Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 137-142.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 67 of 210

 

PDF/HTML Page 1321 of 4199
single page version

करतां श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे-‘‘हे कुंदकुंदादि आचार्यो! तमारां वचनो आत्म-स्वरूपना अनुसंधानमां हेतुभूत थयां छे तेथी तमने भक्तिभावे नमस्कार हो.’’ ए आ वचनो छे.

जुओ, उदय आव्यो माटे मिथ्यात्वादिरूप जीव परिणमे छे एम नथी. मिथ्यात्वादिना भाव पण जीव स्वतंत्रपणे करे छे अने त्यारे नवां कर्म पण स्वतंत्रपणे बंधाय छे. जूनां कर्मनो उदय पण स्वतंत्र छे. उदयकाळे जो जीव पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनी द्रष्टि करे तो आवेलो उदय छूटी जाय छे, नवा बंधनमां हेतु थतो नथी.

आत्मा शुद्ध-पवित्र ज्ञान अने आनंदनो पिंड प्रभु छे. अहाहा...! रागरहित वीतरागस्वभावी निर्विकल्पस्वरूप निज आत्मा छे. आवा आत्माना अतीन्द्रिय आनंदना स्वादनो जे अनुभव करे ते ज्ञानीने जूनां कर्मनो उदय नवां कर्मना बंधनुं कारण थतो नथी. परंतु जूनां कर्मना उदयमां जोडाईने मिथ्यात्व अने रागद्वेषना भाव जे जीव करे छे तेने जूनां कर्मनो उदय, नवा कर्मबंधननुं कारण थाय छे.

भाई! आ वीतराग परमेश्वर सर्वज्ञ बादशाहनो अलौकिक मार्ग छे! अहा! दिगंबर मुनिवरो पण जाणे धर्मना (अचल) स्थंभ! कोईनी एमने परवा नहि. नागा बादशाहथी आघा! अंतरमां नग्न अने बहार पण नग्न. मोटा बादशाहनी पण एमने शुं परवा? स्तवनमां आवे छे ने के-‘जंगल वसाव्युं रे जोगीए.’ अहाहा...! जंगलमां आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनी लहेरमां पडेला होय छे. एवी स्थितिमां जरा विकल्प आव्यो अने आवां शास्त्र रचाई गयां छे. तेनी पण मुनिवरोने शुं पडी छे? जंगलमां सूकां ताडपत्रनां पींछां पडयां होय तेना पर कठण सळीथी शास्त्रो लखी जंगलमां मूकी चाल्या जाय छे. त्यां वळी कोई गृहस्थ तेने भेगां करी साचवीने मंदिरमां राखी दे छे. आ समयसार आ रीते लखायेलुं शास्त्र छे.

मुनिवरो प्रमत्त-अप्रमत्तभावमां झूलता होय छे. शास्त्र लखतां लखतां पण क्षणमां निर्विकल्प आनंदनी दशा आवी जाय छे. विहार वखते चालतां चालतां निर्विकल्प स्वरूपमां लीन थई जाय छे. पोणी सेकन्डनी अल्प निद्रा होय छे; तरत जाग्रत थई जाय छे अने आनंदमां लीन थई जाय छे. अहो! आवी अद्भुत अलौकिक मुनिदशा होय छे. परमेश्वरपदमां तेमनुं स्थान छे. सिद्धांतमां (शास्त्रमां) तेमने सर्वज्ञना पुत्र कह्या छे. गौतम गणधर सर्वज्ञना पुत्र छे एम शास्त्रमां कथन छे. सर्वज्ञपदना वारसदार छे ने! तेथी भावलिंगी मुनिवरो भगवान सर्वज्ञदेवना पुत्रो छे. सर्वज्ञपणुं लेवानी अंदर तैयारी थई गई छे. अहा! अंतर- आनंदमां शुं जामी गया होय छे! ए अलौकिक दशा धन्य छे. अहीं कहे छे के जूनां कर्मनो उदय आ मुनिवरोने नवां कर्मबंधननो हेतु थतो नथी; परंतु उदयना निमित्ते स्वयं राग-द्वेष- मोहभावे परिणमता अज्ञानीने जूनां कर्मनो उदय नवा कर्मबंधननुं कारण थाय छे.


PDF/HTML Page 1322 of 4199
single page version

पौद्गलिक मिथ्यात्वादि कर्मना उदयो निमित्तभूत थतां, कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य कर्मभावे स्वयमेव परिणमे छे अने जीवमां निबद्ध थाय छे, त्यारे जीव स्वयमेव पोताना अज्ञानमय परिणामभावोनो हेतु थाय छे. कर्मना उदयने लईने जीवने विकारी भाव थाय छे एम नथी. जीव स्वयमेव अज्ञानथी स्वपरना एकत्वना अध्यासने लीधे मिथ्यात्वादि भावोनो हेतु थाय छे.

आत्मा शुद्ध ज्ञायक ते स्व अने राग पर-ए बन्नेना एकपणानो अज्ञानीने चिरकाळथी अध्यास छे. अहीं कहे छे जूनां कर्मना उदयकाळे ज्यारे नवां कर्म जीवमां बंधाय छे त्यारे स्वपरना एकत्वना अध्यासने कारणे जीव स्वयमेव तत्त्व-अश्रद्धान आदि पोताना अज्ञानमय भावरूपे परिणमे छे अने ते भावनो पोते ज हेतु थाय छे. नवां कर्म बंधाय तेनो जीव हेतु नथी.

जूनां कर्मनो उदय आव्यो ते नवा कर्मबंधनमां हेतु छे. अज्ञानीने राग-शुभराग गळे वळग्यो छे. त्रिकाळी शुद्ध चैतन्य साथे क्षणिक रागना भावने एक मानी परिणमतां तेने थता विकारना परिणाम नवा कर्मबंधमां निमित्त थाय छे; त्यारे जूनां कर्म नवा कर्मबंधमां हेतु थाय छे एम कहेवामां आवे छे. विकारना परिणाम छे ते जीवनो स्वभाव नथी, माटे कह्युं के जूनां कर्मनो उदय नवा कर्मबंधनो हेतु छे. पण कोने? जे पोताना चैतन्यस्वभावने भूलीने विभावपणे परिणमे छे एवा मिथ्याद्रष्टिने जूनां कर्मनो उदय नवा बंधनो हेतु बने छे. आवी वात छे.

* गाथा १३२ थी १३६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानभावना भेदरूप जे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगना उदयो ते पुद्गलना परिणाम छे अने तेमनो स्वाद अतत्त्वश्रद्धानादिरूपे ज्ञानमां आवे छे.

ते उदयो निमित्तभूत थतां, कार्मणवर्गणारूप नवां पुद्गलो स्वयमेव ज्ञानावरणादि कर्मरूपे परिणमे छे अने जीव साथे बंधाय छे; अने ते समये जीव पण स्वयमेव पोताना अज्ञानभावथी अतत्त्वश्रद्धानादि भावोरूपे परिणमे छे अने ए रीते पोताना अज्ञानमय भावोनुं कारण पोते ज थाय छे.’

जुओ, कर्मनो उदय आवे माटे जीवने विकार करवो ज पडे ए वात जूठी छे. वळी कर्म खसे तो धर्म थाय ए वात पण बराबर नथी. विकाररूपे जीव स्वयं परिणमे छे अने धर्मना परिणाम पण स्वयं पोताथी प्रगट थाय छे. कर्मनुं निमित्त हो, पण जीवना परिणाम स्वयं पोताथी थाय छे. जीव स्वयमेव पोताना अज्ञानभावथी विकारीभावरूप मिथ्यात्वादि राग-द्वेष- मोहरूप भावे परिणमे छे, अने ए रीते पोताना अज्ञानमय भावोनुं कारण पोते थाय छे.


