंतु भगवान आत्मा शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप वस्तु छे. तेमां राग अने दुःख कयां छे? श्रुतज्ञानना विकल्पथी उत्पन्न थती आकुळता ते वस्तुमां कयां छे? हुं पूर्ण छुं, शुद्ध छुं, निर्लेप छुं -एवा जे विकल्प ऊठे ते आत्माथी भिन्न छे. आवा विकल्पथी भिन्न आत्माने अनुभववो ते सम्यग्दर्शन छे.

रहस्यपूर्ण चिठ्ठीमां आवे छे के-हवे सविकल्प द्वार वडे निर्विकल्प परिणाम थवानुं विधान कहीए छीए. त्यां आ सम्यग्दर्शन थया पछीनी वात छे. आत्मानुं जेने भान थयुं छे तेने स्वानुभव पूर्वे ‘हुं चिदानंद छुं, शुद्ध छुं’ एवो विकल्प ऊठे छे. त्यारपछी एवो विचार छूटी जईने स्वरूप केवळ चिन्मात्र भासवा लागे अने परिणाम स्वरूप विषे एकाग्र थई प्रवर्ते तेने निर्विकल्प अनुभव कहे छे अने एनुं ज नाम शुद्धोपयोग छे.

समयसार तो हवे घेर घेर पहोंची गयुं छे. तेनां स्वाध्याय अने मनन करवां जोईए. दुकानना चोपडा फेरवे छे पण आ वीतरागनो चोपडो मन दईने जुए तो तारी स्वरूपलक्ष्मीनी तने खबर पडे. अहो! आ (१४४मी) गाथा बहु ऊंची छे! भाग्यशाळीने काने पडे एवी आ वात छे. कहे छे-भगवान! तुं तो भागवतस्वरूप शुद्ध चैतन्यस्वरूप छो. तेमां हुं आवो छुं ने तेवो छुं एवा नयविकल्पने कयां अवकाश छे? परनुं तुं करे अने पर तारुं करे ए वात तो छे ज नहि. अहीं तो कहे छे के आकुळताने उत्पन्न करनारा जे नयपक्षना विकल्प छे एनाथी भगवान! तुं भिन्न छो. आवुं तारुं स्वरूप निर्विकल्प अनुभवमां प्रसिद्ध थाय तेम छे. निर्विकल्प अनुभवमां भगवान आनंदनो नाथ प्रसिद्ध थाय छे. तेथी श्रुतज्ञाननी बुद्धिओने पण मर्यादामां लावीने एटले के श्रुत-विकल्पथी हठावीने श्रुतज्ञानतत्त्वने पण आत्मसंमुख करवुं एम कहे छे.


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जेम मतिज्ञानने स्वाभिमुख वाळ्‌युं छे तेम श्रुतज्ञानना स्वरूपने पण आत्मसन्मुख वाळवुं एम कहे छे. श्रुतज्ञाननी बुद्धिओ एटले ज्ञाननी दशाओ जे नयविकल्पमां गूंचवाई पडी हती तेने त्यांथी समेटीने स्वसन्मुख वाळवी एम कहे छे. जुओ, आ धर्मनी विधि बतावे छे. शीरो बनाववानी विधि होय छे ने? लोटने पहेलां घीमां शेके, पछी साकरनुं पाणी नाखे तो शीरो तैयार थाय. पण एना बदले जो कोई साकरना पाणीमां लोट शेके अने पछी घी नाखे तो एवी विधिथी शीरो तैयार नहि थाय; शीरो तो शुं, गुमडा पर चोपडवानी पोटीश (लोपरी) पण नहि थाय. तेम समस्त नयपक्षना विकल्पथी छूटीने श्रुतज्ञानतत्त्व अंतर- स्वरूपमां एकाग्र थाय त्यारे आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थाय छे. आ सम्यग्दर्शन अने धर्म छे अने ते प्रगट करवानी आ ज विधि छे.

परंतु आ विधि छोडी दईने कोई अज्ञानीओ पहेलां व्रत, तप, पूजा, भक्ति, दया, दान आदि करवा मंडी पडे तो तेथी सम्यग्दर्शन नहि थाय. जेम साकरना पाणीमां लोट शेकनारने घी, लोट अने साकर त्रणे पाणीमां फोगट जशे तेम आत्माना भान विना क्रियाकांडमां रोकाय तेनां दर्शन, ज्ञान अने चारित्र-त्रणेमां विपरीतता थशे अर्थात् तेने मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्र थशे. भाई! चारित्र शुं छे बापु! एनी तने खबर नथी. चारित्र एटले तो स्वरूपमां चरवुं, रमवुं, ठरवुं, स्थिर थवुं. पण स्वरूपना श्रद्धान-ज्ञान विना शामां चरवुं अने शामां रमवुं? चैतन्यस्वरूपना अनुभव विना चारित्र होई शके ज नहि.

