Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 143.

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आत्मामां अकारणकार्यत्व शक्ति-स्वभाव एवो छे के ते वडे ते रागनुं कारण पण नथी, कार्य पण नथी. अहाहा...! व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग छे तेनुं भगवान आत्मा कारण नथी. तेम व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग छे तेनुं आत्मा कार्य पण नथी. (पछी व्यवहारथी निश्चय प्रगटे ए कयां रह्युं?) आत्मा तो पोताना शुद्ध स्वरूपनुं कारण अने शुद्ध स्वरूपनुं कार्य छे. सूक्ष्म वात छे, भाई!

पण आ बधुं तारे नक्की करवुं पडशे. भाई! ८४ना अवतारमां जीव दुःखी ज दुःखी थयो छे. जुओने! क्षणवारमां हार्टफेल थई जाय छे! पण देह तारी चीज कयां छे? ए तो पर चीज छे. एक क्षेत्रे होवा छतां आत्माथी हमणां पण भिन्न ज छे. शरीर, कर्म अने रागथी चैतन्यसत्त्व भिन्न छे.

जेम नाळियेरमां गोळो काचलीथी भिन्न चीज छे तेम चैतन्यगोळो शरीरथी अने रागथी भिन्न तत्त्व छे. चैतन्यद्रव्यनुं सामर्थ्य ज एवुं छे के ते रागनुं कारण न थाय अने रागनुं कार्य पण न थाय.

चैतन्यप्रकाशरूप वस्तु आत्मा पदार्थ छे के नहि? हा, पदार्थ छे; तो तेने अन्य पदार्थ साथे कांई संबंध नथी. वळी पर पदार्थना लक्षे जे शुभ विकल्प थाय छे ते पुण्य तत्त्व छे अने भगवान आत्मा शुद्ध ज्ञायक तत्त्व छे. बंने भिन्न भिन्न छे. माटे पुण्य तत्त्वथी ज्ञायक तत्त्वनी प्राप्ति न थाय. व्यवहारथी निश्चय न थाय. भाई! अनादि अनंत सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मानो अकारणकार्यस्वभाव ज एवो छे के संसारना कोई पण पदार्थनुं आत्मा कारण न थाय अने जगतना कोई पण अन्य पदार्थथी (निमित्तथी के रागथी) आत्माने सम्यग्दर्शन आदि चैतन्यपरिणमन न थाय. अहाहा...! रागना अभावस्वभावस्वरूप शुद्ध चैतन्यतत्त्व आत्मा छे ते निज चैतन्यस्वरूप सिवाय कोईनुं कारण-कार्य नथी. आवुं ज स्वरूप छे; पण ते नयोना पक्षपातरूप विकल्पोथी प्राप्त थतुं नथी. तेथी कहे छे-

‘जे पुरुष नयोना कथन अनुसार यथायोग्य विवक्षापूर्वक तत्त्वनो वस्तुस्वरूपनो निर्णय करीने नयोना पक्षपातने छोडे छे ते पुरुषने चित्स्वरूप जीवनो चित्स्वरूपे अनुभव थाय छे.’

जुओ, प्रथम वस्तुस्वरूपनो निर्णय करती वेळा नय विकल्प आवे छे खरा, पण जे पुरुष तेने ओळंगी जई स्वभावसन्मुख थाय छे तेने चित्स्वरूप जीवनो चित्स्वरूपे अनुभव थाय छे. विकल्पथी भिन्न पडी, चैतन्यनी पर्याय जे स्वभावमां तन्मय थाय छे तेनुं नाम सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. पहेलां पर्याय विकल्पमां एकमेक हती ते ज्ञायकमां एकमेक थाय छे एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. ज्ञानीने निरंतर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूपे अनुभवाय छे. हवे कहे छे-


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‘जीवमां अनेक साधारण धर्मो छे परंतु चित्स्वभाव तेनो प्रगट अनुभवगोचर असाधारण धर्म छे तेथी तेने मुख्य करीने अहीं जीवने चित्स्वरूप कह्यो छे.’

भगवान आत्मामां बीजां द्रव्योमां छे एवा पोताना अनेक साधारण धर्मो छे. पोतामां होय अने बीजां द्रव्योमां पण होय तेवा धर्मोने साधारण धर्मो कहे छे. ए रीते आत्मामां अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व आदि पोताना साधारण धर्मो अनंत छे; अने असाधारण धर्म पण अनेक छे.

चित्स्वभाव, जाणगस्वभाव भगवान आत्मानो प्रगट अनुभवगोचर असाधारण धर्म छे. पोतानो चैतन्यस्वभाव बीजां द्रव्योमां नथी. पोतमां अस्तित्व गुण छे तेवो गुण बीजा द्रव्योमां छे, पण चैतन्यधर्म पोतामां छे अने बीजामां नथी. ते चैतन्य-धर्म अनुभवमां आवी शके तेवो प्रगट अनुभवगोचर असाधारण धर्म छे. जे विकल्प उठे छे ते तो अंधकार छे, केमके तेमां चैतन्यनो अभाव छे. ते चैतन्यस्वभावने-प्रकाश-स्वभावने प्राप्त करावी शके नहि. अंधकार प्रकाशनुं कारण केम थाय? न थाय. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा, शास्त्रनुं बाह्य ज्ञान, अने पंचमहाव्रतना परिणाम-ए बधा विकल्परूप छे तेथी तेनाथी चैतन्यतत्त्वनी प्राप्ति थई शके नहि.

चैतन्य आत्मानो असाधारण धर्म छे. आत्मा उपरांत धर्मादि द्रव्यो पण अरूपी छे. छ द्रव्यमां पांच अरूपी छे अने एक पुद्गलरूपी छे. तेमां आत्मानुं स्वरूप ज्ञान छे. ज्ञान एटले शास्त्रज्ञान नहि, पण जेम साकरनो गळपण स्वभाव छे तेम आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे, चित्स्वभाव छे. ते प्रगट अनुभवगोचर असाधारण धर्म होवाथी अहीं जीवने चित्स्वरूप कह्यो छे.

* * *

उपरना २० कळशना कथनने हवे समेटे छेः-

* कळश ९०ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एवं’ ए प्रमाणे ‘स्वेच्छा–समुच्छलद्–अनल्प–विकल्प–जालाम्’ जेमां बहु विकल्पोनी जाळो आपोआप ऊठे छे-अहो! दिगंबर संतोए तत्त्वने शुं सहेलुं करीने बताव्युं छे? कहे छे- ए प्रमाणे बहु विकल्पोनी जाळो आपोआप ऊठे छे एटले के विकल्पोनी जाळ वस्तुना- आत्माना स्वभावमां नथी. हुं अबद्ध छुं, शुद्ध छुं, एक छुं, पूर्ण छुं-एवी अनेक प्रकारनी रागनी वृत्तिओ जे ऊठे छे ते आपोआप ऊठे छे, एटले के ते स्वभावमां नथी. विकल्पनी जाळ ऊठे एवो आत्मामां गुण नथी.

जुओ, अढी द्वीपनी बहार असंख्य तिर्यंचो छे. तेमां असंख्य समकिती तिर्यंचो छे. हजार जोजनना मच्छ, वांदरा, हाथी, वाघ, सिंह, नोळ, कोळ-एवा असंख्य जीवो


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त्यां सम्यग्दर्शन पामेला छे. शरीर तिर्यंचनुं छे पण अंदर तो आत्मा छे ने! अहा! विकल्पथी भिन्न पडीने अंदर चैतन्यमां ऊंडे उतरी गया छे. तेमां पंचम गुणस्थानवाळा तिर्यंचो पण असंख्य छे. कोईने जातिस्मरण थयुं छे तो कोईने आत्मानुं अंदर स्मरण थयुं छे. अहीं संतो पासे सांभळेलुं होय, अनुभव न थयो होय अने पशुमां जन्म थयो होय तो त्यां पण चेतन्यनो अनुभव करी सम्यग्दर्शन पामे छे. पूर्वे ज्ञानी पासे जे सांभळेलुं तेनुं अंदर लक्ष जाय छे के -अहो! हुं तो चैतन्यज्योतिस्वरूप ज्ञानानंदस्वभावी भगवान आत्मा छुं. विकल्पना अभावरूप निर्विकल्प मारुं चैतन्यरूप छे. लोकालोकथी मांडीने जेटला विकल्प थाय छे तेने हुं अडयोय नथी. आ प्रमाणे अंतरमां लक्ष करीने सम्यग्दर्शन पामे छे.

तिर्यंचोने समकित थया पछी खोराक सादो फळफूलनो होय छे. तेने मांसनो आहार न होय. हजार-हजार योजनना सरोवरमां कमळ थाय छे. परमात्मानी वाणीमां आव्युं छे के ते लाखो वर्ष रहे छे अने तेमने फळफूल, कमळ वगेरेनो आहार होय छे. समकिती सिंह होय तेने मांसनो आहार न होय, वनस्पति वगेरे निर्दोष आहार होय छे.

