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जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया।। १२८ ।।
जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स।। १२९ ।।
यस्मात्तस्माज्ज्ञानिनः सर्वे भावाः खलु ज्ञानमयाः।। १२८ ।।
यस्मात्तस्माद्भावा अज्ञानमया अज्ञानिनः।। १२९ ।।
आ ज पश्नना उत्तररूप गाथा कहे छेः-
ते कारणे ज्ञानी तणा सौ भाव ज्ञानमयी खरे; १२८.
ते कारणे अज्ञानीना अज्ञानमय भावो बने. १२९.
गाथार्थः– [यस्मात्] कारण के [ज्ञानमयात् भावात् च] ज्ञानमय भावमांथी [ज्ञानमयः एव] ज्ञानमय ज [भावः] भाव [जायते] उत्पन्न थाय छे [तस्मात्] तेथी [ज्ञानिनः] ज्ञानीना [सर्वे भावाः] सर्व भावो [खलु] खरेखर [ज्ञानमयाः] ज्ञानमय ज होय छे. [च] अने, [यस्मात्] कारण के [अज्ञानमयात् भावात्] अज्ञानमय भावमांथी [अज्ञानः एव] अज्ञानमय ज [भावः] भाव [जायते] उत्पन्न थाय छे [तस्मात्] तेथी [अज्ञानिनः] अज्ञानीना [भावाः] भावो [अज्ञानमयाः] अज्ञानमय ज होय छे.
टीकाः– खरेखर अज्ञानमय भावमांथी जे कोई पण भाव थाय छे ते सघळोय अज्ञानमयपणाने नहि उल्लंघतो थको अज्ञानमय ज होय छे, तेथी अज्ञानीना भावो बधाय अज्ञानमय होय छे. अने ज्ञानमय भावमांथी जे कोई पण भाव थाय छे ते सघळोय ज्ञानमयपणाने नहि उल्लंघतो थको ज्ञानमय ज होय छे, तेथी ज्ञानीना भावो बधाय ज्ञानमय होय छे.
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सर्वेऽप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते।। ६७ ।।
भावार्थः– ज्ञानीनुं परिणमन अज्ञानीना परिणमन करतां जुदी ज जातनुं छे. अज्ञानीनुं परिणमन अज्ञानमय छे, ज्ञानीनुं ज्ञानमय छे; तेथी अज्ञानीना क्रोध, मान, व्रत, तप इत्यादि सर्व भावो अज्ञानजातिने उल्लंघता नहि होवाथी अज्ञानमय ज छे अने ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानजातिने उल्लंघता नहि होवाथी ज्ञानमय ज छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [ज्ञानिनः] ज्ञानीना [सर्वे भावाः] सर्व भावो [ज्ञाननिर्वृत्ताः हि] ज्ञानथी नीपजेला (-रचायेला) [भवन्ति] होय छे [तु] अने [अज्ञानिनः] अज्ञानीना [सर्वे अपि ते] सर्व भावो [अज्ञाननिर्वृत्ताः] अज्ञानथी नीपजेला (-रचायेला) [भवन्ति] होय छे. ६७.
आ ज प्रश्नना उत्तररूप गाथा कहे छेः-
‘खरेखर अज्ञानमय भावमांथी जे कोई पण भाव थाय छे ते सघळोय अज्ञानमयपणाने नहि उल्लंघतो थको अज्ञानमय ज होय छे. तेथी अज्ञानीना भावो बधाय अज्ञानमय होय छे.’
दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादिना जे भाव थाय ते मारा छे अने हुं तेनो कर्ता छुं एम अज्ञानी माने छे. ए रागनी एकताबुद्धिरूप जे परिणाम छे ते अज्ञानमय भाव छे. तेथी अज्ञानीने जे कोई भाव थाय छे ते अज्ञानमयपणाने उल्लंघता नहि होवाथी बधाय अज्ञानमय होय छे.
शास्त्रनुं ज्ञान न होय ते अज्ञान एम अज्ञाननो अर्थ नथी. शास्त्रनुं ज्ञान तो होय छे. करोडो श्लोकोनुं ज्ञान होय, पण ते परलक्षी ज्ञान मारुं स्वरूप छे एम जे माने छे तेनो ते अज्ञानमय भाव छे. अज्ञानी शास्त्रना स्वाध्यायमां प्रवृत्त होय तोपण तेने रागमां तन्मयपणुं होवाथी तेनो ते भाव अज्ञानमय ज छे. अज्ञानमय भावमांथी जे कोई भाव नीपजे छे ते अज्ञानमय ज होय छे. झीणी वात छे, भाई! बहु ध्यान दईने धीरजथी सांभळवी जोईए.
कोई दस-वीस लाखनो खर्च करीने मंदिर बंधावे, तेमां जिनेन्द्र भगवाननी प्रतिष्ठा करे, भगवाननां दर्शन, स्तुति, भक्ति, पूजा इत्यादि करे; पण ते बधो शुभराग
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छे, धर्म नथी. तथापि ए शुभरागथी लाभ (धर्म) थाय अने शुभराग मारुं कर्तव्य छे एम मानीने शुभरागमां तन्मय थईने जो ते प्रवर्ते तो तेना ते सघळा भाव अज्ञानमय छे. गजब वात छे, प्रभु! माथुं फरी जाय एवी वात छे पण आ सत्य वात छे. रागनी क्रिया मारी अने राग मारुं कर्तव्य ए मान्यता अज्ञान छे अने ते अज्ञानथी नीपजेला अज्ञानीना सघळा भावो अज्ञानमय ज छे.
भगवान आत्मा निर्मळानंदनो नाथ शुद्ध चैतन्यघन प्रभु परमात्मस्वरूप छे. तेनी जेने द्रष्टि थई नथी ते अज्ञानीने क्षणेक्षणे रागनी एकताबुद्धिवाळा भाव उत्पन्न थाय छे. रागथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूपनुं भान नथी तेथी अज्ञानीने बधा रागमय-अज्ञानमय भावो उत्पन्न थाय छे. अज्ञानी चाहे तो शास्त्रना स्वाध्यायमां हो, भगवाननी भक्ति-पूजामां हो के महाव्रतादिना पालनमां हो; तेना सघळा भावो रागनी एकताबुद्धि-पूर्वक होवाथी अज्ञानमयपणाने नहि ओळंगता थका अज्ञानमय ज होय छे.
हवे कहे छे-‘अने ज्ञानमय भावमांथी जे कोई पण भाव थाय छे ते सघळोय ज्ञानमयपणाने नहि उल्लंघतो थको ज्ञानमय ज होय छे, तेथी ज्ञानीना भावो बधाय ज्ञानमय होय छे.’
हुं तो रागथी भिन्न ज्ञानस्वरूप छुं, आनंदस्वरूप छुं-एम पोताना शुद्ध चैतन्यनी जेने अंतरमां द्रष्टि थई, निर्मळ भेदज्ञान प्रगट थयुं एवा ज्ञानीने जे कोई भाव थाय छे ते बधाय ज्ञानमय ज होय छे. ज्ञानीने कमजोरीना कारणे कदाचित् विषयकषायना भाव पण आवी जाय तो ते समये पण तेने ज्ञानमय भाव ज छे, रागमय नहि; केमके जे समये राग थाय ते समये ते तेनो साक्षीभावे ज्ञाता छे पण कर्ता नथी. बहु सूक्ष्म वात भाई! रागथी पोताने भिन्न जाण्यो तेने क्षणेक्षणे जे कोई भाव थाय ते बधा ज्ञानमय छे.