अहीं आत्माना अनुभवनी विधि बतावे छे. कहे छे-अनेक विकल्पो वडे आकुळता उत्पन्न करनारी श्रुतज्ञाननी बुद्धिओने पण मर्यादामां लावीने श्रुतज्ञानतत्त्वने आत्मसंमुख करे छे ते वखते ज विकल्परहित थयेला तेने आत्मा सम्यक्पणे देखाय छे, श्रद्धाय छे. विकल्प छे ते बहिर्मुख भाव छे. जे विकल्पमां ज अटकी रहे छे ते बहिरात्मा छे. तेथी श्रुतज्ञाननी बुद्धिओने जे मर्यादामां लावीने श्रुतज्ञानने अंतरमां आत्माभिमुख वाळे छे तेने आत्मानुभव अने आत्मदर्शन थाय छे. आ सम्यग्दर्शन पामवानी रीत छे.

संप्रदायमां तो आ वात चालती ज नथी. व्रत करो, तप करो, जात्रा करो-बस, आवी विकल्पनी, रागनी वातो छे. अहीं तो कहे छे के हुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं एवो विकल्प उठे ते आकुळतामय राग छे; ते पर तरफ जती बुद्धिने अंतरमां वाळवी ते स्वानुभवनी रीत छे.

प्रथम कह्युं के मतिज्ञान तत्त्वने आत्मसंमुख करवुं. अहीं कह्युं के श्रुतज्ञानतत्त्वने पण आत्मसंमुख वाळवुं. अहाहा...! आमां केटलो पुरुषार्थ छे! आखी दिशा (परथी स्वद्रव्य तरफ) बदली नाखवानी वात छे. हवे कहे छे-

श्रुतज्ञानतत्त्वने पण आत्मसंमुख करतो, अत्यंत विकल्प रहित थईने, तत्काळ


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निजरसथी ज प्रगट थता, आदि-मध्य-अंत रहित, अनाकुळ, केवळ एक, आखाय विश्वना उपर जाणे के तरतो होय तेम अखंड प्रतिभासमय, अनंत, विज्ञानघन, परमात्मरूप समयसारने ज्यारे आत्मा अनुभवे छे ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे देखाय छे (अर्थात् श्रद्धाय छे) अने जणाय छे, तेथी समयसार ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.’

मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान आत्मसंमुख थतां जे अनुभव थाय तेमां अत्यंत विकल्प रहितपणुं छे. हुं आवो छुं अने आवो नथी एवा विकल्पने पण जो अवकाश नथी तो पछी परनुं आ करवुं अने ते करवुं ए वात कयां रही? अहा! आम थतां अत्यंत विकल्प रहित थईने तत्काळ निजरसथी ज आत्मा प्रगट थाय छे. अंतरमां ज्यां द्रष्टि पडी, ज्ञाननी दशा ज्यां ज्ञाता तरफ वळी के तरत ज ते ज क्षणे निजरसथी ज भगवान आत्मा प्रगट थाय छे. निजरस एटले ज्ञानरस, चैतन्यरस, आनंदरस, शांतरस, समरस, वीतरागरसथी तत्काळ भगवान आत्मा प्रसिद्ध थाय छे.

आत्मा आदि, मध्य अने अंतरहित वस्तु छे. एने आदि कयां छे? अंत कयां छे? ए तो छे, छे ने छे. एने मध्य केवो? आनंदकंद प्रभु ज्ञाननो पिंड अनादि-अनंत एवो ने एवो विराजमान छे. कयारे न हतो? कयारे नहि होय? सदाय छे, छे, छे. आवो त्रिकाळ अस्तिरूप भगवान आत्मा छे. तेने विकल्परहित थईने ज्यारे स्वसन्मुख थईने जीव अनुभवे छे त्यारे ते ज क्षणे ते निजरसथी प्रगट प्रसिद्ध थाय छे. ते विकल्पथी प्रगट थतो नथी. हुं शुद्ध छुं एवो जे विकल्प ऊठे छे ते व्यवहार छे अने एनाथी आत्मा प्रसिद्ध थतो नथी.

