Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 126-127.

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जीव अनादिथी ध्रुवपणे रहीने परिणमे छे. तेनो परिणमनस्वभाव अनादिनो छे. पर्यायमां पलटवुं-बदलवुं ए पोतानो स्वभाव छे. ज्यारे पोतानो उपयोग क्रोध-मान-माया- लोभमां जाय छे त्यारे ते-रूपे पोते परिणमे छे. कोई कर्म के बीजी चीज तेने क्रोधादिरूपे परिणमावे छे एम छे नहि. पोतानो जाणन-देखन जे उपयोग ते क्रोधादिरूप परिणमे छे त्यारे पोते ज क्रोधादिरूप थाय छे.

जीवनो परिणमनस्वभाव होवाथी ते विकाररूपे परिणमे छे. ते परिणाम तेनुं कार्य छे अने जीव तेनो कर्ता छे. परनुं कार्य तो जीव किंचित् करी शक्तो नथी. शरीरनुं हालवुं-चालवुं, खावुं-पीवुं, बोलवुं इत्यादि क्रिया आत्मा करी शक्तो नथी. हुं शरीरनां काम करुं, देशनी- समाजनी सेवा करुं, परनी दया पाळुं, परने मदद करुं इत्यादि अज्ञानी जीव माने छे पण ते तेनुं मिथ्या अभिमान छे.

मिथ्याद्रष्टि जीव पोताना परिणाममां जे क्रोध-मान-माया-लोभ अने मिथ्यात्वना भाव करे छे ते भावनो ते पोते कर्ता छे. ते भावोनो कर्ता जडकर्म नथी. पोताना परिणाम सिवाय शरीर, मन, वाणी, कुटुंब-कबीला, धंधो-वेपार-उद्योग इत्यादि ए बधानी पर्याय आत्मा त्रणकाळमां करी शक्तो नथी. तथापि ए बधां परनां कार्य हुं करुं छुं एम मिथ्या अभिमान करीने पोते मिथ्यात्वादि भावे परिणमे छे. कोई दर्शन-मोहनीय आदि कर्म तेने मिथ्यात्वादिरूपे परिणमावे छे एम छे नहि; क्रोधादिरूपे परिणमतां पोते क्रोधादिरूप ज थाय छे एम जाणवुं.

* * *

हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश ६पः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘इति’ आ रीते ‘जीवस्य’ जीवनी ‘स्वभावभूता परिणामशक्तिः’ स्वभावभूत परिणामशक्ति ‘निरन्तराया स्थिता’ निर्विघ्न सिद्ध थई.

जीवमां परिणमन थाय एवी स्वभावभूत शक्ति छे. कोई पर परिणमावे तो परिणमे एवी जगतमां कोई चीज नथी. अहाहा...! स्वभावभूत परिणमनशक्ति ‘निरन्तराया स्थिता’-निर्विघ्न सिद्ध थई. मतलब के जीवनी परिणमनशक्ति कोई अन्यथी बाधित नथी तथा ते कोई अन्यनी सहायनी अपेक्षा राखती नथी. कोइ विध्न करे तो परिणमन रोकाइ जाय वा कोइ सहाय करे तो परिणमन थाय एम छे नहि. एकलो आत्मा स्वयं निरंतराय परिणमे छे. हवे कहे छे-

एम सिद्ध थतां, ‘सः स्वस्य यं भावं करोति’ जीव पोताना जे भावने करे छे ‘तस्य एव सः कर्ता भवेत्’ तेनो ते कर्ता थाय छे.

स्वयं परिणमतो जीव पोते जे परिणामने करे छे ते परिणामनो ते कर्ता थाय


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छे. चाहे तो मिथ्यात्व अने राग-द्वेषना परिणाम करे, चाहे तो सम्यग्दर्शन-ज्ञानना परिणाम करे; ते ते परिणाम जीव पोते करे छे अने पोते पोताना परिणामनो कर्ता छे. पोताना परिणमनमां कोई अन्यनो हस्तक्षेप नथी अने कोई अन्यना परिणाम पोते करतो नथी. अज्ञानी अज्ञानभावे राग-द्वेषनो कर्ता थाय छे अने ज्ञानी ज्ञानभावे ज्ञाननो कर्ता थाय छे. जड परमाणुओनो-कर्मनो कर्ता ज्ञानी के अज्ञानी कोई नथी. जड कर्म पोते पोताना सामर्थ्यथी परिणमे छे अने जीव पण पोते पोताना सामर्थ्यथी परिणमे छे.