प्रश्नः– तो शुं काळ नडतो नहि होय?

उत्तरः– ना, काळ तो बाह्य चीज छे. चोथो काळ, पंचम काळ ए तो बाह्य वस्तु छे. भगवान आत्मा त्रिकाळस्वरूप छे. अरे, एनी एक समयनी पर्यायने पण परकाळ कहेवामां आवेल छे. कळशटीकानो २प२ मो श्लोक छे त्यां आम कह्युं छेः-

१. स्वद्रव्य एटले निर्विकल्पमात्र वस्तु, २. स्वक्षेत्र एटले आधारमात्र वस्तुनो प्रदेश, ३. स्वकाळ एटले वस्तुमात्रनी मूळ अवस्था, ४. स्वभाव एटले वस्तुनी मूळनी सहज शक्ति; १. परद्रव्य एटले सविकल्प भेदकल्पना, २. परक्षेत्र एटले जे वस्तुनो आधारभूत प्रदेश निर्विकल्प वस्तुमात्ररूपे कह्यो हतो ते ज प्रदेश सविकल्प भेदकल्पनाथी परप्रदेश बुद्धिगोचररूपे कहेवाय छे.

३. परकाळ एटले द्रव्यनी मूळनी निर्विकल्प अवस्था ते ज अवस्थांतर-भेदरूप कल्पनाथी परकाळ कहेवाय छे.

४. परभाव एटले द्रव्यनी सहज शक्तिना पर्यायरूप अनेक अंश द्वारा भेदकल्पना, तेने परभाव कहेवाय छे.

पंडित राजमलजीए बहु सरस कळशटीका बनावी छे. तेना आधारे पं. श्री


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बनारसीदासजीए समयसार नाटक बनाव्युं छे. भाई! आत्महित विचारी शास्त्रोनां वांचन, स्वाध्याय, मनन करवां जोईए. जीवोने घणां शल्य पडयां होय छे. माटे बराबर स्वाध्याय करवो जोईए. अहीं तो एम कहे छे के आगमना अभ्यासना विकल्पमां रोकाय तेने पण आत्मानुभव नहि थाय.

भगवान आत्मा निर्विकल्प अभेद वस्तु छे, तेमां गुण अने गुणीनो भेद पाडीने विकल्प उठाववो ते परद्रव्य छे. वस्तुनो आधारमात्र प्रदेश-तेमां असंख्य प्रदेशी वस्तु एम भेद-विकल्प उठाववो ते परक्षेत्र छे. बापु! आ वीतरागनो मार्ग बहु अलौकिक छे अने एनुं फळ परम अलौकिक छे. द्रव्यनी मूळनी अवस्था त्रिकाळी ते स्वकाळ छे. एक समयनी पर्याय विनानी त्रिकाळी निर्विकल्प वस्तु ते स्वकाळ छे अने तेना अवस्थांतररूप भेदकल्पना ते परकाळ छे. एक समयनी पर्यायनो भेद पाडवो ते परकाळ छे. अहो! जे भाग्यशाळी होय तेना काने पडे एवी आ वात छे. वस्तु त्रिकाळी आनंदकंद प्रभु ते स्वकाळ अने एक समयनी पर्यायनो भेद लक्षमां लेवो ते परकाळ छे. ते परकाळनी स्वकाळमां नास्ति छे. चोथो काळ अने पंचम काळ ए तो कयांय बहार रही गया!

अहीं कहे छे-ए प्रमाणे बहु विकल्पनी जाळो आपोआप ऊठे छे. आ शुं कह्युं? के आत्मा ज्ञान अने आनंदस्वरूप प्रभु छे, तेमां (पर्यायमां) अबद्ध छुं, शुद्ध छुं एवी वृत्ति आपोआप ऊठे छे अर्थात् ए वृत्ति निज चैतन्यस्वरूपमां नथी. अरे! आवा विकल्पोनी जाळमां आत्मा गूंचवाई गयो छे! प्रभु! तुं निर्विकल्प छो ने! आ जे विकल्प ऊठे छे ए नयपक्षनी बाह्य भूमिका छे. विकल्प अद्धरथी ऊठे छे. तेने जे तत्त्ववेदी छे ते ओळंगी जाय छे. आठ वर्षनो बाळक पण आ रीते अनुभव करीने केवळज्ञान पामे छे. तेमां परकाळ नडतो नथी, कर्म पण नडतां नथी.

सम्यग्ज्ञान दीपिकामां दाखलो आप्यो छे. एक शेठनो दीकरो पोतानी पत्नीने घरे मूकीने परदेशमां रळवा गयो. घणां वर्ष थई गयां पण ते देशमां पाछो न आव्यो. तेनी पत्नी बिचारी जाणे विधवा जेवुं जीवन गुजारे. एटले एना पिताए दीकराने चिठ्ठी लखी के-भाईने मालूम थाय के तारी पत्नी विधवा थई छे तो तरत घेर आवो. चिठ्ठी वांचीने आ तो पोक मूकीने खूब जोरथी रोवा लाग्यो. आजुबाजुनां सौ भेगां थई गयां. भाई, छाना रहो एम धीरज आपवा लाग्यां. पछी पूछयुं-भाई, कोण गुजरी गयुं ए तो कहो, त्यारे ते कहेवा लाग्यो-मारी पत्नी विधवा थई गई. पडोशीओए कह्युं-केवी वात! तमे तो हयात छो ने पत्नी केवी रीते विधवा थई? त्यारे तेणे कह्युं-हा, ए तो बराबर छे, पण पिताजीनी चिठ्ठी आवी छे के तारी पत्नी विधवा थई गई, तो ए पण खोटी केम मानुं? एम अज्ञानी कहे छे के- दादाजीना शास्त्रमां-गोम्मटसार आदिमां कथन छे के ज्ञानावरणीयथी ज्ञान रोकाय इत्यादि-ए खोटां केम


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मानुं? पण भाई, ए तो व्यवहारनयनां कथन छे. कर्म तो जड छे, ते कई रीते ज्ञाननो घात करे? एनो अर्थ तो एवो छे के पोते पोताने भूलीने पर्यायमां हीणी दशारूपे परिणमे छे त्यारे घाती कर्मने तेमां निमित्त कहेवामां आवे छे. कर्म नडे छे एम वात ज नथी.

अहीं ए बधी वात उडाडी दीधी छे. भगवान आत्मद्रव्य पूर्णानंद प्रभु अनंतगुणे विराजमान परिपूर्ण द्रव्य छे. तेनो हीणी पर्यायथी घात थतो नथी एवी परिपूर्ण वस्तु ए छे. अज्ञानी कहे छे के हुं कर्मथी हणाई गयो छुं. भगवान कहे छे-भाई! तुं हणाई गयो नथी. वस्तुमां हीणापणुं छे ज नहि; वस्तु तो सदाय परिपूर्ण स्वरूपे छे. पर्यायमां पोते हीणी दशारूपे परिणमे छे त्यारे कर्मने निमित्त कहे छे. निमित्त परद्रव्य छे, ते तने अडतुंय नथी. तो परद्रव्य तने शुं करे? आत्मा चैतन्यवस्तु परिपूर्ण छे. तेमां घात केवो? ओछप केवी? हीणप केवी?

अहीं कहे छे के नयपक्षनी कक्षा एना स्वरूपमां केवी? बद्ध छुं, अशुद्ध छुं, -ए तो पहेलेथी काढी नाख्युं छे पण अबद्ध छुं, शुद्ध छुं एवो जे नयपक्षनो विकल्प ऊठे छे ते पण वस्तुना स्वरूपमां नथी. भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनुं दळ छे. तेमां एकली शांति- शांति-शांति अनंत वीतरागता पडी छे; तेमां आ नयपक्षनी कक्षानो अभाव छे. स्थूळ व्यवहारनो तो अभाव छे पण निश्चयना पक्षरूप विकल्पनो पण तेनामां अभाव छे. आवा शुद्ध चैतन्यस्वभाव उपर द्रष्टि देवी ते द्रव्यद्रष्टि एटले के सम्यक् द्रष्टि छे. हवे कहे छे-

आवी ‘महती’ मोटी ‘नयपक्षकक्षाम्’ नयपक्षकक्षाने (नयपक्षनी भूमिने) ‘व्यतीत्य’ ओळंगी जईने (तत्त्ववेदी) ‘अन्तः बहिः’ अंदर अने बहार ‘समरसैकरसस्वभावं’ समतारसरूपी एक रस ज जेनो स्वभाव छे एवा ‘अनुभूतिमात्रम् एकम् स्वं भावं’ अनुभूतिमात्र एक पोताना भावने (-स्वरूपने) ‘उपयाति’ पामे छे.