PDF/HTML Page 1323 of 4199
single page version

‘मिथ्यात्वादिनो उदय थवो, नवां पुद्गलोनुं कर्मरूपे परिणमवुं तथा बंधावुं, अने जीवनुं पोताना अतत्त्वश्रद्धानादि भावोरूपे परिणमवुं-ए त्रणेय एक समये ज थाय छे; सौ स्वतंत्रपणे पोतानी मेळे ज परिणमे छे, कोई कोईने परिणमावतुं नथी.’

जुनां कर्मनो उदय आवे ते स्वतंत्र, ते समये पुद्गलोनुं नवा कर्मरूपे परिणमवुं अने बंधावुं ते पण स्वतंत्र अने जीवमां मिथ्यात्वादि भावोनुं परिणमवुं ए पण स्वतंत्र छे. त्रणे एक ज समयमां थाय छे, पण सौ पोतपोतानी मेळे ज परिणमे छे; कोई कोईने परिणमावतुं नथी.

[प्रवचन नं १८८ शेष, १८९ चालु * दिनांक १७-९-७६ अने १८-९-७६]

PDF/HTML Page 1324 of 4199
single page version

जीवात्पृथग्भूत एव पुद्गलद्रव्यस्य परिणामः–

जइ जीवेण सह च्चिय पोग्गलदव्वस्स कम्मपरिणामो।
एवं पोग्गलजीवा हु दो वि कम्मत्तमावण्णा।। १३७ ।।
एक्कस्स दु परिणामो पोग्गलदव्वस्स कम्मभावेण।
ता जीवभावहेदूहिं विणा कम्मस्स परिणामो।। १३८ ।।

यदि जीवेन सह चैव पुद्गलद्रव्यस्य कर्मपरिणामः।
एवं पुद्गलजीवौ खलु द्वावपि कर्मत्वमापन्नौ।। १३७ ।।

एकस्य तु परिणामः पुद्गलद्रव्यस्य कर्मभावेन।
तज्जीवभावहेतुभिर्विना कर्मणः परिणामः।। १३८ ।।

जीवथी जुदुं ज पुद्गलद्रव्यनुं परिणाम छे एम हवे प्रतिपादन करे छेः-

जो कर्मरूप परिणाम, जीव भेळा ज, पुद्गलना बने,
तो जीवने पुद्गल उभय पण कर्मपणुं पामे अरे! १३७.
पण कर्मभावे परिणमन छे एक पुद्गलद्रव्यने,
जीवभावहेतुथी अलग, तेथी, कर्मना परिणाम छे. १३८.

गाथार्थः– [यदि] जो [पुद्गलद्रव्यस्य] पुद्गलद्रव्यने [जीवेन सह चैव] जीवनी साथे ज [कर्मपरिणामः] कर्मरूप परिणाम थाय छे (अर्थात् बन्ने भेळां थईने ज कर्मरूपे परिणमे छे) एम मानवामां आवे तो [एवं] ए रीते [पुद्गल–जीवौ द्वौ अपि] पुद्गल अने जीव बन्ने [खलु] खरेखर [कर्मत्वम् आपन्नौ] कर्मपणाने पामे. [तु] परंतु [कर्मभावेन] कर्मभावे [परिणामः] परिणाम तो [पुद्गगलद्रव्यस्य एकस्य] पुद्गलद्रव्यने एकने ज थाय छे [तत्] तेथी [जीवभावहेतुभिः विना] जीवभावरूप निमित्तथी रहित ज अर्थात् जुदुं [कर्मणः] कर्मनुं [परिणामः] परिणाम छे.

टीकाः– जो पुद्गलद्रव्यने, कर्मपरिणामना निमित्तभूत एवा रागादि-अज्ञानपरिणामे परिणमेला जीवनी साथे ज (अर्थात् बन्ने भेगां मळीने ज), कर्मरूप परिणाम थाय छे-एम वितर्क करवामां आवे तो, जेम भेळां थयेलां हळदर अने


PDF/HTML Page 1325 of 4199
single page version

फटकडी बन्नेने लाल रंगरूप परिणाम थाय छे तेम, पुद्गलद्रव्य अने जीव बन्नेने कर्मरूप परिणाम आवी पडे. परंतु पुद्गलद्रव्यने एकने ज कर्मपणारूप परिणाम तो थाय छे; तेथी जीवनुं रागादि-अज्ञानपरिणाम के जे कर्मनुं निमित्त छे तेनाथी जुदुं ज पुद्गलकर्मनुं परिणाम छे.

भावार्थः– जो पुद्गलद्रव्य अने जीव भेळां थईने कर्मरूपे परिणमे छे एम मानवामां आवे तो बन्नेने कर्मरूप परिणाम ठरे. परंतु जीव तो जड कर्मरूपे कदी परिणमी शकतो नथी; तेथी जीवनुं अज्ञानपरिणाम के जे कर्मने निमित्त छे तेनाथी जुदुं ज पुद्गलद्रव्यनुं कर्मपरिणाम छे.

* * *
समयसार गाथा १३७–१३८ः मथाळुं

जीवथी जुदुं ज पुद्गलद्रव्यनुं परिणाम छे एम हवे प्रतिपादन करे छेः-

* गाथा १३७–१३८ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जो पुद्गलद्रव्यने, कर्मपरिणामना निमित्तभूत एवा रागादि-अज्ञानपरिणामे परिणमेला जीवनी साथे ज (अर्थात् बंने भेगां मळीने ज), कर्मरूप परिणाम थाय छे-एम वितर्क करवामां आवे तो, जेम भेळां थयेलां हळदर अने फटकडी बन्नेने लालरंगरूप परिणाम थाय छे तेम, पुद्गलद्रव्य अने जीव बन्नेने कर्मरूप परिणाम आवी पडे.’

जुओ, जीवे रागद्वेष कर्या माटे कर्मने बंधावुं पडयुं एम नथी एम कहे छे. जीवे रागना परिणाम पोतामां स्वतंत्र कर्या छे अने ते समये जड कर्म जे नवुं बंधाय ते पण स्वतंत्रपणे थाय छे. जीव अने पुद्गल बंने मळीने पुद्गलद्रव्यना कर्मरूप परिणाम थाय छे एम नथी.

पुद्गलद्रव्य नवा कर्मरूपे परिणमे छे तेमां जीवना रागादि परिणाम निमित्त छे. जीवे रागद्वेष कर्या अने ते काळे नवां कर्मनुं बंधन थयुं त्यां जीवना परिणाम अने पुद्गल कर्मनी पर्याय बंने मळीने ते कर्मनो बंध थयो छे एम नथी. अज्ञानी रागद्वेषना परिणाम करे छे ते नवा कर्मबंधमां निमित्त छे, परंतु ते बंने भेगा मळीने जड कर्मबंधना परिणाम थाय छे एम नथी.

पुद्गलद्रव्य अने जीवना रागादि परिणाम-ए बंने भेगा मळीने कर्मरूप परिणाम थाय छे एवो वितर्क करवामां आवे तो ते खोटो छे. केमके जो एम स्वीकारवामां आवे तो जेम हळदर (पीळी) अने फटकडी (सफेद) बंने भेगा मळीने लाल रंग थाय छे तेम पुद्गलद्रव्य अने जीव बन्नेने कर्मरूप परिणाम आवी पडे. परंतु एम छे नहि.