जे भावे सर्वार्थसिद्धिनुं पद मळे ते भावनी पण ज्ञानीने भावना नथी, होंश नथी. आवो शुभभाव ज्ञानीने आवे खरो पण ते पोतानुं कर्तव्य छे एम ज्ञानी मानता नथी. ज्ञानीने जे शुभाशुभ भाव आवे तेने पोते निज स्वभावमां स्थित रहीने मात्र जाणे ज छे. कोईवार ज्ञानी बहारथी लडाईना (रौद्र) भावमां पण ऊभेला जणाय पण खरेखर ते लडाईना भावमां स्थित नथी पण अंतरमां ते निज स्वभावमां स्थित छे. लडाईनो जे भाव आवे तेना ते समये ते ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी; केमके तेनी द्रष्टि स्वभाव उपर चोंटेली छे. पोताने अने परने-रागने जाणनारुं जे ज्ञान ते ज्ञानना ज्ञानी कर्ता छे, रागना नहि अने तेथी ज्ञानमयपणाने नहि उल्लंघता थका ज्ञानीना भाव बधाय ज्ञानमय ज छे, वीतरागतामय ज छे.
कोईवार ज्ञानीने आर्त्त-रौद्रध्यान पण थतुं होय छे. पण तेना ते ज्ञाता रहे छे, कर्ता थता नथी. ते ते समये ते संबंधीनुं ज्ञानी ज्ञान करे छे अने स्वभावना लक्षे तेनो नाश करी स्वभावभावमां वृद्धि करे छे, तेथी ज्ञानीना बधा भाव ज्ञानमय ज होय छे.
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‘ज्ञानीनुं परिणमन अज्ञानीना परिणमन करतां जुदी ज जातनुं होय छे. अज्ञानीनुं परिणमन अज्ञानमय छे, ज्ञानीनुं ज्ञानमय छे; तेथी अज्ञानीना क्रोध, मान, व्रत, तप इत्यादि सर्व भावो अज्ञानजातिने उल्लंघता नहि होवाथी अज्ञानमय ज छे अने ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानजातिने उल्लंघता नहि होवाथी ज्ञानमय ज छे.’
अज्ञानीने शुभ-अशुभ भावमां एकत्वबुद्धि पडी छे, तेथी तेना व्रत, तपना भाव पण अज्ञानमय छे. ज्यारे ज्ञानीने रागथी भिन्न निर्मळानंदस्वरूप पोताना चैतन्य-भगवाननुं भान थयुं छे. तेने जे रागादि भाव थाय तेने ते मात्र जाणे ज छे. ज्ञानी ते राग संबंधी ज्ञानना कर्ता छे, पण रागना कर्ता नथी. तेथी ज्ञानीना बधा भाव ज्ञानजातिने उल्लंघता नहि होवाथी ज्ञानमय ज छे. परंतु अज्ञानी व्रत, तपनो जे भाव करे छे ते भावनो ते कर्ता थाय छे, तेथी अज्ञानमय जातिने नहि ओळंगता तेना भाव बधाय अज्ञानमय छे.
कह्युं छे ने के जेवी द्रष्टि तेवी सृष्टि. अज्ञानीनी राग उपर द्रष्टि छे तो तेने रागमय परिणामनी सृष्टि उत्पन्न थाय छे. धर्मी जीवने रागथी भिन्न पोताना चैतन्य-स्वभावनी द्रष्टि छे तो तेने ज्ञानमय परिणामनी सृष्टि उत्पन्न थाय छे.
अज्ञानीने व्रत, तप, संयम, उपवास, ब्रह्मचर्य आदिना जे कोई भाव थाय छे ते रागमय छे केमके तेने एमां एकत्वबुद्धि छे. तेथी अज्ञानीना भावो बधाय अज्ञानमय छे. आ प्रमाणे ज्ञानी अने अज्ञानीना परिणमनमां बहु मोटो (आभ-जमीननो) फरक छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘ज्ञानिनः’ ज्ञानीना ‘सर्वे भावाः’ सर्व भावो ‘ज्ञाननिर्वृत्ताः हि’ ज्ञानथी नीपजेला (रचायेला) ‘भवन्ति’ होय छे.
जुओ, धर्मी एने कहीए के जेने विकल्पथी भिन्न पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मानां ज्ञान अने अनुभव थयां छे. अहाहा...! हुं रागथी भिन्न शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप परमात्मद्रव्य छुं एवुं जेने निर्मळ भेदज्ञान प्रगट थयुं छे ते ज्ञानी छे. आवा ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानथी रचायेला छे. जाणवुं, देखवुं, ठरवुं, शांतिरूप थवुं ए ज्ञानीना परिणाम छे. दया, दान, व्रत आदिना राग के पुण्य-पापना शुभाशुभ विकल्प ज्ञानीने (कर्तव्यपणे) होता नथी; अने जे विकारी भाव थाय छे तेनो ज्ञानी जाणनार छे, कर्ता नथी. ज्ञानीने विकारनुं स्वामित्व नथी, तेथी ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानमय होय छे.
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कोईवार अस्थिरतानी नबळाईने लीधे हिंसादिरूप अल्प राग-द्वेषना परिणाम थई जाय तोपण ज्ञानी तेना ज्ञाता रहे छे, केमके द्रष्टि निज स्वभाव उपर छे. अहाहा...! द्रष्टि त्रिकाळी स्वभाव उपर होवाथी ज्ञानीनो प्रत्येक परिणाम ज्ञानमय, आनंदमय, शांतिमय, धर्ममय ज होय छे. ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानथी नीपजेला ज्ञानमय ज होय छे.
‘तु’ अने ‘अज्ञानिनः’ अज्ञानीना ‘सर्वे अपि ते’ सर्व भावो ‘अज्ञाननिर्वृत्ताः’ अज्ञानथी नीपजेला (-रचायेला) ‘भवन्ति’ होय छे.
अहाहा...! अज्ञानी के जेने पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आत्मानुं भान नथी अने जेणे राग साथे एकत्व मान्युं छे तेना सर्व भाव अज्ञानथी नीपजेला-रचायेला छे. अज्ञानीने व्यवहाररत्नत्रयना जे विकल्प छे ते अज्ञानथी रचायेला अज्ञानमय छे. अज्ञानी जीव हजारो राणीओने छोडी नग्न दिगंबर मुनिदशा धारे, जंगलमां रहे, महाव्रतादिनुं पालन करे तोपण राग साथे एकत्वपणे परिणमतो होवाथी तेना ते भाव अज्ञानमय छे एम कहे छे. पंचमहाव्रतना परिणाम, शास्त्रनुं परलक्षी ज्ञान, अने नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धा-ए बधो रागभाव छे अने ते रागभावनो अज्ञानी कर्ता थाय छे तेथी तेना ए बधा भाव अज्ञानमय छे. कोई बाळ-ब्रह्मचारी होय अने महिना-महिनाना उपवास करे अने ते ब्रह्मचर्य अने उपवासना विकल्पथी लाभ (धर्म) थाय एम माने तो एना ते भाव अज्ञानमय छे. अज्ञानीना सर्व भाव अज्ञानथी नीपजेला होय छे अने ते अज्ञानमय छे. आ सिद्धांत कह्यो, हवे द्रष्टांत कहेशे.
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अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी।। १३० ।।
णाणिस्स दु णाणमया सव्वे भावा तहा होंति।। १३१ ।।
अयोमयकाद्भावाद्यथा जायन्ते तु कटकादयः।। १३० ।।
ज्ञानिनस्तु ज्ञानमयाः सर्वे भावास्तथा भवन्ति।। १३१ ।।
हवे आ अर्थने द्रष्टांतथी द्रढ करे छेः-
पण लोहमय को भावथी कटकादि भावो नीपजे; १३०.
पण ज्ञानीने तो सर्व भावो ज्ञानमय एम ज बने. १३१.
गाथार्थः– [यथा] जेम [कनकमयात् भावात्] सुवणमय भावमांथी [कुण्डलादयः भावाः] सुवर्णमय कुंडळ वगेरे भावो [जायन्ते] थाय छे [तु] अने [अयोमयकात् भावात्] लोहमय भावमांथी [कटकादयः] लोहमय कडां वगेरे भावो [जायन्ते] थाय छे, [तथा] तेम [अज्ञानिनः] अज्ञानीने (अज्ञानमय भावमांथी) [बहुविधाः अपि] अनेक प्रकारना [अज्ञानमयाः भावाः] अज्ञानमय भावो [जायन्ते] थाय छे [तु] अने [ज्ञानिनः] ज्ञानीने (ज्ञानमय भावमांथी) [सर्वे] सर्व [ज्ञानमयाः भावाः] ज्ञानमय भावो [भवन्ति] थाय छे.