हुं एक छुं, शुद्ध छुं एवो जे विकल्प छे ते रागनी आग छे. छहढालामां आवे छे ने के-

‘‘यह राग-आग दहै सदा, तातैं समामृत सेईये’’

शुं कह्युं? हुं आवो छुं एवो जे विकल्प छे ते रागरूपी आग छे. तेने ओळंगी जईने जे तत्त्ववेदी छे ते अंदर अने बहार समतारसरूपी एकरस ज जेनो स्वभाव छे एवा अनुभूतिमात्र एक पोताना भावने पामे छे.

अंदर अने बहार समतारसरूपी एक ज आत्मानो स्वभाव छे. अंतर स्वभाव तो वीतरागस्वरूप छे अने बहार पर्यायमां पण एक समरसभाव प्रगट थाय एवो ज तेनो स्वभाव छे. त्यां हुं आवो छुं एवा विकल्पने छोडी जेणे द्रष्टिने द्रव्य उपर जोडी


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छे तेने द्रव्यमां जे समतारस पडयो छे ते समतारस पर्यायमां प्रगट थाय छे. आनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. पहेलां विकल्प अनेक प्रकारना हता, तेने छोडी जेणे पर्यायनुं समरसस्वभाव-वीतरागस्वभाव साथे एकपणुं कर्युं तेने समरसभाव बहार प्रगट थाय छे. अहो! अद्भुत कळश छे! दिगंबर संतोए सत्ने यथावत् जाहेर कर्युं छे. आवी वात बीजे कयांय नथी. कळशमां खूब ऊंडो भाव भरेलो छे.

भगवान आत्मा समरसस्वभावथी भरेलो समुद्र छे. तेमां पर्याय ज्यां भळी (एकाग्र थई) त्यां समरसभाव उछळीने पर्यायमां प्रगट थाय छे अने ते ज अनुभूति छे, धर्म छे.

आत्मा अनुभूतिस्वरूप त्रिकाळ छे ए वात ७३ मी गाथामां आवी गई छे. पर्यायमां षट्कारकनुं जे परिणमन छे एनाथी भिन्न अनुभूतिमात्र आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव छे. त्यां अनुभूतिमात्र त्रिकाळीनी वात करेली छे. अहीं पर्यायमां अनुभूतिरूप थाय छे एनी वात छे.

नियमसारमां प्रायश्चित्त अधिकारमां कह्युं छे के वस्तु प्रायश्चित्त स्वरूप छे. तेना आश्रयथी पर्यायमां वीतरागी निर्मळ प्रायश्चित्त प्रगट थाय छे. प्रायः एटले प्रकृष्टपणे, चित्त एटले ज्ञान. प्रकृष्टपणे ज्ञान प्रगट थाय छे ते रागरहित निर्मळ दशा छे. परम संयमी आवा प्रकृष्ट चित्तने निरंतर धारण करे छे. तेने खरेखर निश्चय प्रायश्चित्त छे. वस्तु त्रिकाळ प्रायश्चित्तस्वरूप छे. तेम अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा छे. तेना आश्रये पर्यायमां पोताना समरसभावरूप अनुभूति प्रगट थाय छे ए वात अहीं करी छे. बीजी रीते कहीए तो अनुभूतिस्वरूप आत्मा छे ते अनुभूति पामे छे.

आत्मा आबालगोपाळ सौने अंदर परमात्मस्वरूपे बिराजे छे. देहनी अवस्था तो जडनी छे. बाळ के गोपाळ-ए देहनी अवस्था अंदर एमां कयां छे? साम्यरसनो स्वभाव अंदर त्रिकाळ छे. जे विकल्पनी विषमता छोडीने अंदर एकाग्र थाय छे तेने पर्यायमां समरसभावनी अनुभूति प्रगट थाय छे. विकल्पनी विषमता छोडी एम कहेवाय, बाकी छोडवानुं छे ज कयां? अंदर समरसस्वरूपमां-निज चैतन्यस्वरूपमां लक्ष जाय छे त्यारे विकल्पोनी विषमता उत्पन्न थती नथी एटले तेने छोडी एम कहेवामां आवे छे.

लोको बिचारा अनंतकाळथी महादुःखी छे. तेमने दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि आगमपद्धतिनो व्यवहार सुगम छे, पण अध्यात्मपद्धतिना व्यवहारने-आत्मानुभूतिस्वरूप चारित्रने जाणता नथी. अहीं कहे छे के आगमपद्धतिना व्यवहारनो तो निषेध करता आव्या छीए अने शुद्ध अध्यात्मनो जे पक्ष छे तेनो पण निषेध छे केमके ते पक्ष वस्तुना स्वभावमां नथी. अहाहा...! त्रिकाळ अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा छे ते एकरूप समरसपणे परिणमे ते सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे अने तेमां स्थिरतानुं आचरण थाय ते चारित्र छे. आवी वात छे.


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हवे नयपक्षना त्यागनी भावनानुं छेल्लुं काव्य कहे छेः-

* कळशः ९१ श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘पुष्कल–उत्–चल–विकल्प–वीचिभिः उच्छलत्’ पुष्कळ, मोटा, चंचळ विकल्परूप तरंगो वडे ऊठती ‘इदम् एवम् कृत्स्नम् इन्द्रजालम्’ आ समस्त इन्द्रजाळने ‘यस्य विस्फुरणम् एव’ जेनुं स्फुरणमात्र ज ‘तत्क्षणं’ तत्क्षण ‘अस्यति’ भगाडी मूके छे ‘तद् चिन्महः अस्मि’ ते चिन्मात्र तेजःपुंज हुं छुं.

जुओ, नयपक्षना विकल्पोने अहीं इन्द्रजाळ कहेल छे. व्यवहारना शुभरागने झेर कहेल छे. पुष्कळ, मोटा, चंचळ विकल्परूप तरंगो ऊठे ते ते समस्त इन्द्रजाळ छे. ज्ञायकस्वरूपमां नथी ने! तेथी विकल्पो बधा इन्द्रजाळनी जेम जूठा छे एम कहे छे. वस्तु तरीके विकल्प छे पण ते स्वभाव नथी माटे विकल्प बधा जूठा छे. विकल्पनी आडमां-हुं शुद्ध छुं, एक छुं-एवा विकल्पनी आडमां ऊभो रहे एमां ज्ञायक वस्तुनुं स्वरूप नथी. विकल्पनी आडमां रोकावुं ए तो मोहभाव छे, मूर्छा छे.

हवे कहे छे-चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मामां ज्यां एकाग्रतारूप टंकार थयो के तरत ज बधा विकल्पो नाश पामी जाय छे. चैतन्यज्योति जाग्रत थतां ज्यां श्रद्धा अने ज्ञानमां जाण्युं के हुं तो चित्स्वरूप परमात्मा छुं त्यां समस्त विकल्पो दूर भागी जाय छे, नाश पामी जाय छे. ज्ञाननी धाराना टंकारमात्रथी रागनो नाश थई जाय छे. बापु! आत्मानुं सामर्थ्य केटलुं छे तेनी तेने खबर नथी. अनंत पुरुषार्थनो पिंड प्रभु आत्मा छे. ज्ञान कहो तो ज्ञाननो पिंड, श्रद्धा कहो तो श्रद्धानो पिंड, आनंद कहो तो आनंदनो पिंड, वीर्य कहो तो वीर्यनो पिंड, -अहाहा...! अनंत सामर्थ्यथी भरेला एक एक एम अनंत गुणनो पिंड प्रभु आत्मा छे. आवो पूर्ण पुरुषार्थ भरेलो भगवान ज्यां अंतर-स्वरूपमां एकाग्र थाय छे त्यां सर्व विकल्पो तत्क्षण भागी जाय छे. आवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे के तेनुं स्फुरणमात्र विकल्पोने भगाडी दे छे.

आवो चिन्मात्र तेजःपुंज हुं छुं. भगवान आत्मा अनुभवमां आवतां समस्त नयोना विकल्पनी इन्द्रजाळ क्षणमां विलय पामे छे, अद्रश्य थई जाय छे. आ रीते आत्मा प्राप्त थाय छे. आ सिवाय बीजी कोई रीते आत्मा प्राप्त थाय तेम नथी. निमित्तथी के व्यवहारथी आत्मा प्राप्त थाय एवुं एनुं स्वरूप नथी. निमित्त छे खरुं, व्यवहार छे खरो; पण एनाथी आत्मा प्राप्त थाय नहि. आवी ज वस्तुस्थिति छे.

त्यारे कोई कहे के-थोडुं तमे ढीलुं मूको, थोडुं अमे ढीलुं मूकीए; तो बंनेनो मेळ खाई जाय अर्थात् समन्वय थई जाय.

अरे भाई! एवी आ चीज नथी. दिगंबर संतो-कुंदकुंदाचार्यदेव, अमृतचंद्राचार्यदेव शुं कहे छे ते सांभळ. तेओ पोकारीने कहे छे के आत्मा चैतन्य महाप्रभु छे.