PDF/HTML Page 1326 of 4199
single page version

नवुं कर्म जे बंधाय छे ते कर्मपरिणाम पुद्गलद्रव्यथी पोताथी स्वतंत्रपणे थाय छे. जुओ आ आंगळी हले छे ते पुद्गलनी पर्याय छे अने तत्संबंधी जे विकल्प थयो ते जीवनी पर्याय छे. ते बंने मळीने आंगळी हलवानी क्रिया थई छे एम छे नहि. पुद्गलनी पर्याय पुद्गलथी स्वतंत्रपणे थई छे अने जीवनी पर्याय जीवथी स्वतंत्रपणे थई छे. अज्ञानीए एम मानी लीधुं छे के विकल्प पण हुं करुं छुं अने आंगळीनी अवस्था पण हुं करुं छुं. परंतु ए तो एनुं अज्ञान छे. कोई द्रव्यना परिणाम कोई अन्य द्रव्य करी शकतुं नथी. समये समये दरेक द्रव्यना परिणाम स्वतंत्रपणे पोतपोताथी थाय छे.

जो पुद्गलद्रव्य अने जीव भेळां थईने कर्मरूपे परिणमे छे एम मानवामां आवे तो ते बंनेने कर्मरूप परिणाम ठरे. ‘परंतु पुद्गलद्रव्यने एकने ज कर्मपणारूप परिणाम तो थाय छे; तेथी जीवनुं रागादि-अज्ञानपरिणाम के जे कर्मनुं निमित्त छे तेनाथी जुदुं ज पुद्गलकर्मनुं परिणाम छे.’

जीवने कर्मपणारूप परिणाम थतुं नथी केमके जड कर्मरूपे जीव कदीय परिणमी शकतो नथी. जो पुद्गल अने जीव बन्ने मळीने कर्मपरिणामरूप थाय तो जीव जडपुद्गल थई जाय, जीवनी कोई अवस्था रहे ज नहि. पण एम बनतुं नथी. पुद्गल-द्रव्य एकने ज कर्मपणारूप परिणाम थाय छे. तेथी जीवनुं अज्ञानपरिणाम के जे नवा कर्मबंधनुं निमित्त छे तेनाथी जुदुं ज पुद्गलद्रव्यनुं कर्मपरिणाम छे.

* गाथाः १३७–१३८ भावार्थ *

जो पुद्गलद्रव्य अने जीव भेळां थईने कर्मरूपे परिणमे छे एम मानवामां आवे तो बन्नेने कर्मरूप परिणाम ठरे. परंतु जीव तो जडकर्मरूपे कदी परिणमी शकतो नथी; तेथी जीवनुं अज्ञानपरिणाम के जे कर्मने निमित्त छे तेनाथी जुदुं ज पुद्गलद्रव्यनुं कर्मपरिणाम छे.

[प्रवचन नं. १८९ (चालु) * दिनांक १८-९-७६]

PDF/HTML Page 1327 of 4199
single page version

पुद्गलद्रव्यात्पृथग्भूत एव जीवस्य परिणामः–

जीवस्स दु कम्मेण य सह परिणामा हु होंति रागादी।
एवं जीवो कम्मं च दो वि रागादिमावण्णा।। १३९ ।।
एक्कस्स दु परिणामो जायदि जीवस्स रागमादीहिं।
ता कम्मोदयहेदूहिं विणा जीवस्स परिणामो।। १४० ।।
जीवस्य तु कर्मणा च सह परिणामाः खलु भवन्ति रागादयः।
एवं जीवः कर्म च द्वे अपि रागादित्वमापन्ने।। १३९ ।।

एकस्य तु परिणामो जायते जीवस्य रागादिभिः।
तत्कर्मोदयहेतुभिर्विना जीवस्य परिणामः।। १४० ।।

पुद्गलद्रव्यथी जुदुं ज जीवनुं परिणाम छे एम हवे प्रतिपादन करे छेः-

जीवना, करम भेळा ज, जो परिणाम रागादिक बने,
तो कर्म ने जीव उभय पण रागादिपणुं पामे अरे! १३९.
पण परिणमन रागादिरूप तो थाय छे जीव एकने,
तेथी ज कर्मोदयनिमित्तथी अलग जीवपरिणाम छे. १४०.

गाथार्थः– [जीवस्य तु] जो जीवने [कर्मणा च सह] कर्मनी साथे ज [रागादयः परिणामाः] रागादि परिणामो [खलु भवन्ति] थाय छे (अर्थात् बन्ने भेळां थईने रागादिरूपे परिणमे छे) एम मानवामां आवे [एवं] तो ए रीते [जीवः कर्म च] जीव अने कर्म [द्वे अपि] बन्ने [रागादित्वम् आपन्ने] रागादिपणाने पामे. [तु] परंतु [रागादिभिः परिणामः] रागादिभावे परिणाम तो [जीवस्य एकस्य] जीवने एकने ज [जायते] थाय छे [तत्] तेथी [कर्मोदयहेतुभिः विना] कर्मोदयरूप निमित्तथी रहित ज अर्थात् जुदुं ज [जीवस्य] जीवनुं [परिणामः] परिणाम छे.

टीकाः– जो जीवने, रागादि-अज्ञानपरिणामना निमित्तभूत एवुं जे उदयमां आवेलुं पुद्गलकर्म तेनी साथे ज (अर्थात् बन्ने भेगां मळीने ज), रागादि-अज्ञानपरिणाम थाय छे- एम वितर्क करवामां आवे तो, जेम भेळां थयेलां फटकडी अने हळदर बन्नेने लाल रंगरूप परिणाम थाय छे तेम, जीव अने पुद्गलकर्म बन्नेने रागादि-अज्ञानपरिणाम


PDF/HTML Page 1328 of 4199
single page version

आवी पडे. परंतु जीवने एकने ज रागादि-अज्ञानपरिणाम तो थाय छे; तेथी पुद्गलकर्मनो उदय के जे जीवना रागादि-अज्ञानपरिणामनुं निमित्त छे तेनाथी जुदुं ज जीवनुं परिणाम छे.

भावार्थः– जो जीव अने पुद्गलकर्म भेळां थईने रागादिरूपे परिणमे छे एम मानवामां आवे तो बन्नेने रागादिरूप परिणाम ठरे. परंतु पुद्गलकर्म तो रागादिरूपे (जीवरागादिरूपे) कदी परिणमी शकतुं नथी; तेथी पुद्गलकर्मनो उदय के जे रागादिपरिणामने निमित्त छे तेनाथी जुदुं ज जीवनुं परिणाम छे.

* * *
समयसार गाथा १३९–१४० मथाळुं

पुद्गलद्रव्यथी जुदुं ज जीवनुं परिणाम छे एम हवे प्रतिपादन करे छेः-

* गाथा १३९–१४०ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जो जीवने, रागादि-अज्ञानपरिणामना निमित्तभूत एवुं जे उदयमां आवेलुं पुद्गलकर्म तेनी साथे ज (अर्थात् बंने भेगां मळीने ज), रागादि-अज्ञानपरिणाम थाय छे-एम वितर्क करवामां आवे तो, जेम भेळां थयेलां फटकडी अने हळदर बन्नेने लालरंगरूप परिणाम थाय छे तेम, जीव अने पुद्गलकर्म बन्नेने रागादि-अज्ञान-परिणाम आवी पडे.’

