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चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७९ ।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८० ।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८१ ।।
[इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ७८.
श्लोकार्थः– [कार्य] जीव कार्य छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव कार्य नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ७९.
श्लोकार्थः– [भावः] जीव भाव छे (अर्थात् भावरूप छे) [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव भाव नथी (अर्थात् अभावरूप छे) [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ८०.
श्लोकार्थः– [एकः] जीव एक छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे [च] अने [न तथा] जीव एक नथी (-अनेक छे) [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे;
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चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८२ ।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८३ ।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८४ ।।
[इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ८१.
श्लोकार्थः– [सान्तः] जीव सांत (-अंत सहित) छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव सांत नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ८२.
श्लोकार्थः– [नित्यः] जीव नित्य छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव नित्य नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ८३.
श्लोकार्थः– [वाच्यः] जीव वाच्य (अर्थात् वचनथी कही शकाय एवो) छे
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चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८५ ।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८६ ।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८७ ।।
[एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव वाच्य (-वचनगोचर) नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ८४.
श्लोकार्थः– [नाना] जीव नानारूप छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव नानारूप नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ८प.
श्लोकार्थः– [चेत्यः] जीव चेत्य (-चेतावायोग्य) छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव चेत्य नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ८६.
श्लोकार्थः– [द्रश्यः] जीव द्रश्य (-देखावायोग्य) छे [एकस्य] एवो एक नयनो
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चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८८ ।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ८९।।
पक्ष छे अने [न तथा] जीव चेत्य नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ८७. श्लोकार्थः– [वेद्यः] जीव वेद्य (-वेदावायोग्य, जणावायोग्य) छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव वेद्य नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ८८.
श्लोकार्थः– [भातः] जीव ‘भात’ (प्रकाशमान अर्थात् वर्तमान प्रत्यक्ष) छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव ‘भात’ नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे (अर्थात् तेने चित्स्वरूप जीव जेवो छे तेवो निरंतर अनुभवाय छे).
भावार्थः– बद्ध अबद्ध, मूढ अमूढ, रागी अरागी, द्वेषी अद्वेषी, कर्ता अकर्ता, भोकता अभोकता, जीव अजीव, सूक्ष्म स्थूल, कारण अकारण, कार्य अकार्य, भाव अभाव, एक अनेक, सान्त अनन्त, नित्य अनित्य, वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, द्रश्य अद्रश्य, वेद्य अवेद्य, भात अभात इत्यादि नयोना पक्षपात छे. जे पुरुष नयोना
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मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम्।
अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम्।। ९०।।
पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः।
यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं
कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः।। ९१।।
कथन अनुसार यथायोग्य विवक्षापूर्वक तत्त्वनो-वस्तुस्वरूपनो निर्णय करीने नयोना पक्षपातने छोडे छे ते पुरुषने चित्स्वरूप जीवनो चित्स्वरूपे अनुभव थाय छे.
जीवमां अनेक साधारण धर्मो छे परंतु चित्स्वभाव तेनो प्रगट अनुभवगोचर असाधारण धर्म छे तेथी तेने मुख्य करीने अहीं जीवने चित्स्वरूप कह्यो छे. ८९.
उपरना २० कळशना कथनने हवे समेटे छेः-
श्लोकार्थः– [एवं] ए प्रमाणे [स्वेच्छा–समुच्छलद्–अनल्प–विकल्प–जालाम्] जेमां बहु विकल्पोनी जाळो आपोआप ऊठे छे एवी [महतीं] मोटी [नयपक्षकक्षाम्] नयपक्षकक्षाने (नपपक्षनी भूमिने) [व्यतीत्य] ओळंगी जई (तत्त्ववेदी) [अन्तः बहिः] अंदर अने बहार [समरसैकरसस्वभावं] समता-रसरूपी एक रस ज जेनो स्वभाव छे एवा [अनुभूतिमात्रम् एकम् स्वं भावम्] अनुभूतिमात्र एक पोताना भावने (-स्वरूपने) [उपयाति] पामे छे. ९०.
हवे नयपक्षना त्यागनी भावनानुं छेल्लुं काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [पुष्कल–उत्–चल–विकल्प–वीचिभिः उच्छलत्] पुष्कळ, मोटा, चंचळ विकल्परूप तरंगो वडे ऊठती [इदम् एवम् कृत्स्नम् इन्द्रजालम्] आ समस्त इंद्रजाळने [यस्य विस्फुरणम् एव] जेनुं *स्फुरण मात्र ज [तत्क्षणं] तत्क्षण [अस्यति] भगाडी मूके छे [तत् चिन्महः अस्मि] ते चिन्मात्र तेजःपुंज हुं छुं.
भावार्थः– चैतन्यनो अनुभव थतां समस्त नयोना विकल्परूपी इंद्रजाळ ते क्षणे ज विलय पामे छे; एवो चित्प्रकाश हुं छुं. ९१.
_________________________________________________________________ * स्कुरण = फरकवुं ते; धनुष्य-टंकार करवो ते.
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नयपक्षना विकल्प आवे छे तेथी शुं? जे आत्मा ते बन्ने नयपक्षोने ओळंगी गयो छे ते ज समयसार छे, -एम हवे गाथामां कहे छेः-
‘जीवमां कर्म बद्ध छे’ एवो जे विकल्प तथा ‘जीवमां कर्म अबद्ध छे’ एवो जे विकल्प ते बन्ने नयपक्ष छे.
शुं कहे छे? जीव कर्मथी बंधायो छे अने जीव कर्मथी बंधायो नथी एवा जे विकल्प ते बन्ने नयपक्ष छे. मतलब के स्वरूप तो पक्षातिक्रान्त छे; एटले जे आ नयपक्षमां ऊभो छे ते स्वरूपमां गयो नथी, तेने स्वरूपनो अनुभव नथी.
‘जे ते नयपक्षने अतिक्रमे छे (-ओळंगी जाय छे, छोडे छे), ते ज सकळ विकल्पने अतिक्रम्यो थको पोते निर्विकल्प, एक विज्ञानघनस्वभावरूप थईने साक्षात् समयसार थाय छे.’
जे नयपक्षने अतिक्रमे छे एटले के नयपक्षना सर्व विकल्पोनो-रागनो त्याग करे छे ते सर्व विकल्पोने छोडतो थको पोते निर्विकल्प एक विज्ञानघनस्वभावरूप थईने साक्षात् समयसार थाय छे. भगवान आत्मा पोते निर्विकल्प विज्ञानघनस्वभावमय वस्तु छे. जे नयपक्षना विकल्पथी हठी अंतरसन्मुख थाय छे तेओने साक्षात् भगवान समयसार प्राप्त थाय छे.
पहेलांना वखतमां शियाळामां घी एवां आवतां के तेमां आंगळी तो खूंचे नहि पण तावेथो नाखो तो ते पण वळी जाय. आवां कठण घी पहेलां जामी जतां. तेम आ भगवान आत्मा विज्ञानघनस्वरूप छे. तेमां दया, दान आदि स्थूळ रागनो तो शुं ‘हुं अबद्धस्वरूप आत्मा छुं’ एवा सूक्ष्म विकल्पनो पण प्रवेश थतो नथी. आत्मा विज्ञानघन छे एटले पर्यायना पण प्रवेशथी रहित एकरूप त्रिकाळी द्रव्य छे. अहीं कहे छे-जे नयपक्षने छोडीने त्रिकाळी द्रव्यमां द्रष्टि करे छे ते एक विज्ञानघनस्वभावरूप थईने ज्ञान ज्ञानरूपे घट्ट जामीने साक्षात् समयसार थाय छे, अर्थात् साक्षात् आत्मा जेवो छे तेवो उपलब्ध करे छे.