टीकाः– जेवी रीते पुद्गल स्वयं परिणामस्वभाववाळुं होवा छतां, कारण जेवां कार्यो थतां होवाथी, सुवर्णमय भावमांथी, सुवर्णजातिने नहि उल्लंघता एवा सुवर्णमय कुंडळ आदि भावो ज थाय परंतु लोखंडमय कडां आदि भावो न थाय, अने लोखंडमय भावमांथी, लोखंडजातिने नहि उल्लंघता एवा लोखंडमय कडां
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द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुताम्।। ६८ ।।
आदि भावो ज थाय परंतु सुवर्णमय कुंडळ आदि भावो न थाय; तेवी रीते जीव स्वयं परिणामस्वभाववाळो होवा छतां, कारण जेवां ज कार्यो थतां होवाथी, अज्ञानीने-के जे पोते अज्ञानमय भाव छे तेने-अज्ञानमय भावमांथी, अज्ञानजातिने नहि उल्लंघता एवा अनेक प्रकारना अज्ञानमय भावो ज थाय परंतु ज्ञानमय भावो न थाय, अने ज्ञानीने-के जे पोते ज्ञानमय भाव छे तेने-ज्ञानमय भावमांथी, ज्ञाननी जातिने नहि उल्लंघता एवा सर्व ज्ञानमय भावो ज थाय परंतु अज्ञानमय भावो न थाय.
भावार्थः– ‘जेवुं कारण होय तेवुं ज कार्य थाय छे’ ए न्याये जेम लोखंडमांथी लोखंडमय कडां वगेरे वस्तुओ थाय छे अने सुवर्णमांथी सुवर्णमय आभुषणो थाय छे, तेम अज्ञानी पोते अज्ञानमय भाव होवाथी तेने (अज्ञानमय भावमांथी) अज्ञानमय भावो ज थाय छे अने ज्ञानी पोते ज्ञानमय भाव होवाथी तेने (ज्ञानमय भावमांथी) ज्ञानमय भावो ज थाय छे.
अज्ञानीने शुभाशुभ भावोमां आत्मबुद्धि होवाथी तेना सर्व भावो अज्ञानमय ज छे.
अविरत सम्यग्द्रष्टि (-ज्ञानी) ने जोके चारित्रमोहना उदये क्रोधादिक भावो प्रवर्ते छे तोपण तेने ते भावोमां आत्मबुद्धि नथी, ते तेमने परना निमित्तथी थयेली उपाधि माने छे. तेने क्रोधादिक कर्मो उदयमां आवीने खरी जाय छे-आगामी एवो बंध करता नथी के जेथी संसारनुं भ्रमण वधे; कारण के (ज्ञानी) पोते उधमी थईने क्रोधादिभावरूपे परिणमतो नथी अने जोके उदयनी बळजोरीथी परिणमे छे तोपण ज्ञातापणुं चूकीने परिणमतो नथी; ज्ञानीनुं स्वामित्व निरंतर ज्ञानमां ज वर्ते छे तेथी ते क्रोधादिभावोनो अन्य ज्ञेयोनी माफक ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. आ रीते ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानमय ज छे.
हवे आगळनी गाथानी सूचनाना अर्थरूप श्लोक कहे छेः-
श्लोकार्थः– [अज्ञानी] अज्ञानी [अज्ञानमयभावानाम् भूमिकाम्] (पोताना) अज्ञानमय भावोनी भूमिकामां [व्याप्य] व्यापीने [द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानाम्] (आगामी) द्रव्यकर्मनां निमित्त जे (अज्ञानादिक) भावो तेमना [हेतुताम् एति] हेतुपणाने पामे छे (अर्थात् द्रव्यकर्मनां निमित्तरूप भावोनो हेतु बने छे). ६८.
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हवे आ अर्थने द्रष्टांतथी द्रढ करे छेः-
‘जेवी रीते पुद्गल स्वयं परिणामस्वभाववाळुं होवा छतां, कारण जेवां कार्यो थतां होवाथी, सुवर्णमय भावमांथी, सुवर्णजातिने नहि उल्लंघता एवा सुवर्णमय कुंडळ आदि भावो ज थाय परंतु लोखंडमय कडां आदि भावो न थाय, अने लोखंडमय भावमांथी, लोखंडजातिने नहि उल्लंघता एवा लोखंडमय कडां आदि भावो ज थाय परंतु सुवर्णमय कुंडळ आदि भावो न थाय.’
पुद्गलद्रव्य स्वयं एटले पोतानी मेळे परिणामस्वभाववाळुं छे. जुओ, आ द्रष्टांत आपे छे. आ शरीर, मन, वाणी, आहार, पाणी इत्यादि बधामां स्वयं परिणामस्वभाव छे. अहाहा...! बदलवानो तेनो सहज स्वभाव छे तोपण कारण जेवुं कार्य थाय छे. कारण अने कार्यनी जाति एक होय छे एम कहे छे. सुवर्णना पुद्गलोमां स्वयं बदलवानो स्वभाव छे तोपण सुवर्णमांथी सुवर्णजातिने नहि ओळंगता एवा सुवर्णमय कुंडळादि भावो ज थाय, सुवर्णमांथी लोढानां कडां आदि भावो न थाय. अने लोखंडमांथी, ते गमे ते भावे बदले तोपण, लोखंडजातिने नहि ओळंगता एवा लोखंडमय कडां आदि भावो ज थाय, परंतु सुवर्णमय कुंडळ आदि भावो न थाय. जुओ, आ न्याय! के सोनामांथी लोढुं न थाय अने लोढामांथी सोनुं न थाय. आ द्रष्टांत आप्युं हवे सिद्धांत कहे छे-
‘तेवी रीते जीव स्वयं परिणामस्वभाववाळो होवा छतां, कारण जेवां ज कार्यो थतां होवाथी, अज्ञानीने-के जे पोते अज्ञानमय भाव छे तेने-अज्ञानमय भावमांथी, अज्ञानजातिने नहि उल्लंघता एवा अनेक प्रकारना अज्ञानमय भावो ज थाय परंतु ज्ञानमय भावो न थाय, अने ज्ञानीने-के जे पोते ज्ञानमय भाव छे तेने-ज्ञानमय भावमांथी, ज्ञाननी जातिने नहि उल्लंघता एवा सर्व ज्ञानमय भावो ज थाय परंतु अज्ञानमय भावो न थाय.’
जीवनो स्वयं-पोतानी मेळे ज परिणमवानो एटले बदलवानो स्वभाव छे. छतां कारण जेवां ज कार्यो थाय छे. गाथा ६८नी टीकामां दाखलो आप्यो छे के जवपूर्वक जे जव थाय ते जव ज होय छे. अर्थात् जवमांथी जव ज थाय, घउं वगेरे न थाय अने घउंमांथी घउं ज थाय, जव वगेरे न थाय. कारण अने कार्य हमेशां एक जातिमय ज होय छे एम कहे छे.
अज्ञानीने पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आत्मानी द्रष्टि नथी. एनी द्रष्टि शरीर, मन, वाणी, इन्द्रिय, राग इत्यादि पर उपर होय छे. तेथी अज्ञानीने स्वयं अज्ञानमय
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भाव होय छे. तेने पर अने रागनी जे एकताबुद्धि छे ते स्वयं अज्ञानमय भाव छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना जे भाव थाय ते मारा छे, एनाथी मने लाभ (धर्म) थाय छे, ए मारुं कर्तव्य छे अने हुं ए भावोनो कर्ता छुं एवी जे एनी द्रष्टि छे ते स्वयं अज्ञानमय छे. अने ए अज्ञानमय भावमांथी, अज्ञानजातिने नहि उल्लंघता एवा अनेक प्रकारना अज्ञानमय भावो ज थाय छे. जेम लोखंडमांथी लोखंडमय कडां आदि भावो थाय छे तेम रागनी एकताबुद्धिना अज्ञानमय भावमांथी अज्ञानीने अज्ञानमय एटले के रागमय, विकारमय भावो ज उत्पन्न थाय छे.
भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव जंगलमां वसनारा निर्ग्रंथ महा मुनिराज हता. निर्ग्रंथ एने कहीए के जेने राग साथेनी एकताबुद्धिनी-मिथ्यात्वनी गांठ छूटी गई छे, टळी गई छे. दया, दान, व्रत, तप, भक्ति इत्यादि परिणाम शुभरागरूप आस्रव छे. तेनाथी भिन्न पडीने अंदर आत्मा जे त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायकस्वरूप छे तेनो जेने अनुभव थयो छे ते निर्ग्रंथ छे. आवा परम निर्ग्रंथ अतीन्द्रिय आनंदना स्वामी आचार्य कुंदकुंद-स्वामीनां आ वचनो छे के-
बधा आत्मा भगवान-स्वरूप छे. पर्यायमां जे भूल हती तेनो अमे स्वरूपना लक्षे अभाव कर्यो छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए पण कह्युं छे ने के-
एम अहीं कहे छे के ‘सर्व जीव छे ज्ञानमय, जे समजे ते थाय.’ अहाहा...! चैतन्यना प्रकाशना नूरनुं पूर प्रभु आत्मा छे. तेमां दया, दान, भक्तिनां, के व्यवहार-रत्नत्रयना के नवतत्त्वनी भेदरूप श्रद्धाना रागनो सदाकाळ अभाव छे. परंतु अरे! अज्ञानी शुभरागने पोतानुं स्वरूप माने छे. तेथी ते पोते रागमय थयो छे, अज्ञानमय थयो छे. आथी अज्ञानीने अज्ञानमय भावमांथी रागादिमय अज्ञानभाव ज उत्पन्न थाय छे, सुक्ष्म वात छे, प्रभु! अज्ञानीने पोताना ज्ञानमय सच्चिदानंदस्वरूप आत्मानुं भान नथी अने जे राग थाय तेने ज ते पोतानुं स्वरूप माने छे. रागथी लाभ थाय, व्यवहारथी निश्चय प्रगट थाय-आवा मिथ्यादर्शनना भावथी मिथ्यात्वना भाव ज उत्पन्न थाय छे. अज्ञानमय भावमांथी, बदलीने गमे ते भाव थाय तोपण अज्ञानमय भाव ज थाय, ज्ञानमय भाव न थाय. खूब गंभीर वात छे, भाई!
अज्ञानीने स्वयं अज्ञानमय भाव होय छे. जडकर्मना कारणे ते भाव उत्पन्न थया छे एम नथी. कर्म तो जड छे, कर्म शुं करे? पोते स्वयं अज्ञानमय भावरूपे परिणमे छे. कोई कर्मनो उदय तेने अज्ञानभावे परिणमावे छे एम नथी. कर्मनो उदय आव्यो माटे मिथ्यात्वपणे परिणमवुं पडयुं एम पण नथी. जेनी द्रष्टि निमित्ताधीन छे ते गमे ते माने, परंतु अज्ञानीने जे रागमय-अज्ञानमय भाव थाय छे ते स्वयं पोताना
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कारणे थाय छे एम अहीं कहे छे. पंडित बनारसीदासजीए निमित्त-उपादानना दोहामां खूब सरस वात करी छे-
अहाहा...! आ दोहाओमां तो गजब वात करी छे.
त्यारे वळी कोई पंडित एम कहे छे के-परना कर्ता न माने ए जैन नथी. परनो कर्ता माने ए जैन छे.
अरे भाई! आ तुं शुं कहे छे? तने शुं थयुं छे प्रभु? जेने जैनधर्म एटले मोक्षमार्ग प्रगट थयो छे एवो ज्ञानी परनो कर्ता तो शुं रागनो पण कर्ता थतो नथी. ज्ञानी अने अज्ञानी कोई परद्रव्यनुं कार्य करी शकतो नथी. केमके प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र छे अने स्वतंत्रपणे परिणमे छे. एमां बीजो शुं करे? शुं पर्याय विनानुं, कार्य विनानुं कयारेय कोई द्रव्य छे? प्रतिसमय द्रव्य स्वयं पोतानुं कार्य करे छे त्यां बीजो शुं करे? अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यनुं कार्य करे एम माने ए तो स्थूळ भूल छे, मिथ्यादर्शन छे. एनुं फळ खूब आकरुं आवशे भाई!
परमात्मा कहे छे के परनो कर्ता तो कोई थई शकतो नथी अने रागभावनो जे कर्ता थाय ते अज्ञानी छे. अहीं कहे छे-अज्ञानीने अज्ञानमयभावमांथी नीपजेला सर्व भाव अज्ञानमय होय छे केमके ते अज्ञानमयपणाने उल्लंघता नथी. अज्ञानी बे ने बे चार कहे तोपण तेनुं खोटुं छे केमके कारणकार्यना स्वरूपमां तेने फेर छे, भूल छे. मोक्षमार्गप्रकाशकमां (चोथा अधिकारमां) आवे छे के अज्ञानीने कारणविपरीतता, स्वरूपविपरीतता अने भेदाभेदविपरीतता होय छे. अहो! गृहस्थाश्रममां रहीने पण पंडितप्रवर टोडरमलजीए शुं अजब काम कर्युं छे!
अरे! कोईने आवी वात न बेसे अने ते गमे तेम कहे तो तेथी शुं थाय? भाई! कोई प्रत्ये द्वेष करवो के विरोध करवो ए तो मार्ग नथी. ‘सत्वेषु मैत्री’ सर्व जीवो प्रत्ये मैत्रीभाव ज्ञानीने होय छे. कोईने आ वात बेसे तोय ते स्वतंत्र छे अने कोईने न बेसे तोय ते स्वतंत्र छे.
योगसारमां आवे छे के पापने तो जगतमां सौ पाप कहे छे; पण पुण्य पण खरेखर पाप छे एम कोई विरला अनुभवी बुधपुरुष ज कहे छे-
पुण्यतत्त्व पण पाप छे कहे अनुभवी बुध कोई.’’ ७१. (योगसार)
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शुभराग मारो छे एम अज्ञानी माने छे. पण ज्ञानी तो कहे छे के पुण्यभाव पण पाप छे. दया, दान, व्रतादिना शुभरागना भाव ते पाप छे. पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपथी खसी जाय, पतित थाय त्यारे ए भाव थाय छे माटे ते पाप तत्त्व छे. लोकोने पुण्यबंधनुं फळ जे भोगसामग्री अने अनुकूळ संजोगो-तेनी मीठाश छे अने तेथी पुण्यबंधना कारणरूप पुण्यभाव जे शुभराग तेनी पण मीठाश छे. तेथी आ वात तेमने कडक लागे छे. परंतु भाई! तने जे शुभरागनी मीठाश छे ते अज्ञानमय भाव छे अने ते अज्ञानमय भावमांथी, अज्ञानजातिने अतिक्रमता नहि होवाथी अज्ञानभाव ज उत्पन्न थाय छे, ज्ञानमय भाव उत्पन्न थता नथी एम अहीं कहे छे. भाई! आ शुभरागनी मीठाश तने कयां लई जशे? जन्म-मरणरूप संसारमां अने अंते ते निगोद लई जशे, केमके मिथ्यात्वनुं फळ (अंते) निगोद छे.
हवे कहे छे-‘ज्ञानीने-के जे पोते ज्ञानमय भाव छे तेने-ज्ञानमयभावमांथी, ज्ञाननी जातिने नहि उल्लंघता एवा सर्व ज्ञानमय भावो ज थाय परंतु अज्ञानमय भावो न थाय.’