जीवने जे रागादि-अज्ञानपरिणाम थाय छे तेमां पूर्वनुं जूनुं कर्म निमित्त छे. अहीं एम कहे छे के जीवने जे रागद्वेषना परिणाम थाय छे ते जीव अने पूर्वनुं कर्म ए बन्ने भेगां मळीने थाय छे एम नथी. छतां बंने भेगां मळीने जीवने रागादि-अज्ञानपरिणाम थाय छे एम जो कोई माने तो, जेम भेगां मळेलां हळदर अने फटकडी बन्नेने लालरंगरूप परिणाम थाय छे तेम जीव अने पुद्गल बन्नेने रागादिना परिणाम आवी पडे. एम थतां जड पुद्गलने पण रागद्वेष आवी पडे, अने पुद्गल पोतानी अवस्थाथी खाली ज रहे. एम तो त्यारे ज बने ज्यारे पुद्गल जीवरूप थई जाय वा पुद्गल अने जीव एक थई जाय. परंतु एम तो थतुं नथी.

जीव रागद्वेषना परिणाम स्वतंत्रपणे करे छे, अने ते वेळा नवुं कर्म बंधाय ते पण स्वतंत्रपणे बंधाय छे. जूनां कर्म जे उदयमां आवे छे ते पुद्गलकर्मनी पर्याय पण स्वतंत्रपणे थाय छे. जीव रागद्वेषरूपे स्वयं परिणमे त्यारे साथे जूनां कर्मनो उदय निमित्त छे, पण बन्ने मळीने जीवना रागद्वेषना परिणाम करे छे एम नथी. जीव पण पोताना रागद्वेषना परिणाम करे अने जूनां कर्म पण जीवना रागद्वेषना परिणामने करे एम नथी. अरे भाई! जीवना परिणाम जुदा अने जडकर्म जे उदयमां आव्युं तेना परिणाम पण जुदा छे. जीवे रागद्वेष स्वतंत्रपणे पोताथी कर्या छे, कर्मने


PDF/HTML Page 1329 of 4199
single page version

लईने बिलकुल नहि. विकारना परिणाम पोताना षट्कारकरूप परिणमनथी स्वतंत्र थाय छे, तेमां कर्मनी कोई अपेक्षा नथी.

अज्ञानी एम माने छे के कर्मनो उदय रागद्वेष करावे छे. आ प्रमाणे मानीने ते स्वच्छंदपणे विषय-कषाय सेवे छे. तेने अहीं कहे छे के-भाई! कर्मनो उदय तने रागद्वेष करावतुं नथी, तुं पोते ज ते-रूपे परिणमे छे. पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी अज्ञान-वडे तुं पोते ज रागद्वेषरूपे परिणमे छे.

अहीं कहे छे-जीव अने पुद्गलकर्म बंने मळीने जो जीवने विकार थाय छे एम वितर्क करवामां आवे तो भेगां मळेलां हळदर अने फटकडी बन्नेने लालरंगरूप परिणाम थाय छे तेम जीव अने पुद्गल बन्नेने रागद्वेषना परिणाम थाय एम ठरे. परंतु एम थतुं नथी. जीव एकलो ज रागद्वेषना भावरूपे परिणमे छे. कर्म शुं करे? कर्म तो जड छे, ते जीवना रागादि परिणाम केम करे? आवे छे ने के-

‘कर्म बिचारे कौन भूल मेरी अधिकाई’

जीवने पोतानी भूलथी रागादि अज्ञानमय भाव थाय छे अने ते ज समये सामे जूनां कर्म स्वयं पोताथी उदयमां आवे छे. बस; बन्ने पोतपोतामां स्वतंत्र, कोई कोईना कर्ता नहि. अहा! जगतनो प्रत्येक पदार्थ (पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायथी) स्वतंत्र छे, तेथी कर्मनो उदय आवे तो जीवने विकार करवो पडे एम छे नहि; अने जीवने विकारना परिणाम छे माटे नवां कर्मने बंधावुं पडे छे एम पण छे नहि.

फटकडी सफेद अने हळदर पीळी-ए बन्ने भेगां मळीने लालरंग थाय छे. तेम जीव अने कर्म बन्ने भेगां मळीने जो जीवना रागद्वेष परिणाम करे तो बन्नेने रागादिरूप परिणमन थई जाय. पण जीव एकने ज रागद्वेषना परिणाम थाय छे, कर्मने कांई रागद्वेष थता नथी. कर्मनो उदय छे ते जड पुद्गलनी पर्याय छे अने रागद्वेष छे ते जीवनी विकारी पर्याय छे. तेथी कर्मना उदयथी जीवना रागद्वेषपरिणाम थाय छे ए वात यथार्थ नथी. पोताना अज्ञानथी स्वयमेव जीव रागद्वेषरूपे परिणमे छे अने तेमां जूना कर्मनो उदय निमित्तमात्र छे. जूनां कर्म जीवने विकार थवामां निमित्त हो, पण तेनाथी जुदुं ज जीवनुं परिणाम छे.

जीव पोताथी ज विकारी भाव करे छे, कर्मथी नहि; तथा कर्म पोताथी परिणमे छे, जीवना रागद्वेषथी नहि. प्रत्येक पदार्थ प्रतिसमय पोतानी पर्यायने स्वतंत्रपणे करे छे तेमां बीजानी जरूर कयां छे?

बे वात सिद्ध करीछे.

१. ज्यारे जीव पोतामां, पोताथी स्वतंत्रपणे रागद्वेष करे छे ते समये नवां पुद्गल कर्मरूपे परिणमे छे. ते कर्मरूप परिणामने जीवना रागद्वेष परिणमावे अने


PDF/HTML Page 1330 of 4199
single page version

पुद्गल पण परिणमावे एम नथी. जीव अने पुद्गल बंने मळीने पुद्गलना कर्मरूप परिणाम थता नथी पण एकलुं पुद्गल ज पोते स्वतंत्रपणे कर्मपर्यायपणे परिणमे छे.

२. ज्यारे जीव पोते राग-द्वेषना परिणामरूपे परिणमे छे त्यारे जूना पौद्गलिक कर्मनो उदय तेमां निमित्त होय छे. त्यां जीव अने पुद्गलकर्म बंने मळीने जीवने राग-द्वेषरूपे परिणमावे छे एम नथी. जीव एकलो ज पोते पोताथी स्वतंत्रपणे राग-द्वेषरूपे परिणमे छे. जूनां कर्मनो उदय तो त्यारे निमित्तमात्र छे.

अहाहा...! केटली स्पष्ट वात छे! जीव अने कर्मनो उदय बंने मळीने जीवना राग-द्वेष परिणाम थाय छे एम नथी. आत्मा स्वयं पोताथी विकार करे छे; कर्मना निमित्तथी (करावेलो) विकार थाय छे एम नथी.

जुओ, आ लाकडी ऊंची थाय छे ते क्रिया छे. ते लाकडीथी (परमाणुओथी) स्वतंत्र थई छे. ते क्रिया लाकडीथी पण थई छे अने आंगळीथी पण थई छे-एम बंने मळीने थई छे एम नथी. तथा ते क्रिया लाकडीथी थई छे अने जीवथी थई छे एम पण नथी. खूब गंभीर वात छे, भाई! वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे के तेनी एकेक समयनी पर्याय स्वतंत्र पोताथी थाय छे, बीजाथी नहि. बीजानी पर्याय बीजाथी छे, जीवथी नथी अने जीवनी पर्याय जीवथी छे बीजाथी नथी.

