Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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* कळशः ७२ श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘रक्तः’ जीव रागी छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. एक जीव एम कहे छे के जीव रागी छे, रागवाळो छे, राग एनो स्वभाव छे. आ एक व्यवहारनयनो पक्ष छे.

‘न तथा’ जीव रागी नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. बीजो जीव कहे छे के जीव रागी नथी, एना स्वरूपमां राग नथी, ए तो वीतराग चैतन्यमूर्ति छे. आ निश्चयनयनो पक्ष छे.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. आवा जे बे प्रकारे विकल्प ऊठे छे ते राग छे, बंधनुं कारण छे. हवे कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी छे ते पक्षपात रहित छे. ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे.

हुं अरागी छुं एवो जे विकल्प तेनाथी रहित थईने तत्त्ववेदी पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपने वेदे छे. हुं अरागी छुं एवो जे विकल्प छे ए तो दुःखरूप छे. एवा विकल्पथी हठी जे त्रिकाळ सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्माने वेदे छे, अनुभवे छे ते समकिती धर्मी छे.

सम्यग्ज्ञानदीपिकामां बहु सरस वात करी छे. विश्वमां छ द्रव्य छे. तेनाथी भिन्न भगवान आत्मा ‘सप्तम् द्रव्य’ छे. एम के जगतमां छ द्रव्यो छे एनाथी भिन्न हुं सप्तम् द्रव्य छुं-आवा विकल्पना पक्षने छोडीने पोताना निर्मळ आनंदस्वरूपनो अनुभव करवो एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.

समयसार गाथा ४९ नी टीकामां ‘अव्यक्त’ना छ बोल छे. सम्यग्ज्ञानदीपिकामां तेना प्रथम बोलनो आम अर्थ कर्यो छे-छ द्रव्यस्वरूप लोक ज्ञेय छे ते व्यक्त छे, तेनाथी भिन्न आत्मा सप्तम् द्रव्य छे ते अव्यक्त छे. एम के एककोर राजा अने एककोर आखुं गाम; एककोर चैतन्य महाप्रभु आतमराम सप्तम् द्रव्य अने एक कोर पोताथी भिन्न विश्वना छ द्रव्यो. आवो मार्ग छे, प्रभु!

व्यवहार करतां करतां निश्चय थशे, एनाथी धर्म थशे ए तो जीवने अनादिनुं मिथ्याशल्य छे. जीव अरागी छे ए वात तो साची छे, सत्यार्थ छे, पण एवो अंदर विकल्प उठाववो ए राग छे. धर्मी जीव आवा बंने पक्षपातथी रहित छे. तेने चित्स्वरूप जीव निरंतर चित्स्वरूप ज अनुभवाय छे.

* * *

समयसार गाथा-१४२ ] [ ३०१


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* कळश ७३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘दुष्टः’ जीव द्वेषी छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. अज्ञानी कहे छे के जीव द्वेषवाळो छे, पर्यायथी जीव द्वेषी छे. आवो व्यवहारनयनो एक पक्ष छे.

‘न तथा’ जीव द्वेषी नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. जीव अद्वेषी छे एवो जे विकल्प ते निश्चयनयनो पक्ष छे. हुं अद्वेषी छुं एवो जे विकल्प-वृत्ति ऊठे ते राग छे, दुःखरूप छे, बंधनुं कारण छे.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. आ बन्ने पक्षने छोडी दईने जे पक्षपातरहित थाय ते ज्ञानी छे.

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे.

जे समकिती छे तेने हुं द्वेषी छुं के द्वेषी नथी एवा नयपक्षना विकल्प छूटी जाय छे; ए तो निरंतर पोताना शुद्ध चित्स्वरूप द्रव्यने चित्स्वरूप ज अनुभवे छे. भाई! आ ज अनादिनो मार्ग छे. अनंत तीर्थंकरो थया एमणे आ ज वात कही छे. वर्तमानमां धर्मपिता श्री सीमंधर भगवान महाविदेह क्षेत्रमां विराजे छे. गणधरो अने इन्द्रोनी सभामां ॐध्वनि द्वारा तेओ आ ज वात कहे छे. भगवान कुंदकुंदाचार्य विदेहमां गया हता. त्यांथी जे वात ते लाव्या ते आ वात छे. आ परम सत्य वात छे.

* * *
* कळशः ७४ श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कर्ता’ जीव कर्ता छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जीव रागनो-व्यवहारनो कर्ता छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. शुभरागनो जे विकल्प ऊठे छे तेनो हु कर्ता छुं एम व्यवहारनयना पक्षवाळो कहे छे.

‘न तथा’ जीव कर्ता नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. निश्चयना पक्षमां ऊभो छे ते कहे छे के जीव कर्ता नथी. जीव रागनो कर्ता नथी ए वात तो यथार्थ छे पण आवो जे विकल्प छे ते नयपक्ष छे, राग छे, बंधनुं कारण छे.

भगवान आत्मा पर द्रव्यनो तो कर्ता छे ज नहि. पण दया, दानना जे विकल्पो थाय तेनो जीव कर्ता छे एम माने तेने व्यवहारनो पक्ष छे, अज्ञानभाव छे. त्यारे वळी बीजो एम पक्ष छे के आत्मा ज्ञानस्वरूप स्वभावभावरूप वस्तु छे, ते रागनो कर्ता नथी, तो ए पण विकल्प छे, राग छे. जीव अकर्ता छे ए तो सत्य छे, पण एवो विकल्प छे ए राग छे.


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‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. भगवान आत्मा तो त्रिकाळ एकस्वरूप ज्ञानस्वरूप, ज्ञायकस्वरूप, चित्स्वरूप छे. एमां कर्ता अने अकर्ताना विकल्पोनो सदंतर अभाव छे. आवा चित्स्वरूप निज तत्त्वने जाणवुं अने वेदवुं तेनुं नाम धर्म छे, सुख छे. आ सिवाय कोई बाह्य क्रियाना लक्षे शुभभाव करे अने एना फळमां स्वर्गादि मळे तोपण बधो कलेश छे.

आ बधा करोडपति अने अबजोपति छे ते दुःखी छे. पैसा तरफ जे लक्ष छे ते राग छे अने ते कलेश छे, दुःख छे. पुण्यना फळमां कदाचित् जीव स्वर्गमां देव थाय तो त्यां पण कलेशनुं वेदन छे. भगवान आत्मा चैतन्यदेव छे, एनो अनुभव कर्या विना स्वर्गना देवो पण रागना कलेशने ज भोगवे छे. आ वस्तुस्वरूप छे.

भाई! बहारनी वातोमां कांई सार नथी, बापु! लोको भले बहारनी क्रियाथी, व्यवहारना विकल्पोथी राजी थाय, परंतु एथी भवनो अंत नहि आवे भाई! समकितीमां ज भवनो अंत करवानी ताकात प्रगटे छे.

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे.

अहाहा...! कर्ता छुं ए पण नहि अने अकर्ता छुं ए पण नहि-एम बंने नयोना पक्षपातथी रहित थईने तत्त्ववेदी धर्मी जीव निरंतर पोताना चैतन्यस्वरूपने अनुभवे छे. ल्यो, एकलुं माखण छे. लोक खुशी थाय एवी वात नथी पण पोतानो आत्मा आनंदित थाय एवी वात छे.