दया पाळवी, व्रत पाळवां, दान करवुं, भक्ति करवी-इत्यादि व्यवहारनी क्रिया करतां करतां धर्म थशे ए वात तो कयांय रही गई. अहीं तो कहे छे के ‘हुं अबद्ध-स्पृष्ट छुं, निश्चयथी शुद्ध छुं, मुक्त छुं’-एवा सूक्ष्म रागना पक्षथी पण आत्मा समकित पामतो नथी. अहो! आवी अंतरनी वात दिगंबरनां शास्त्रो सिवाय बीजे कयांय नथी. जैन परमेश्वरनो अनादि सनातन मार्ग ते आ छे. कह्युं छे ने के-नागा बादशाहथी
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आघा! समाज समतोल रहेशे के नहि वा समाज आ वात मानशे के नहि एवी जेणे दरकार करी नथी एवा महान संतोनी आ वाणी छे.
अंदर भगवान आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे. हुं अबद्धस्पृष्ट छुं एवो जे विकल्प ते एने स्पर्शतो नथी; केमके विकल्प छे ते औदयिक भाव छे, ज्यारे भगवान आत्मा परमपारिणामिकभावरूप छे. तो आवो आत्मा सकळ विकल्पने छोडतो थको साक्षात् समयसार थाय छे एटले शुं? ‘सकळ विकल्पने छोडतो थको’-एम कह्युं ए तो उपदेशनी शैलि छे. एनो अर्थ एम छे के द्रष्टि अंतरमां वाळतां विकल्प बधा छूटी जाय छे अने त्यारे आत्मानो साक्षात् अनुभव थई जाय छे. आ विकल्प छे तेने छोडुं छुं एम (विकल्प) छे नहि. (अंतर्द्रष्टि पूर्वक मात्र अनुभव छे.)
श्री कुंदकुंदाचार्यदेव भावपाहुडमां कहे छे के जीवे बहारथी द्रव्यमुनिपणां अनंतवार धारण कर्यां छे. पंच महाव्रत, पांच समिति इत्यादि अठ्ठावीस मूलगुणनुं पालन एणे अनंतवार कर्युं छे. परंतु ए तो बधो राग छे. ते राग शुद्ध वस्तुमां-आत्मामां कयां छे? जे आत्मामां नथी एनाथी आत्मा केम पमाय? अहीं कहे छे के रागनो सूक्ष्म पक्ष रही जाय ते पण अंदर जवामां बाधाकारक छे. हुं अखंड, अभेद परमात्मद्रव्य छुं, एवो जे विकल्प ते पण नुकशानकर्ता छे. अहीं कह्युं ने के-सकळ विकल्पने छोडतो निर्विकल्प एक विज्ञानघनस्वभावरूप थईने जीव साक्षात् समयसार थाय छे. मतलब के अंतर्मुखाकार थतां आत्मा जेवो परमात्मस्वरूपे छे तेवो अनुभवमां आवे छे. हवे कहे छे-
‘‘त्यां (विशेष समजाववामां आवे छे)-जे ‘जीवमां कर्म बद्ध छे’ एम विकल्प करे छे ते ‘जीवमां कर्म अबद्ध छे’ एवा एक पक्षने अतिक्रमतो होवा छतां विकल्पने अतिक्रमतो नथी.’’
शुं कहे छे? भगवान आत्माने कर्मनो संबंध छे एवा विकल्पना पक्षमां जे ऊभो छे ते ‘जीवमां कर्म अबद्ध छे’ एवा विकल्पने छोडे छे; केमके एक समये बे विकल्प केम होई शके? ‘अबद्ध’ना विकल्पने ते छोडे छे तोपण ते विकल्पने अतिक्रमतो नथी; केमके एक पक्षनो विकल्प तो छे ज. हवे कहे छे-
‘‘अने जे ‘जीवमां कर्म अबद्ध छे’ एम विकल्प करे छे ते पण ‘जीवमां कर्म बद्ध छे’ एवा एक पक्षने अतिक्रमतो होवा छतां विकल्पने अतिक्रमतो नथी.’’ परद्रव्य साथे मारे संबंध नथी, हुं अबद्ध छुं एवा विकल्पमां जे ऊभो छे ते ‘जीवमां कर्म बद्ध छे’ एवा एक पक्षने छोडे छे तोपण विकल्पने अतिक्रमतो नथी, केमके हुं अबद्ध छुं एवा पक्षने ते ग्रहण करे छे.
वाणिया वेपार-धंधानी धमालमां आखो दिवस रोकाई रहे एटले आवी वातो
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झीणी पडे, पण शुं थाय? (फुरसद लेवी जोईए). भाई! जगतथी तद्न जुदी एवी आ परम सत्य वात बहार आवी छे. कहे छे-तुं अंदर प्रभु छो ने! तारुं स्वरूप ज परमात्मस्वरूप छे. अरे! हुं परमात्मस्वरूप छुं एवो विकल्प पण कयां एने स्पर्शे छे? अहाहा...! वस्तु छे त्रिकाळ जे द्रव्यस्वभाव तेमां कर्मनो संबंध छे ज नहि. अहीं कहे छे के हुं कर्मना संबंधरहित अबद्ध छुं एवो जेने विकल्प छे ते ‘जीवमां कर्म बद्ध छे’ एवा विकल्पने छोडे छे, पण ‘अबद्ध’ना विकल्पने छोडतो नथी. आवो आ मार्ग बहु सूक्ष्म भाई! भगवान पूर्णानंदनो नाथ चैतन्यहीरलो-तेने ‘हुं आवो छुं’ एवो विकल्प विघ्नकर्ता छे.
हवे त्रीजो बोल कहे छे-पाठमां बे बोल छे. टीकाकार आचार्य त्रण बोलथी वर्णन करे छे.
‘‘वळी जे ‘जीवमां कर्म बद्ध छे अने अबद्ध पण छे’ एम विकल्प करे छे ते, ते बन्ने पक्षने नहि अतिक्रमतो थको विकल्पने अतिक्रमतो नथी.’’ जुओ, -
१ जीवमां कर्म बद्ध छे एवो विकल्प करनार अबद्धना विकल्पने छोडे छे पण विकल्पने छोडतो नथी.
२ जीवमां कर्म अबद्ध छे एवो विकल्प करनार बद्धना विकल्पने छोडे छे पण विकल्पने छोडतो नथी, अने
३ जीवमां कर्म बद्ध पण छे अने अबद्ध पण छे एवो विकल्प करनार ते बंने पक्षने नहि अतिक्रमतो थको विकल्पने छोडतो नथी. बन्नेना पक्षमां ऊभो छे ते विकल्पने अतिक्रमतो नथी.
आ प्रमाणे नयपक्ष छे त्यां सुधी विकल्प छे अने विकल्प छे ते संसार छे. विकल्प छे ते शुद्ध आत्मानी प्राप्तिमां विघ्नकर्ता छे.