आ शेठीयाओने आवी वातनो निर्णय करवानी फुरसद कयां छे? जेम मोभने अनेक खीला लागे तेम बहारनी मोटाईमां रोकायेला ते बिचाराओने ममताना अनेक खीला लाग्या छे. ए तत्त्वनिर्णय कयारे करे? अहीं कहे छे-कर्म छे ते अजीवतत्त्व छे, रागादि भाव छे ते आस्रवतत्त्व छे. बंने तत्त्वो भिन्न छे. अजीव अने आस्रव बंने मळीने जीवना आस्रवपरिणाम थाय एम छे ज नहि. आ नवतत्त्वनी भिन्नता समजावी छे. अरे भाई! एक तत्त्वनो एक अंश पण बीजामां मेळववाथी तो नव तत्त्वनो नाश थई जशे, नवतत्त्व भिन्न रहेशे नहि. (अर्थात् मिथ्यात्व ज रहेशे) जडनो अंश जीवने विकार करावे वा जीवनो अंश जडनुं कांई करे एम त्रणकाळमां संभवित नथी.

जेने हजु भिन्न तत्त्वोनुं ज्ञान नथी तेने पोताना शुद्ध ज्ञायकभावनी द्रष्टि कयांथी थई शके? अहा! पर्यायनी स्वतंत्रतानुं जेने ज्ञान नथी तेने पर्यायनी पाछळ आखुं त्रिकाळी ध्रुव दळ भगवान आत्मा चैतन्यस्वरूपे रहेलो छे तेनी प्रतीति कयांथी थाय? न थाय. नवे तत्त्वनी भिन्नता समजी एक शुद्ध ज्ञायकनी प्रतीति-अनुभव करवां ते सम्यग्दर्शन छे.

अहीं निष्कर्षरूपे एम कहे छे के-‘जीवने एकने ज रागादि-अज्ञानपरिणाम तो थाय छे; तेथी पुद्गलकर्मनो उदय के जे जीवना रागादि-अज्ञानपरिणामनुं निमित्त छे तेनाथी जुदुं ज जीवनुं परिणाम छे.’


PDF/HTML Page 1331 of 4199
single page version

* गाथा १३९–१४०ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जो जीव अने पुद्गलकर्म भेळां थईने रागादिरूपे परिणमे छे एम मानवामां आवे तो बन्नेने रागादिरूप परिणाम ठरे. परंतु पुद्गलकर्म तो रागादिरूपे (जीवरागादिरूपे) कदी परिणमी शकतुं नथी; तेथी पुद्गलकर्मनो उदय के जे रागादि परिणामने निमित्त छे तेनाथी जुदुं ज जीवनुं परिणाम छे.’

पुद्गलकर्मनो उदय जोके जीवना रागपरिणामनुं निमित्त छे तोपण एनाथी रागद्वेषना परिणाम जीवने थाय छे एम बिलकुल नथी. लोको, ‘निमित्त तो छे, निमित्त तो छे’-एम कहीने निमित्तने कर्ता माने छे ते एमनी मोटी भूल छे. निमित्त हो, पण निमित्तथी जीवना रागद्वेषना परिणाम थाय छे एम बिलकुल नथी. दरेक समयनी पर्याय पोताथी थाय छे एमां बीजी चीज निमित्त होय छे. त्यां निमित्त पोते पोतानी पर्यायने करे छे पण परनी पर्यायमां कांई करतुं नथी. परनी पर्यायमां निमित्तनो कांई अधिकार के हस्तक्षेप चालतो नथी.

जगतमां अनंत आत्मा अने अनंतानंत पुद्गलो छे. ते एकेक द्रव्यमां अनंत गुणो छे. ते एकेक गुणनी एकेक समयनी एकेक पर्याय पोताथी स्वतंत्रपणे थाय छे. एक गुणनी जे पर्याय थाय ते बीजा गुणनी पर्यायने लीधे थाय एम नथी. आम छे तो पछी जड कर्मना उदयना कारणे जीवमां विकार थाय ए वात कयां रही? एम छे ज नहि.

जूनां कर्मनो उदय छे ते जड पुद्गलनी पर्याय छे, अने आत्मा जे रागादि विकार करे ते चैतन्यनी विकारी पर्याय छे. हवे जो कर्मनो उदय अने जीव बन्ने मळीने जीवना रागद्वेषना परिणाम थाय छे एम मानवामां आवे तो जीव अने पुद्गलकर्म बंनेने रागद्वेषना परिणाम आवी पडे, पण एम तो त्यारे बने के पुद्गल पोते जीवरूप थई जाय. परंतु पुद्गल कदीय जीवभावने पामी शकतुं नथी, तेथी कर्मनो उदय जीवने विकार करावे छे ए मान्यता यथार्थ नथी. जीव पोते विकाररूपे परिणमे त्यारे साथे कर्मनो उदय पण एमां कांईक करे छे ए मान्यता खोटी छे.

कोई बे जण वच्चे कलेश (झगडो) थाय तो बन्नेनोय वांक हशे एम लोको कहे छे, तेम अहीं पण बंने-जीव अने पुद्गल मळीने राग-द्वेषना परिणाम थाय छे एम कोई कहे तो ते तद्न जूठी वात छे. कार्मणवर्गणागत पुद्गलो स्वयं नवां कर्मपणे बंधाय छे अने तेमां जीवना राग-द्वेषना परिणाम निमित्त छे; अने जीव स्वयं राग-द्वेषरूपे परिणमे छे तेमां जूना कर्मनो उदय निमित्त छे. बस आटलुं ज. कर्मनो उदय अने जीव बंने मळीने जीवने परिणमावे छे एम कोई माने तो ते जूठी मान्यता छे.

माटे सिद्ध थयुं के पुद्गलकर्मथी जुदुं ज जीवनुं परिणाम छे. ल्यो, १३९-१४० पूरी थई.

[प्रवचन नं. १८९ (चालु) * दिनांक १८-९-७६]

PDF/HTML Page 1332 of 4199
single page version

किमात्मनि बद्धस्पृष्टं किमबद्धस्पृष्टं कर्मेति नयविभागेनाह–

जीवे कम्मं बद्धं पुट्ठं चेदि ववहारणयभणिदं।
सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुट्ठं हवदि कम्मं।। १४१ ।।
जीवे कर्म बद्धं स्पृष्टं चेति व्यवहारनयभणितम्।
शुद्धनयस्य तु जीवे अबद्धस्पृष्टं भवति कर्म।। १४१ ।।

‘आत्मानां कर्म बद्धस्पृष्ट छे के अबद्धस्पृष्ट छे’-ते हवे नयविभागथी कहे छेः-

छे कर्म जीवमां बद्धस्पृष्ट–कथित नय व्यवहारनुं;
पण बद्धस्पृष्ट न कर्म जीवमां–कथन छे नय शुद्धनुं. १४१.

गाथार्थः– [जीवे] जीवमां [कर्म] कर्म [बद्धं] (तेना प्रदेशो साथे) बंधायेलुं छे [च] तथा [स्पृष्टं] स्पर्शायेलुं छे [इति] एवुं [व्यवहारनयभणितम्] व्यवहारनयनुं कथन छे [तु] अने [जीवे] जीवमां [कर्म] कर्म [अबद्धस्पृष्टं] अणबंधायेलुं, अणस्पर्शायेलु [भवति] छे एवुं [शुद्धनयस्य] शुद्धनयनुं कथन छे.