आवी वात बेसे नहि एटले विरोध करे, पण शुं थाय? अमारे तो बधा आत्मा आत्मा तरीके साधर्मी छे. पर्यायमां कोईनी कोई भूल होय पण तेथी कोई प्रत्ये द्वेष करवो ते मार्ग नथी. कोई प्राणी प्रत्ये वेर-विरोध न होय. बधा आत्मा प्रति मैत्रीभाव होय. ‘सत्त्वेषु मैत्री’नी ज भावना होय. आत्मा द्रव्यस्वभावे त्रिकाळ शुद्ध छे. निज स्वभावना आश्रये जेणे पोतानी भूलने काढी नाखी ते बीजानी भूलने शुं काम जुए? अहीं तो बधा आत्माने प्रभु कहीए छीए.

व्यवहारनो पक्ष हो के निश्चयनो पक्ष हो; बन्ने विकल्प छे, उदयभाव छे, संसारभाव छे. आत्मा एनाथी भिन्न चीज छे. तत्त्ववेदी धर्मी जीव पक्षपातरहित थईने निरंतर पोताना चैतन्यस्वरूपने चैतन्यरूपे ज अनुभवे छे. अहा! आवो सरस अधिकार आव्यो छे!

* * *
* कळश ७पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘भोक्ता’ जीव भोक्ता छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जे विकल्प ऊठे


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तेनो जीव भोक्ता छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. वर्तमान पर्यायने जोनारनो आ विकल्प छे के जीव भोक्ता छे. आ व्यवहारनो निषेध तो पहेलेथी ज करावता आव्या छीए. हवे कहे छे-

‘न तथा’ जीव भोक्ता नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. भगवान आत्मा रागनो भोक्ता नथी, आनंदनो भोक्ता छे-आवो जे विकल्प छे ते निश्चयनयनो पक्ष छे. ए विकल्प दुःखरूप छे. भगवान आत्मा आनंदकंद प्रभु अभोक्ता छे ए तो सत्य छे, पण एवो जे विकल्प छे ते राग छे, दुःखरूप छे. ए विकल्प एक समयनी पर्यायमां भूल छे.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. हुं रागनो भोक्ता छुं अने भोक्ता नथी ए बंने पक्ष विकल्प छे, दुःख छे.

निर्मळानंदनो नाथ, नित्यानंद, सहजानंदस्वरूप अखंड अभेद एकरूप ध्रुव वस्तु भगवान आत्मा छे. तेमां हुं भोक्ता छुं अने भोक्ता नथी एवा विकल्पोनो अभाव छे. हुं रागनो भोक्ता नथी एवो विकल्प पण वस्तुना स्वरूपमां नथी. आवो भगवान आत्मा छे.

आवी सत्य वात सांभळीने कोईने ते न बेसे तो तेने दुःख थाय; पण शुं करीए? तने दुःख थाय तो प्रभु! माफ करजे. भाई! तुं भगवान छो. कोई वातनुं सत्य वातनुं निरूपण करतां तने दुःख लागे त्यां तने दुःख थाय एवो अमारो भाव नथी. अहीं तो वस्तुना स्वरूपनुं सत्य निरूपण ज करीए छीए. भगवान! आ तो हितनी ज वात छे.

आत्मा रागनो कर्ता छे एवो विकल्प तने शोभतो नथी ए तो ठीक. अहीं कहे छे के आत्मा रागनो भोक्ता छे अने भोक्ता नथी एवा विकल्प पण तने शोभता नथी. ए विकल्प तारो शणगार नथी. तुं तो निर्विकल्प छो ने प्रभु! विकल्पनी दशा ए तारी दशा नहि. श्रीमदे कह्युं छे ने के-

‘‘सर्व जीव छे सिद्धसम, जे समजे ते थाय;’’
‘‘बीजुं कहीए केटलुं, कर विचार तो पाम.’’

‘कर विचार तो पाम’ एम कह्युं छे. विचारनो अर्थ ज्ञान थाय छे. मतलब के ज्ञान करे तो पामीश. राग करे तो पामीश एम त्यां कह्युं नथी. आत्मसिद्धिमां बहु ऊंची तत्त्वनी वात छे. संप्रदायवाळाने बेसवुं कठण पडे छे केमके संप्रदायमां जन्मे त्यां साचुं मानीने अटकी जाय छे. परंतु भाई! सत्यने तुं न माने तो दुःखी थईश. विपरीत मान्यता वडे जीव वर्तमानमां दुःखी छे अने भविष्यमां पण दुःखी थशे. आ कोईना अनादरनी-तिरस्कारनी वात नथी; एकली करुणानो भाव छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-


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‘‘कोई क्रियाजड थई रह्या, शुष्कज्ञानमां कोई;
माने मारग मोक्षनो, करुणा ऊपजे जोई.’’

ज्ञानीओने, अज्ञानपणे वर्तता जीवोने जोई करुणा आवे छे, तिरस्कार नहि. हवे कहे छे- ‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. जे समकिती धर्मी जीव छे तेने निरंतर चित्स्वरूप जीव जेवो छे तेवो चित्स्वरूपे ज अनुभवाय छे.

* * *
* कळश ७६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जीवः’ जीव जीव छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जीव सच्चिदानंद-स्वरूप भगवान त्रिकाळ स्वरूपथी छे एवो निश्चयनयनो एक पक्ष छे. आवो जे पक्ष छे ते विकल्प छे. शुद्ध जीववस्तु चैतन्यमूर्ति भगवान स्वरूपथी छे ए तो सत्यार्थ छे, पण एवो विकल्प जे ऊठे छे ते निश्चयनो पक्ष छे अने ते राग छे, दुःख छे.

‘न तथा’ जीव जीव नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. परनी अपेक्षाए जीव नथी, स्वनी अपेक्षाए छे, पण परनी अपेक्षाए जीव नथी एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. ए पण विकल्प छे, राग छे.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वभावरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. बंने विकल्प छे ते पर्यायमां भूल छे केमके स्वरूप तो निर्विकल्प छे. हवे कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे.

हुं जीव छुं, जीव छुं, एम विकल्प करवाथी कांई निजरस वेदातो नथी, पण पक्षपात रहित थईने अंतर्लीनताना बळे जे तत्त्ववेदी छे ते निरंतर चैतन्यरसने अनुभवे छे. धर्मी जीवने चित्स्वरूप जीव जेवो छे तेवो निरंतर वेदनमां आवे छे.

आवी वात कठण पडे एटले मंडी पडे व्रत, तप आदि बाह्य व्यवहारमां अने माने के व्यवहार करतां करतां निश्चय प्रगटशे, पुण्यना बळे भविष्यमां कर्मक्षय थशे; पण ए तारी मान्यता मिथ्या छे, भाई! परमात्मप्रकाशमां ‘पुण्णेण होइ विहवो...’ इत्यादि गाथा ६० मां कह्युं छे के-पुण्यथी वैभव मळे छे, वैभवथी अभिमान-गर्व थाय छे, ज्ञान आदि आठ प्रकारना मदथी बुद्धिभ्रम-विवेकमूढता थाय छे. तेथी अमने आवुं पुण्य न हो. कयां आचार्य योगीन्द्रदेवनुं कथन अने कयां तारी मान्यता?


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आ तारा आत्मानी स्वदयानी वात छे. जीव जेवो (चित्स्वरूप) छे तेवो विकल्प रहित थईने अनुभववो ते स्वदया छे. जीवने दया, दानना रागवाळो मानवो, वा नयपक्षना विकल्पोमां गुंचवी देवो ते जीवती ज्योत्-चैतन्यज्योतिस्वरूप भगवान आत्मानो अनादर छे, घात छे. रागथी लाभ माननार पोतानी हिंसानो करनारो छे. निज चैतन्यस्वरूपनो अनादर करवो ते स्वहिंसा छे, अदया छे.