परद्रव्यना भावोथी रहित, निर्मळानंदनो नाथ चित्चमत्कारमात्र भगवान आत्मा छे. आवा पोताना आत्मानां द्रष्टि अने अनुभव जेने थयां छे ते ज्ञानी छे. ए ज्ञानी एम जाणे छे के जाणवुं अने देखवुं बस ए ज मारुं कार्य छे. ज्ञानीने ज्ञानानंदस्वभाव मारी चीज छे एम सत्यनो आग्रह नाम द्रढ निश्चय अने श्रद्धान छे. तेनी द्रष्टि पोताना चैतन्यस्वभावथी खसती नथी अने तेथी तेने ज्ञानमय भाव छे. ज्ञानमयभावमांथी, ज्ञाननी जातिने नहि ओळंगता होवाथी सर्व ज्ञानमय भावो ज ज्ञानीने उत्पन्न थाय छे परंतु अज्ञानमय भावो उत्पन्न थता नथी.
प्रश्नः– तो शुं ज्ञानीने राग आवतो ज नथी?
उत्तरः– ज्ञानीने यथापदवी राग आवे छे पण ते तेना ज्ञाता छे, कर्ता नथी. जे अल्प राग आवे छे तेने ते परज्ञेयरूपे जाणे छे. ज्ञानीने रागनुं स्वामित्व होतुं नथी. तेथी ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानमय ज होय छे, अज्ञानमय होता नथी.
भगवान ऋषभदेव परमात्मा अष्टापद पर्वत परथी निर्वाण पाम्या त्यारे भगवाननो विरह पडतां भरत महाराजाने हृदयमां खूब दुःख थयुं, आंखमां आंसु आव्यां. ‘अरे! भारतवर्षनो देदीप्यमान सूर्य अस्त थई गयो!’ एवा विरहना विचारथी घणुं दुःख अनुभववा लाग्या. त्यारे इन्द्रे कह्युं-भरतजी! तमारे तो आ छेल्लो देह छे. अमे तो हजु एक भव करीने मोक्षे जवाना छीए. विरहना दुःखथी तमारी आंखोमां आंसु! शुं आ तमने शोभे? महाराजा भरते कह्युं-आ तो कमजोरीनो-अस्थिरतानो राग
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आव्यो छे; हुं तो तेनो जाणनारमात्र ज्ञाता-द्रष्टा छुं, हुं तेनो कर्ता नथी. जुओ, आ ज्ञानीनी स्वभावद्रष्टि!
जेवी द्रष्टि तेवी सृष्टि. अज्ञानीनी द्रष्टि राग उपर छे. तेथी अज्ञानीने मिथ्यात्वादि रागमय-अज्ञानमय भावो ज उत्पन्न थाय छे. ज्यारे ज्ञानीनी ज्ञानस्वभाव उपर द्रष्टि छे, तेथी तेमने ज्ञानमय भावनी ज सृष्टि-उत्पत्ति थाय छे. अल्प अस्थिरतानो जे राग थाय छे तेने ज्ञानमां परज्ञेय तरीके जाणे छे. राग मारी चीज छे एम रागनुं स्वामित्व ज्ञानी स्वीकारता नथी. ते रागना ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी.
लोकोने व्यवहारनी क्रियानो प्रेम छे, परंतु क्रियानो विकल्प छे ए राग छे. दया, दान, व्रत आदि क्रियाना शुभ विकल्प राग छे. राग छे ते खरेखर हिंसा छे. पुरुषार्थसिद्धयुपायना ४४ मा छंदमां अमृतचंद्रस्वामीए कह्युं छे के-निश्चयथी रागादि भावोनुं प्रगट न थवुं ए अहिंसा छे अने रागादि भावोनुं उत्पन्न थवुं ते हिंसा छे. आ जैन सिद्धांतनो सार छे.
भाई! षोडशकारणभावनानो राग ते धर्म नथी. तेना निमित्ते तीर्थंकरनामकर्मनी प्रकृति बंधाय छे अने सम्यग्द्रष्टिने ज एवो शुभराग आवे छे तोपण ते धर्म नथी. राग छे ने? ते रागना ज्ञानी कर्ता नथी, ज्ञाता छे. तथा रागनो जेने प्रेम छे एवा अज्ञानीनी भूमिकामां आवी जातनो राग आवतो ज नथी अने तेने तीर्थंकरप्रकृति बंधाती नथी.
श्रेणिक महाराज आवती चोवीसीमां प्रथम तीर्थंकर थशे. माताना गर्भमां पधारशे त्यारे इन्द्रो अने देवो महोत्सव उजवशे. माताना गर्भमां सवानव मास रहे त्यां पण सम्यग्द्रष्टि रागनो ज्ञाता-द्रष्टा छे, कर्ता नथी. अहाहा...! जेना वडे जन्म-मरणनो अंत आवे ते सम्यग्दर्शन कोई अलौकिक चीज छे, भाई! जेने आनंदनो नाथ अंदर जागी गयो छे ते धर्मी जीव निरंतर ज्ञाताद्रष्टास्वभावे ज्ञानभावे परिणमे छे, रागभावे नहि. आवुं ज स्वरूप छे.
कळश-टीकामां श्लोक ६७ मां कह्युं छे के-‘‘सम्यग्द्रष्टि जीवनी अने मिथ्याद्रष्टि जीवनी क्रिया तो एकसरखी छे, क्रियासंबंधी विषय-कषाय पण एकसरखा छे, परंतु द्रव्यनो परिणमनभेद छे. सम्यग्द्रष्टिनुं द्रव्य शुद्धत्वरूप परिणम्युं छे तेथी जे कोई परिणाम बुद्धिपूर्वक अनुभवरूप छे अथवा विचाररूप छे अथवा व्रतक्रियारूप छे अथवा भोगअभिलाषरूप छे अथवा चारित्रमोहना उदये क्रोध-मान-माया-लोभरूप छे ते सघळाय परिणाम ज्ञानजातिमां घटे छे, केमके जे कोई परिणाम छे ते संवर-निर्जरानुं कारण छे;-एवो ज कोई द्रव्य-परिणमननो विशेष छे.
मिथ्याद्रष्टिनुं द्रव्य अशुद्धरूप परिणम्युं छे, तेथी जे कोई मिथ्याद्रष्टिना परिणाम छे ते अनुभवरूप तो होता ज नथी; तेथी सूत्र-सिद्धांतना पाठरूप छे अथवा व्रत
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तपश्चरणरूप छे अथवा दान-पूजा-दया-शीलरूप छे अथवा भोगाभिलाषरूप छे अथवा क्रोध- मान-माया-लोभरूप छे, -आवा सघळा परिणाम अज्ञानजातिना छे, केमके बंधनुं कारण छे, संवर-निर्जरानुं कारण नथी;-द्रव्यनो एवो ज परिणमन विशेष छे.’’
आ प्रमाणे ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानमय ज छे, अज्ञानमय नथी अने अज्ञानीना सर्व भावो अज्ञानमय ज छे, ज्ञानमय नथी.
‘जेवुं कारण होय तेवुं ज कार्य थाय छे’ ए न्याये जेम लोखंडमांथी लोखंडमय कडां वगेरे वस्तुओ थाय छे अने सुवर्णमांथी सुवर्णमय आभूषणो थाय छे, तेम अज्ञानी पोते अज्ञानमय भाव होवाथी तेने (अज्ञानमय भावमांथी) अज्ञानमय भावो ज थाय छे अने ज्ञानी पोते ज्ञानमय भाव होवाथी तेने (ज्ञानमय भावमांथी) ज्ञानमय भावो ज थाय छे.
अज्ञानीने शुभाशुभ भावोमां आत्मबुद्धि होवाथी तेना सर्व भावो अज्ञानमय ज छे. अज्ञानीने शुभाशुभ भाव मारा छे एम तेमां आत्मबुद्धि छे. ते शुभभावथी पोताने लाभ थाय अने ते पोतानुं कर्तव्य छे एम माने छे. तेथी अज्ञानीना सर्व भाव अज्ञानमय ज छे. तथा जेटला शुभाशुभ भाव छे ते बंधनुं कारण छे.
‘अविरत सम्यग्द्रष्टि (-ज्ञानी) ने जोके चारित्रमोहना उदये क्रोधादिक भावो प्रवर्ते छे तोपण तेने ते भावोमां आत्मबुद्धि नथी, ते तेमने परना निमित्तथी थयेली उपाधि माने छे.’