१ बद्धस्पृष्ट छुं एवो विकल्प अथवा २ अबद्धस्पृष्ट छुं एवो विकल्प अथवा ३ बद्ध छुं अने अबद्ध पण छुं एवो विकल्प-ए सघळा विकल्प संसार छे, केमके शुद्ध चैतन्यस्वरूपमां आ बधा विकल्पोनो अभाव छे. अहाहा...! व्रत करवां, दया पाळवी, भक्ति- पूजा करवां इत्यादि शुभना स्थूळ विकल्पो तो कयांय (संसार खाते) रही गया; अहीं तो जेवी वस्तु छे तेवो विकल्प ऊठे ते पण जीवने नुकशानकर्ता छे. समजाय छे कांई....? आ तो सर्वज्ञनो मार्ग बापु! धर्म बहु सूक्ष्म चीज छे भाई! श्रीमद् राजचंद्र कहे छे ने के-
अनाथ एकान्त सनाथ थाशे, एना विना कोई न बाह्य स्हाशे.
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बद्धस्पृष्ट अने अबद्धस्पृष्टना नयपक्षने छोड, प्रभु! अने अंतर्द्रष्टि कर. ते सर्वज्ञनो धर्म छे अने ते ज शरण छे, आराध्य छे. ए ज हवे कहे छे-
‘तेथी जे समस्त नयपक्षने अतिक्रमे छे ते ज समस्त विकल्पने अतिक्रमे छे; जे समस्त विकल्पने अतिक्रमे छे ते ज समयसारने प्राप्त करे छे-अनुभवे छे.’
अहीं समस्त नयपक्षने छोडवानी वात छे. ‘भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो’-भूतार्थने आश्रये जीव सम्यग्द्रष्टि थाय छे-एम जे गाथा ११ मां कह्युं छे त्यां नयपक्षना विकल्पनी वात नथी. त्यां तो भूतार्थ एटले छती शाश्वत चीज शुद्ध चैतन्यस्वभावमय वस्तु भगवान आत्माने शुद्धनय कहेल छे अने तेना आश्रये जे स्वानुभव प्रगट थाय तेने सम्यग्दर्शन कह्युं छे. ज्यारे अहीं तो हुं आवो छुं एवा नयपक्षने छोडवानी वात छे. आत्मा अबद्धस्पृष्ट छे ए तो सत्य छे. अहीं अबद्धस्पृष्ट आत्माने छोडवानी वात नथी पण ‘हुं अबद्धस्पृष्ट छुं’ एवो जे नयपक्षनो विकल्प छे तेने अहीं छोडवानुं कहे छे केमके जे समस्त विकल्पने छोडे छे ते ज समयसारने प्राप्त करे छे-अनुभवे छे.
प्रश्नः– अबद्धस्पृष्टनो पक्ष छोड एम कह्युं तो शुं अंदर (अबद्धस्पृष्ट सिवायनी) कोई बीजी चीज छे?
उत्तरः– ना, एम नथी. अंदर वस्तु त्रिकाळी भगवान आत्मा अबद्धस्पृष्ट ज छे. भगवाने पण आत्मा अबद्धस्पृष्ट ज जोयो छे. भले (वाणीमां) तेनो विस्तार विशेष न थई शके पण वस्तु सामान्य जे छे ते एवी ज छे; अने तेना ज आश्रये सम्यग्दर्शन आदि धर्म थाय छे. पण ‘हुं अबद्धस्पृष्ट छुं’ एवो जे विचार छे ते नयपक्ष छे. ए नयपक्षने जे ओळंगे छे ते समस्त विकल्पने अतिक्रमे छे, अने जे समस्त विकल्पने अतिक्रमे छे ते भगवान समयसारने प्राप्त करे छे-अनुभवे छे. नयपक्षने जे अतिक्रमतो नथी तेने निज स्वरूपनो अनुभव थतो नथी. अरे भाई! नयपक्षना विकल्पने जे पोतानुं कर्तव्य माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे अने तेने आत्मा प्राप्त थतो नथी.
सर्व विकल्पनुं लक्ष छोडी, अंदर शुद्ध अभेद एकाकार चैतन्यस्वभावी भूतार्थ वस्तु छे तेनी द्रष्टि करतां आत्मा जेवो छे तेवो प्राप्त थाय छे. आ सिवाय बीजी कोई रीत के बीजो कोई उपाय नथी. व्यवहारथी थाय के परथी थाय एवुं वस्तुना स्वरूपमां ज नथी. निर्विकल्प अनुभवथी आत्मा प्राप्त थाय एवो छे पण व्यवहारथी के विकल्पथी प्राप्त थाय एवुं एनुं स्वरूप नथी.
प्रश्नः– तो शुं व्रत, तप आदि व्यवहारनी क्रिया करीए ते कांई नहि?
उत्तरः– हा, ते कांई नहि. सम्यग्दर्शन विना ए बधां थोथेथोथां छे. जे
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व्यवहारनी क्रिया छे ए तो राग छे. भले शुभराग हो, पण एनाथी भगवान आत्मा कयां तन्मय छे? जेनाथी जे तन्मय नथी एनाथी ते प्राप्त केम थाय? शुभरागथी आत्मा तन्मय नथी तो एनाथी ते केम प्राप्त थाय? न ज थाय.
व्यवहारना पक्षवाळाने आ आकरुं लागे हो; तेने दुःख थाय. दुःख थाय तो भाई! क्षमा करजे, पण मार्ग तो आवो ज छे प्रभु! बापु! तुं भगवानस्वरूप छो ने! तने दुःख थाय एवी वात कोई न करे. पण वस्तुनी स्थिति ज आवी छे त्यां शुं थाय? आ तो वस्तुना स्वरूपनी तारा हितनी वात छे भाई!
हुं मुक्तस्वरूप छुं, परमात्मस्वरूप छुं, परमब्रह्म परमेश्वर छुं-इत्यादि वृत्तिनुं जे उत्थान थाय ते पण नुकशानकारक छे तो पछी व्यवहाररत्नत्रयना विकल्पनी शुं कथा? अहा! आ तो शास्त्र आम कहे छे. आ वीतरागनी वाणी छे भाई! के जे समस्त नयपक्षने छोडे छे ते ज समस्त विकल्पने छोडे छे अने ते ज समयसारने प्राप्त करे छे. ए वळी कयो समयसार छे? द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मथी रहित पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप एवा समयसारने प्राप्त थाय छे. प्राप्तनी प्राप्ति थाय छे. (शक्तिरूपे) जे प्राप्त हतो तेनी प्राप्ति थाय छे. बापु! आ तो तारा हितनी वात छे. बधा आत्मा भगवान छे ने नाथ!
श्रीमदे कह्युं छे ने के-
‘‘बहु पुण्यकेरा पुंजथी, शुभ देह मानवनो मळ्यो
महापुण्यने लईने आवो आ मनुष्यभव मळ्यो छतां भवचक्रनो एकेय आंटो टळ्यो नहि. खूब गंभीर वात प्रभु! निगोदना जीवने त्रसपणुं मळवुं महादुर्लभ छे. एवा स्थानमांथी पण नीकळीने तुं मनुष्यपर्यायमां आव्यो, संज्ञी पंचेन्द्रिय थयो, त्रणलोकना नाथ वीतराग सर्वज्ञदेवनी वाणी तने काने पडी. हवे आ बहारनो संबंध तोडी, समस्त विकल्पने मटाडी, विज्ञानघनस्वभावी आत्मानो अनुभव प्रगट कर. तेथी चार-गतिना अति दुःखमय भवभ्रमणनो अंत आवशे.