कोई पण पळे कोई संयोगी चीजथी जीवमां परिणमन थाय छे एम नथी. मिथ्यात्वना जे परिणाम थाय छे ते पोताना कारणे थाय छे, कोई कुगुरुना कारणे ए परिणाम थाय छे एम नथी. तेवी रीते सम्यक्त्वना परिणाम जे थया छे ते सहज पोताथी थया छे, कोई सुगुरुना कारणे ए परिणाम थया छे एम नथी. अन्य निमित्तथी जीवमां कार्य थाय एम त्रणकाळमां नथी. पोतानी परिणमनशक्तिथी पोतामां पोतानुं कार्य थाय छे. अहाहा...! आनुं ज नाम अनेकान्त छे के पोते पोताथी परिणमन करे छे, परथी कदीय नहि. भाई! एक पण सिद्धांत यथार्थ बेसी जाय तो सर्व खुलासो-समाधान थई जाय एवी आ वात छे. प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र छे, कोई द्रव्यनी पर्याय कोई अन्य द्रव्य करी शके ए वात त्रणकाळमां शकय नथी.

जीवमां निर्विघ्न परिणमनशक्ति छे. मतलब के जीवनी परिणमनशक्ति कोई अन्यना आश्रये नथी. जीव निर्मळ के मलिन भावे परिणमे त्यां तेनी निर्मळ के मलिन पर्याय पोताथी थाय छे, परथी-कर्मथी नहि. तेम परमाणु जे पलटे ते पोतानी परिणमनशक्तिथी पलटे छे, आत्माथी ते पलटता नथी. प्रत्येक पदार्थमां अनादि-अनंत परिणामस्वभाव छे, तेथी प्रतिसमय ते पोताथी परिणमे छे, परथी नहि. आवी ज वस्तुस्थिति छे.

आ वेपारधंधानां काम आत्मा करी शक्तो नथी एम कहे छे. कोई पण जीव कोई पण क्षेत्रे, कोई पण काळे पोतानी पर्यायनी परिणतिनो कर्ता छे, पण परनी परिणतिनो कोई पण क्षेत्रे, कोई पण काळे कोई जीव कर्ता नथी.

आ पग चाले छे ते तेनी परिणमनशक्तिथी चाले छे, जीवने लईने नहि. जीव तो जीवना पोताना परिणमनने करे छे. जीव जीवना परिणमनमां स्वतंत्र छे अने पर परना परिणमनमां स्वतंत्र छे. कोईनुं परिणमन कोई परना आश्रयथी थाय छे एवी वस्तुस्थिति ज नथी. अहो! वीतरागनुं तत्त्व आवुं अत्यंत सूक्ष्म अने हितकारी छे!

* कळश ६पः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘जीव पण परिणामी छे; तेथी पोते जे भावरूपे परिणमे छे तेनो कर्ता थाय छे.’

परमाणु परिणामस्वभावी छे ए वात आगळ आवी गई. हवे कहे छे के जीव


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पण परिणामस्वभावी छे. चाहे तो ज्ञानानंदभावे परिणमे, चाहे तो रागादिभावे परिणमे; पोते जे भावरूपे परिणमे ते भावनो ते कर्ता थाय छे. जीव रागभावे परिणमे त्यारे जे कर्मबंधन थाय ते कर्मबंधननी पर्यायनो कर्ता जीव नथी, ते कर्मबंधननी पर्यायनो कर्ता ते कर्मना परमाणु छे. ते कर्म पोताना परिणमनथी बंधाय छे. आत्मा राग-द्वेषना भाव जे पोतामां करे छे तेनो ते पोते कर्ता छे, पण जड कर्मनी पर्यायनो आत्मा कर्ता नथी.

ज्ञानी ज्ञानभावनो कर्ता छे, राग-द्वेषनो नहि; अज्ञानी राग-द्वेषनो कर्ता छे, अने परमाणु जडकर्मनो कर्ता छे; ज्ञानी के अज्ञानी कोई जडकर्मनो कर्ता नथी. आ प्रमाणे जीव जे भावरूपे पोते परिणमे छे ते भावनो ते कर्ता थाय छे.


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तथाहि–

जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स।
णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स।। १२६ ।।

यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य कर्मणः।
ज्ञानिनः स ज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः।। १२६ ।।

ज्ञानी ज्ञानमय भावनो अने अज्ञानी अज्ञानमय भावनो कर्ता छे एम हवे कहे छेः-

जे भावने आत्मा करे, कर्ता बने ते कर्मनो;
ते ज्ञानमय छे ज्ञानीनो, अज्ञानमय अज्ञानीनो. १२६.