प्रभु! तें अनंत भवमां अनंत जन्ममरण कर्यां. तारुं मरण थतां तारी माताना आंखमांथी जे आंसु टपकयां ते बधां आंसु भेगा करीए तो दरियाना दरिया भराय. आटलां जन्म-मरण कर्यां छे तें! एना अति घोर दुःखनी शी वात! (चार गतिनां) आवां तीव्र दुःखथी छूटवानो उपाय आ ज छे. नयपक्षना विकल्पने छोडीने अंतर्लीन थई चित्स्वरूप जीवने (पोताने) चित्स्वरूपे अनुभववो ते जन्म-मरणना अंतनो उपाय छे. जे तत्त्ववेदी छे ते पण निरंतर पोताने चित्स्वरूप ज अनुभवे छे.

* * *
* कळश ७७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सूक्ष्मः’ जीव सूक्ष्म छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जीव रागादिथी भिन्न चैतन्यपिंड प्रभु सूक्ष्म छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे. निश्चयथी दया, दान, व्रतना जे विकल्प ऊठे तेनी साथे जीव एकरूप नथी. आवो जीव सूक्ष्म छे. जीव सूक्ष्म छे ए तो साचुं ज छे परंतु एवो जे विकल्प छे ते राग छे अने ते छोडवा योग्य छे.

शरीर साथे आत्मा एकपिंडरूप नथी. निमित्तना संबंधथी शरीर साथे एकरूप छे एम व्यवहारथी भले कहेवाय, पण वस्तु तरीके शरीर साथे आत्मा एक नथी. जो शरीर साथे आत्मा एक थई जाय तो जेम आत्मा वस्तु नित्य छे तेम शरीर पण नित्य थई जाय, शरीरनो पण नाश न थाय. पण एम छे नहि. तेवी रीते आत्मा लोकालोक साथे एकमेक होय तो जेम लोकालोक देखाय छे तेम आत्मा पण देखावो जोईए. पण एम छे नहि. तेथी आत्मा शरीरथी, रागथी, लोकालोकथी भिन्न एवो चैतन्यमूर्ति भगवान सूक्ष्म छे एवो निश्चयनयनो एक पक्ष छे. आ पक्ष छे ते राग छे तेथी तेने छोडवानी अहीं वात छे.

चैतन्यरत्न प्रभु आत्मा, शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय के राग साथे तन्मय नथी एवो सूक्ष्म छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे. हवे कहे छे-

‘न तथा’ जीव सूक्ष्म नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. जीव रागवाळो, कर्मवाळो छे माटे स्थूळ छे, सूक्ष्म नथी एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. आनो तो प्रथमथी ज आचार्यदेव निषेध करता आव्या छे.


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अहीं बन्ने पक्षनी वात साथे लीधी छे. एमां रागथी भिन्न हुं सूक्ष्म छुं एवो निश्चयनयना पक्षनो जे विकल्प उठे छे तेनो पण निषेध करवामां आवे छे केमके ते राग छे. आ प्रथम भूमिकानी-सम्यग्दर्शननी वात चाले छे. अहीं कहे छे के दया, दान, व्रत आदि रागना स्थूळ विकल्पो साथे जे तन्मय-एकमेक नथी एवो चैतन्यज्योति-स्वरूप भगवान आत्मा सूक्ष्म छे. पण हुं सूक्ष्म छुं एवा नयपक्षना विकल्पमां रोकावुं ते राग छे. ए नयपक्षना सूक्ष्म विकल्प साथे आत्मा तद्रूप नथी. भाई! हुं सूक्ष्म छुं एवा निश्चयना पक्षरूप सूक्ष्म विकल्पथी पण आत्मा जणाय एम नथी तो पछी व्यवहारनो स्थूळ राग करतां करतां निश्चय थाय ए वात कयां रही? ए तो बहु स्थूळ, विपरीत वात छे, (अने शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय अने कर्म तो कयांय दूर रही गयां.)

जगतने आकरो लागे पण अनंत तीर्थंकरो, अनंत सर्वज्ञो अने अनंत संतोए जाहेर करेलो आ मार्ग छे. कोईने लागे के अमारो मानेलो अने अमने गोठेलो मार्ग उथापे छे तो तेने कहीए छीए के-प्रभु! क्षमा करजे; पण मार्ग तो आ ज छे, भाई! हुं सूक्ष्म छुं एवा निश्चयना पक्षरूप विकल्पमां रोकावाथी पण नुकशान छे केमके एवा विकल्पथी आत्मा वेदनमां आवी शकतो नथी. तो पछी दया, दान, व्रत, भक्तिना स्थूळ विकल्पथी आत्मा जणाय ए केम बनी शके? विकल्प छे ए तो कलंक छे अने वस्तु छे ते निरंजन निष्कलंक छे. कलंकथी निष्कलंक वस्तु पमाय एवी मान्यता तो महाविपरीतता छे. भाई! बीजी रीते मान्युं होय एटले दुःख थाय, पण शुं थाय? वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. (मान्यता बदले तो सुख थाय एम छे).

आ तो हजु प्रथम भूमिकानी सम्यग्दर्शननी वात चाले छे. चारित्र तो महा अलौकिक वस्तु छे. आत्मा स्वपरप्रकाशकस्वभावना सामर्थ्यरूप चैतन्यतत्त्व छे. परने पोताना माने एवो तेनो स्वभाव नथी. अहाहा...! एकली चित्स्वरूप वस्तुमां सूक्ष्म छुं अने सूक्ष्म नथी एवा नयपक्षना विकल्पोने अवकाश ज कयां छे? आवा चित्स्वरूप आत्माने विकल्परहित थईने अनुभववो ते सम्यग्दर्शन छे. अहीं कहे छे-

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. आवा नयपक्ष छे ते विकल्प छे अने बन्ने प्रकारना विकल्प निषेधवा योग्य छे केमके विकल्पमां रोकातां आत्मानुभव थतो नथी.

शरीर, मन, वाणी, विकल्प ए बधुं जाणनारमां जणाय छे, पण जाणनार बीजी चीज साथे एकमेक नथी. अहीं कहे छे के जे जाणनार छे ते चित्स्वरूप भगवान आत्माने जो. रागना विकल्पने तुं जुए छे पण राग तो अंधकार छे. रागने जोतां आत्मा नहि जणाय. माटे जाणनारने जाण. जे तत्त्ववेदी छे ते विकल्परहित थईने पोताना स्वरूपने-ज्ञायकने ज अनुभवे छे. ए ज कहे छे-


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‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. धर्मी जीवोने चित्स्वरूप जीव जेवो छे तेवो अनुभवाय छे. अहा! दिगंबर संतो-केवळीना केडायतो जगत् समक्ष जाहेर करे छे के चित्स्वरूप तो चित्स्वरूप ज छे. तेमां नयना पक्षपातने अवकाश नथी. व्यवहारना पक्षनो तो अवकाश नथी, पण हुं सूक्ष्म छुं एवा सूक्ष्म विकल्पनो पण अवकाश नथी. आवी वस्तुनो अनुभव सम्यग्दर्शन छे.

* * *
* कळश ७८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘हेतुः’ जीव हेतु (कारण) छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जीवने जे रागादि थाय छे तेनुं जीव कारण छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. जीव छे तो दया, दान, व्रतादिनो राग थाय छे; माटे रागभावनुं जीव कारण छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. आनो तो आचार्यदेव पहेलेथी निषेध करता आव्या छे. अहीं निश्चयना पक्षनो पण निषेध करे छे. कहे छे-

‘न तथा’ जीव हेतु (कारण) नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. राग अने परनुं कारण आत्मा छे ज नहि एवो निश्चयनयनो पक्ष छे. आ पक्ष छे ते विकल्प छे, राग छे. तेने अहीं छोडावे छे. भाई! आ अलौकिक वात छे. एने लोकना अभिप्राय साथे जराय मेळ खाय एम नथी.