आत्मा निर्विकल्प आनंदस्वरूप चैतन्य महाप्रभु छे. ते भगवान आत्मा चोरासीना अवतार करवा योग्य नथी. आत्मा तो परमात्मपदनी प्राप्तिने योग्य छे. अहा! सर्वार्थ-सिद्धि देवलोकमां उपजवुं एवी पण आत्मानी योग्यता नथी. भव अने भवनो भाव आत्माना स्वभावमां नथी. तुं भव अने भवना भावथी रहित छो प्रभु! माटे समस्त विकल्पने छोडी तने तुं प्राप्त कर. (आ अवसर छे).
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मसाणमां हाडकांनो फोस्फरस चमके छे तेम आ शरीरनी सुंदरता ए हाड-चामनी चमक छे. ए बधी बहारनी चीजना आकर्षणमां जे जीव रोकाई गयो छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. अने आ नयपक्षना विकल्पमां रोकाईने एमां जे अटकी गयो छे ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. नयपक्षने जे अतिक्रमतो नथी तेने समयसारनी-भगवान आत्मानी प्राप्ति थती नथी.
भाई! एकवार श्रद्धामां हा तो पाड के आ आत्मा विकल्परहित विज्ञानघन-स्वभावरूप वस्तु छे. तेनी प्राप्ति थाय एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. कह्युं ने के-
‘य एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति स एव समयसारं विन्दति’ जे समस्त विकल्पने अतिक्रमे छे ते ज समयसारने प्राप्त करे छे. आ आत्मा शुद्ध ज्ञायकस्वभावी परमात्म-स्वरूप छे. एने जे अंतरसन्मुख थई जाणे अने अनुभवे ते आत्मज्ञान अने आत्मदर्शन छे अने त्यांथी धर्मनी शरूआत थाय छे.
‘‘जीव कर्मथी ‘बंधायो छे’ तथा ‘नथी बंधायो’-ए बन्ने नयपक्ष छे. तेमांथी कोईए बंधपक्ष पकडयो, तेणे विकल्प ज ग्रहण कर्यो; कोईए अबंधपक्ष पकडयो, तेणे पण विकल्प ज ग्रहण कर्यो; अने कोईए बन्ने पक्ष पकडया, तेणे पण पक्षरूप विकल्पनुं ज ग्रहण कर्युं.’’
जुओ, जेने नयपक्ष छे ते ज्ञानना अंशमां रागने भेळवे छे. ज्ञानने जुदुं पाडतो नथी. बंध अने अबंधना पक्षवाळो विकल्पनुं ज ग्रहण करे छे, ते आत्माने ग्रहतो नथी. तेवी रीते बंध पण छे अने अबंध पण छे-एम बन्ने पक्षने पकडे छे ते पण विकल्पने ज ग्रहण करे छे, पण आत्माने ग्रहतो नथी. आ प्रमाणे नयपक्षमां जे रोकायो छे ते आत्माना अनुभवने प्राप्त थतो नथी. हवे कहे छे-
‘‘परंतु एवा विकल्पोने छोडी जे कोई पण पक्ष न पकडे ते ज शुद्ध पदार्थनुं स्वरूप जाणी ते-रूप समयसारने-शुद्धात्माने-पामे छे. नयपक्ष पकडवो ते राग छे, तेथी समस्त नयपक्षने छोडवाथी वीतराग समयसार थवाय छे.’’
जुओ, ब्रह्मचारी क्षुल्लक धर्मदासजी आत्मज्ञानी हता. तेमणे ‘सम्यग्ज्ञान दीपिका’ नामनुं शास्त्र लख्युं छे. तेमां द्रष्टांत आप्युं छे के-पूर्ववाळो कहे के पश्चिममां छे, पश्चिमवाळो कहे के पूर्वमां छे, उत्तरवाळो कहे के दक्षिणमां छे, दक्षिणवाळो कहे के उत्तरमां छे. परंतु ए तो ज्यां छे त्यां ज छे. वळी त्यां ज (सम्यग्ज्ञान दीपिकामां) कह्युं छे के-सूर्यना प्रकाशमां कोई पाप करे, पुण्य करे, कुशील सेवे-तेमां सूर्यने शुं? तेम भगवान आत्मा ज्ञाननो सूर्य छे. तेना प्रकाशमां कोई रागादि विकल्प आवी जाय तो ज्ञानने शुं? ज्ञान तो रागने जाणनारुं छे. आत्मा ज्ञानस्वरूपी प्रभु छे. ते स्वरूपमां रागनुं तो अडवुं (स्पर्श) य नथी. आशय एम छे के भगवान ज्ञायकस्वभावी चैतन्य-
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ज्योतिस्वरूप आत्मा जेने द्रष्टिमां आव्यो छे तेने पर्यायमां जे रागादि दोष होय तेनो ते जाणनार छे, कर्ता नथी.
ज्ञानीनो भोग निर्जरानुं कारण छे एम निर्जरा अधिकारमां आवे छे. तेनो अर्थ एम छे के ज्ञानस्वरूपी आत्मानो जेने अनुभव थयो छे तेने रागादिभाव जे आवे ते खरवा माटे छे. ज्ञानीना बधा भावो ज्ञानमय ज छे एम कह्युं छे त्यां आशय एम छे के ज्ञानी जे विकल्प आवे तेनुं ज्ञान करे छे. जे विकल्प छे तेनुं ज्ञान पोताथी उत्पन्न थाय छे अने ज्ञानी ते ज्ञानना कर्ता छे, पण विकल्पना कर्ता नथी. जे प्रकारनो विकल्प होय ते ज प्रकारनी ज्ञानमां स्वपरप्रकाशक पर्याय पोताथी उत्पन्न थाय छे.
परमार्थ वचनिकामां कह्युं छे के-आगमपद्धतिनो व्यवहार सुगम छे, अध्यात्म-पद्धतिनो व्यवहार कठण छे. शुद्ध परिणति प्रगट करवी ते अध्यात्मपद्धतिनो व्यवहार छे. विकल्पोने छोडी जे कोई पण पक्षने न पकडे ते ज शुद्ध पदार्थनुं स्वरूप जाणी ते-रूप समयसारने पामे छे. नयपक्ष पकडवो ते राग छे, तेथी समस्त नयपक्षने छोडवाथी वीतराग समयसार थवाय छे. हुं अबद्धस्पृष्ट छुं-एवो नयपक्ष पण राग छे. तेथी समस्त नयपक्ष छोडवाथी वीतराग समयसार थवाय छे.
हवे ‘जो आम छे तो नयपक्षना त्यागनी भावनाने खरेखर कोण न नचावे?’ एम कहीने श्रीमान् अमृतचंद्राचार्य नयपक्षना त्यागनी भावनानां २३ कळशरूप काव्यो कहे छेः-
नयपक्षना त्यागनी भावनाने खरेखर कोण न नचावे? मतलब के आत्मा वस्तु- द्रष्टिथी अबद्ध छे अने पर्यायनी अपेक्षाए बद्ध छे. आ बंने नयपक्ष छे; तेथी बंने पक्षोने छोडी दई, पोताना स्वभावनी निर्विकल्प द्रष्टि करीने अनुभव करवो ते नयपक्षना त्यागनी भावना छे.