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तेनी मोटपनी तने खबर नथी, भाई! आ विकल्प छे ए तो कलंक छे, हीणप छे. हीणपथी मोटप केम पमाय? भगवान! वीतरागमूर्ति आत्मा छे ते रागनी हीणपथी केम पमाय? तुं सहेलुं करवा मागे अने बीजी रीते माने पण एनाथी वस्तु प्राप्त नहि थाय. व्यवहारनुं लक्ष छूटीने ज आत्मानुभव प्रगट थाय छे. आ ज रीत छे.

प्रश्नः– तो प्रवचनसारमां आवे छे के क्रियाकांडथी ज्ञानकांड थाय छे, ते केवी रीते छे?

उत्तरः– भाई! ए तो व्यवहारनयनुं कथन छे. एनो अर्थ एम छे के कर्मकांडनो जे राग छे तेनाथी छूटी जाय छे त्यारे ज्ञानकांड थाय छे. जिनवचन पूर्वापर विरोधरहित सत्य होय छे. तेने यथार्थ समजवुं जोईए.

त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मानो आश्रय ले त्यारे सम्यग्दर्शन थाय छे. तेमां व्यवहारनी कोई अपेक्षा नथी अर्थात् एटली अपेक्षा छे के व्यवहारनी त्यां उपेक्षा करवामां आवी छे. स्वभावनी अपेक्षा करतां व्यवहारनी उपेक्षा थई जाय छे.

* * *
* कळश ९१ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘चैतन्यनो अनुभव थतां समस्त नयोना विकल्परूपी इन्द्रजाळ ते क्षणे ज विलय पामे छे; एवो चित्प्रकाश हुं छुं.’

आवो छुं, आवो छुं-एम कहे पण ए तो विकल्प छे. स्वरूपमां विकल्प कयां छे? निर्विकल्प चैतन्यमां द्रष्टि देतां सर्व विकल्प मटी जाय छे अने ए ज स्वानुभवरूप धर्म छे.

[प्रवचन नं. १९० शेष थी १९७ चालु * दिनांक ३-१०-७६ थी १०-१०-७६]

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पक्षातिक्रान्तस्य किं स्वरूपमिति चेत्–

दोण्ह वि णयाण भणिदं जाणदि णवरं तु समयपडिबद्धो।
ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचि वि णयपक्खपरिहीणो।। १४३ ।।

द्वयोरपि नययोर्भणितं जानाति केवलं तु समयप्रतिबद्धः।
न तु नयपक्षं गृह्णाति किञ्चिदपि नयपक्षपरिहीनः।। १४३ ।।

‘पक्षातिक्रान्तनुं (पक्षने ओळंगी गयेलानुं) शुं स्वरूप छे?’-ए प्रश्नना उत्तररूप गाथा हवे कहे छेः-

नयद्धयकथन जाणे ज केवळ समयमां प्रतिबद्ध जे,
नयपक्ष कंई पण नव ग्रहे, नयपक्षथी परिहीन ते. १४३.

गाथार्थः– [नयपक्षपरिहीनः] नयपक्षथी रहित जीव, [समयप्रतिबद्धः] समयथी प्रतिबद्ध थयो थको (अर्थात् चित्स्वरूप आत्माने अनुभवतो थको), [द्वयोः अपि] बन्ने [नययोः] नयोना [भणितं] कथनने [केवलं तु] केवळ [जानाति] जाणे ज छे [तु] परंतु [नयपक्षं] नयपक्षने [किञ्चित् अपि] जरा पण [न गृह्णाति] ग्रहण करतो नथी.

टीकाः– जेवी रीते केवळी भगवान, विश्वना साक्षीपणाने लीधे, श्रुतज्ञानना अवयवभूत एवा जे व्यवहारनिश्चयनयपक्षो तेमना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे परंतु, निरंतर प्रकाशमान, सहज, विमळ, सकळ केवळज्ञान वडे सदा पोतेज विज्ञानघन थया होइने, श्रुतज्ञाननी भूमिकाना अतिक्रान्तपणा वडे (अर्थात् श्रुतज्ञाननी भूमिकाने ओळंगी गया होवाने लीधे) समस्त नयपक्षना ग्रहणथी दूर थया होवाथी, कोइ पण नयपक्षने ग्रहता नथी, तेवी रीते जे (श्रुतज्ञानी आत्मा), क्षयोपशमथी जेमनुं ऊपजवुं थाय छे एवा श्रुतज्ञानात्मक विकल्पो उत्पन्न थता होवा छतां परनुं ग्रहण करवा प्रति उत्साह निवृत्त थयो होवाने लीधे, श्रुतज्ञानना अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षोना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे परंतु, अति तीक्ष्ण ज्ञानद्रष्टिथी ग्रहवामां आवेला, निर्मळ, नित्य-उदित; चिन्मय समयथी प्रतिबद्धपणा वडे (अर्थात् चैतन्यमय आत्माना अनुभवन वडे) ते वखते (अनुभव वखते) पोते ज विज्ञानघन थयो होइने, श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पोनी भूमिकाना अतिक्रान्तपणा वडे समस्त नयपक्षना ग्रहणथी दूर थयो होवाथी, कोइ पण नयपक्षने ग्रहतो नथी, ते (आत्मा)


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(स्वागता)
चित्स्वभावभरभावितभावा–
भावभावपरमार्थतयैकम्।
बन्धपद्धतिमपास्य समस्तां
चेतये समयसारमपारम्।। ९२ ।।

खरेखर समस्त विकल्पोथी अति पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार छे. भावार्थः– जेम केवळी भगवान सदा नयपक्षना स्वरूपना साक्षी (ज्ञाताद्रष्टा) छे तेम श्रुतज्ञानी पण ज्यारे समस्त नयपक्षोथी रहित थइ शुद्ध चैतन्यमात्र भावनुं अनुभवन करे छे त्यारे नयपक्षना स्वरूपनो ज्ञाता ज छे. एक नयनो सर्वथा पक्ष ग्रहण करे तो मिथ्यात्व साथे मळेलो राग थाय; प्रयोजनना वशे एक नयने प्रधान करी तेनुं ग्रहण करे तो मिथ्यात्व सिवाय मात्र चारित्रमोहनो राग रहे; अने ज्यारे नयपक्षने छोडी वस्तुस्वरूपने केवळ जाणे ज त्यारे ते वखते श्रुतज्ञानी पण केवळीनी माफक वीतराग जेवो ज होय छे एम जाणवुं.

ते आत्मा आवो अनुभव करे छे एम कळशमां कहे छेः-

श्लोकार्थः– [चित्स्वभाव–भर–भावित–भाव–अभाव–भाव–परमार्थतया एकम्] चित्स्वभावना पुंज वडे ज पोतानां उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्य भवाय छे (-कराय छे) -एवुं जेनुं परमार्थ स्वरूप होवाथी जे एक छे एवा [अपारम् समयसारम्] अपार समयसारने हुं, [समस्तां बन्धपद्धतिम्] समस्त बंधपद्धतिने [अपास्य] दूर करीने अर्थात् कर्मना उदयथी थता सर्व भावोने छोडीने, [चेतये] अनुभवुं छुं.

भावार्थः– निर्विकल्प अनुभव थतां, जेना केवळज्ञानादि गुणोनो पार नथी एवा समयसाररूपी परमात्मानो अनुभव ज वर्ते छे. ‘हुं अनुभव छुं’ एवो पण विकल्प होतो नथी-एम जाणवुं. ९२.

* * *
समयसार गाथा १४३ः मथाळुं

‘पक्षातिक्रान्तनुं (पक्षने ओळंगी गयेलानुं) शुं स्वरूप छे?’ ए प्रश्नना उत्तररूप गाथा कहे छेः-

जुओ, शिष्यनो प्रश्न छे के जेने नयपक्षना विकल्प छूटी गया छे तेनुं शुं स्वरूप छे? निश्चयना पक्षने ओळंगी गयो छे माटे वस्तु अंदर निश्चयथी कांई जुदी


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छे एम कोई माने तो एम नथी. वस्तु तो अबद्धस्पष्ट, एक, चैतन्यघनस्वरूप ज छे. अहाहा...! भगवान आत्मा त्रिकाळ जिनस्वरूप, वीतरागस्वरूप ज छे. आत्मा (अन्यरूप) कषायवाळो केम होय? आत्मा सदाय निर्विकार, अकषायस्वरूप छे. अकषायस्वरूप कहो के चारित्रस्वरूप कहो-बंने एक ज वात छे. तेना आश्रयथी पर्यायमां वीतरागता प्रगट थाय छे. कह्युं छे ने के (गाथा २७२मां)-

‘निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी’

आ वस्तु शुद्ध चैतन्यस्वरूपना आश्रयनी वात छे. आ वीतराग मार्ग छे, जैनदर्शन छे. जैनदर्शन एटले वस्तुदर्शन. अहीं वस्तु नहि, वस्तुनो विकल्प छोडवानी वात छे.