विकल्पना आश्रये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्रगट थतुं नथी पण अंतरमां स्वभाव- सन्मुख थतां तत्काळ निजरसथी ज आत्मा प्रगट थाय छे. ‘निजरसथी ज’-एम ‘ज’ नाख्यो छे. सम्यक् एकान्त कर्युं छे. एटले निजरसथी पण थाय अने विकल्पना रागथी पण थाय एवुं एनुं स्वरूप नथी. टीकामां छे-‘स्वरसत एव व्यक्तिभवन्तम्’-मतलब के निजरसथी ज आत्मा प्रगट थाय छे. (अन्यथी नहि.) मार्ग तो आ छे, बापु! तने न बेसे तेथी विरोध करे, पण शुं थाय? खरेखर तो तुं पोतानो ज विरोध करे छे; केमके परनो विरोध शुं कोई करी शके छे? (परमां कोई कांई करी शकतुं नथी).

अहीं कहे छे-राग अने नयपक्षना विकल्पोने छोडी ज्यां मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानतत्त्वने अंतर्मुख वाळ्‌युं त्यां तत्काळ निजरसथी ज भगवान आत्मा प्रसिद्ध थाय छे. पहेलां विकल्पनी आडमां अप्रसिद्ध हतो ते निर्विकल्प थतां प्रसिद्ध थाय छे. अहाहा...! शुं टीका छे? एकलो अमृतरस रेडयो छे. आत्मप्रसिद्धि थतां सम्यग्दर्शन थयुं, सम्यग्ज्ञान थयुं, सम्यक्चारित्र थयुं- एम अनंतगुणनो निर्मळ रस व्यक्त थयो. वस्तु छे ते अनंतगुणमय छे. तेमां ज्ञान मुख्य छे, ज्ञान साथे सर्व अनंतगुण अविनाभावी छे.


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आखुं जे त्रिकाळी ध्रुव द्रव्य छे एनी सन्मुख थतां ते तत्काळ निजरसथी ज प्रगट थाय छे; आदि-मध्य-अंतरहित, अनादि अनंत परमात्मरूप समयसार ते वखते ज सम्यक्पणे श्रद्धाय छे, जणाय छे. वस्तु तो त्रिकाळ छे, ने छे. पहेलां न हतो अने हवे थयो एम नथी. पर्यायमां प्रसिद्धि आवी छे छे त्यां प्रसिद्धिमां आवी एवी चीज जे छे ए तो आदि-मध्य- अंतरहित त्रिकाळ छे. अनादिथी भगवान आत्मा तो ज्ञान अने आनंदना स्वरूपे ज छे. आवो ते निर्मळानंदनो नाथ प्रभु श्रुतना विकल्पोनी आकुळताने छोडीने निराकुळ आनंदरूपे पर्यायमां प्रगट थाय छे. सम्यग्दर्शन प्रगट थतां निराकुळ आनंदनो स्वाद भेगो ज होय छे. अनाकुळ, केवळ एक आखाय विश्वना उपर जाणे तरतो होय तेम ज्ञानी निज आत्माने अनुभवे छे. केवळ एकने ज अनुभवे छे-एटले के आ द्रव्य अने आ पर्याय एवो भेद पण त्यां अनुभवमां नथी.

केवळ एक एवो जे ज्ञायकस्वभावभाव आखा विश्वना उपर जाणे के तरतो होय एम परमात्मरूप समयसारने ज्ञानी अनुभवे छे. विकल्पथी मांडीने आखो जे लोकालोक तेनाथी भिन्न भगवान आत्मा तरतो होय एम ज्ञानी अनुभवे छे. भाई! आ भगवाननी सीधी वाणीनो सार छे. कहे छे-आखा विश्व उपर जाणे तरतो होय एवो एटले के विश्वथी भिन्न पोताने ज्ञानी अनुभवे छे. भिन्न छुं के अभिन्न छुं एवो विकल्प पण एमां कयां छे? आ अनुभव करुं छुं एवुं पण त्यां अनुभवमां नथी. पाणीनुं गमे तेटलुं दळ होय छतां तुंबडी तो उपर तरे छे, तेम विकल्पथी मांडीने आखा लोकालोकथी भगवान आत्मा भिन्नपणे जाणे तरतो होय एवुं ज्ञानीने अनुभवाय छे.