टीकाः– जीवना अने पुद्गलकर्मना एकबंधपर्यायपणाथी जोतां तेमने ते काळे भिन्नतानो अभाव होवाथी जीवमां कर्म बद्धस्पृष्ट छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे. जीवना अने पुद्गलकर्मना अनेकद्रव्यपणाथी जोतां तेमने अत्यंत भिन्नता होवाथी जीवमां कर्म अबद्धस्पृष्ट छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे.

* * *
समयसार गाथाः १४१ मथाळुं

‘आत्मामां कर्म बद्धस्पृष्ट छे के अबद्धस्पृष्ट छे’-ते हवे नयविभागथी कहे छेः-

* गाथा १४१ टीका उपरनुं प्रवचन *

‘जीवना अने पुद्गलकर्मना एकबंधपर्यायपणाथी जोतां तेमने ते काळे भिन्नतानो अभाव होवाथी जीवमां कर्म बद्धस्पृष्ट छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष छे.’

जुओ, आ वास्तविक तत्त्व पामवानी रीत शुं छे ते बतावे छे. ज्ञानस्वरूपी चैतन्यमय प्रभु आत्मा अने जड पुद्गलकर्म-ए बेने एकबंधपर्यायपणाथी अर्थात् बंनेने वर्तमान पर्यायनी द्रष्टिथी जोतां अर्थात् बंनेने निमित्तना संबंधवाळी बंधपर्यायथी जोतां


PDF/HTML Page 1333 of 4199
single page version

तेमने ते काळे भिन्नतानो अभाव छे. परस्पर निमित्तरूप संबंधथी जोतां जीव अने कर्मने संबंध नथी एम नथी, वर्तमान बंधपर्यायथी जोतां बन्नेने संबंध छे. भगवान चैतन्य-सूर्य अने जडकर्म-ए बेने निमित्तरूप बंध अवस्थाथी जोतां व्यवहारथी ते काळे भिन्नतानो अभाव छे. तेथी जीवमां कर्म बद्धस्पृष्ट छे एवो व्यवहारनयनो एक पक्ष छे. हवे कहे छे-

‘जीवना अने पुद्गलकर्मना अनेकद्रव्यपणाथी जोतां तेमने अत्यंत भिन्नता होवाथी जीवमां कर्म अबद्धस्पृष्ट छे एवो निश्चयनयनो एक पक्ष छे.’

जीवद्रव्य अने पुद्गलकर्म ए बेने अनेकद्रव्यपणुं एटले भिन्न द्रव्यपणुं छे. शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आत्मा अने जडस्वभाव एवुं पुद्गलकर्म ए बन्ने भिन्न द्रव्यो छे. आत्मा भिन्न छे अने पुद्गल भिन्न छे-एम भिन्न द्रव्यपणाथी जोतां बेने अत्यंत भिन्नता छे; बे एक नथी. बेने अत्यंत भिन्नता होवाथी जीवमां कर्म अबद्धस्पृष्ट छे एवो निश्चयनयनो एक पक्ष छे. भगवान आत्मा कर्मना संबंधथी रहित छे एवो निश्चयनयनो एक पक्ष छे.

अहाहा...! शुं कहे छे आ? के आत्मा कर्मथी अबद्धस्पृष्ट छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे ए विकल्प छे. आगळ कहेशे-व्यवहारनो निषेध तो करावता आव्या छीए पण हवे निश्चयना पक्षनो पण निषेध कराववामां आवे छे. जुओ, निश्चयनयनो जे पक्ष छे ते विकल्प छे एम दर्शावीने तेनो निषेध करवानी वात अहीं कहे छे.

प्रश्नः– तो ‘‘निश्चयनयाश्रित मुनिवरो प्राप्ति करे निर्वाणनी’’ एम कह्युं छे ने?

उत्तरः– हा, (गाथा २७२ मां) कह्युं छे; पण ए बीजी वात छे. वस्तु अखंड एक ज्ञायकस्वरूप छे. तेना आश्रये ज मुनिवरो निर्वाणने पामे छे. त्यां निश्चयनय एटले विकल्पनी वात नथी पण निर्विकल्पनी वात छे. वस्तु शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप जे आत्मा तेनो आश्रय लेतां मुक्ति थाय छे. तेने निश्चयनयना आश्रये मुक्ति थाय छे एम त्यां कह्युं छे. अहीं जे वात छे ए तो व्यवहार अने निश्चयनयना पक्षरूप विकल्पोनी वात छे. समजाणुं कांई?

शरूआतमां विचार करनारने आवा विकल्प आवेछे. भगवान आत्मा शुद्ध चिदानंदघन प्रभु एकला ज्ञान अने आनंदना दळस्वरूप वस्तु छे अने पुद्गलकर्म जड-अचेतन अजीव वस्तु छे. बन्नेने भिन्नता छे, बन्ने एक नथी. तेथी भगवान आत्मा कर्मथी अबद्धस्पृष्ट छे- आवा निश्चयनयना पक्षनो विचार आवे छे. पण ए विकल्प छे, राग छे; अने आ विकल्पनो जे कर्ता थाय ते मिथ्याद्रष्टि छे. सूक्ष्म वात छे प्रभु! आत्मा पूर्णानंदस्वरूप प्रभु अबद्धस्पृष्ट छे एवो शुद्धनयनो, अभेदनयनो-निश्चयनो जे पक्ष छे ते पण एक विकल्प छे. ते विकल्पथी शुं? आवो निश्चयनयनो पक्ष छे पण तेथी शुं साध्य छे? भगवान! तुं आटले सुधी आव्यो पण तेथी शुं? एम कहे छे.


PDF/HTML Page 1334 of 4199
single page version

आत्मा कर्मना संबंधवाळो छे-एवा व्यवहारनयनो तो निषेध करता आव्या छीए. अहीं तो ए उपरांत निश्चयनयना पक्षना निषेधनी वात करवी छे. भगवान आत्मा पूर्णज्ञानघनस्वरूप प्रभु अमृतनो सागर-दरियो छे. एवा आत्माने द्रव्यस्वभावथी जोईए तो एने कर्मना निमित्तना संबंधनो अभाव छे. शरूमां आवो एक निश्चयनयना पक्षनो विकल्प ऊठे छे. अहीं कहे छे के आवो विकल्प थाय पण तेथी शुं? आवा विकल्पनी साथे ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा तन्मय नथी, एकरूप नथी. प्रभु! ‘हुं अबद्धस्पृष्ट छुं’-एवी अंदर जे सूक्ष्म वृत्ति ऊठे छे ते रागनो कण छे अने ते रागना कण साथे भगवान आत्मा तन्मय नथी, तद्रूप नथी. ते पण एक पक्ष छे. आचार्य कहे छे ‘–ततः किं’-तेथी शुं? एवा विकल्पथी आत्माने शुं लाभ छे? ए विकल्पथी आत्मप्राप्ति नथी.

लोको राड पाडे छे के व्यवहार करतां-करतां निश्चय थाय. अहीं कहे छे-भगवान! एम नथी. प्रभु! तने दुःख लागे, पण वस्तु एम नथी. भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु कर्मना संबंध विनानो, निमित्तना संबंध विनानो, एक समयनी पर्यायना संबंध विनानो एकलो शुद्ध ज्ञायकभाव छे-एम प्रथम अंदर वृत्ति ऊठे छे, विकल्प ऊठे छे. पण तेथी शुं? एम अहीं कहे छे. आवा सूक्ष्म विकल्प सुधी तुं आव्यो पण एमां (विकल्पमां) सम्यग्दर्शन कयां छे? आ अबद्धस्पृष्टनो जे पक्ष छे ते तो राग छे, कषायनो कण छे, दुःखरूप भाव छे. अने वळी ते कषायकणने पोतानुं कर्तव्य माने, एनाथी निश्चय थाय एम माने ए मिथ्यादर्शन छे. वीतरागनो मार्ग खूब गंभीर छे, भाई!