आ आत्मा त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप चैतन्यसूर्य छे. ते पर्यायमां जे राग छे तेनी साथे तन्मय नथी. निश्चयथी ज्ञानस्वभाव आत्मद्रव्य साथे तन्मय छे. स्वभाव स्वभाववान साथे तन्मय छे. आत्मा चैतन्यसूर्य छे. जेम सूर्यना प्रकाशमां कोई प्राणी गमे ते क्रियाकांड करतो होय तेमां सूर्यना प्रकाशने शुं? एनाथी तेने लाभेय नथी अने एनाथी तेने डाघेय नथी. (कांई संबंध नथी). तेम एक समयनी पर्यायने गौण करीने जोतां आत्मा अनादिअनंत नित्यानंद- स्वरूप प्रभु चैतन्यज्योतिमय छे. तेने दया, दान, व्रतादिना रागपरिणाम साथे तो संबंध नथी, पण हुं आवो छुं, आवो नथी-इत्यादि नयपक्षना विकल्प (-राग) साथे पण कांई संबंध नथी. तेथी विकल्परहित थईने जे आत्माने अनुभवे छे ते समकिती छे. तेने नयपक्षना त्यागनी भावना छे.
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आचार्य कहे छे के नयपक्षना त्यागनी भावनाने कोण न नचावे? आम कहीने हवे ते संबंधी २३ कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘ये एव’ जेओ ‘नयपक्षपातं मुक्त्वा’ नयपक्षपातने छोडी-एटले के हुं एक छुं, शुद्ध छुं, अभेद छुं, अबद्ध छुं-इत्यादि जे वृत्ति ऊठे छे तेनो त्याग करी ‘स्वरूपगुप्ताः’ स्वरूपमां गुप्त थई ‘नित्यम’ सदा ‘निवसन्ति’ रहे छे ‘ते एव’ तेओ ज ‘विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः’ जेमनुं चित्त विकल्पजाळथी रहित शांत थयुं छे एवा थया थका, ‘साक्षात् अमृतं पिबन्ति’ साक्षात् अमृतने पीए छे.
जुओ, हुं एक छुं, अबद्ध छुं इत्यादि जे वृत्ति ऊठे छे ते नयपक्षनो विकल्प छे. तेनो जे त्याग करे छे ते स्वरूपमां सदा गुप्त थईने रहे छे. जुओ, आ त्याग. बाह्य चीजनां ग्रहण- त्याग तो स्वरूपमां छे नहि. अहीं तो एक समयनी अवस्थामां जे नयपक्षना विकल्प ऊठे छे तेना त्यागनी भावनानी वात छे.
बापु! जेना फळरूपे स्वरूपनो स्वाद-एकला अमृतनो अनुभव थाय ते चीज कोई अलौकिक छे! ते बाह्य त्यागथी प्राप्त थाय एवी चीज नथी. निमित्ताधीनद्रष्टिवाळाने वात आकरी लागे पण मार्ग तो आ ज परम सत्य छे. निमित्त निमित्त तरीके छे. (निमित्तनी कोण ना पाडे छे?) पण उपादाननी अपेक्षाए, स्वनी अपेक्षाए ते असत् छे. पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपना भान विना दया, दान, व्रत, तपना राग वडे धर्म माने पण ए बधुं संसार खाते छे, भाई! अहीं कहे छे-हुं बद्ध छुं, हुं अबद्ध छुं-एवा नयपक्षोने जे समस्त त्यागे छे ते स्वरूपमां सदा गुप्त रहे छे. अहा! भगवान आत्मा बद्ध-अबद्धना विकल्पथी प्राप्त थाय एवी चीज नथी तो दया, दान इत्यादिना विकल्पथी ते केम प्राप्त थाय? मार्ग सूक्ष्म छे, भाई! पण प्रथम साचो निर्णय तो करवो पडशे ने?
जुओ, कंदमूळनी एक कटकीमां असंख्य औदारिक शरीर छे अने एकेक शरीरमां अनंता निगोदना जीव छे. प्रत्येक जीव एक श्वासमां १८ भव करे छे. एक श्वासमां १८ वखत जन्म- मरण करनार निगोदना जीवना दुःखनी शी वात! ए तो अकथ्य छे. एवा अकथ्य दुःखथी छूटवाना उपायनी आ वात छे. पर्यायमां दुःख छे अने स्वरूप दुःख-मुक्त छे-ए बन्ने नयपक्ष छे, विकल्प छे अने ए बन्ने विकल्पनो जाणनार आत्मा छे. स्वद्रव्यनी द्रष्टिमां जतां बंने विकल्प छूटी जायछे. चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टि थतां विकल्प छूटी जाय छे तो तेने छोडे छे, त्यागे छे एम कहेवामां आवे छे.
आनंदनो नाथ प्रभु आत्मा छे. तेने, जेम घाणीमां तल पीलाय तेम, रागथी पीली नाख्यो छे. जडकर्मे तेने पील्यो छे एम नथी. आ वस्तु पोते भगवान स्वरूप छे तेने तें विकल्पना पक्षमां रगदोळी नाख्यो छे.
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पं. श्री टोडरमलजीनो हाथीना पग नीचे चगदाईने देह-विलय थयो. हाथी पग उपाडतां अचकायो. त्यारे पं. टोडरमलजीए हाथीने संबोधन करी कह्युं-अरे हाथी! राजानो हुकम छे, तुं शा माटे डरे छे? तारा स्वामीना हुकमनुं पालन कर. अहा! हाथीए पग उपाडयो त्यां क्षणमां देह छूटी गयो. बसो वर्ष अगाउ केवो करुण बनाव बनी गयो! अरे कोई जैन ते रोकवा हाजर नहीं! समकिती इन्द्र पण हाजर न थयो! अरे भाई! क्रमबद्धमां देहनी जे स्थिति थवानी होय ते त्यां थाय. तेने फेरववा कोण समर्थ छे? कोई नहि. स्वरूपना भान सहित समभावपूर्वक क्षणमां देह छूटी गयो. अहीं कहे छे-भगवान तें नयपक्षना विकल्पो हेठळ निर्मळानंदना नाथ भगवान आत्माने चगदी नाख्यो छे. भाई! हुं एक छुं, अबंध छुं, पवित्रतानो पिंड छुं-एवो नयपक्षनो जे विकल्प छे ते राग छे अने ते आत्मानी शांतिने दझाडनारो छे; तो पछी अन्य स्थूळ विकल्पोनुं तो शुं कहेवुं?
जेमणे नयपक्षने छोडी दीधा छे तेओ स्वरूपमां गुप्त थईने सदा रहे छे. नयपक्षना विकल्पने जे पोतानो माने छे ते बहिरात्मा छे, अने नयपक्षने छोडीने जे स्वरूपमां गुप्त थाय छे ते अंतरात्मा छे. वस्तु सहजानंदस्वरूप ज्ञानस्वरूप छे. तेनी सन्मुख थतां स्वरूपमां गुप्त थवाय छे. जेओ स्वरूपमां गुप्त थईने रहे छे तेमनुं चित्त विकल्पजाळथी रहित शांत थाय छे. विकल्प छे ए तो अशांति छे. हुं शुद्ध छुं, चैतन्यस्वरूप छुं -एवो जे विकल्प छे ते अशांति छे. विकल्प मटतां शांति छे.
भगवान आत्मा शांतरसनो सागर छे. तेमां निमग्न थईने, डूबकी मारीने ज्ञानीनुं चित्त शांत-शांत थयुं छे. आ समकितीनी क्रिया छे. धर्मीने अशांति छूटीने शांति प्रगट थई छे अने एवा थया थका ते साक्षात् अमृतने पीए छे. छे ने-‘ते एव साक्षात् अमृतं पिंबन्ति’ - तेओ ज-जेओ नयपक्षरहित थया छे तेओ ज विकल्परहित थईने साक्षात् अमृतने पीए छे. अहाहा...! भगवान आत्मा नित्य अमृतस्वरूप छे तेमां एकाग्र थईने तेओ साक्षात् अमृतने अनुभवे छे, पर्यायमां निराकुळ आनंदने अनुभवे छे. आ ज सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने धर्म छे.