अहीं निश्चय वस्तु नहि, पण निश्चयनो पक्ष-विकल्प जेने छूटी गयो छे ते पक्षातिक्रान्तनुं शुं स्वरूप छे एवा प्रश्नना उत्तररूप गाथा कहे छेः-

* गाथा १४३ः टीका उपरनुं प्रवचन *

टीकाकार आचार्य अमृतचंद्रदेव भगवान केवळीनुं द्रष्टांत आपी समजावे छे-

‘जेवी रीते केवळी भगवान, विश्वना साक्षीपणाने लीधे, श्रुतज्ञानना अवयवभूत एवा जे व्यवहारनिश्चयनयपक्षो तेमना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे परंतु, निरंतर प्रकाशमान, सहज, विमळ, सकळ केवळज्ञान वडे सदा पोते ज विज्ञानघन थया होई ने, श्रुतज्ञाननी भूमिकाना अतिक्रान्तपणा वडे (अर्थात् श्रुतज्ञाननी भूमिकाने ओळंगी गया होवाने लीधे) समस्त नयपक्षना ग्रहणथी दूर थया होवाथी, कोई पण नयपक्षने ग्रहता नथी.’

अहीं छ बोलथी वर्णन कर्युं छे.

१. केवळी भगवान विश्वना साक्षी छे,

२. श्रुतज्ञानना अवयवभूत एवा जे व्यवहार निश्चयनयपक्षो तेमना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे. केवळी भगवानने व्यवहार-निश्चयनय छे नहि, फक्त ज्ञातापणे तेमना स्वरूपने ज जाणे छे. श्रुतज्ञान प्रमाण अवयवी छे अने निश्चय अने व्यवहार नय तेना बे अवयव छे. केवळी भगवानने केवळज्ञान पूर्णप्रमाण छे, श्रुतज्ञान नथी. माटे केवळी भगवान श्रुतज्ञानना अवयवभूत निश्चय व्यवहारनयना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे,

३. केवळी भगवान निरंतर प्रकाशमान सहज, विमळ, सकळ केवळज्ञान वडे सदा पोते ज विज्ञानघन थया छे; तेथी-

४. श्रुतज्ञाननी भूमिकाने अतिक्रम्या छे, अर्थात् श्रुतज्ञाननी भूमिकाने ओळंगी गया छे; श्रुतज्ञाननी भूमिकाना अतिक्रान्तपणा वडे-

प. समस्त नयपक्षना ग्रहणथी दूर थया छे; माटे


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६. कोई पण नयपक्षने ग्रहता नथी.

आ द्रष्टांत थयुं. अहो! सम्यग्द्रष्टिने अनुभवना काळमां केवळी भगवान साथे मेळवे छे. ए ज हवे सिद्धांत कहे छे-

‘तेवी रीते जे (श्रुतज्ञानी आत्मा), क्षयोपशमथी जेमनुं ऊपजवुं थाय छे एवा श्रुतज्ञानात्मक विकल्पो उत्पन्न थता होवा छतां परनुं ग्रहण करवा प्रति उत्साह निवृत्त थयो होवाने लीधे, श्रुतज्ञानना अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षोना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे परंतु. अति तीक्ष्ण ज्ञानद्रष्टिथी ग्रहवामां आवेला, निर्मळ, नित्य-उदित, चिन्मय समयथी प्रतिबद्धपणा वडे (अर्थात् चैतन्यमय आत्माना अनुभवन वडे) ते वखते (अनुभव वखते) पोते ज विज्ञानघन थयो होईने, श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पोनी भूमिकाना अतिक्रान्तपणा वडे समस्त नयपक्षना ग्रहणथी दूर थयो होवाथी, कोई पण नयपक्षने ग्रहतो नथी, ते (आत्मा) खरेखर समस्त विकल्पोथी अति पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार छे.’

१. श्रुतज्ञानी आत्मा, क्षयोपशमथी जेनुं नीपजवुं थाय छे एवा श्रुतज्ञानना विकल्पो उत्पन्न थता होवा छतां परनुं ग्रहण करवा प्रति उत्साहथी निवृत्त थयो छे; तेथी

२. श्रुतज्ञानना अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षोना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे;

३. परंतु, अति तीक्ष्ण ज्ञानद्रष्टिथी ग्रहवामां आवेला निर्मळ, नित्य-उदित चिन्मय समयथी प्रतिबद्धपणा वडे अर्थात् चैतन्यमय आत्माना अनुभवन वडे ते अनुभवना काळे पोते ज विज्ञानघन थयो छे; तेथी

४. श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पोनी भूमिकाने अतिक्रम्यो छे, ओळंगी गयो छे; ते वडे

प. समस्त नयपक्षना ग्रहणथी दूर थयो छे; माटे

६. कोई पण नयपक्षने ग्रहतो नथी.

आ छ बोलमां समकितीने भगवान केवळी साथे मेळवे छे. ते आ प्रमाणे-

१. जेवी रीते केवळी भगवान विश्वना एटले लोकालोकना साक्षी छे, ज्ञाता-द्रष्टा छे तेवी रीते श्रुतज्ञानी पण श्रुतज्ञानात्मक विकल्पो उत्पन्न थता होवा छतां परनुं ग्रहण करवा प्रति उत्साहथी निवृत्त थयो होवाने लीधे परनो ज्ञाता छे, साक्षी छे.

२. केवळी भगवान श्रुतज्ञानना अवयवभूत एवा जे व्यवहार निश्चयनयपक्षो तेमना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे. तेवी रीते श्रुतज्ञानी आत्मा, श्रुतज्ञानना अवयवभूत व्यवहार निश्चयनयपक्षोना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे.


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आ बीजा बोलमां बंनेने सरखा कह्या छे त्यां केवळी भगवानने श्रुतज्ञान नथी अने तेथी नय पण नथी; मात्र तेना स्वरूपने ज जाणे छे. तेम श्रुतज्ञानी पण सम्यग्दर्शनना अनुभवकाळे व्यवहार निश्चयनयनो पक्ष छूटी गयो होवाथी नयपक्षना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे, विकल्प नथी.

केटलाक माने छे के व्यवहारथी निश्चय थाय, पण ए वात तद्न खोटी छे. अहीं तो एम कहे छे के समकिती जीव पण केवळीनी जेम श्रुतज्ञानना अवयवभूत व्यवहार निश्चयनय पक्षोना स्वरूपने केवळ जाणे छे.

३. निरंतर प्रकाशमान, सहज, विमळ, सकळ केवळज्ञान वडे केवळी भगवान पोते ज सदा विज्ञानघन थया छे; तेम श्रुतज्ञानी धर्मी जीव अति तीक्ष्ण ज्ञानद्रष्टिथी ग्रहवामां आवेला, निर्मळ, नित्य-उदित, चिन्मय समयथी प्रतिबद्धपणा वडे एटले के चैतन्यमय आत्माना अनुभवन वडे, ते अनुभवना काळे पोते ज विज्ञानघन थयो छे. नयपक्षना ग्रहणना उत्साहथी निवृत्त थवाने लीधे धर्मी जीव तीक्ष्ण ज्ञानद्रष्टि वडे स्वरूपमां एकाग्र थईने पोते ज ते काळे विज्ञानघन थयो छे.

अहीं आटलो फेर छे के केवळी भगवान सदा विज्ञानघन थया छे, ज्यारे सम्यग्द्रष्टि जीव अनुभवना काळे विज्ञानघन थयो छे. केमके सम्यग्द्रष्टिने पछी विकल्प उठे छे माटे अनुभवना काळे ते विज्ञानघन थयो छे एम कह्युं छे.

धर्मनी प्रथम भूमिका शरू थवाना काळनी आ वात चाले छे. निश्चय-व्यवहारना विकल्पना पक्षथी ज्ञानी रहित थयो छे, तो व्यवहारथी निश्चय थाय ए वात कयां रही? हुं बद्ध छुं, अबद्ध छुं-ए बंने पक्षथी ज्ञानी रहित थयो छे. केवळी भगवान सदा विज्ञानघन थया छे, आ धर्मी जीव अनुभवना काळमां विज्ञानघन थयो छे, आटलो फेर छे.

भाई! आ तारा घरनी-स्वरूपनी वात चाले छे. प्रथम सम्यग्दर्शन शुद्धोपयोगना काळमां थाय छे. अत्यारे आ वात चालती नथी एटले कोईने दुःख लागे के अमारी मान्यताने जूठी पाडे छे, पण प्रभु! मार्ग तो आ छे. तारा हितनी आ वात छे. बापु! आमां विरोध करवा जेवुं नथी. अरे कोइने न बेसे ने विरोध करे तो तेना प्रत्ये द्वेष न होय. अंदर भगवान विराजे छे ने! एक समयनी पर्यायमां भूल छे ते पोते ज सुधारशे. अहा! गाथा घणी अलौकिक छे.