व्यवहारना पक्षनी वात तो कयांय ऊडी गई. आत्मा पर्यायथी जोतां बद्धस्पृष्ट छे एवो व्यवहारनयनो पक्ष तो निषिद्ध छे ज. अहीं तो एम कहे छे के विचारधारामां आत्मा अखंड आनंदघन प्रभु अबद्धस्पृष्ट वस्तु छे-एवा विचारनी जे वृत्ति ऊठे छे ते पण निषिद्ध छे केमके ते निश्चयना पक्षरूप राग छे. आचार्यदेव कहे छे के एवा विकल्पथी पण आत्माने शुं लाभ छे? ए विकल्प साथे चैतन्यस्वभाव तन्मय नथी. ज्यां सुधी आवा विकल्पमां रोकाईने ते पोतानुं कर्तव्य छे एम जीव माने त्यां सुधी मिथ्यादर्शन छे.

समयसारनी गाथा १४ अने १पमां अबद्धस्पृष्टनी वात करी छे. त्यां विकल्प विनानी निर्विकल्प चीजनी वात छे. जे भगवान आत्माने अबद्धस्पृष्ट एटले राग अने कर्मना संबंधथी रहित एकलो अबंधस्वरूप अंतरमां देखे छे ते जैनशासन छे एम त्यां कह्युं छे. ए निर्विकल्प परिणमननी वात छे अने अहीं तो अबद्धस्पृष्टना विकल्पमां जे ऊभो छे एनी वात छे.

भाई! त्रिलोकनाथ जिनेश्वरदेवनी दिव्यध्वनिमां आवी ते आ वात छे. गणधरो अने इन्द्रोनी सभामां भगवाने जे वात करी ते अहीं भगवान कुंदकुंदाचार्ये करी छे.


PDF/HTML Page 1335 of 4199
single page version

८४ लाख योनिमां उत्पन्न थवुं एवो आत्मानो स्वभाव नथी. आत्मानो तो जन्म-मरण रहित अबंधस्वभाव छे. अहीं कहे छे-आवो हुं अबंधस्वरूप आत्मा छुं एवो जे विकल्प उपजे छे ते राग छे, निश्चयनो पक्ष छे. पण तेथी शुं? एनाथी आत्माने कांई लाभ नथी.

राजा थया पहेलां, राजा थवुं छे, मारे गादीए बेसवुं छे एवो विकल्प आवे छे. परंतु विकल्प छे त्यारे ते राजा कयां छे? अने राजा थयो त्यारे ते विकल्प कयां छे? तेम हुं कर्मना निमित्तना संबंधरहित अबद्धस्पृष्टस्वरूप शुद्ध चैतन्यमय भगवान आत्मा छुं एवा सूक्ष्म विकल्पथी भाई! तुं आंगणामां आवीने ऊभो छे पण तेथी शुं? ए विकल्प छे त्यां सुधी अंदर घरमां प्रवेश नथी, वस्तुनो निर्विकल्प अनुभव नथी केमके विकल्प साथे भगवान आत्मा तन्मय नथी. भगवाननो आवो मार्ग छे, भाई!

प्रश्नः– आ प्रमाणे शुं आप बधो व्यवहार नथी उथापता?

उत्तरः– अरे भाई! व्यवहार छे एनी कोण ना कहे छे? अहीं तो वात एम छे के आत्मानुं स्वरूप व्यवहारथी रहित छे, अने व्यवहारनुं लक्ष छोडीने, पक्षना विकल्प छोडीने अंतर-अनुभव करतां सम्यग्दर्शन छे ए वात छे. समजाय छे कांई?

दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि व्यवहारना रागसहित हुं छुं एवो व्यवहारनयनो-अभूतार्थनयनो एक पक्ष छे. अने रागना संबंधरहित हुं अबद्धस्पृष्ट छुं एवो एक भूतार्थनयनो पक्ष छे. शुद्धनय कहो, निश्चयनय कहो के भूतार्थनय कहो-बधी एक ज वात छे. अहाहा...! हुं अबद्धस्पृष्ट छुं ए पण निश्चयनयनो पक्ष नाम विकल्प छे. आवा विकल्पनी जे सूक्ष्म वृत्ति ऊठे छे ते बंधनुं कारण छे. आचार्य कहे छे के भाई! तुं आटले सुधी आव्यो पण तेथी शुं सिद्धि छे? एमां भगवान आत्मानो भेटो तो थयो नहि. अहाहा...! जे आत्मा ते बन्ने नयपक्षोने ओळंगी गयो छे ते ज समयसार छे. आ एकलुं माखण छे.

आत्मा अंदर अबद्धस्पृष्ट छे ए तो सत्य छे, ए कांई बीजी चीज नथी. पण ते संबंधीनो जे पक्ष-विकल्प छे ते खोटो छे एम अहीं कहेवुं छे. निश्चयनयनो पक्ष पण अहीं छोडावे छे केमके विकल्प मटतां आत्मलाभ छे. नयपक्षोने ओळंगी जाय ते समयसार छे.

[प्रवचननं. १९० * दिनांक ३-१०-७६]

PDF/HTML Page 1336 of 4199
single page version

ततः किम्–

कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं।
पक्खादिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो।। १४२ ।।
कर्म बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जानीहि नयपक्षम्।
पक्षातिक्रान्तः पुनर्भण्यते यः स समयसारः।। १४२ ।।

पण तेथी शुं? जे आत्मा ते बन्ने नयपक्षोने ओळंगी गयो छे ते ज समयसार छे, - एम हवे गाथामां कहे छेः-

छे कर्म जीवमां बद्ध वा अणबद्ध ए नयपक्ष छे;
पण पक्षथी अतिक्रांत भाख्यो ते ‘समयनो सार’ छे. १४२.

गाथार्थः– [जीवे] जीवमां [कर्म] कर्म [बद्धम्] बद्ध छे अथवा [अबद्धं] अबद्ध छे- [एवं तु] ए प्रकारे तो [नयपक्षम्] नयपक्ष [जानीहि] जाण; [पुनः] पण [यः] जे [पक्षातिक्रान्तः] पक्षातिक्रांत (अर्थात् पक्षने ओळंगी गयेलो) [भण्यते] कहेवाय छे [सः] ते [समयसारः] समयसार (अर्थात् निर्विकल्प शुद्ध आत्मतत्त्व) छे.