भाई! आ भवनो अभाव करवानो अवसर छे. भगवान फरमावे छे के आ भव अनंतभवना अभाव माटे छे. तो तारुं स्वरूप छे त्यां तुं जा ने! तारामां परवस्तु नथी. दया, दान आदिनो राग पण नथी अने नयपक्षना विकल्प पण तारा स्वरूपमां नथी. हुं आवो छुं- एवो विकल्प पण तारी चीजमां कयां छे? प्रभु! तुं तो निर्विकल्प सहजानंदस्वरूप-एकला आनंदनो समुद्र छो. सर्व विकल्प छोडीने तेमां डूबकी लगाव, तेमां ज मग्न थई जा. ए ज सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्मनी क्रिया छे. धर्मी जीवो आ रीते ज साक्षात् अमृत पीए छे, प्रत्यक्ष अमृतनुं पान करे छे.
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आवी वात सांभळीने लोको कहे छे-आ तो निश्चयाभास छे, आगमविरुद्ध छे. अरे भाई! तने आगमनी खबर नथी. आगममां तो वीतरागता प्रगट करवानो उपदेश छे. परंतु वीतरागता कयारे थाय? तो कहे छे-नयपक्षना विकल्पो मटाडीने पोताना ज्ञाताद्रष्टा-स्वरूपमां समाई जाय त्यारे वीतरागरसरूप अमृतनो पर्यायमां अनुभव थाय छे, अने एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. आ सिवाय व्रत, तप इत्यादि बाह्य क्रिया रणमां पोक मूकवा जेवी छे. बहारनी क्रियाना विकल्पो ए तो रागनी क्रिया छे. रागनी क्रिया छे ते संसारसमुद्र छे अने भगवान आत्मा चैतन्यनो-आनंदनो समुद्र छे. अहो! संतोए सुगम शैलीथी कथन करीने मोक्षनो पंथ बताव्यो छे.
नयपक्षनुं जे एकत्व छे ते दर्शनमोह छे. श्रीमदे नथी लख्युं? के-
त्यां दर्शनमोह एटले नयपक्षना विकल्पजाळना एकत्वनो व्यय थईने ज्ञान उत्पन्न थयानी वात छे अने ए ज सम्यग्ज्ञान छे, धर्म छे. जैन परमेश्वरे जे कही छे ते ज वस्तु छे. ते सिवाय वस्तुनुं बीजुं कोई स्वरूप नथी. जेओ नयपक्षने ओळंगीने साक्षात् वस्तुमां- आत्मामां निमग्न थाय छे तेओ ज वीतरागरसरूप अमृतनुं पान करे छे.
‘ज्यांसुधी कांई पण पक्षपात रहे छे त्यांसुधी चित्तनो क्षोभ मटतो नथी.’
जुओ व्रत, तप इत्यादिना विकल्प छे ते शुभराग छे. एनो पक्षपात रहे त्यांसुधी चित्तमां क्षोभ रहे छे ए तो ठीक. अहीं कहे छे-हुं शुद्ध छुं, अभेद एकरूप चिद्रूप छुं-एवो निजस्वरूप संबंधी नयपक्षनो विकल्प ज्यांसुधी उठे त्यांसुधी चित्तनो क्षोभ मटतो नथी. ए नयपक्षनो विकल्प पण क्षोभ छे, आकुळता छे. हवे कहे छे-
‘ज्यारे नयोनो सर्व पक्षपात मटी जाय त्यारे वीतराग दशा थईने स्वरूपनी श्रद्धा निर्विकल्प थाय छे, स्वरूपमां प्रवृत्ति थाय छे अने अतीन्द्रिय सुख अनुभवाय छे.’
शुं कह्युं आ? ज्यारे नयोनो सर्व पक्षपात मटी जाय छे त्यारे वीतराग दशा थाय छे, स्वरूपनी श्रद्धा निर्विकल्प थाय छे. जुओ चोथे गुणस्थाने जे सम्यग्दर्शन थाय छे ते निर्विकल्प एटले रागरहित वीतरागी परिणाम छे. एम नथी के जीव ११ मा अने १२ मा गुणस्थाने ज वीतराग दशा पामे छे. सम्यग्दर्शन छे ए वीतरागी दशा छे, भाई!
हुं एक छुं, शुद्ध चिद्रूप छुं, अबद्ध छुं-एवा जे नय-विकल्पो अर्थात् रागनी लागणीओ छे ते छूटी जाय छे त्यारे वीतराग दशा थईने स्वरूपनुं श्रद्धान निर्विकल्प थाय छे. भाई! आ तारी स्वदयानी वात छे. तारुं जीवन ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप छे. राग के विकल्प तारुं जीवन नथी. तारामां एक जीवत्वशक्ति अनादिथी रहेली
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छे. आ जीवत्वना कारणे दर्शन, ज्ञान आदि चैतन्यस्वरूप भावप्राणथी तुं जीवी रह्यो छे. आवा शक्तिवान द्रव्यने तुं पकड. अनंत शक्तिओनो पिंड प्रभु आत्मा छे; तेने पकडतां निर्विकल्प वीतरागदशा थाय छे अने ए ज सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप तारुं जीवन छे.
व्यवहार साधन छे अने ते करतां करतां आगळ वधाशे, आत्मस्वरूपनी प्राप्ति थशे एवी तारी मान्यता मिथ्या शल्य छे. भाई! तुं अनादिथी आ मिथ्या शल्यमां रोकाईने संसारमां (चार गतिमां) रझळतो थको दुःखी थयो छे. माटे गुलांट मार अने सावधान था. वीतराग सर्वज्ञदेवनी वाणीमां एम कह्युं छे के-
ज्यारे नयोनो सर्व पक्षपात मटी जाय छे त्यारे- १. वीतरागदशा थाय छे, निर्विकल्पदशा थाय छे २. स्वरूपनी श्रद्धा निर्विकल्प थाय छे. ३. स्वरूपमां प्रवृत्ति थाय छे. रागमां प्रवृत्ति हती ते छूटीने स्वरूपमां प्रवृत्ति थाय छे. अने
४. अतीन्द्रिय सुख अनुभवाय छे.
अहाहा...! आवी वात आकरी लागे एटले जीवो आगमपद्धतिनो व्यवहार अनादिथी करे छे अने अध्यात्मपद्धतिना व्यवहारनी उपेक्षा करे छे. शुद्ध परिणति, वीतराग परिणति प्रगट थाय ते अध्यात्मपद्धतिनो व्यवहार छे अने ते प्रगट थाय त्यारे ज जीवने अतीन्द्रिय सुखनो अनुभव थाय छे. आ ज मार्ग छे.
हवेना २
जे छोडे छे ते तत्त्ववेदी (तत्त्वनो जाणनार) स्वरूपने पामे छे.