भाई! नयोना विकल्प थाय ते जीवनुं कर्तव्य नथी. हुं शुद्ध छुं, अबद्ध छुं- एवो निश्चयनयना पक्षरूप विकल्प जीवनुं कर्तव्य नथी; केमके भगवान आत्मा जे चैतन्यघनस्वरूप छे, पवित्रस्वरूप छे ते रागरूप अपवित्रतानो कर्ता केम थाय? त्रिकाळ शुद्ध विज्ञानघनस्वरूप परमात्मा क्षणिक रागनी मलिनतानो कर्ता केम थाय? न ज थाय. भाई! वस्तुनुं स्वरूप आवुं छे. एमां वादविवादने अवकाश नथी.


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अरे! आ काळमां भगवानना विरह पडया! अने ते साथे भगवाननी वात कहेनारा साचा संतोना पण वर्तमानमां विरह पडया! आ स्थितिमां सत्य वात बहार आवतां कोई विरोध करे पण शुं थाय? भाई वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे; तेमां बीजुं शुं थई शके?

अहीं अनुभवना काळमां सम्यग्द्रष्टिने केवळी साथे मेळवे छे. तेना त्रण बोल थया. हवे चोथो बोल-

४. केवळज्ञान वडे सदा विज्ञानघन थया होईने केवळी भगवान श्रुतज्ञाननी भूमिकाने अतिक्रम्या छे अर्थात् ओळंगी गया छे. तेवी रीते चैतन्यमय आत्माना अनुभवन वडे विज्ञानघन थयो होईने, अनुभवना काळे श्रुतज्ञानी जीव श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्परूप अने बहिर्जल्परूप विकल्पोने अतिक्रम्यो छे, ओळंगी गयो छे. हुं शुद्ध छुं एवो जे अंदर विकल्प उठे ते अंतर्जल्प छे अने बहार वाणी नीकळे ते बहिर्जल्प छे. श्रुतज्ञानी अनुभवना काळमां समस्त अंतर्जल्परूप अने बहिर्जल्परूप विकल्पोने ओळंगी गयो छे. अहो! केवळी साथे ज्ञानीने मेळवीने श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे गजब काम कर्युं छे! हवे कहे छे नयपक्षनी भूमिकाने ओळंगी जवाने लीधे-

प. केवळी भगवान जेम समस्त नयपक्षना ग्रहणथी दूर थया छे तेम श्रुतज्ञानी धर्मी जीव पण समस्त नयपक्षना ग्रहणथी दूर थयो छे. अने तेथी-

६. जेम केवळी भगवान कोई पण नयपक्षने ग्रहता नथी तेम श्रुतज्ञानी धर्मी जीव पण कोई पण नयपक्षने ग्रहतो नथी.

भाई! तुं कोण छो अने तेने केम पमाय तेनी आ वात छ बोल द्वारा कही छे. वस्तुस्वरूप जेम छे तेम कह्युं छे; पण कयांय पक्षमां बंधाई जईश तो भगवान आत्मा हाथ नहि आवे; अने तुं सुखी नहि थई शके.

बापु! तें दुःखमां ज दहाडा गाळ्‌या छे. जेनुं वर्णन थई न शके एवा अकथ्य दुःखमां अनंतकाळ तारो व्यतीत थयो छे. जेम कोई राजकुमारने जीवतो जमशेदपुरनी तातानी भट्ठीमां नाखे अने एने जे वेदना थाय एनाथी अनंतगुणी वेदना पहेली नरकमां छे. भाई! तने शाना अभिमान अने शानो अहंकार थाय छे? ओछीमां ओछी दस हजार वर्षनी आयुनी स्थिति त्यां होय छे. अने सातमी नरकनी उत्कृष्ट तेत्रीस सागरोपमनी स्थिति होय छे. एमां तुं अनंतवार जन्म-मरण करी चूकयो छे. प्रभु! तुं भूली गयो! (याद कर)

श्रेणीक महाराजा क्षायिक समकिती हता. आवती चोवीसीना प्रथम तीर्थंकर थशे. हाल प्रथम नरकमां छे. अंदरथी मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषायनो नाश थयो छे एटले एटलां त्यां सुख अने शांति छे. स्वभावनो आश्रय छे एटलुं त्यां सुख छे, पण


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त्रण कषाय जे विद्यमान छे एटलुं त्यां दुःख अनुभवे छे. संयोगनुं वेदन नथी पण जे त्रण कषाय छे तेनुं गौणपणे वेदन छे. अढी हजार वर्ष वीती गयां छे. हजु ८१प०० वर्षनी आयुनी स्थिति बाकी छे. बापु! विचार तो कर के जेने आगामी काळमां तीर्थंकर थवानुं छे एवो समकिती जीव वर्तमानमां नरकगतिमां आवां दुःख वेदे छे तो मिथ्यात्वपूर्वकना परिणामनी विषम विचित्रतानुं तो शुं कहेवुं?

ए ज जीव ज्यारे माताना गर्भमां पधारशे त्यारे उपरथी इन्द्रो मातानी सेवा करवा आवशे अने कहेशे-धन्य माता! आपनी कूखे त्रणलोकना नाथ भगवान पधार्या छे. जुओ, आ त्रणलोकना नाथ तीर्थंकरदेवनो ज्यारे अंतिम जन्म थशे त्यारे इन्द्रो अने देवो मोटो उत्सव उजवशे. आवो जीव पण वर्तमानमां नरकगतिमां पोताना पूर्व दोषनुं फळ भोगवे छे तो पछी मिथ्याद्रष्टि जीवना परिणाम अने एना फळनी शी वात करवी? भाई! जेनी द्रष्टि विपरीत छे तेना दुःखथी पराकाष्टानी शुं वात कहेवी? विपरीत द्रष्टिना फळमां जीव अनंतकाळ अनंत दुःख भोगवे छे. एमांथी उगरवाना उपायनी आ वात छे.

भाई! प्रथम निर्धार तो कर के भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वभावी पूर्णानंदनो नाथ छे, अने तेनी सन्मुख थतां निर्विकल्प दशा थाय छे. आवी निर्विकल्प दशा थया विना कोईने रागनी मंदता थाय पण तेथी शुं? अंदर आत्मानो आश्रय नथी तेथी तेने अनंतानुबंधीनो कषाय विद्यमान छे. बहारथी भले ते क्रोध न करे, तोपण तेने उत्तमक्षमा नथी. अहाहा...! क्षमानो दरियो प्रभु पोते छे; तेनो आश्रय लीधा विना उत्तमक्षमा होई शके नहि.

अहीं कहे छे केवळी भगवान जेम नयपक्षना ग्रहणथी दूर थया छे, कोई पण नयपक्षने ग्रहता नथी तेम समकिती जीव पण स्वानुभवना काळमां कोई पण नयपक्षने ग्रहतो नथी. ज्ञाननी पर्याय ज्यां स्वद्रव्य भणी झुकी छे त्यां पछी (अन्य) कोने ग्रहे? भगवान चैतन्यमूर्तिने जेणे ग्रहण कर्यो छे ते निश्चय-व्यवहारना कोई पक्षने ग्रहतो नथी.

आत्मा शाश्वत, अमृतनो सागर छे. तेनो गमे तेटलो विस्तार करीने वात करो तोपण पार आवे तेम नथी. आत्मा वस्तु विकल्पातीत छे. एना अनुभव विना जेटला निश्चय- व्यवहारनयना विकल्पो आवे ते बधा संसार खाते छे. चोथा गुणस्थाने क्षायिक समकितीने जे शांति प्रगटी छे तेना करतां पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकने अधिक शांति होय छे अने छठ्ठा गुणस्थानवर्ती भावलिंगी मुनिराजने तो शांति अने वीतरागता और वधी गयां होय छे. मुनिराजने पंचमहाव्रतनो जे विकल्प आवे तेने समयसार नाटकमां पं. बनारसीदासे जगपंथ कह्यो छे. त्यां मोक्षद्वारना ४० मां छंदमां कह्युं छे-


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‘‘ता कारन जगपंथ इत, ऊत शिवमारग जोर;
परमादी जगकौं धुकै, अपरमादि सिव ओर.’’

अर्थः- तेथी प्रमाद संसारनुं कारण छे अने अनुभव मोक्षनुं कारण छे. प्रमादी जीव संसार तरफ झुके छे अने अप्रमादी जीव मोक्ष तरफ झुके छे.

भावलिंगी मुनिने द्रव्यनो आश्रय सविशेष छे, श्रावक करतां घणो अधिक छे, छतां पूर्ण नथी; जो पूर्ण होय तो केवळज्ञान थई जाय. तेवा मुनिराजने जेटलो प्रमादनो अंश छे ते जगपंथ छे. छठ्ठे गुणस्थाने जे महाव्रतादिना विकल्प आवे ते प्रमादभाव छे अने ते जगपंथ छे. प्रमाद छोडी जेटलो स्वरूपमां ठरे ते शिवपंथ छे, मोक्षपंथ छे.