गाथार्थः– [आत्मा] आत्मा [यं भावम्] जे भावने [करोति] करे छे [तस्य कर्मणः] ते भावरूप कर्मनो [सः] ते [कर्ता] कर्ता [भवति] थाय छे; [ज्ञानिनः] ज्ञानीने तो [सः] ते भाव [ज्ञानमयः] ज्ञानमय छे अने [अज्ञानिनः] अज्ञानीने [अज्ञानमयः] अज्ञानमय छे.

टीकाः– आ रीते आ आत्मा स्वयमेव परिणामस्वभाववाळो छे तोपण पोताना जे भावने करे छे ते भावनो ज-कर्मपणाने पामेलानो-कर्ता ते थाय छे (अर्थात् ते भाव आत्मानुं कर्म छे अने आत्मा तेनो कर्ता छे). ते भाव ज्ञानीने ज्ञानमय ज छे कारण के तेने सम्यक् प्रकारे स्वपरना विवेक वडे (सर्व परद्रव्यभावोथी) भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत उदय पामी छे. अने ते भाव अज्ञानीने तो अज्ञानमय ज छे कारण के तेने सम्यक् प्रकारे स्वपरनो विवेक नहि होवाने लीधे भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत अस्त थई गई छे.

भावार्थः– ज्ञानीने तो स्वपरनुं भेदज्ञान थयुं छे तेथी तेने पोताना ज्ञानमय भावनुं ज कर्तापणुं छे; अने अज्ञानीने स्वपरनुं भेदज्ञान नथी तेथी तेने अज्ञानमय भावनुं ज कर्तापणुं छे.

* * *
समयसार गाथा १२६ः मथाळुं

ज्ञानी ज्ञानमय भावनो अने अज्ञानी अज्ञानमय भावनो कर्ता छे एम हवे कहे छेः-


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* गाथा १२६ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आ रीते आ आत्मा स्वयमेव परिणामस्वभाववाळो छे तोपण पोताना जे भावने करे छे ते भावनो ज-कर्मपणाने पामेलानो-कर्ता ते थाय छे (अर्थात् ते भाव आत्मानुं कर्म छे अने आत्मा तेनो कर्ता छे.)’

प्रत्येक आत्मा स्वयमेव एटले निश्चयथी परिणामस्वभावी छे. स्वयं बदलवाना स्वभाववाळो छे तोपण पोताना जे भावने करे छे ते भावनो ज ते कर्ता थाय छे. जे भावरूपे पोते परिणमे छे ते भावनो ते कर्ता थाय छे अने ते भाव तेनुं कर्म नाम कार्य छे. अहीं कर्म एटले जडकर्मनी वात नथी.

आत्मा जे परिणाम करे छे ते एनुं कर्म नाम कार्य छे, अने पोते तेनो कर्ता छे. अहा! भाषा तो खूब सादी छे पण भाव खूब गंभीर छे. आ माथे टोपी पहेरेली छे ते अवस्थारूपे टोपीना परमाणुओ परिणमन करवाथी टोपी माथा उपर रही छे; आत्माथी टोपी माथा उपर रही नथी. आत्मा तो आत्माना परिणामनो कर्ता छे, टोपीनी अवस्थानो नहि. खूब गंभीर वात!

जुओ, वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वरनो आ हुकम छे. गणधरो अने इन्द्रोनी वच्चे परमात्मा दिव्यध्वनि द्वारा जे फरमावता हता ते वात अहीं आवी छे. भगवान कुंदकुंदाचार्य महाविदेहमां गया हता अने सीमंधर परमात्मानी वाणी तेमणे साक्षात् सांभळी हती. त्यांथी भरतक्षेत्रमां आवीने आ शास्त्रो बनाव्यां छे. तेओ कहे छे-भगवाननो हुकम छे के प्रत्येक आत्मा पोताना जे भावने करे छे ते भावनो पोते कर्ता छे अने ते भाव तेनुं कर्म कहेतां कार्य छे. हवे कहे छे-

‘ते भाव ज्ञानीने ज्ञानमय ज छे कारण के तेने सम्यक् प्रकारे स्वपरना विवेक वडे (सर्व परद्रव्यभावोथी) भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत उदय पामी छे. अने ते भाव अज्ञानीने तो अज्ञानमय ज छे कारण के तेने सम्यक् प्रकारे स्वपरनो विवेक नहि होवाने लीधे भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत अस्त थई गई छे.’