‘बद्ध’ जीव कर्मथी बंधायेलो छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे अने ‘न तथा’ जीव कर्मथी बंधायेलो नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे; ‘इति’ आम ‘चिति’– चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे. ‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चिंत् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे (अर्थात् तेने चित्स्वरूप जीव जेवो छे तेवो निरंतर अनुभवाय छे)
बहु झीणी अने ऊंची वात छे प्रभु! प्रथम ज्ञानमां एवो पक्षपात आवे छे के वस्तु आ ज छे; पछी ते पक्षपातरूप विकल्पने मटाडीने जे अनुभव थाय ते धर्म छे. आ आत्मधर्मनी वात छे. स्तवनमां आवे छे के-‘होंशीला होंश न कीजीए’-मतलब
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के आ बाह्य वैभव अने शरीरनी सुंदरता देखीने तेमां होंश न कर, भाई! अने रागनी- व्यवहारनी बाह्य क्रियामां पण होंश न कर. अहा! अंदर सुंदर नाथ-भगवान चित्स्वरूप बिराजे छे; तो होंश करीने त्यां जा ने! लोकोने एकान्त जेवुं लागे, पण एम नथी. निश्चयथी ज प्राप्त थाय अने व्यवहारथी न थाय-एनुं नाम अनेकान्त छे. तत्त्ववेदी चित्स्वरूप पोताने निरंतर चित्स्वरूपे ज वेदे छे.
आठ वर्षनी बालिका सम्यग्दर्शन पामे छे तो आत्माने (पोताने) चित्स्वरूपे ज वेदे छे, अनुभवे छे. अरे! देडको-मेढक पण अंदर पोताना स्वरूपमां जाय त्यारे एने शुद्ध चैतन्यना आनंदनुं वेदन आवे छे. देडकानुं शरीर तो माटी-धूळ अजीव तत्त्व छे. पण ते बहारनुं लक्ष छोडीने अंतर-स्वरूपमां जाय त्यारे तेने अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे. अहाहा...! तत्त्ववेदी धर्मीजीव चित्स्वरूपने (पोताने) चित्स्वरूपे ज निरंतर अनुभवे छे. एक समयनो पण आंतरो पडया विना धर्मीने निरंतर चैतन्य-मूर्ति झळहळज्योतिस्वरूप भगवान आनंदस्वरूपे ज अनुभवाय छे.
आ तो चोथा गुणस्थाननी वात छे. पांचमा अने छठ्ठा गुणस्थाननी तो शी वात! उपरना गुणस्थाने तो जे प्रचुर आनंदनो अनुभव छे ए तो कोई अद्भुत अलौकिक चीज छे! व्यवहारना आग्रहवाळाने एम लागे के अमारी तुच्छता बतावीने निंदा करे छे. बापु! आ निंदा नथी. भगवान! तारी निंदा न होय. तुं भगवान छे ने! पण पर्यायमां जे भूल छे तेनुं अहीं ज्ञान करावे छे. आ तो तारा परम हितनी वात छे. तने एमां दुःख लागे, पण हे मित्र! हे सज्जन! धर्मनुं स्वरूप ज आवुं छे. तारुं चैतन्यस्वरूप एकला आनंदथी भरेलुं छे; त्यां तुं जा ने! तने अवश्य आनंद थशे. प्रभु! जाणनारने जाण अने देखनारने देख. तारी चीजने अंतरमां देखतां ते चित्स्वरूप ज देखाय छे, आनंदस्वरूप ज अनुभवाय छे. बस आ ज मार्ग छे. लोकोने लागे के आ तो निश्चयनो मार्ग! हा, मार्ग तो निश्चयनो ज छे, अने निश्चयनो छे एटले सत्यनो मार्ग छे.
अहीं आ श्लोकमां त्रण वात करी छे. १. जीव कर्मथी बंधायेलो छे एवो एक व्यवहारनयनो पक्ष छे, २. जीव कर्मथी बंधायेलो नथी एवो बीजो निश्चयनयनो पक्ष छे, अने ३. जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे तेने निरंतर चित्स्वरूप जीव जेवो छे तेवो अनुभवाय छे.
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‘आ शास्त्रमां प्रथमथी ज व्यवहारनयने गौण करीने अने शुद्धनयने मुख्य करीने कथन करवामां आव्युं छे. चैतन्यना परिणाम परनिमित्तथी अनेक थाय छे ते सर्वने पहेलेथी ज आचार्य गौण कहेता आव्या छे अने जीवने शुद्ध चैतन्यमात्र कह्यो छे.’
छठ्ठी अने अगियारमी गाथामां पहेलेथी ज पर्यायने गौण करीने आचार्य कथन करता आव्या छे. भगवान आत्मा प्रमत्त पण नथी, अप्रमत्त पण नथी, एकमात्र ज्ञायक प्रभु छे; ते शुभाशुभभावना स्वभावे कदीय थतो नथी एवो चैतन्यस्वरूप ज्ञायक त्रिकाळ छे-एम पर्यायने गौण करीने प्रथमथी आ शास्त्रमां कथन करता आव्या छे. पर्यायने गौण करीने एटले के पेटामां राखीने, अभाव करीने नहि, आ शास्त्रमां निरूपण करवामां आव्युं छे. पर्याय छे नहि एम अभाव करीने नहि पण गौण करीने एटले के पेटामां राखीने कथन करवामां आव्युं छे.
पर्यायमां राग-द्वेषना जे भावो थाय छे तेने पहेलेथी ज गौण करता आव्या छे. ते भावो शुद्ध आत्मद्रव्यमां नथी तेथी ते भावो अभूतार्थ छे, भगवान आत्मा एक भूतार्थ छे. चैतन्यना परिणाम परनिमित्तथी (रागादिरूप) अनेक प्रकारना थाय छे एनो अर्थ ए के सामे बीजी चीज निमित्त छे जेना लक्षे अनेक प्रकारना रागादि परिणाम थाय छे. बस आटलुं ज; एनो अर्थ एम नथी के परनिमित्त अनेक प्रकारना परिणाम करावे छे. निमित्तना लक्षे थाय छे तेने निमित्तथी थाय छे एम कहेवामां आवे छे.
आ देह तो मृतक कलेवर छे. अत्यारे हों, अत्यारेय ए मडदुं छे. तेमां अमृत-सागर प्रभु आत्मा मूर्छाई गयो छे. शरीरनां चळकाट, नमणाई, उजळाश वगेरे देखीने अमृतनो नाथ मूर्छा पाम्यो छे. पण देह तो एना काळे छूटवानो ज छे. अहीं कहे छे के देह प्रत्येनो राग तो शुं, व्रतादि संबंधी थता विकल्पनो राग पण मृतक छे, मडदुं छे; केमके चैतन्यनो तेमां अभाव छे. आवी रागनी पर्यायने पहेलेथी ज आचार्य गौण कहेता आव्या छे, अने जीवने शुद्ध चैतन्यमात्र कह्यो छे. हवे कहे छे-
‘ए रीते जीव पदार्थने शुद्ध, नित्य, अभेद, चैतन्यमात्र स्थापीने हवे कहे छे के-आ शुद्ध नयनो पण पक्षपात (विकल्प) करशे ते पण ते शुद्ध स्वरूपना स्वादने नहि पामे. अशुद्धनयनी तो वात ज शी? पण जो कोई शुद्धनयनो पण पक्षपात करशे तो पक्षनो राग नहि मटे तेथी वीतरागता नहि थाय.’