भगवान आत्मा अनादि अनंत ज्ञाननो ध्रुव-ध्रुव प्रवाह छे. नाळियेरमां छूटा पडेला गोळानी जेम आत्मा राग अने परथी भिन्न चैतन्यगोळो छे. ते राग अने परनुं कारण नथी. व्यवहाररत्नत्रयना रागनुं आत्मा कारण नथी. छे तो एम ज, पण एवो जे नयपक्ष छे ते विकल्प छे, राग छे. भाई! आ तो अंतरनी वातु छे. बधुं जाण्युं पण जाणनारने जाण्यो नथी. जे पदार्थो जणाय छे तेना अस्तित्वने माने छे पण जाणनार एवा पोताना अस्तित्वने जाणतो नथी. अहा! केवुं विचित्र! जे नयपक्षना विकल्प छे तेने जाणे छे पण विकल्पथी भिन्न पोताने जाणतो नथी. अहीं कहे छे-हुं कोईनुं कारण नथी एवो विकल्प पण नुकशानकर्ता छे केमके ते विकल्पमां रोकाई रहेवाथी आत्मा जणातो नथी. ए ज कहे छे-

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. जीव कारण छे अने जीव कारण नथी ए तो बे नयोना बे पक्षपात छे, विकल्प छे. ते विकल्प साथे भगवान आत्मा तन्मय नथी. विकल्प साथे वस्तु तन्मय नथी तो विकल्पथी वस्तु केम जणाय? अहाहा...! जीव परनुं अने रागनुं कारण नथी एवो विकल्प पण छोडीने आत्मसन्मुखता करी आत्मानुभव करवानुं आचार्य


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कहे छे. हुं कोईनुं कारण नथी एवा विकल्परूप आंगणाने छोडीने चित्स्वरूप घरमां प्रवेशी जा, एने वेद एम आचार्यदेव कहे छे केमके आनुं ज नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे.

कुंभारथी घडो थाय छे ए वातनो तो पहेलेथी निषेध करता आव्या छीए पण अहीं तो माटीथी घडो थाय छे एवो जे पक्ष-विकल्प छे एनो पण निषेध करीए छीए. भाई! आ तारा हितनी वात छे. तेनो तुं यथार्थ-सम्यक् निर्णय कर. जो-

१. जीव परनुं कारण छे ए वातनो तो प्रथमथी ज निषेध करवामां आव्यो छे, २. जीव कारण नथी एवो जे विकल्प छे तेनो पण अहीं निषेध करवामां आवे छे. माटे,

३. नयोना पक्षपातने छोडी, विकल्पनुं लक्ष छोडी एक चित्स्वरूप आत्मा छे तेनुं लक्ष करी आत्मानुभव प्रगट कर. ए ज सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. तत्त्ववेदी जीवो पण शुद्ध आत्मानो ज निरंतर अनुभव करे छे. ए ज कह्युं छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. धर्मी जीवो नयोना पक्षपातथी हठीने चैतन्यस्वरूप पोताने जेवो छे तेवो ज अनुभवे छे. आ तो सर्वज्ञनो माल संतो आडतिया थईने जाहेर करे छे. तेनां रुचि अने पोषाण कर.

* * *
* कळशः ७९ श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘कार्यं’ जीव कार्य छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. व्यवहार रत्नत्रयनो जे राग छे एनाथी आत्मा प्राप्त थाय एवो व्यवहारनयनो एक पक्ष छे. जीव रागनुं कार्य छे एवो जे व्यवहारनयनो पक्ष छे एनो तो प्रथमथी ज निषेध करता आव्या छीए. अहीं हवे एनाथी आगळ वात लई जाय छे.

‘न तथा’ जीव कार्य नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. जीव त्रिकाळ चैतन्यस्वभावमय स्वयंसिद्ध अकृत्रिम वस्तु छे; रागनुं ते कार्य नथी एवो निश्चयनयनो पक्ष छे. अहाहा...! निर्मळानंदनो नाथ भगवान आत्मा रागनुं कार्य नथी एवो जे निश्चयनो पक्ष छे ते विकल्प छे, राग छे, तेनाथी आत्मा प्राप्त थतो नथी.

१. जीव रागनुं कार्य छे एवो जे व्यवहारनयनो पक्ष छे तेनो तो पहेलेथी ज निषेध करता आव्या छे, अने

२. जीव रागनुं कार्य नथी एवो जे विकल्प छे ते निश्चयनयनो पक्ष छे ते पण निषिद्ध छे.


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बन्ने नयपक्ष छे ने! ए ज कहे छे-

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. भगवान आत्मा तो चित्स्वरूप, ज्ञानस्वरूप वस्तु छे. तेमां हुं आवो छुं अने आवो नथी एवा विकल्पोनो अवकाश कयां छे? ज्ञानस्वरूप आत्मा तो विकल्पना काळे पण विकल्पनो जाणनार छे. विकल्प साथे आत्मा एकमेक-तद्रूप नथी. विकल्पने छोडी विकल्पनो जाणनार छे तेने तुं जो ने! पूर्ण ज्ञान अने पूर्ण आनंदनुं धाम प्रभु आत्मा छे तेमां तुं जो, त्यां नजर कर; तने परम निधान प्राप्त थशे.

भाई! प्रतिक्षण तुं देह छूटवानी नजीक जतो जाय छे केमके देह तो एना नियत काळे अवश्य छूटशे ज. आ राग छोडवानो काळ (अवसर) छे. प्रभु! तेमां जो आत्मानी सन्मुख थई राग न छोडयो तो कयां जईश भाई? देह तो एना काळे तत्क्षण छूटी जशे, पछी कयां उतरीश, बापा? (कयांय कागडे, कूतरे अने कंथवे चाल्यो जईश).

केटलाक कहे छे-आवो धर्म! भक्ति करो, पुजा करो, दान करो, मंदिर बनावो, गजरथ काढो, शास्त्रनो प्रचार करो-इत्यादि तो धर्मनी प्रवृत्ति छे. अरे भाई! ए तो बधी विकल्पोनी धांधल छे. ए तो क्षोभ अने आकुळता उत्पन्न करनारी छे. अहीं तो कहे छे हुं स्वयंसिद्ध छुं, कोईनुं कार्य नथी एवो जे सूक्ष्म विकल्प छे ते पण आकुळतारूप छे. माटे नयपक्षना विकल्पनो त्याग करी शुद्ध चित्स्वरूप वस्तुनो अनुभव कर. ज्ञानी पुरुषो पण पक्षपातरहित थईने एक चैतन्यस्वरूप आत्माने ज निरंतर अनुभवे छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. धर्मी जीव पोताने जेवो चित्स्वरूप जीव छे तेवो ज निरंतर अनुभवे छे. एनुं नाम आत्म-ख्याति छे टीकानुं नाम आत्मख्याति छे ने! विकल्परहित आत्मा जेवो छे तेवो अनुभववो ते आत्मख्याति एटले आत्मप्रसिद्धि छे.

* * *
* कळश ८०ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘भावः’ जीव भाव छे (अर्थात् भावरूप छे) ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जीव भाव छे, अस्तिरूप स्वभाव छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे. जीव स्वभावभाव छे एवी जे वृत्ति ऊठे छे ते विकल्प छे अने तेने अहीं छोडवानी वात छे.