ज्ञानीने क्रोध, मान आदि भाव आवे छे, तेनी रुचि नथी छतां नबळाईथी ते भाव आवे छे; परंतु ते भाव मारी चीज छे अने तेनाथी मने लाभ छे एवी ज्ञानीनी बुद्धि होती नथी. कर्मना उदयना निमित्ते थयेला ते भावने ज्ञानी उपाधि माने छे.
तेने क्रोधादिक कर्मो उदयमां आवीने खरी जाय छे-आगामी एवो बंध करतां नथी के जेथी संसारनुं भ्रमण वधे. ज्ञानी जे कर्म उदयमां आवे छे तेमां थोडा जोडाय पण छे, छतां ते राग खरी जाय छे केमके तेने तेनुं स्वामीपणुं नथी. ते एवो बंध करतो नथी के जेथी संसारनुं परिभ्रमण वधे, कारण के ज्ञानी पोते उद्यमी थईने क्रोधादिभावरूपे परिणमतो नथी अने जोके उदयनी बळजोरीथी परिणमे छे तोपण ज्ञातापणुं चूकीने परिणमतो नथी.
विकार करवा लायक छे एवा ऊंधा पुरुषार्थपणे ज्ञानी परिणमता नथी. कर्मना उदयमां ते पोतानी कमजोरीथी जोडाय छे तोपण ज्ञातापणुं चूकीने रागमयपणे परिणमता नथी. हुं ज्ञाता-द्रष्टा छुं ए भूलीने ते रागस्वभावे परिणमता नथी. धर्मीने दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा आदिना शुभभाव आवे छे पण तेमां आत्मबुद्धि नथी. ज्ञानीनुं
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स्वामित्व निरंतर ज्ञानमां ज वर्ते छे. एनी द्रष्टि ज्ञानस्वभाव उपर ज सतत मंडायेली रहे छे. तेथी ते क्रोधादि भावोनो अन्य ज्ञेयोनी माफक ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. आ रीते ज्ञानीना सर्व भावो ज्ञानमय ज छे.
आत्मा ज्ञानस्वरूप प्रभु सर्वज्ञस्वभावमय छे; एनी जेने द्रष्टि थई छे ते ज्ञानी ज्ञानस्वरूपे परिणमे छे. ज्ञाननुं उल्लंघन करीने ज्ञानी परिणमता नथी. ज्ञानीनुं स्वामित्व निरंतर ज्ञानमां ज वर्ते छे. ज्ञानीने रागादिमां स्वामीपणुं नथी. अशुभराग पण कदाचित् ज्ञानीने थाय छे पण तेनुं तेने स्वामीपणुं नथी.
ज्ञानी अन्य ज्ञेयोनी माफक क्रोधादि विकारी भावोनो ज्ञाता ज छे, कर्ता नथी. शरीर, मन, वाणी इत्यादि पर पदार्थ जेम ज्ञेय छे, जाणवा लायक छे तेम नबळाईथी थता रागादि विकारी भाव ज्ञानीने ज्ञानना ज्ञेय छे, जाणवा लायक छे, ज्ञानी तेना कर्ता थता नथी. रागादि भाव करवा लायक छे एम मानता नथी माटे कर्ता नथी; परिणमन छे ए अपेक्षाथी कर्ता कहेवामां आवे छे ए जुदी वात छे.
समकितीना अंतरनी लोकोने खबर नथी. लोको तो बस आ करो ने ते करो-व्रत करो, तप करो, उपवास करो, जात्रा करो, भक्ति करो, दान करो, मंदिरो बंधावो, प्रतिष्ठा करावो, एम पांच-पचीस लाख खर्च करो इत्यादि वडे धर्म थवो माने छे, पण एमां तो धूळेय धर्म नथी. ए तो शुभभाव छे, पुण्यबंधनुं कारण छे. अज्ञानी एने धर्म माने छे ते मिथ्यात्व छे अने ज्ञानी तेने परज्ञेय तरीके पोताना ज्ञानमां जाणे छे. ज्ञानी अने अज्ञानीना अभिप्रायमां मोटुं अंतर छे, उगमणो-आथमणो फेर छे. जेम धावमाता बाळकने धवरावे पण ए मारो दीकरो छे एम मानती नथी, तेम धर्मी जीवने राग आवे छे पण राग मारो छे एवुं एने स्वामित्व नथी. जे राग आवे छे तेने मात्र परज्ञेय तरीके जाणे छे. पोतानुं ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे ते स्वज्ञेय छे. ज्ञानीनी द्रष्टि स्वज्ञेय जे शुद्ध आत्मा त्यांथी खसती नथी अने तेथी तेना सर्व भावो ज्ञानमय ज होय छे.
सम्यग्द्रष्टिनी रुचि शुद्ध आत्मद्रव्यमां छे. अंदर परिपूर्ण शुद्ध चैतन्य एकलो उज्ज्वळ पवित्र अनंतगुणोनो पिंड प्रभु आत्मा विराजी रह्यो छे तेनी ज्ञानीने निरंतर रुचि छे, तेने रागादि भावनी रुचि नथी. जेम कोई नोकर शेठनुं काम करतो होय ते बोले एम के-अमारे माल लेवो छे, अमारे माल वेचवो छे इत्यादि. परंतु अंदर जाणे छे के ‘अमारे’ एटले पोताने नहि पण शेठने माल लेवानो-वेचवानो छे. तेम रागादि भाव जे ज्ञानीने आवे छे तेने अंदरथी एम जाणे छे के-आ रागादि भाव छे ते मारो नथी, ए तो कर्मनी उपाधि छे; मारो तो एक चिदानंदमय शुद्ध ज्ञायकभाव छे. राग मारुं कर्तव्य नहि, ज्ञान मारुं कर्तव्य छे अने रागनो हुं तो ज्ञातामात्र छुं.
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हवे एक दि बन्युं एम के एमनो जुवानजोध दीकरो एकाएक गुजरी गयो. स्मशानेथी बाळीने सौ घेर आव्या. घरमां सौ रो-ककळ करे अने बधे शोकनुं गमगीन वातावरण बनी गयुं. दीकरानो बाप शेठ कहे-रोटला-रोटली बनावो, आजे चूरमु न खवाय. सौ सगांवहालां कहे- तमने चूरमानी टेव छे माटे तमे चूरमु ज खाओ, तमने बीजुं माफक नहि आवे. ते वखते सौए सादुं भोजन कर्युं. शेठे चूरमु खाधुं, पण चूरमानी एमने होंश न हती. तेम ज्ञानीने राग आवे छे पण तेने रागनी होंश नथी. धर्मीने रागनी रुचि खलास थई गई होय छे.
प्रश्नः– ज्ञानीने उदयनी बळजोरीथी राग आवे छे एटले शुं?
उत्तरः– उदयनी बळजोरीथी राग आवे छे ए तो निमित्तनी मुख्यताथी कह्युं छे. एनो अर्थ एम छे के ज्ञानीने पुरुषार्थनी कमजोरी छे. जे राग आवे छे ते पोताना अपराधथी आवे छे अने ते पोताना कारणे आवे छे. जडकर्मने लईने राग थाय छे वा जडकर्मनो उदय राग करावे छे एम छे ज नहि, कर्म तो जड छे. कह्युं छे ने के-
ज्यां ज्यां एम कथन आवे के कर्मना उदयनी बळजोरीथी राग थाय छे त्यां त्यां एम समजवुं के राग पोतानी कमजोरीथी पोताना कारणे थाय छे अने कर्मनो उदय तेमां निमित्त- मात्र छे. (पुरुषार्थ कमजोर छे तो कर्म बळवान छे एम निमित्तथी कहेवामां आवे छे).
हवे आगळनी गाथानी सूचनाना अर्थरूप श्लोक कहे छेः-
‘अज्ञानी’ अज्ञानी ‘अज्ञानमयभावानाम् भूमिकाम्’ (पोताना) अज्ञानमय भावोनी भूमिकामां ‘व्याप्य’ व्यापीने ‘द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानाम्’ (आगामी) द्रव्यकर्मनां निमित्त जे (अज्ञानादिक) भावो तेमना ‘हेतुताम् एति’ हेतुपणाने पामे छे. (अर्थात् द्रव्यकर्मनां निमित्तरूप भावोनो हेतु बने छे.)