अहीं छ बोलथी केवळी अने अनुभव काळमां रहेला समकितीने-बंनेने सरखा गणेला छे. आ तो हजु जेने कर्ताकर्मपणुं छूटयुं छे एवा चोथा गुणस्थानवर्ती जीवनी वात छे. हवे कहे छे-

ते आत्मा खरेखर समस्त विकल्पोथी अति पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप, अनुभूतिमात्र समयसार छे.

ज्ञानी जीव समस्त विकल्पोथी अति पर परमात्मा छे. अहाहा...! पोताना परम स्वरूपनो जेने अनुभव थयो तेने अहीं अनुभव काळमां परमात्मा कह्यो छे. द्रष्टिमां सदा मुक्तस्वरूप निर्विकल्प भगवान आव्यो छे तेथी तेने परमात्मा कह्यो छे. वळी ते ज्ञानात्मा छे. पोते एकलो ज्ञाननो गोळो त्रिकाळी ध्रुव प्रभु छे. तेना उपर द्रष्टि पडतां ते ज्ञानात्मा छे. जेवो ज्ञानस्वरूप त्रिकाळी भगवान छे तेवो अनुभवमां आव्यो तेथी ज्ञानात्मा छे. आ तो निर्विकल्प अनुभवमां ते वखते ज्ञानात्मा थयो तेनी वात छे. ज्यां विकल्प रह्यो नथी ते ज्ञानघन थयो थको ज्ञानात्मा छे. ते प्रत्यग्ज्योति छे. विकल्परहित थतां विकल्पथी पृथक् ज्योतिस्वरूप छे. अहाहा...! बापु! सम्यग्दर्शन शुं चीज छे एनी लोकोने खबर नथी.

सम्यक्दर्शन एटले सत्य दर्शन. अंदर पोतानी विकल्प विनानी त्रिकाळी ध्रुव चीजनो अनुभव थाय तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. समकितीने पोताना पूर्ण आत्मानी प्रतीति थई छे तेथी ते ज्ञानात्मा थयो छे, प्रत्यग्ज्योतिस्वरूप थयो छे, आत्मख्यातिरूप थयो छे. आ टीकानुं नाम पण आत्मख्याति छे ने! आत्मख्याति कहेतां आत्मानी प्रसिद्धि. पहेलां राग अने विकल्पनी प्रसिद्धि थती हती ते हवे धर्मीने निर्विकल्प अनुभवनी दशामां आत्मानी प्रसिद्धि थई तेथी ते आत्मख्यातिरूप थयो. अंदर आत्मा तो परिपूर्ण पडयो छे ते पर्यायमां प्रसिद्धि थतां आत्मख्यातिरूप थयो.

भाई! व्यवहारना विकल्प ते साधन नथी. नय विकल्पने (प्रथम) जे साधन मान्युं छे ते तो बाधक छे. राग के विकल्प ते वस्तुना स्वरूपमां नथी अने पर्यायमां जे राग के विकल्प उठे ते बधो संसार छे. अहाहा...! जगतथी जगतेश्वर भगवान


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भिन्न वस्तु छे. आवा पोताना शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मानी अनुभूति थतां ते अनुभूतिमात्र समयसार थयो. भाई! समयसार रागमां आवतो नथी अने रागथी ते जणातो नथी. देव- गुरु-शास्त्रनी श्रद्धाना विकल्पमां के नयपक्षना विकल्पमां भगवान आत्मा आवतो नथी अने ते विकल्प वडे ते जणातो नथी. आवो आत्मा पृथक् ज्योतिस्वरूप अनुभवमां आव्यो एनुं नाम सामायिक छे. सामायिकनो अर्थ छे समता. विकल्पनी विषमता टळतां जे वीतरागतानो- समतानो समकितीने लाभ थाय तेनुं नाम सामायिक छे. अज्ञानीए बहारनी क्रियामां सामायिक मानी छे, पण ए साची सामायिक नथी. अहो! आ गाथामां गजबनी वात करी छे.

भगवान जिनेश्वरदेव एम कहे छे के देहमां रहेलो आत्मा स्वरूपथी जिनचंद्र छे. वीतरागी शांतिनो पिंड प्रभु शीतळ चंद्र छे. आवा निज स्वरूपमां विकल्पनो अवकाश कयां छे? अहाहा...! जेमां रागनो अंश नथी एवा शुद्ध चैतन्यमय आत्मानो अनुभव करनारने अहीं प्रथम परमात्मा कह्यो, पछी एनो ज्ञानगुण लक्षमां लईने ज्ञानात्मा कह्यो, वळी रागथी भिन्न पाडीने तेने ज प्रत्यग्ज्योति कह्यो, पछी तेने आत्मख्याति कह्यो अने छेल्ले तेने ज अनुभूतिमात्र समयसार कह्यो.

केटलाके तो जिंदगीमां सांभळ्‌युं पण न होय एवी आ वात छे. श्री कुंदकुंदाचार्यदेव विदेहक्षेत्रमांथी भगवाननो आ संदेश लाव्या छे. चोथा गुणस्थाने सम्यग्दर्शननुं स्वरूप केवुं छे तेनी आ वात छे. श्रावकनुं पंचम गुणस्थान तो कोई अलौकिक चीज छे, बापा! एने तो अंदर स्वानुभवना आनंदनी रेलमछेल होय छे. अने प्रचुर आनंदना वेदनमां झूलता मुनिनी दशानी तो शी वात? भाई! ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ -एवा णमोकार मंत्रना पांचमा पदमां जेमनुं स्थान छे ते वीतरागी निर्ग्रंथ मुनिनो तो अत्यारे नमूनो देखवा मळवो मुश्केल छे. अहाहा...! जेमने त्रण कषायना अभावथी अंतरमां आत्मा प्रसिद्ध थई गयो छे ते मुनि अंतर्बाह्य निर्ग्रंथ होय छे. जरा पंचमहाव्रतनो विकल्प ऊठे छे ते अपराध छे पण ते टळवा खाते छे. भाई! जे भावे तीर्थंकरगोत्र बंधाय ते भाव अपराध छे. जे भावथी प्रकृतिनो बंध थाय ते भाव धर्म केम होय! ते भाव शुभ छे अने ते अपराध छे. मुनिने ते होय छे पण ते टळवा खाते छे. भाई! आवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे.

* गाथा १४३ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जेम केवळी भगवान सदा नयपक्षना स्वरूपना साक्षी (ज्ञाता-द्रष्टा) छे तेम श्रुतज्ञानी पण ज्यारे समस्त नयपक्षोथी रहित थई शुद्ध चैतन्यमात्र भावनुं अनुभवन करे छे त्यारे नयपक्षना स्वरूपनो ज्ञाता ज छे.’

जुओ, केवळी भगवान आखा विश्वना साक्षी एटले ज्ञाता-द्रष्टा छे. हुं केवळी


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छुं, हितोपदेशी छुं-एवो केवळी भगवानने विकल्प नथी. केवळज्ञान वडे भगवान विश्वना अनंत पदार्थोने, प्रत्येकने, द्रव्य-गुण-पर्यायसहित भिन्न भिन्न स्पष्ट प्रत्यक्ष जाणे छे; पण त्यां विकल्प नथी. ते केवळी भगवान श्रुतज्ञानना अंशरूप नयपक्षना स्वरूपना पण साक्षी एटले ज्ञाता-द्रष्टा छे. हुं द्रव्ये शुद्ध अने पर्याये पण शुद्ध-एवा नयपक्षना विकल्प भगवानने नथी. भगवानने तो केवळज्ञान छे अने ते वडे नयपक्षना स्वरूपना ते ज्ञातामात्र ज छे. तेम प्रथम निर्विकल्प अनुभव थाय त्यारे भावश्रुतज्ञानी समस्त नयपक्षना विकल्पथी रहित थई शुद्ध चैतन्यमात्रभावनुं अनुभवन करे छे ते वखते ते नयपक्षना स्वरूपनो ज्ञाता ज छे.

हवे कहे छे-‘एक नयनो सर्वथा पक्ष ग्रहण करे तो मिथ्यात्व साथे मळेलो राग थाय.’

पर्यायमां बद्ध छे, द्रव्ये अबद्ध छे-ए जेम छे तेम माने नहि अने एकांते एक पक्षने ग्रहण करे ते मिथ्याद्रष्टि छे. पर्यायमां अशुद्धता छे एम व्यवहारनयनो पक्ष छे अने द्रव्य त्रिकाळ शुद्ध छे एम निश्चयनयनो पक्ष छे. हवे जो एक नयने माने अने बीजा नयने न माने तो मिथ्याद्रष्टि छे. वस्तु द्रव्य पर्यायस्वरूप छे तेमां एकने ज माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. भले जैननो साधु के श्रावक नाम धरावतो होय, पण हुं त्रिकाळ, शुद्ध चैतन्यमय आनंदकंद प्रभु छुं एम जाणे नहि अने व्रतादिना शुभरागने मात्र ग्रहण करे तो ते (व्यवहाराभासी) मिथ्याद्रष्टि छे. वळी आत्मा शुद्ध आनंदकंद प्रभु छे एम कहे पण पर्यायमां रागादि छे एने स्वीकारे नहि तो ते पण (निश्चयाभासी) मिथ्याद्रष्टि छे. वळी बन्ने पक्षने ग्रहे पण आत्माने ग्रहे नहि तो ते पण विकल्पना फंदमां फसायेलो मिथ्याद्रष्टि छे. जैन थवामां तो आ शरत छे के कोई पण नयपक्षने न ग्रहतां आत्माने ज ग्रहवो.