अहो! आ समयसार तो परम दैवी भागवत शास्त्र छे! कहे छे-‘शुद्ध’नो आश्रय छोडी ‘शुद्ध’ नो पक्षपात-विकल्प करशे तेने शुद्ध स्वरूपनो स्वाद नहि आवे. अरे भाई! आ शरीर कंचनवर्ण होय तोपण काळ पाकतां तत्क्षण छूटी जशे. जुओ,
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एक भाईने लग्न प्रसंगे बरफी, जलेबी वगेरे मीठाई खातां खातां शरीरनी स्थिति बगडी; डबल न्युमोनिया थई गयो. अंदर पीडानो पार नहि, देह छूटवानी तैयारी. ते वखते तेनी पत्नी घरना दरदागीना, तेनी चावीओ वगेरेनी पूछपरछ करवा लागी. आ बाजु दर्दीने असह्य वेदनाने कारणे आंखमांथी चोधार आंसु वही जतां हतां तेवा प्रसंगे धर्मना बे शब्द संभळाववाने बदले पत्नी घरनी पूछपरछ करती हती. केवी विचित्रता! जुओ, आ संसार! नियमसारमां कह्युं छे के-तने जे कुटुंबीजनो मळ्यां छे ते धूतारानी टोळी छे. ‘स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते’ पोतानी आजीविका अर्थे धूतारानी टोळी मळी छे. संसारमां बधां स्वार्थनां ज सगां छे. अरे भाई! क्षणमां देह छूटी जशे. जगतमां कोई शरण नथी. शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु एक ज शरण छे एम समजी आ मनुष्यभवमां पोतानुं हित करी लेवा जेवुं छे.
आचार्यदेव व्यवहारने तो गौण करावता आव्या छे अने हवे कहे छे के-जे कोई शुद्धनयनो पक्षपात करशे ते पण शुद्धस्वरूपना स्वादने नहि पामे. अशुद्धनयनी तो वात ज शी? हुं रागवाळो छुं, पुण्यवाळो छुं, व्यवहारनुं पालन करनारो छुं-एम जेनी द्रष्टि छे एनी तो वात ज शी? ए तो आत्मानुभवथी दूर छे ज. अहीं तो एम कहे छे के जे शुद्धनयनो पण पक्षपात करशे तेने आत्मानुभव प्रगट नहि थाय, वीतरागता नहि थाय. झीणी वात छे, भाई! पहेलां व्यवहारने तो गौण करी तेनो निषेध कराव्यो छे. हवे शुद्धनयना पक्षपातने- विकल्पने पण छोडवानी वात करे छे.
भाई! तुं तारी दया कर! तुं जेवडो छे तेवडो तने मान; ओछो के अधिक मानीश तो तारी दयाने बदले तारी हिंसा थशे. भाई! आ जुवानी झोलां खाय छे; कयारे देह छूटी जशे एनो शुं भरोसो? आ देह तारी चीज नथी. देहमां तुं नथी अने तारामां देह नथी. देह तने अडतोय नथी. अने देह संबंधी ममताना जे विकल्प थाय छे तेय तने अडता नथी. खरेखर तो विकल्परहित निर्विकल्प तारुं स्वरूप छे. अहीं कहे छे-हुं निर्विकल्प छुं एवा शुद्धनयनो पण पक्षपात करीश तो तने पक्षनो राग नहि मटे तेथी वीतरागता नहि थाय. हवे कहे छे-
‘पक्षपातने छोडी चिन्मात्रस्वरूप विषे लीन थये ज समयसारने पमाय छे. माटे शुद्धनयने जाणीने, तेनो पण पक्षपात छोडी शुद्ध स्वरूपनो अनुभव करी, स्वरूप विषे प्रवृत्तिरूप चारित्र प्राप्त करी, वीतरागदशा प्राप्त करवी योग्य छे.’
‘मूढः’ जीव मूढ (मोही) छे ‘एकस्य’ एवो एक नयनो पक्ष छे. आ कर्ता-कर्मनो अधिकार सूक्ष्म छे. कहे छे-जीव मूढ छे, मोही छे एवो व्यवहारनयनो एक
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पक्ष छे. भगवान आत्मा परम पवित्रस्वरूप प्रभु पर्यायमां राग-द्वेष-मोह सहित छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. हवे कहे छे-
‘न तथा’ जीव मूढ (मोही) नथी ‘परस्य’ एवो बीजा नयनो पक्ष छे. भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यस्वरूप छे, तेमां मोह नथी एवो निश्चयनयनो पक्ष छे.
जीवमां मोह छे ए व्यवहारनयनो पक्ष छे. एनो तो पहेलेथी ज निषेध करवामां आव्यो छे. अहीं हवे शुद्ध परमात्मद्रव्यमां मोह नथी एवा निश्चयनयना पक्षनो पण निषेध करवामां आवे छे. आत्मा शुद्ध सच्चिदानंदमय प्रभु पवित्रतानुं धाम छे, तेमां मोह नथी एवो जे निश्चयनयनो पक्ष छे ते पण एक विकल्प छे, राग छे अने ते बंधनुं कारण छे. हुं मोही नथी एवो जे विकल्प थाय ते शुभराग छे अने ते मारुं कर्तव्य छे एम जे माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. आकरी वात प्रभु!
भाई! जन्म-मरणना अंतनो मार्ग कोई जुदी जातनो छे. दया, दानना विकल्पथी पुण्यनो बंध थाय छे; पण एनाथी भविष्यमां कर्मनो क्षय थशे एम कोई माने तो ते मिथ्या अभिप्राय छे. आत्मा मोहरहित चैतन्यमूर्ति भगवान छे-एवा निश्चयनयना पक्षमां जे ऊभो छे ते विकल्पमां ऊभो छे. ए विकल्प बंधनुं कारण छे, मुक्तिनुं नहि.
‘इति’ आम ‘चिति’ चित्स्वरूप जीव विषे ‘द्वयोः’ बे नयोना ‘द्वौ पक्षपातौ’ बे पक्षपात छे.
जुओ, कोई महाव्रतादि अंगीकार करे अने तेनी बाह्य क्रियाना विकल्प-राग मारा छे अने एनाथी मारुं कल्याण थशे एम माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. आ स्थूळ वात थई.
अहीं सूक्ष्म राग छे ते छोडवानी वात छे. हुं एक अभेद आत्मा छुं, मोह रहित छुं एवो जे विकल्प थाय ते राग छे, ते नयपक्ष छे, अने ते बंधनुं कारण छे, जन्म-मरणनी संततिने वधारनार छे. ज्ञानी आ बन्ने नयपक्षने छोडी दई चैतन्यस्वरूप आत्माने तेवो ज अनुभवे छे.
‘यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः’ जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे. ‘तस्य’ तेने ‘नित्यं’ निरंतर ‘चित्’ चित्स्वरूप जीव ‘खलु चित् एव अस्ति’ चित्स्वरूप ज छे.
जे तत्त्ववेदी एटले शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्माने अनुभवनारो-स्पर्शनारो छे ते बंने नयोना पक्षपात रहित थयो छे. अहाहा...! बन्ने नयोना पक्षपातनो जेणे त्याग कर्यो छे ते चित्स्वरूप आत्माने ते जेवो छे तेवो चित्स्वरूप ज अनुभवे छे, अने तेनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. बाकी मंदिरो बनावे, उत्सवो उजवे, वरघोडा काढे, वाजां वगडावे इत्यादि बहारनी धमाल तो राग छे, धर्म नथी. ए बधी उपर-उपरनी क्रियाओ छे अने एमां कदाच शुभभाव होय तो ते पुण्यबंधनुं कारण छे पण धर्म नथी. आवी वात छे.