अज्ञानी पोताना अज्ञानमय भावोनी भूमिकामां एटले रागनी रुचिमां पडयो छे. पोतानो जे त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वभाव, वीतरागस्वभाव तेने छोडीने अज्ञानी रागनी रुचिमां जोडायो छे. अज्ञानमय भावोनी भूमिकामां व्यापीने द्रव्यकर्मनां निमित्त जे अज्ञानादिक भावो छे तेमना हेतुपणाने पामे छे. अर्थात् द्रव्यकर्मना निमित्तरूप भावोनो हेतु बने छे.
जूना कर्मना उदयनुं लक्ष करीने, नवा कर्मबंधना कारणरूप जे अज्ञानभाव तेना हेतुपणाने प्राप्त थाय छे. आ अज्ञानीनी वात करी छे.
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मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असद्दहाणत्तं।। १३२ ।।
जो दु कलुसोवओगो जीवाणं सो कसाउदओ।। १३३ ।।
सोहणमसोहणं वा कायव्वो विरदिभावो वा।। १३४ ।।
परिणमदे अट्ठविहं णाणावरणादिभावेहिं।। १३५ ।।
तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं।। १३६ ।।
आ ज अर्थपांच गाथाओथी कहे छेः-
अप्रतीत तत्त्वनी जीवने जे, उदय ते मिथ्यात्वनो; १३२,
जीवने कलुष उपयोग जे, ते उदय जाण कषायनो; १३३.
उत्साह वर्ते जीवने, ते उदय जाण तुं योगनो. १३४.
ते अष्टविध ज्ञानावरणइत्यादिभावे परिणमे; १३प.
आत्माय जीवपरिणामभावोनो तदा हेतु बने. १३६.
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मिथ्यात्वस्य तूदयो जीवस्याश्रद्दधानत्वम्।। १३२ ।।
यस्तु कलुषोपयोगो जीवानां स कषायोदयः।। १३३ ।।
शोभनोऽशोभनो वा कर्तव्यो विरतिभावो वा।। १३४ ।।
परिणमतेऽष्टविधं ज्ञानावरणादिभावैः।। १३५ ।।
तदा तु भवति हेतुर्जीवः परिणामभावानाम्।। १३६ ।।
गाथार्थः– [जीवानाम्] जीवोने [या] जे [अतत्त्वोपलब्धिः] तत्त्वनुं अज्ञान (अर्थात् वस्तुस्वरूपनुं अयथार्थ-विपरीत ज्ञान) छे [सः] ते [अज्ञानस्य] अज्ञाननो [उदयः] उदय छे [तु] अने [जीवस्य] जीवने [अश्रद्दधानत्वम्] जे (तत्त्वनुं) अश्रद्धान छे ते [मिथ्यात्वस्य] मिथ्यात्वनो [उदयः] उदय छे; [तु] वळी [जीवानां] जीवोने [यद्] जे [अविरमणम्] अविरमण अर्थात् अत्यागभाव छे ते [असंयमस्य] असंयमनो [उदयः] उदय [भवेत्] छे [तु] अने [जीवानां] जीवोने [यः] जे [कलुषोपयोगः] मलिन (अर्थात् जाणपणानी स्वच्छता रहित) उपयोग छे [सः] ते [कषायोदयः] कषायनो उदय छे; [तु] वळी [जीवानां] जीवोने [यः] जे [शोभनः अशोभनः वा] शुभ के अशुभ [कर्तव्यः विरतिभावाः वा] प्रवृत्ति के निवृत्तिरूप [चेष्टोत्साहः] (मनवचनकाया-आश्रित) चेष्टानो उत्साह छे [तं] ते [योगोदयं] योगनो उदय [जानीहि] जाण.
[एतेषु] आ (उदयो) [हेतुभूतेषु] हेतुभूत थतां [यत् तु] जे [कार्मणवर्गणागतं] कार्मणवर्गणागत (कार्मणवर्गणारूप) पुद्गलद्रव्य [ज्ञानावरणादिभावैः अष्टविधं] ज्ञानावरणादिभावोरूपे आठ प्रकारे [परिणमते] परिणमे छे, [तत् कार्मणवर्गणागतं] ते कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य [यदा] ज्यारे [खलु] खरेखर [जीवनिबद्धं] जीवमां बंधाय छे [तदा तु] त्यारे [जीवः] जीव [परिणामभावानाम्] (पोताना अज्ञानमय) परिणामभावोनो [हेतुः] हेतु [भवति] थाय छे.
टीकाः– तत्त्वना अज्ञानरूपे (अर्थात् वस्तुस्वरूपनी अन्यथा उपलब्धिरूपे) ज्ञानमां स्वादरूप थतो (-स्वादमां आवतो) अज्ञाननो उदय छे. मिथ्यात्व, असंयम, कषाय अने योगना उदयो-के जेओ (नवां) कर्मना हेतुओ छे तेओ-ते-मय अर्थात् अज्ञानमय
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चार भावो छे. तत्त्वना अश्रद्धानरूपे ज्ञानमां स्वादरूप थतो मिथ्यात्वनो उदय छे; अविरमणरूपे (अत्यागभावरूपे) ज्ञानमां स्वादरूप थतो असंयमनो उदय छे; कलुष (मलिन) उपयोगरूपे ज्ञानमां स्वादरूप थतो कषायनो उदय छे; शुभाशुभ प्रवृत्ति के निवृत्तिना व्यापाररूपे ज्ञानमां स्वादरूप थतो योगनो उदय छे. आ पौद्गलिक मिथ्यात्वादिना उदयो हेतुभूत थतां जे कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादिभावे आठ प्रकारे स्वयमेव परिणमे छे, ते कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्यारे जीवमां निबद्ध थाय त्यारे जीव स्वयमेव अज्ञानथी स्वपरना एकत्वना अध्यासने लीधे तत्त्व-अश्रद्धान आदि पोताना अज्ञानमय परिणामभावोनो हेतु थाय छे.
भावार्थः– अज्ञानभावना भेदरूप जे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगना उदयो ते पुद्गलना परिणाम छे अने तेमनो स्वाद अतत्त्वश्रद्धानादिरूपे ज्ञानमां आवे छे. ते उदयो निमित्तभूत थतां, कार्मणवर्गणारूप नवां पुद्गलो स्वयमेव ज्ञानावरणादि कर्मरूपे परिणमे छे अने जीव साथे बंधाय छे; अने ते समये जीव पण स्वयमेव पोताना अज्ञानभावथी अतत्त्वश्रद्धानादि भावोरूपे परिणमे छे अने ए रीते पोताना अज्ञानमय भावोनुं कारण पोते ज थाय छे.
मिथ्यात्वादिनो उदय थवो, नवां पुद्गलोनुं कर्मरूपे परिणमवुं तथा बंधावुं, अने जीवनुं पोताना अतत्त्वश्रद्धानादि भावोरूपे परिणमवुं-ए त्रणेय एक समये ज थाय छे; सौ स्वतंत्रपणे पोतानी मेळे ज परिणमे छे, कोई कोईने परिणमावतुं नथी.
आ ज अर्थ पांच गाथाओथी कहे छेः-
‘तत्त्वना अज्ञानरूपे (अर्थात् वस्तुस्वरूपनी अन्यथा उपलब्धिरूपे) ज्ञानमां स्वादरूप थतो (स्वादमां आवतो) अज्ञाननो उदय छे. मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, अने योगना उदयो-के जेओ (नवां) कर्मना हेतुओ छे तेओ-ते-मय अर्थात् अज्ञानमय चार भावो छे.’