हवे कहे छे-‘प्रयोजनना वशे एक नयने प्रधान करी तेनुं ग्रहण करे तो मिथ्यात्व सिवाय मात्र चारित्रमोहनो राग रहे.’

शुद्ध, अखंड, एकरूप आनंदस्वरूप हुं ज्ञायक छुं एवुं प्रयोजन सिद्ध करवा व्यवहारनयना पक्षने गौण करी, निश्चयनयने मुख्य करी तेनुं ग्रहण करे तो मिथ्यात्वरहित मात्र चारित्रमोहनो राग रहे. अनुभव थया पछी पण हुं शुद्ध छुं एवो जे प्रधानपणे पक्ष रहे ते रागरूप चारित्रनो दोष छे. (तेने ज्ञानी यथावत् जाणे छे अने स्वभावनो उग्र आश्रय करी दूर करे छे).

हवे कहे छे-‘अने ज्यारे नयपक्षने छोडी वस्तुस्वरूपने केवळ जाणे ज त्यारे ते वखते श्रुतज्ञानी पण केवळीनी माफक वीतराग जेवो ज होय छे एम जाणवुं’

त्यारे कोई कहे के सम्यग्दर्शन सराग अने वीतराग एम बे प्रकारनुं छे तो ते


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वात यथार्थ नथी. अहीं तो स्पष्ट वात छे के सम्यग्दर्शन एक ज प्रकारनुं वीतरागभावस्वरूप ज छे. विकल्प विनानी निर्विकल्प स्वानुभूति ते वीतरागी दशा छे. आवो अनुभव करे त्यारे भावश्रुतज्ञानी केवळीनी माफक वीतराग जेवो ज होय छे एम जाणवुं.

* * *
ते आत्मा आवो अनुभव करे छे एम कळशमां कहे छेः-
* कळश ९२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘चित्स्वभाव–भर–भावित–भाव–अभाव–भाव–परमार्थतया एकम्’ चित्स्वभावना पुंज वडे ज पोतानां उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्य भवाय छे (-कराय छे)-एवुं जेनुं परमार्थस्वरूप होवाथी जे एक छे एवा-

शुं कह्युं? आत्मा चित्स्वभावनो पुंज छे. एमां संसारना विकल्पो नथी. उदयभावना विकल्पोथी मांडीने जगतनी बीजी बधी चीजोथी रहित आत्मा चित्स्वभावनो पुंज छे. ते चैतन्यपुंज वडे एटले त्रिकाळी जे चीज छे एना वडे पोतानां उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्य भवाय छे, कराय छे एम कहे छे. अहाहा...! त्रिकाळी ज्ञायक चैतन्यस्वभावभावरूप जे परमात्मा तेना वडे नवी अवस्था जे उत्पन्न थाय ते उत्पाद, जूनीनो अभाव थाय ते व्यय अने टकीने रहे ते ध्रुवस्वभाव अनुभवाय छे, कराय छे.

एकलो ज्ञानस्वभाव के जेमां राग नथी, पर्याय पण नथी एवा ज्ञानपुंज वडे पोतानां उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्य भवाय छे. कोई रागना विकल्पथी के अन्य निमित्तथी उत्पाद, व्यय कराय के ध्रुव जणाय एवुं एनुं स्वरूप नथी. ‘चित्स्वभाव-भर’ एम कह्युं छे ने! गाडामां जे घास भरे तेने ‘भर’ कहे छे. एम भगवान आत्मा चित्स्वभावनो भर एटले चित्स्वभावनो पुंज छे. ते चित्स्वभावना पुंज वडे पोतानां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कराय छे. विकल्पने करवो पण नथी, टाळवो पण नथी. अहीं तो पोतानी निर्मळ पर्यायथी उत्पन्न थाय, पूर्वनी पर्यायथी व्यय थाय अने वस्तु ध्रुवपणे रहे -एम पोताना उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यने ए करे छे. गजब वात छे!

कर्ता-कर्म अधिकार छे ने? आत्मा चैतन्यपुंज प्रभु न करे रागने, न करे जगतनी कोई अन्य चीजना कार्यने; ते करे एक मात्र पोताना स्वरूपने. अहाहा...! चित्स्वभावनो पुंज आत्मा छे. ते वडे ‘भाव’ एटले उत्पाद, ‘अभाव’ एटले व्यय अने ‘भाव’ एटले ध्रौव्य- एम पोताना उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कराय छे, सम्यग्द्रष्टि शुद्ध स्वभावनो अनुभव करे त्यारे आम थाय छे एम कहे छे. जुओ, व्यवहारना विकल्पथी कराय ए वात तो काढी नाखी, पण हुं शुद्ध छुं, पूर्ण छुं-एवा निश्चयना विकल्पथी पोतानां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कराय ए वात पण काढी नाखी.


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भाई! धर्मनी पहेली दशा, प्रथम सोपान जे सम्यग्दर्शन ते आ रीते थाय छे एम कहे छे. वीतरागनो मार्ग आवो छे, बापु! राग वडे के निमित्त वडे भवाय एवी वस्तु नथी. अहीं तो पर्याय वडे भवाय एम पण नथी कह्युं. अहीं तो कहे छे के त्रिकाळी चीज जे ज्ञानस्वभावनो भर पडयो छे तेना वडे करीने पोतानां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य भवाय छे एटले होय छे, कराय छे. आ चोथा गुणस्थाने सम्यग्दर्शन थाय एनी वात छे. कोई कहे के आ चारित्रनी वात छे तो एम नथी. आत्मामां जे चैतन्यनो भर भर्यो छे एना वडे ज पोतानां उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्य कराय छे, होय छे-एम एकान्त कह्युं छे. व्यवहारथी थाय ए वात छे ज नहि, एने तो अहीं उडाडी दीधी छे.

आत्मा एवुं नबळुं तत्त्व नथी के रागने लईने एनुं कार्य थाय. आत्मा पूर्ण शक्तिमान बळवान चीज छे. एना पोताना स्वभावना बळ वडे करीने एनां उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य होय छे, कराय छे, भवाय छे. आत्मा एवी नबळी चीज नथी के ते परना आश्रये प्रगट थाय (अर्थात् पोताना उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य थवामां एने परनी अपेक्षा नथी). त्रणलोकना नाथ जिनेश्वरदेवनुं आ फरमान छे. अहा! आवी वात हजु सांभळवाय न मळे ते बिचारा के दि धर्म करे अने के दि एमनां जन्म-मरण मटे? चोरासीना अवतारमां जन्म-मरण करी करीने मरी गयो छे. बापा! अनंत काळ अनंत भव करवामां गाळ्‌यो छे. भाई! ए बधो काळ तें दुःखमां गाळ्‌यो छे. प्रभु! स्वर्गमां पण तुं दुःखी ज हतो. भव छे ते स्वभावथी विरुद्ध पराधीन दशा छे.

आ विकल्प छे ते दुःखरूप भाव छे अने भगवान आत्मा चित्स्वभाव छे. अहीं ज्ञानप्रधान कथन छे तेथी कहे छे चित्स्वभावनो पुंज एवा आत्मा वडे पोतानां उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य कराय छे. मतलब के व्यवहारना विकल्प वडे पोतानां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य थाय एम छे नहि.

प्रभु! तारी मोटपनी तने खबर नथी. वस्तुना स्वभावना महिमानी तने खबर नथी. बहारमां दया, दान, भक्ति इत्यादिना शुभभावमां तने महिमा भासे छे पण ए भाव तो दुःखरूप छे, पुण्यनो जेने महिमा छे ते आ बधा शेठिया पराधीन दुःखी छे. अहीं कहे छे के भगवान आत्मा जे ज्ञानस्वभावनो पुंज छे एना वडे पोतानां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कराय छे. ध्रुव ध्रुवपणे रहे छे अने तेना आश्रये निर्मळ वीतरागी पर्यायनो उत्पाद कराय छे. ओहोहोहो...! एक लीटीमां केटकेटलुं समाव्युं छे! अहो! दिगंबर संतोनी करुणा! जे वस्तु शब्दमां नथी जणाय एवी नथी तेने शब्द द्वारा कही छे, बतावी छे! वाह! संतो वाह!!

प्रश्नः– शब्दोथी जणाय नहि तो शब्दो शुं काम कह्या?

उत्तरः– शब्दो तो शब्दोना काळे पोताना कारणे थया छे. शब्दोमां वस्तुनुं