जुओ, हार खरीदती वखते हार केवो छे, केवडो छे, एनी किंमत केटली इत्यादि बधुं पूछे पण तेने पहेरतां ते विकल्पोने याद करतो नथी. पहेरती वेळा तो ते विकल्पोने


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लक्षमांथी छोडी दे छे. पहेरती वखते तो तेनी शोभा उपर ज लक्ष छे तेम अहीं कहे छे-जीव भावस्वरूप छे ए तो सत्य ज छे. पण तेवो जे विकल्प ऊठे छे ते जीवनी शोभा नथी. विकल्प छोडीने जे भावस्वरूप आत्मा छे तेने वेदवुं-जाणवुं ए शोभा छे, ए सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान छे.

लोकोने सांभळवा मळ्‌युं नथी एटले नवुं लागे छे, पण भाई! आ तो अनादिथी चाल्यो आवतो मूळ मार्ग छे. अनंत केवळीओए अने अनंत संतोए कहेलो आ मार्ग छे.

जीव चैतन्यस्वभावभाव, आनंदस्वभावभाव, शांतिस्वभावभाव, इश्वरस्वभावभाव- एवो आत्मा भाव छे ए तो सत्यार्थ ज छे. पण हुं आवो छुं एवो विकल्प निश्चयनो पक्ष छे. आवुं ऊंडे ऊंडे चिंतन करवुं ते विकल्प एटले राग छे, अने ते छोडवा योग्य छे. हवे कहे छे-

‘न तथा’ जीव भाव नथी (अर्थात् अभावरूप छे) ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. जीव भाव नथी एटले के परथी अभावरूप छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. दया, दान, पूजा आदिना विकल्पथी जीव अभावरूप छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे ते विकल्प छे, राग छे. आनो तो आचार्य भगवान पहेलेथी ज निषेध करता आव्या छे. अहा! श्रद्धामां तो नक्की कर के विकल्प छोडवा योग्य छे, एनाथी लाभ नथी.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीवमां ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. बन्ने नयपक्ष विकल्प छे. अहो! चित्स्वरूप आत्मानी शी वात करवी? वाणीमां तो एनुं स्वरूप न आवे पण विकल्पथी पण ए जणाय एवी चीज नथी. परमार्थ वचनिकामां कह्युं छे के लोकोने आगमपद्धतिनो व्यवहार सुगम छे अने अध्यात्मपद्धतिना व्यवहारनी खबर नथी. आत्मा शुद्ध चैतन्यघनस्वभावभावरूप छे. तेनां श्रद्धा, ज्ञान अने रमणता ते अध्यात्मपद्धतिनो व्यवहार छे. हुं भावस्वरूप छुं एवो जे विकल्प ऊठे ते अध्यात्म-व्यवहार नथी; विकल्प छूटीने निर्विकल्पदशाने प्राप्त थवुं ते अध्यात्म-व्यवहार छे. ज्ञानीओने आवो आत्मव्यवहार होय छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. अहाहा...! नयपक्षना विकल्पथी रहित ज्ञानीने चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूपे ज अनुभवाय छे, अने ते धर्म छे.

* * *

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* कळश ८१ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘एकः’ जीव एक छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. हुं एक छुं एवो निश्चयनयनो पक्ष छे ते विकल्प छे. हवे कहे छे-

‘न तथा’ जीव एक नथी (-अनेक छे) ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. जीवने अनंत गुण छे, पर्याय छे ए अपेक्षा जीव अनेक छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. अहीं आ विकल्पनी वात छे. ४७ शक्तिना अधिकारमां ‘एक’ एवो आत्मानो गुण छे अने ‘अनेक’ एवो पण आत्मानो गुण छे एनी वात करी छे. ए तो आत्माना एक-अनेक स्वभावनी वात छे. अहीं तो हुं एक छुं, अनेक छुं एवा नयपक्षनी वात चाले छे.

‘इति’-आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. जीव अनेकस्वरूप छे ए व्यवहारनयनो पक्ष छे. तेने तो पहेलेथी छोडावता आव्या छीए. पण जीव एक छे एवो निश्चयनो पक्ष पण छोडवा योग्य छे. वस्तु त्रिकाळ एकरूप चिद्रूप छे एवुं जीवनुं स्वरूप छे खरुं, पण एवो विकल्प ऊठे ते राग छे माटे निषेधवा योग्य छे-एम कहे छे.

आत्मा अनंतगुणनुं धाम एक वस्तु छे एवी जे वृत्ति ऊठे ते दुःखरूप छे, बंधनुं कारण छे. जीव चैतन्यप्रकाशनो पुंज छे. एकलुं ज्ञान, ज्ञान ज्ञान एनुं स्वरूप छे. शास्त्रनुं ज्ञान ते ज्ञान नहि. जेम साकरनो मीठो स्वभाव, अफीणनो कडवो स्वभाव छे तेम भगवान आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे. तेमां एक-अनेकना विकल्प कयां समाय छे? हुं एक छुं एवो विकल्प पण चित्स्वरूपमां नथी.

दया, दान, भक्तिना परिणामथी निश्चय थाय ए वात तो तद्न विरुद्ध छे. कोईने न बेसे तोय मार्ग तो आवो ज छे. देवाधिदेव सर्वज्ञ परमात्मानी वाणीमां आ वात आवी छे.

समोसरणस्तुतिमां आवे छे ने के-

‘रे रे सीमंधरनाथना विरह पडया आ भरतमां!’

भगवानना भरतक्षेत्रमां वर्तमानमां विरह पडया छे. विदेहक्षेत्रमां सीमंधर प्रभु साक्षात् बिराजे छे. त्यां दररोज त्रण वखत छ छ घडीॐध्वनि छूटे छे. अहा! भरतमां भगवाननो विरह पडयो! आ तो परद्रव्यनी अपेक्षाए वात थई. अहीं कहे छे के-नयपक्षनी जाळमां गुंचाई जवाथी, पोते आत्मा अनंतगुणनो नाथ, पोताना अनंत गुणोनी मर्यादाने धरनार सीमंधरनाथ छे तेनो पोताने विरह पडयो छे. बहारनी वात तो कयांय रही गई.

आ लोकालोक छे एमां जीव कयां छे? अहाहा...! लोकालोकने जाणनारो जीव लोकालोकथी तद्न जुदो छे. देहथी पण आत्मा जुदो छे. देह साथे जो आत्मा एकमेक


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होय तो आत्मा जेम नित्य छे तेम देह पण नित्य थई जाय, देहावसान न थाय, मरण न थाय. पण एम छे नहि, केमके देह आत्माथी भिन्न छे, आत्मा देहथी भिन्न छे. आवो आत्मा छे तेमां नयपक्षनो विकल्प ऊठावे तो भगवानना विरह पडी जाय छे, आत्मा दूर रही जाय छे, अर्थात् अनुभवमां आवतो नथी. परंतु नयपक्षनो त्याग करीने जे आत्मसन्मुख थाय छे ते निजानंदरसने अनुभवे छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपतः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातथी रहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. जेणे नय-पक्षना विकल्पोने छोडी दीधा छे ते धर्मी जीव पक्षपातरहित थईने पोताना चैतन्य-स्वरूपने जेवुं छे तेवुं सदाय अनुभवे छे, धर्मी जीव पोताना चैतन्यतत्त्वने वेदे छे, पण विकल्पने वेदतो नथी.