टीकाः– ‘जीवमां कर्म बद्ध छे’ एवो जे विकल्प तथा ‘जीवमां कर्म अबद्ध छे’ एवो जे विकल्प ते बन्ने नयपक्ष छे. जे ते नयपक्षने अतिक्रमे छे (-ओळंगी जाय छे, छोडे छे), ते ज सकळ विकल्पने अतिक्रम्यो थको पोते निर्विकल्प, एक विज्ञानघनस्वभावरूप थईने साक्षात् समयसार थाय छे. त्यां (विशेष समजाववामां आवे छे के) -जे ‘जीवमां कर्म बद्ध छे’ एम विकल्प करे छे ते ‘जीवमां कर्म अबद्ध छे’ एवा एक पक्षने अतिक्रमतो होवा छतां विकल्पने अतिक्रमतो नथी, अने जे ‘जीवमां कर्म अबद्ध छे’ एम विकल्प करे छे ते पण ‘जीवमां कर्म बद्ध छे’ एवा एक पक्षने अतिक्रमतो होवा छतां विकल्पने अतिक्रमतो नथी; वळी जे ‘जीवमां कर्म बद्ध छे अने अबद्ध पण छे’ एम विकल्प करे छे ते, ते बन्ने पक्षने नहि अतिक्रमतो थको, विकल्पने अतिक्रमतो नथी. तेथी जे समस्त नयपक्षने अतिक्रमे छे ते ज समस्त विकल्पने अतिक्रमे छे; जे समस्त विकल्पने अतिक्रमे छे ते ज समयसारने प्राप्त करे छे -अनुभवे छे.

भावार्थः– जीव कर्मथी ‘बंधायो छे’ तथा ‘नथी बंधायो’-ए बन्ने नयपक्ष


PDF/HTML Page 1337 of 4199
single page version

यद्येवं तर्हि को हि नाम नयपक्षसन्नयासभावनां न नाटयति?

(उपेन्द्रवज्रा)
य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं
स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम्।
विकल्पजालच्युतशान्तचित्ता–
स्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति।। ६९ ।।

(उपजाति)
एकस्य बद्धो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७० ।।

छे. तेमांथी कोईए बंधपक्ष पकडयो, तेणे विकल्प ज ग्रहण कर्यो; कोईए अबंध पक्ष पकडयो, तेणे पण विकल्प ज ग्रहण कर्यो; अने कोईए बन्ने पक्ष पकडया, तेणे पण पक्षरूप विकल्पनुं ज ग्रहण कर्युं. परंतु एवा विकल्पोने छोडी जे कोई पण पक्ष न पकडे तेज शुद्ध पदार्थनुं स्वरूप जाणी ते-रूप समयसारने-शुद्धात्माने-पामे छे. नयपक्ष पकडवो ते राग छे, तेथी समस्त नयपक्षने छोडवाथी वीतराग समयसार थवाय छे.

हवे, ‘जो आम छे तो नयपक्षना त्यागनी भावनाने खरेखर कोण न नचावे? एम कहीने श्रीमान् अमृतचंद्र आचार्य नयपक्षना त्यागनी भावनानां २३ कळशरूप काव्यो कहे छेः-

श्लोकार्थः– [ये एव] जेओ [नयपक्षपातं मुक्त्वा] नयपक्षपातने छोडी [स्वरूपगुप्ताः] (पोताना) स्वरूपमां गुप्त थईने [नित्यम्] सदा [निवसन्ति] रहे छे [ते एव] तेओ ज, [विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः] जेमनुं चित्त विकल्पजाळथी रहित शांत थयुं छे एवा थया थका, [साक्षात् अमृतं पिबन्ति] साक्षात् अमृतने पीए छे.

भावार्थः– ज्यां सुधी कांई पण पक्षपात रहे छे त्यां सुधी चित्तनो क्षोभ मटतो नथी. ज्यारे नयोनो सर्व पक्षपात मटी जाय त्यारे वीतराग दशा थईने स्वरूपनी श्रद्धा निर्विकल्प थाय छे, स्वरूपमां प्रवृत्ति थाय छे अने अतीन्द्रिय सुख अनुभवाय छे. ६९.

हवेना २० कळशमां नयपक्षने विशेष वर्णवे छे अने कहे छे के आवा समस्त नयपक्षोने जे छोडे छे ते तत्त्ववेदी (तत्त्वनो जाणनार) स्वरूपने पामे छेः-

श्लोकार्थः– [बद्धः] जीव कर्मथी बंधायेलो छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव कर्मथी बंधायेलो नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ


PDF/HTML Page 1338 of 4199
single page version

(उपजाति)
एकस्य मूढो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७१ ।।

(उपजाति)
एकस्य रक्तो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७२ ।।

पक्षपातो] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी (वस्तुस्वरूपनो जाणनार) पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे (अर्थात् तेने चित्स्वरूप जीव जेवो छे तेवो निरंतर अनुभवाय छे).

भावार्थः– आ ग्रंथमां प्रथमथी ज व्यवहारनयने गौण करीने अने शुद्धनयने मुख्य करीने कथन करवामां आव्युं छे. चैतन्यना परिणाम परनिमित्तथी अनेक थाय छे ते सर्वने पहेलेथी ज आचार्य गौण कहेता आव्या छे अने जीवने शुद्ध चैतन्यमात्र कह्यो छे. ए रीते जीव-पदार्थनेशुद्ध, नित्य, अभेद चैतन्यमात्र स्थापीने हवे कहे छे के-आ शुद्धनयनो पण पक्षपात (विकल्प) करशे ते पण ते शुद्ध स्वरूपना स्वादने नहि पामे. अशुद्धनयनी तो वात ज शी? पण जो कोई शुद्धनयनो पण पक्षपात करशे तो पक्षनो राग नहि मटे तेथी वीतरागता नहि थाय. पक्षपातने छोडी चिन्मात्र स्वरूप विषे लीन थये ज समयसारने पमाय छे. माटे शुद्धनयने जाणीने, तेनो पण पक्षपात छोडी शुद्ध स्वरूपनो अनुभव करी, स्वरूप विषे प्रवृत्तिरूप चारित्र प्राप्त करी, वीतराग दशा प्राप्त करवी योग्य छे. ७०.

श्लोकार्थः– [मूढः] जीव मूढ (मोही) छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव मूढ (मोही) नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे, [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे (अर्थात् तेने चित्स्वरूप जीव जेवो छे तेवो निरंतर अनुभवाय छे). ७१.

श्लोकार्थः– [रक्तः] जीव रागी छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव रागी नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम


PDF/HTML Page 1339 of 4199
single page version

(उपजाति)
एकस्य दुष्टो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७३ ।।

(उपजाति)
एकस्य कर्ता न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७४ ।।
(उपजाति)
एकस्य भोक्ता न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७५ ।।

[चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ७२.

श्लोकार्थः– [दुष्टः] जीव द्वेषी छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव द्वेषी नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ७३.

श्लोकार्थः– [कर्ता] जीव कर्ता छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव कर्ता नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ७४.

श्लोकार्थः– [भोक्ता] जीव भोक्ता छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव भोक्ता नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति]


PDF/HTML Page 1340 of 4199
single page version

(उपजाति)
एकस्य जीवो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७६ ।।

(उपजाति)
एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७७ ।।
(उपजाति)
एकस्य हेतुर्न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात–
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव।। ७८।।

चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ७प.

श्लोकार्थः– [जीवः] जीव जीव छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव जीव नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ७६.

श्लोकार्थः– [सूक्ष्मः] जीव सूक्ष्म छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव सूक्ष्म नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे; [इति] आम [चिति] चित्स्वरूप जीव विषे [द्वयोः] बे नयोना [द्वौ पक्षपातौ] बे पक्षपात छे. [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे [तस्य] तेने [नित्यं] निरंतर [चित्] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ज छे. ७७. श्लोकार्थः– [हेतुः] जीव हेतु (कारण) छे [एकस्य] एवो एक नयनो पक्ष छे अने [न तथा] जीव हेतु (कारण) नथी [परस्य] एवो बीजा नयनो पक्ष छे;