शुं कह्युं? धर्मी सम्यक्द्रष्टि जीव जेने एक ज्ञायकभाव हुं छुं एवो अंतरमां अनुभव थयो छे एवा ज्ञानीने जे परिणाम थाय ते ज्ञानमय ज छे. अहाहा...! धर्मीने सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रना जे परिणाम थाय छे ते ज्ञानमय ज छे. ज्ञानीना ते परिणाम आत्मामय- चैतन्यमय ज होय छे अने ते परिणामनो ज्ञानी कर्ता छे. परंतु दया, दान, व्रत आदि रागना परिणामनो ज्ञानी कर्ता नथी.

भाई! आ बधा करोडपति छे ते धूळना पति छे. आ पैसा (धन) आवे-जाय ते परमाणुनी पर्याय छे. आत्मा तेनो कर्ता नथी. तारा प्रयत्नथी ते आवे-जाय छे एम नथी. कोई एम माने के हुं पैसा कमाउं छुं अने यथेच्छ (दानादिमां) वापरुं छुं


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तो एवुं माननार जीव मूढ अज्ञानी छे, केमके पैसाना परिणामनो कर्ता ते पैसा (पैसाना परमाणु) छे. अरे! आ हाथने हुं हलावुं छुं एम जे माने छे ते मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. परमाणुमां परिणमनशक्ति छे तो तेना परिणमनथी हाथ हाले छे; ते जडना परिणामनो कर्ता आत्मा कदीय नथी.

पोताने परनो कर्ता माने ते बधा मूर्ख-पागल छे. कुंदकुंदाचार्यदेव अने अमृतचंद्राचार्यदेव केवळी भगवानना आडतिया थईने माल बतावे छे के भाई! ज्ञानीना भाव ज्ञानमय ज छे. धर्मी जीवना श्रद्धा-ज्ञान अने शान्तिना बधा वीतरागी परिणाम होय छे अने ते बधा ज्ञानमय ज छे. शरीरना जे परिणाम थाय ते ज्ञानीना परिणाम नथी. तथा दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना जे शुभभावना परिणाम थाय ते पण ज्ञानीना परिणाम नथी. स्व अने परने (रागादिने) जाणवारूप जे चैतन्यना जाणवा-देखवाना परिणाम थाय छे ते ज्ञानीनुं कार्य छे अने ते ज्ञानमय परिणामनो ज्ञानी कर्ता छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्मा जेनी द्रष्टिमां आव्यो तेवा ज्ञानीना सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रना परिणाममां रागादि अज्ञानमय परिणाम नथी.

आ मासिक (आत्मधर्म) बहार पडे छे तेना अक्षरो हुं लखुं छुं एम जो कोई माने तो ते मूढ जीव छे. अक्षरना परमाणुथी ते पर्याय थाय छे, तेने बीजो करे छे अर्थात् बीजो अक्षर लखे छे ते तद्न खोटी वात छे. अज्ञानी पोताने परनो कर्ता माने छे ते तेनुं मिथ्या अभिमान छे. बीजानी हुं रक्षा करुं छुं, बीजाने सुखी करुं छुं, बीजाने हुं मदद करुं छुं एम माननार मूढ मिथ्याद्रष्टि छे. परनुं कार्य हुं करुं छुं एवा मिथ्या परिणाम ज्ञानीने होता नथी. तथा पोतानी पर्यायमां जे रागादि भाव थाय ते मारुं कर्तव्य (कार्य) छे एम पण ज्ञानी मानता नथी. चक्रवर्ती समकितीने छ खंडनुं राज्य होय, ९६००० राणीओना वृंदमां अने तत्संबंधी रागमां ते ऊभो होय तोपण ते परिणामोनो कर्ता हुं छुं एम तेओ मानता नथी. झीणी वात छे, भाई! हुं तो ज्ञानानंदस्वभावी सच्चिदानंदस्वरूप भगवान आत्मा छुं एम ज्ञानी माने छे. अहा! शुद्ध चैतन्यना लक्षे उत्पन्न थयेला श्रद्धा-ज्ञान-शांति-स्वच्छता-वीतरागतारूप धर्मीना परिणाम ज्ञानमय ज होय छे एम कहे छे.

अरे! चोरासी लाख योनिमांथी एक-एक योनिमां जीव अनंत-अनंतवार जन्म-मरण करी चूकयो छे! पोताना शुद्ध चिदानंदमय भगवानने भूली जईने परने पोताना मानवारूप मिथ्यात्वना कारणे अनादि काळथी जीव महा दुःखकारी भवभ्रमण करी रह्यो छे. अरे भाई! जे पोतानुं नथी तेने पोतानुं मानवुं ते मिथ्यात्व छे अने ते मिथ्यात्वना फळरूपे तुं अनादिथी जन्म-मरणरूप संसारमां रखडे छे.