समजाय एटलुं समजो, बापु! बार अंगनो सार आ छे. सम्यग्दर्शन शुं चीज छे अने ते केम प्रगट थाय एनी आ वात चाले छे. चारित्र तो बहु आगळनी वात छे, प्रभु! कहे छे- भगवान आत्मा सदा सिद्धस्वरूप परमात्मा छे. नाटक समयसारमां आवे छे के-

‘‘चेतनरूप अनूप अमूरत, सिद्ध समान सदा पद मेरो.’’

भगवान आत्मा सदाय सिद्धस्वरूप छे. तेमां संसारना विकल्प तो दूर रहो, नयपक्षना विकल्प पण एना स्वरूपमां नथी. आवा निजस्वभाव तरफ झुकवाथी आत्मा निजरसथी ज प्रगट थाय छे. राग अने नयना विकल्पथी ते प्रसिद्ध थाय एवी चीज ते नथी. अहो! जैनदर्शन-वीतरागदर्शन कोई अलौकिक चीज छे! आ वात बीजे कयांय छे नहि.

दिगंबर संतो कहे छे-भगवान! तारी वर्तमान मतिज्ञान अने श्रुतज्ञाननी पर्याय पर तरफ झुके छे तेथी तने परपदार्थनी प्रसिद्धि थाय छे. हवे स्वपदार्थनी प्रसिद्धि माटे मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानना तत्त्वने अंतरस्वभाव तरफ वाळीने स्वसन्मुख


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था; तेथी आत्मा निजरसथी ज पर्यायमां प्रगट थशे. आत्मा निर्विकल्प, वीतरागभावथी ज प्रगट थाय छे. मार्ग आवो छे, भाई!

भगवान आत्मा नयपक्षना विकल्पनी लागणीथी प्रगट थाय एवी वस्तु नथी; केमके विकल्पथी तो आत्मा खंडित थाय छे. हुं शुद्ध छुं, अबद्ध छुं, सिद्धस्वरूप छुं-इत्यादि जे बधा नयविकल्प छे ते वडे अखंड आत्मामां खंड पडे छे, भेद पडे छे. भगवान आत्मा अनंत-अनंत ज्ञाननो पिंड प्रभु अभेद विज्ञानघनस्वभाव छे. तेमां अंतर्द्रष्टि करतां ते निजरसथी ज तत्क्षण पर्यायमां प्रगट थाय छे. कोई देव-गुरु-शास्त्रथी नहि, के विकल्पथी पण नहि; पण निजरसथी ज प्रगट थाय छे. एम अहीं स्पष्ट कह्युं छे.

सम्यग्दर्शन एटले धर्मनुं प्रथम सोपानः तेनी अहीं वात चाले छे. ज्ञाननी दशा पर तरफना झुकावथी खसीने ज्यां स्वसन्मुख थई त्यां निजरसथी ज भगवान आत्मा पर्यायमां प्रसिद्ध थाय छे, अनुभवाय छे. त्यां जे अनुभवमां आव्यो ते आत्मा केवो छे? तो कहे छे- आदि-मध्य-अंतरहित, अनाकुळ आनंदनुं धाम, केवळ एक, जाणे आखाय विश्वना उपर तरतो होय तेवो विश्वथी भिन्न अखंड प्रतिभासमय वस्तु आत्मा छे. पर्यायमां वस्तु परिपूर्ण, अखंड प्रतिभासमय प्रतिभासे छे. पर्यायमां द्रव्य आवतुं नथी, पण परिपूर्ण अखंड द्रव्यनो पर्यायमां प्रतिभास थाय छे. आखी वस्तुना पूर्ण सामर्थ्यनुं पर्यायमां ज्ञान थाय छे. विकल्पथी छूटीने अंतरमां जाय छे तेने वर्तमान ज्ञाननी दशामां त्रिकाळी एकरूप अखंडनो प्रतिभास थाय छे.

लोकोने आवो सत्यमार्ग सांभळवा मळतो नथी एटले बहारनी क्रियाकांडनी कडाकूटमां जिंदगी निष्फळ वितावी दे छे. अहीं कहे छे के भगवान आत्मा जीवती-जागती चैतन्यज्योत विश्वथी भिन्न अनादि-अनंत वस्तु छे. जाणे विश्वनी उपर तरती होय एवी विश्वथी भिन्न छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यवस्तु विश्वनी साथे कदीय तन्मय नथी. अहा! पर तरफनुं वलण छोडीने आवा परिपूर्ण स्वद्रव्यमां जे ज्ञाननी पर्याय झुके छे ते पर्यायमां आखाय पदार्थनुं परिज्ञान करवानुं सामर्थ्य छे अने ते सम्यग्ज्ञान छे.

देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धानो अने पंचमहाव्रतनो जे व्यवहार ने विकल्प उठे छे ते शुभराग छे. ते शुभराग आकुळतामय छे. दुःखरूप छे. तेनाथी शुं आत्मानुं सुख प्राप्त थाय? न थाय. अरे, हुं शुद्ध छुं, अबद्ध छुं, एक छुं -एवो निर्णय जे विकल्पमां थयो ते विकल्प पण दुःखरूप छे अने तेनाथी आत्मानुं सुख प्राप्त न थाय तो स्थूळ रागनी तो शुं वात कहेवी? श्रुतना सूक्ष्म विकल्प पण छूटीने, ज्ञाननी दशामां जेने त्रिकाळी ध्रुव, केवळ एक, अनाकुळ, अखंड विज्ञानघनस्वरूप स्वद्रव्यनो प्रतिभास थाय तेने आत्मा अने आत्मानुं सुख पर्यायमां प्रगट थाय छे. आवुं ज वस्तुस्वरूप छे, अने आवो ज मार्ग छे.


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अत्यारे तो मार्गमां खूब गरबड थई छे. शुभराग करतां करतां धर्म थाय एवी प्ररूपणा थवा लागी छे; परंतु ते यथार्थ नथी. अहीं कहे छे-भगवान आत्मा अनंत विज्ञानघनस्वरूप वस्तु छे. तेमां ‘हुं शुद्ध छुं’ एवो विकल्प पण प्रवेशी शकतो नथी. अहा! आ तो १४४ मी गाथा छे! जेम सरकारमां १४४ मी कलम छे के बे माणसो भेगा न थई शके अने थाय तो दंडपात्र थाय तेम भगवाननी आ १४४ मी कलम छे के आत्मा अने राग कदी भेगा न थाय; अने (अभिप्रायमां) थाय तो चारगतिरूप संसारनी जेल थाय. गजब वात छे १४४ मां! १४४ नो आंक छे एना अंकोनो सरवाळो १+४+४=९ आवे. आ नवनी गुणक संख्याना अंको पण मळीने नव थाय छे; जेमके-

९×१= ९ ९×२=१८; १+८=९ ९×३=२७; २+७=९ ९×४=३६; ३+६=९ इत्यादि. आ नवनो अंक (नव केवळलब्धि प्रगट करनार) वीतरागभावनो सूचक छे.

ज्ञाताद्रव्यमां एकाग्र थयेली ज्ञाननी पर्यायमां आदि-मध्य-अंतरहित अनादिअनंत, केवळ एक, अखंड प्रतिभासमय, अनंत, विज्ञानघनरूप वस्तुनो जे प्रतिभास थयो ते परमात्मरूप समयसार छे. अहाहा...! आत्मानी शक्ति, एनुं सामर्थ्य, एनुं स्वरूप परमात्मरूप छे. आत्मानुं सिद्धस्वरूप कहो के परमात्मस्वरूप कहो-एक ज वात छे. आवा अखंड प्रतिभासमय परमात्मरूप समयसारने ज्यारे आत्मा अनुभवे छे ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे देखाय छे; देखाय छे एटले श्रद्धाय छे अने जणाय छे. तेथी समयसार ज सम्यग्दर्शन अने सम्यक्ज्ञान छे.

आत्मानो अनुभव एटले शुद्ध द्रव्यनो अनुभव, अनादि अनंत, केवळ एक, अखंड प्रतिभासमय, अनंत विज्ञानघन परमात्मरूप समयसारनो अनुभव. आ अनुभवमां आत्मा सम्यक्पणे देखाय छे, श्रद्धाय छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे अने ते भगवान समयसारथी भिन्न नथी, एक ज छे भाई, देव-शास्त्र-गुरुनी बाह्य श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन अने लई ल्यो व्रत एटले चारित्र-एम केटलाक माने छे पण ए तो तद्न विपरीत मान्यता छे.

परमात्मरूप आत्मद्रव्यनी सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननी दशाओ केवी होय छे ते अहीं समजावे छे. ज्यारे आत्मा विज्ञानघनस्वरूप निज परमात्मरूप समयसारनो अनुभव करे छे ते समये ज आत्मा सम्यक् प्रकारे देखवामां आवे छे अने ते ज समये आत्मानां सम्यक् श्रद्धान अने ज्ञान प्रगट थाय छे.