* * *
* कळश ८२ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘सान्तः’ जीव सांत (-अंतसहित) छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जीव एक समयनी दशा जेटलो सांत एटले अंतसहित छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. एक समयनी अवस्था जेटलो ज जीव छे, जीव क्षणिक छे एवो बौद्ध आदिनो एकांत मत छे. ए तो मिथ्यात्व छे. तेओ त्रिकाळी चीजने मानता ज नथी. अहीं तो एक समयनी दशाने देखीने जीव सांत छे एम मानवुं ते व्यवहारनयनो पक्ष छे. एनो निषेध तो पहेलेथी करता आव्या छीए. हवे कहे छे-

‘न तथा’ जीव सांत नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. जीव अनादि-अनंत त्रिकाळ ध्रुव छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे. जीव शुद्ध चैतन्यमय ध्रुव-ध्रुव-ध्रुव एम त्रिकाळ ध्रुव छे ए वात तो साची छे पण एवो विकल्प उठाववो ते नयपक्ष छे अने ते वस्तुनी अंदर प्रवेश करवामां विघ्न करनार छे.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. हुं सांत छुं, पर्याय जेवडो छुं एवो व्यवहारनयनो जे पक्ष छे तेनो तो निषेध पहेलेथी कराव्यो छे. अहीं हुं अनादि अनंत ध्रुव चैतन्यधाम छुं एवो निश्चयना पक्षनो जे विकल्प छे तेनो पण निषेध करवामां आवे छे.

भगवान आत्मा ध्रुव, ध्रुव, ध्रुव त्रिकाळ सत् मोजुदगीवाळी सच्चिदानंदस्वरूप चीज छे. आवी चीज सांत नथी, त्रिकाळ छे ए सत्यार्थ छे. परंतु एवो जे विकल्प छे ते राग छे, वस्तुनो अनुभव थवामां बाधारूप छे. पक्ष छे ने! ते अनुभव थवामां विघ्न-कर्ता छे माटे तेनो अहीं निषेध करवामां आव्यो छे. चित्स्वरूप जीव विकल्प साथे


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तन्मय-एकमेक नथी. अज्ञानी माने के जीव रागस्वरूप छे, पण जीव तो चित्स्वरूप ज छे अने ज्ञानी पोताने चित्स्वरूप ज अनुभवे छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. नयपक्षनो जेणे त्याग कर्यो छे एवो धर्मी जीव चैतन्यमय जीवने जेवो छे तेवो ज अनुभवे छे अने तेनुं ज नाम धर्म छे. विकल्प वखते पण ज्ञानी तेनुं ज्ञान करनारो ज्ञानस्वरूपे ज रहे छे.

भींत उपर जे खडी लगावे छे ते खडीथी दिवाल भिन्न ज छे. तेम जगतना पदार्थोने जाणनार ज्ञानी जगतथी तद्न भिन्न छे. जगत अने रागना विकल्पोमां ते एकमेक थतो नथी, पण भिन्न ज्ञानस्वरूपे ज रहे छे. आवी वात छे.

* * *
* कळश ८३ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘नित्यः’ जीव नित्य छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जीव त्रिकाळ नित्य छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे. जीव अविनाशी नित्य छे ए वात तो बराबर छे पण एवो जे विकल्प छे ते राग छे. निश्चयना पक्षरूप विकल्पने पण तोडी नाखे तो चित्स्वरूप जीवनी प्राप्ति थाय छे. हवे कहे छे-

‘न तथा’ जीव नित्य नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. जीव अनित्य छे, क्षण विनाशी छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. व्यवहारनो विकल्प तो पहेलेथी छोडावता आव्या छीए, पण जीव नित्य छे एवो चिंतनरूप विकल्प पण अहीं छोडवानी वात छे, केमके एवो विकल्प पण राग छे, दुःखदायक छे.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. बंने पक्षरूप विकल्पो छे ते दुःखदायक छे. विकल्प वस्तुना स्वरूपमां नथी. माटे नित्यनो पण विकल्प छोडी नित्य जे वस्तु छे तेनुं वेदन कर. पर्यायमां निर्विकल्प वेदन थाय ते धर्म छे. ‘नित्य’नुं वेदन छोडीने ‘नित्य’ना विकल्पमां ऊभा रहेवुं ते अधर्म छे.

अमृतनो सागर भगवान आत्मा छे. तेमां नयनो विकल्प उठाववो ते अमृत-सागरथी विरुद्ध भाव छे. भाई! शुकल लेश्याना शुभ परिणाम थाय ते विरुद्ध भाव छे. आ जीव एवा शुकल लेश्याना शुभ परिणाम अनंतवार करी चूकयो छे. पण ए बधुं बंधनुं ज कारण बन्युं छे. जे सर्व नयपक्षना विकल्पने छोडी स्वरूपसन्मुख थाय तेने चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप अनुभवाय छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. विकल्प तो


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अज्ञान छे केमके तेमां ज्ञाननो अंश नथी. तत्त्वने जाणनारो-अनुभवनारो विकल्परहित छे. ते विकल्पनो जाणनारमात्र छे. तेने निरंतर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ज अनुभवाय छे. आवी वात छे.

* * *
* कळश ८४ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘वाच्यः’ जीव वाच्य (अर्थात् वचनथी कही शकाय एवो) छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जीव वाच्य छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. ४७ नयमां नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव-एम चार नयनुं कथन आवे छे. तेमां वचनथी कही शकाय एवो एक जीवमां धर्म छे तेने नामनय कहेल छे. जीव वक्तव्य छे एटले के वचनथी कही शकाय छे. अहा! कयां भगवान आत्मा अने कयां वाणी? वाणी जडनी पर्याय छे अने आत्मा एनाथी भिन्न चैतन्यमय वस्तु छे. अहीं कहे छे-जीव वाच्य एटले वचनगोचर छे अर्थात् वचनथी कही शकाय छे. आवो एक व्यवहारनयनो पक्ष छे. जेम भगवान आत्मामां स्वपरने जाणवानुं सामर्थ्य छे तेम वाणीमां स्वपरने कहेवानुं सामर्थ्य छे. हवे कहे छे-

‘न तथा’ जीव वाच्य (-वचनगोचर) नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. जीव वचनगोचर नथी एवो जे विकल्प थाय ते निश्चयनयनो पक्ष छे. श्रीमद्मां आवे छे ने के-

‘‘जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां,
कही शकया नहि ते पण श्री भगवान जो.’’

जीव वचनगोचर नथी, अनुभवगोचर छे ए तो सत्य ज छे, पण एवो जे विकल्प ऊठे छे ते विकल्पगोचर पण जीव नथी. तेथी आवो निश्चयनयना पक्षनो विकल्प पण अहीं निषेध्यो छे.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. आ बंने पक्ष विकल्प छे अने वस्तु निर्विकल्प छे. बंने नयोना पक्षपात रहित तत्त्व चित्स्वरूप छे. तेने तेवुं ज अनुभववुं ते धर्म छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपात रहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरतंर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे.

* * *

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* कळश ८पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘नाना’ जीव नानारूप छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जीव अनेक गुण- पर्यायनी अपेक्षाए नानारूप एटले अनेकरूप छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे.

‘न तथा’ जीव नानारूप नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. एकवस्तुपणानी द्रष्टिए जीव अनेकरूप नथी अर्थात् एक छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. बंने पक्ष छे ते विकल्प छे. हुं अनेक छुं, अनेक नथी, एक छुं-एवा विकल्पमां रोकवुं ते सहज अवस्थाने विघ्नकर्ता छे. अहो! दिगंबर संतोए जंगलमां रहीने अमृतना सागर ऊछाळ्‌या छे!