जुओ, आत्मा त्रिकाळ ज्ञानस्वभावी परम पवित्र प्रभु छे. तेनुं भान नहि होवाथी पर्यायमां अज्ञानभावे परिणमे छे. जड पुद्गल उदयमां आवतां ज्ञानमां जे अज्ञानरूप, विपरीतज्ञानरूप स्वाद आवे छे ते खरेखर जड पुद्गलनो स्वाद छे, ते आत्मानो-शुद्ध चैतन्यनो पवित्रतानो स्वाद नथी. अहीं अज्ञानमय भावना चार भेद कह्या छे-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय अने योग. अज्ञानभावमां आ चारेय ऊभा छे अने जेने आत्मद्रष्टि थई छे एवा ज्ञानीने (द्रष्टि अपेक्षाए) चारेय भाव टळी गया छे.
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शुद्ध चैतन्यस्वभावमां अहंबुद्धि न करतां परमां अहंबुद्धि करवी ते मिथ्यात्व छे. शुद्ध चैतन्यमां टकवाने बदले परमां आसक्तिभावे टकवुं ते अविरति छे. निर्मळ स्वभावमां न रोकातां मलिन उपयोगमां रोकावुं ते कषाय छे. निश्चल निष्कंप स्वभावमां न रोकातां कंपनमां रोकावुं ते योग छे. आ चारेय अज्ञानमय भावो छे. हवे जेने आत्मानुं सम्यक् भान थयुं तेने मिथ्यात्व गयुं. अंशे स्थिरता थई, मिथ्यात्वसंबंधी कषाय गयो अने मिथ्यात्वसंबंधी योग पण गयो. अहाहा...! सम्यग्दर्शन थयुं त्यां चारेय टळी गया. समकितीने स्वभाव पर द्रष्टि छे अने स्वभावद्रष्टिमां तेने चारेय टळी गया छे.
वस्तुमां-द्रव्यस्वभावमां अज्ञान नथी, मिथ्यात्व नथी, अविरति नथी, कषाय नथी, योग नथी. तेथी जेने द्रव्यद्रष्टि प्रगट थई छे एवा समकितीनी द्रष्टिमां पण चारेय नथी. समकितीने सदा ज्ञानभाव छे अने ज्ञानभावमां अज्ञानमय भावोनुं कर्ताकर्मपणुं नथी. ज्ञानभाव थतां अज्ञानमय भावोनुं कर्ताकर्मपणुं होतुं नथी. समकितीने अल्प विकारना परिणामो थाय छे खरा, पण तेनो ते स्वामी नथी, कर्ता नथी. समकिती तो अवस्थामां जे विकार थाय तेनो मात्र ज्ञाता ज छे. परंतु आत्माना भान विना अज्ञानीने ए चारेय अज्ञानमय भाव छे. ए वात अहीं कहे छे-
तत्त्वना अज्ञानरूपे ज्ञानमां स्वादरूप थतो अज्ञाननो उदय छे. मिथ्यात्व, असंयम, कषाय अने योगना उदयो-के जेओ (नवां) कर्मना हेतुओ छे तेओ-तेमय अज्ञानमय चार भावो छे.
‘तत्त्वना अश्रद्धानरूपे ज्ञानमां स्वादरूप थतो मिथ्यात्वनो उदय छे; अविरमणरूपे (अत्यागभावरूपे) ज्ञानमां स्वादरूप थतो असंयमनो उदय छे; कलुष (मलिन) उपयोगरूपे ज्ञानमां स्वादरूप थतो कषायनो उदय छे; शुभाशुभ प्रवृत्ति के निवृत्तिना व्यापाररूपे ज्ञानमां स्वादरूप थतो योगनो उदय छे.’
आत्मा शुद्ध चिदानंदघन वस्तु छे. तेनी प्रतीति विना ज्ञानमां तत्त्वनी भ्रान्तिरूप जे स्वाद आवे छे ते कलुषित छे, आकुळतामय छे अने तेमां मिथ्यात्वना उदयनुं निमित्त छे. तेवी रीते विषयोमां आसक्तिरूप असंयमनो, मलिन उपयोगरूप कषायनो अने शुभाशुभ प्रवृत्ति के निवृत्तिना व्यापाररूप योगनो जे ज्ञानमां स्वाद आवे छे ते पण कलुषित छे, आकुळतामय दुःखरूप छे, अने तेमां अविरति आदि पूर्वकर्मना उदयनुं निमित्त छे.
हवे अहीं एम सिद्ध करवुं छे के जूनां पुद्गलकर्मनो उदय नवां कर्मना बंधनुं कारण थाय छे. मिथ्यात्व, अविरति आदि जे पूर्वनां कर्म छे तेनो उदय नवा बंधनुं कारण छे. पण कोने? के जे मिथ्यात्व, अविरति आदि अज्ञानभावरूपे परिणमे छे तेने. सूक्ष्म वात छे, प्रभु! वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो मार्ग लोकोने सांभळवा मळ्यो नथी.
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कहे छे के जूनां कर्मनो उदय-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योगनो उदय छे ते नवां कर्मबंधनुं कारण छे. परंतु कोने? जे अज्ञानभावे, मिथ्यात्व अने रागद्वेषरूपे परिणमे तेने. ज्ञानीने पूर्वकर्मनो उदय छे ते नवां कर्मबंधनुं कारण थतो नथी केमके ते स्वामीपणे उदयमां जोडाता नथी अने तेथी तेने जूनां कर्म छे ते खरी जाय छे, नवो बंध थतो नथी. कळश टीकामां पण कह्युं छे के उदयमात्र बंधनुं कारण नथी. उदयमात्रथी जो बंध थाय तो कदी मोक्ष थई शके नहि.
अहीं एक समयमां त्रण वात छे-
१. दर्शनमोह आदि कर्मनो उदय, २. ते ज समये नवां कर्मनो बंध, ३. अने ते ज समये अज्ञानी जीव स्वयं मिथ्यात्वादि भावरूपे परिणमे छे ते.
अज्ञानीने जुनां कर्मनो उदय छे ते नवा बंधमां निमित्त कहेवामां आवे छे अने जे मिथ्यात्वना भाव न करे तेने ते समये जूनां कर्मनो उदय (बंध कर्या विना) खरी जाय छे. आवी वात छे अटपटी. हवे कहे छे-
‘आ पौद्गलिक मिथ्यात्वादिना उदयो हेतुभूत थतां जे कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादिभावे आठ प्रकारे स्वयमेव परिणमे छे, ते कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्यारे जीवमां निबद्ध थाय त्यारे जीव स्वयमेव अज्ञानथी स्वपरना एकत्वना अध्यासने लीधे तत्त्व - अश्रद्धान आदि पोताना अज्ञानमय परिणामभावोनो हेतु थाय छे.’
जुओ, पौद्गलिक मिथ्यात्वादिना उदयकाळे जे नवां कर्म बंधाय छे ते स्वयमेव परिणमे छे. नवां कर्म परिणमे ते स्वतंत्रपणे परिणमे छे. जूनां कर्मनो उदय तेने परिणमावे छे एम नथी. बधुं ज स्वतंत्र छे एम सिद्ध करे छे.
१. पूर्व कर्मनो उदय आवे छे ते स्वतंत्र, २. उदयकाळे नवां कर्म बंधाय ते पण स्वतंत्र, अने ३. जीव मिथ्याश्रद्धारूप मिथ्यात्वना भाव पोतामां करे छे ते पण स्वतंत्र.
राग मारी चीज छे, मारुं कर्तव्य-कार्य छे, एवा मिथ्याद्रष्टिना (मिथ्याश्रद्धानरूप) भाव नवा कर्मबंधमां निमित्त थाय त्यारे जूनां कर्मने नवा कर्मबंधनुं निमित्त कहेवामां आवे छे.
झीणी वात छे भाई! जूनां कर्म पण स्वतंत्र, नवो बंध थाय ते पण स्वतंत्र अने वच्चे जीव राग-द्वेष अने अज्ञानपणे परिणमे ते पण स्वतंत्र. अहो! समयसार खूब गंभीर चीज छे भाई! पंचमआरामां आचार्य कुंदकुंददेवे तीर्थंकरतुल्य काम कर्युं छे अने आचार्य अमृतचंद्रदेवे गणधरतुल्य काम कर्युं छे. श्री कुंदकुंददेवने नमस्कार