ज्ञानस्वरूप आत्मा चैतन्यचमत्काररूप वस्तु छे. तेमां नयपक्षना विकल्प नथी. बंने नयोना पक्षपातने छोडी जे तत्त्ववेदी छे ते पोताना चैतन्यचमत्काररूप घरमां प्रवेशी जाय छे. विकल्परूपी आंगणाने छोडी दईने धर्मी जीव शुद्ध चैतन्मय घरमां ज निरतंर रहे छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. धर्मी जीव निरंतर चैतन्यना स्वादने ज वेदे छे.

* * *
* कळश ८६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘चेत्यः’ जीव चेत्य (-चेतावा योग्य) छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. आत्मा चेतावा अर्थात् जणावा योग्य छे एवो निश्चय नयनो पक्ष छे. आत्मा चेतावा योग्य छे ए वात तो बराबर छे, केमके जगतनी चीजोथी ते भिन्न छे. विकल्प सहित आखुं जे जगत् तेनाथी भगवान जगदीश्वर भिन्न छे माटे ते चेतावा योग्य छे. परंतु हुं चेत्य कहेतां चेतावा योग्य छुं एवो जे विकल्प छे ते नयपक्ष छे. हुं चेत्य छुं एवा विकल्पथी भगवान ‘चेत्य’ भिन्न छे, ते विकल्प साथे एकमेक नथी. भाई! परनो कर्ता अने भोक्ता छे ए वात तो कय ांय रही, अहीं कहे छे हुं चेत्य छुं एवा विकल्पथी पण चेत्य जे वस्तु छे ते भिन्न छे भगवान! ते ‘चेत्य’ ना विकल्पने छोडी जे ‘चेत्य’ छे तेने चेत, तेने वेद. आवी वात छे. अहाहा...! चैतन्यसूर्य प्रभु आत्मा चेत्य एटले चेतावा योग्य छे एवो जे विकल्प छे ते नयपक्ष छे, दुःखदायक छे.

‘न तथा’ जीव चेत्य नथी ‘परस्य’ एवो बीजो नयनो पक्ष छे. जीव चेतावा योग्य नथी एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. आवो एक व्यवहारनयनो पक्ष छे. मन अने इन्द्रियोथी जीव जणावा योग्य नथी एनो तो निषेध प्रथमथी करता आव्या छीए. हवे कहे छे-


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‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. अहाहा...! विश्वथी विश्वेश्वर प्रभु आत्मा जुदो छे. एक बाजु आखुं लोकालोक छे अने एक बाजु ‘चेत्य’ भगवान आत्मा छे. परंतु आत्मा चेत्य छे, हुं चेत्य छुं एवो जे विकल्प तेने अहीं छोडाववा मागे छे, केमके एवो सूक्ष्म विकल्प पण आत्मानुभवमां बाधक छे. जे तत्त्ववेदी छे ते बन्ने पक्षथी रहित थईने निजानंद-स्वरूप भगवान आत्माना अतीन्द्रिय आनंदने अनुभवे छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे.

* * *
*कळश ८७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘द्रश्यः’ जीव द्रश्य (-देखावा योग्य) छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. चेतनाना बे भाग-जाणवुं अने देखवुं. जीव चेतावा योग्य छे-एमां जाणवुं अने देखवुं ए बन्नेनी भेगी वात करी छे. तेने अहीं जुदी पाडीने कहे छे. भगवान आत्मा द्रशि शक्तिथी देखावा योग्य छे. ४७ शक्तिओमां जेम चिति एक शक्ति छे तेम द्रशि एक शक्ति कही छे. शक्ति एटले सामर्थ्यनी वात छे. जीव देखावा योग्य छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे. जीव देखावा योग्य छे ए तो सत्य ज छे, पण एवो जे विकल्प छे ते छोडवा योग्य छे केमके ते विकल्प दर्शनमां बाधारूप छे. प्रथम आंगणामां ऊभो रहीने आवो सम्यक् निर्णय करे तेटलुं ज पूरतुं नथी, अहीं तो आंगणुं छोडी अंदर घरमां प्रवेशी अनुभव करवानी वात छे. जीव देखावा योग्य छे एवो विचार नयपक्ष छे. हवे कहे छे-

‘न तथा’ जीव देखावा योग्य नथी ‘परस्य’ -एवो बीजा नयनो पक्ष छे. भगवान आत्मा अरूपी छे. ते केम देखाय? ते देखावा योग्य नथी एवो व्यवहारनयनो एक पक्ष छे. एनो तो आचार्यदेव प्रथमथी निषेध करता आव्या छे.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. आ नयोना पक्षपात छे ते स्वरूपना अनुभवमां विघ्न करनारा छे. हुं द्रश्य छुं एवा विकल्पने पण छोडी अंतर्लक्ष करतां द्रश्य प्रभु आत्मानो अनुभव थाय छे. जे तत्त्ववेदी एटले तत्त्वनो जाणनार छे ते पक्षपात छोडीने पोताने एक चित्स्वरूप ज अनुभवे छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे.


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भगवाननी भक्तिना रागथी के व्रत, तप आदिना विकल्पथी ज्ञायक प्रभु आत्मा देखाय एम नथी. हुं द्रश्य छुं एवा विकल्पथी पण ते दूर छे. सर्व पक्षपात मटाडतां चैतन्य भगवान जणाय छे, देखाय छे अने ते सम्यग्दर्शन-ज्ञान छे. जेणे विकल्पथी पार थईने निज चैतन्यस्वरूप भगवान ज्ञायकने जाण्यो अने देख्यो, ते संसारथी मुक्त ज थई गयो.

भगवान चैतन्यस्वरूप ज्ञानसूर्य छे. तेनुं चैतन्यस्वरूप ज छे. ते देखावा योग्य छे अने देखावा योग्य नथी एवो विकल्पोनो तेमां अवकाश नथी. जे तत्त्ववेदी छे ते पक्षथी रहित थईने जेवो आत्मा छे तेवो निरंतर अनुभवे छे.

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* कळश ८८ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘वेद्यः’ जीव वेद्य (-वेदावा योग्य, जणावा योग्य) छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. निश्चयनयनो आ पक्ष छे के आत्मा वेदावा योग्य छे. आत्मा वेद्य छे ए तो सत्य छे पण एवो जे नयपक्षनो विकल्प छे तेने अहीं छोडाववा मागे छे, केमके वस्तुमां आवो पक्ष कय ां छे? आवो पक्ष करतां वस्तु कयां वेदाय एम छे? हवे कहे छे-

‘न तथा’ जीव वेद्य नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. व्यवहारनयनो पक्ष छे के जीव वेदावा योग्य नथी. आ पक्षनो तो पहेलेथी ज निषेध करवामां आव्यो छे. अहीं तो वेदावा योग्य छे एवा निश्चयना पक्षने पण छोडवानी वात छे.

‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. हुं वेद्य छुं एवो पक्ष छे ते राग छे, छोडवा योग्य छे.

भगवान आत्मा चैतन्यप्रकाशमय मूर्ति छे. तेमां स्पर्श, रस, गंध, वर्ण नथी एवो अरूपी छे. आठ वर्षनी बालिका पण अंतर्द्रष्टि करीने सम्यग्दर्शन पामे छे त्यारे ते निर्विकल्प चैतन्यस्वरूपना आनंदने अनुभवे छे. शरीर भले स्त्रीनुं होय, ए शरीर आत्मामां कयां छे? स्त्रीवेदनुं कर्म भले अंदर पडयुं होय, ते कर्म कयां आत्मामां छे? अने स्त्री वेदनी जे वृत्ति उठे ते वृत्ति पण कयां आत्मामां छे? अहीं कहे छे के हुं वेद्य छुं एवो विकल्प पण आत्मामां समातो नथी. आवा सूक्ष्म विकल्प वडे आत्मा जणाय एवो नथी. भाई! आत्मा जणावा योग्य छे ए तो साचुं छे, पण एवो विकल्प छे तेने छोडीने जे वेद्य छे तेनुं वेदन कर; अन्यथा वेद्यनुं वेदन नहि थाय. गंभीर वात छे, भाई!

लोको दया पाळे, व्रत पाळे, तप करे, उपवास करे इत्यादि बधुं करे पण ए तो बधो शुभराग छे. एनाथी रागरहित भगवान केम जणाय? भाई! राग गमे तेटलो सूक्ष्म हो, पण तेनाथी आत्मअनुभव कदीय न थाय. तेथी तो सर्व पक्षपात


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रहित थईने तत्त्वज्ञानीओ अंतर्लक्ष करीने पोताना चैतन्यस्वरूपने तेवो ज अनुभवे छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. ज्ञाता तो ज्ञाता ज छे, बस! एवो ज अनुभव थाय एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. बाकी देव-गुरु-शास्त्रनी भेदरूप श्रद्धा के नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा ए कांई सम्यग्दर्शन नथी.

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* कळश ८९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘भातः’ जीव ‘भात’ (प्रकाशमान अर्थात् वर्तमान प्रत्यक्ष) छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. जीव वर्तमान प्रत्यक्ष छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे. जीव वर्तमान प्रत्यक्ष छे ए वात तो सत्य ज छे. जीव स्वभावथी प्रत्यक्ष ज्ञाता छे एवो तेनो गुण छे. प्रवचनसार गाथा १७२नी टीकामां अलिंगग्रहणना छठ्ठा बोलमां आवे छे के-आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता छे. आत्मा द्रव्यस्वरूपथी ज स्वरूपप्रत्यक्ष छे; परोक्ष रहेवानो तेनो स्वभाव नथी. राग अने मननी उपेक्षा करी भगवान आत्मा पोताना ज्ञाननी पर्यायमां प्रत्यक्ष जणाय एवो एनो स्वभाव छे. परंतु आत्मा वर्तमान प्रत्यक्ष छे एवो जे विकल्प उठे छे ते नयपक्ष छे. हुं वर्तमान प्रत्यक्ष छुं एवा विकल्पथी वस्तुनो प्रत्यक्ष अनुभव थतो नथी, पण खेद ज थाय छे. तेथी अहीं आ सूक्ष्म विकल्पने छोडवानी वात छे.

जीव वर्तमान प्रत्यक्ष छे एवा पक्षने छोड एम कह्युं एटले एम समजवुं के अंदर (वर्तमान प्रत्यक्ष सिवायनी) कोई बीजी चीज छे वस्तु शुद्ध चैतन्यस्वभावमय चीज तो स्वरूपप्रत्यक्ष ज छे. भगवाने पण एवो ज आत्मा जोयो अने कह्यो छे, अने एनी द्रष्टि करतां ते पर्यायमां प्रत्यक्ष स्वादमां आवे छे. पण हुं प्रत्यक्ष छुं एवो जे विकल्प छे ते नयपक्ष छे. ते विकल्प स्वरूपना प्रत्यक्ष अनुभवमां बाधक छे. तेथी अहीं नयपक्षना विकल्पने निषेधवामां आव्यो छे.

अज्ञानी जीवोए वरराजाने छोडीने जान जोडी छे. शुद्ध चैतन्यना भान विना व्रत, तप, भक्तिना विकल्प बधा वर विनाथी जान जेवा वा एकडा विनानां मीडां छे. भाई! विकल्प करतां करतां धर्म थशे ए तारी मान्यता चिरकाळनुं मिथ्या शल्य छे. क्रियाकांडना रागथी आत्मा जणाय एवो एनो स्वभाव ज नथी. आत्मा प्रत्यक्ष छे एवो जे विकल्प छे ते पण रागांश छे अने ते पण छोडवा योग्य छे. हवे कहे छे-

‘न तथा’ जीव ‘भात’ नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. जीव वर्तमान प्रत्यक्ष नथी एवो व्यवहारनयनो जे पक्ष छे तेनो तो पहेलेथी ज निषेध करवामां आव्यो छे.


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‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. बंने नयपक्ष छे ते विकल्प छे अने पक्ष छे त्यांसुधी आत्मानो अनुभव थई शकतो नथी तेथी निश्चयनो पक्ष पण अहीं छोडाववामां आव्यो छे. निश्चयना आश्रयने छोडवानी वात नथी, निश्चयना पक्षने छोडवानी वात छे. निश्चयना पक्षने पण छोडी निश्चय स्वरूपनो जे आश्रय करे छे ते तत्त्ववेदी निरंतर पोताना शुद्ध चैतन्य-स्वरूपने अनुभवे छे. ए ज कहे छे-

‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे. आत्मा ज्ञानना प्रकाशस्वरूप स्वपरना प्रकाशना सामर्थ्यवाळुं शुद्ध चैतन्य तत्त्व छे. तेनुं अंतरमां लक्ष करीने धर्मी जीवो तेने जेवो छे तेवो सदाय चित्स्वरूपे अनुभवे छे.

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* कळश ८९ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘बद्ध अबद्ध, मूढ अमूढ, रागी अरागी, द्वेषी अद्वेषी, कर्ता अकर्ता, भोक्ता अभोक्ता, जीव अजीव, सूक्ष्म स्थूल, कारण अकारण, कार्य अकार्य, भाव अभाव, एक अनेक, सान्त अनन्त, नित्य अनित्य, वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, द्रश्य अद्रश्य, वेद्य अवेद्य, भात अभात इत्यादि नयोना पक्षपात छे.’

आशय एम छे के वस्तु जे आत्मद्रव्य छे ते बद्ध अबद्ध आदि विकल्पथी भिन्न छे. चैतन्यप्रकाशमय प्रभु आत्मा वीतरागी शीतळस्वरूपनो पिंड जिनचंद्र छे. तेमां बद्ध अबद्ध वगेरे विकल्प नथी. हुं अबद्ध छुं एवो विकल्प पण तेना स्वरूपमां नथी. चैतन्यघन प्रभु आत्मा विकल्पथी तन्मय नथी तो ते विकल्प वडे केम प्राप्त थाय? न थाय. तेथी ज आचार्य कहे छे के भाई! व्यवहारनो पक्ष तो अमे पहेलेथी छोडाव्यो छे, पण निश्चयना पक्षथी पण तुं विरमी जा, केमके नयोना पक्षथी विराम पामी अंतर्द्रष्टि करतां आत्मा प्राप्त थाय एवो छे.

अहीं बधा वीस बोल कह्या छे. तेमां कारण अकारणनो एक बोल छे. ते विशे थोडी वधु स्पष्टता करवामां आवे छे. आत्मामां अकारणकार्य नामनो एक गुण छे. अकारणकार्यत्व आत्मानो स्वभाव छे. तेथी आत्मा रागनुं कारण पण नथी अने रागनुं कार्य पण नथी.

भगवान आत्मा एकला चैतन्यप्रकाशनुं पुर छे. तेमां राग कयां छे? नथी. तो ते रागनुं कारण केम होय? न होय. ते रागनुं कार्य पण केम होय? न ज होय. जो ते रागनुं कार्य होय तो स्वयं रागमय ज होय (चैतन्यमय न होय); अने जो ते रागनुं कारण बने तो राग मटी कदीय वीतराग न थाय. पण एम नथी कारण के