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अहीं कहे छे के ज्ञानीने तो ज्ञानमय परिणाम छे. भगवाननी भक्तिना जे परिणाम थाय के शास्त्र-स्वाध्यायना-शास्त्र वांचवा-सांभळवाना जे विकल्प ऊठे ते ज्ञानीना परिणाम नथी. झींणी वात छे प्रभु! धर्मीना तो धर्म-परिणाम ज होय छे. वीतरागी शांति अने (अतीन्द्रिय) ज्ञान अने आनंदना परिणाम जे थाय ते ज्ञानीनुं कार्य छे अने ते परिणामनो ज्ञानी कर्ता छे.

आ पुस्तक बनाववां, वेचवां इत्यादि बधी जडनी-परनी पर्याय छे. ए परनी पर्याय तो जे थवानी होय ते तेनाथी पोताथी थाय छे. ए परनुं कार्य तो आत्मा करतो नथी, परंतु ज्ञानीने जे तत्त्वप्रचारनो, बाह्य प्रभावनानो विकल्प आवे छे ते विकल्पनो पण ज्ञानी कर्ता नथी. (केमके विकल्प-राग छे ते अज्ञानमय भाव छे अने ज्ञानीने तो ज्ञानमय ज भाव होय छे).

संप्रदायमां तो आखी लाईन अवळे पाटे छे. मूळ सत्य शुं छे तेने शोधवानी कोने दरकार छे? बस जेमां (जे संप्रदायमां) पडया ते वात ज साची छे एम मानीने बेसी जाय छे. पण एनुं फळ बहु दुःखरूप आवशे भाई! अहीं कहे छे के धर्मी जीव परनी पर्यायनो तो कर्ता नथी पण तत्संबंधी जे राग थाय छे ते रागनो पण कर्ता नथी. भगवान आत्मा सर्वज्ञस्वभावी वस्तु छे, तेथी ते सर्वने जाणे एवुं तेनुं स्वरूप छे, पण सर्वने करे एवुं तेनुं स्वरूप नथी. पोताना सर्वज्ञस्वभावी शुद्ध आत्मानी जेने द्रष्टि थई छे एवो धर्मी जीव स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्यायनो कर्ता छे पण परनो अने रागनो कर्ता नथी केमके परने अने रागने करे एवो आत्मानो स्वभाव नथी.

परमाणु अने आत्मा जेम अनादिना ध्रुव छे तेम तेमां परिणमन पण अनादिनुं छे. वस्तुनो परिणमनस्वभाव छे ने तेथी तेमां परिणमन अनादिनुं छे. अहीं कहे छे के ज्ञानीनुं वर्तमान परिणमन (सम्यक्) ज्ञान अने श्रद्धानरूप छे अने ते ज्ञानमय परिणमन छे. सम्यग्दर्शन थतां धर्मीने एवो निश्चय थयो छे के हुं अखंड एकरूप चिदानंदघनस्वरूप ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा छुं. अहाहा...! त्रिकाळी ध्रुव चैतन्यस्वरूपना लक्षे धर्मीने ज्ञानमय, श्रद्धामय, शांतिमय, स्वच्छतामय, प्रभुतामय, वीतरागतामय परिणमन थाय छे. जेवो आत्मा पोते वीतरागस्वरूप छे तेवुं तेनी पर्यायमां वीतरागतानुं परिणमन थाय छे अने ए ज धर्मीनुं साचुं परिणमन छे.

प्रश्नः– निश्चय सम्यग्दर्शन छे ते सराग सम्यग्दर्शन छे के केम?

उत्तरः– ना, एम नथी. जिनस्वरूप, वीतरागस्वरूप ज आत्मा छे, तेथी स्वरूपना लक्षे चोथा गुणस्थाने जे सम्यग्दर्शननी पर्याय प्रगट थाय छे ते पण वीतरागरूप ज छे. कह्युं छे ने के-


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‘‘घट घट अंतर जिन बसै, घट घट अंतर जैन,
मत-मदिरा के पानसौं, मतवाला समुझै न.’’

भगवान आत्मा जिनस्वरूप छे. तेथी तेना आश्रये जे ज्ञान-श्रद्धाननी पर्याय प्रगट थाय ते जिनस्वरूप एटले वीतरागरूप ज होय छे. स्वरूपना श्रद्धानरूप चोथे गुणस्थाने जे सम्यग्दर्शन होय छे ते वीतरागी ज पर्याय छे. सराग समकित-एवुं ज्यां कह्युं छे त्यां तो समकितीने जे चारित्रना दोषरूप सराग परिणाम छे ते बताववा माटे कह्युं छे, बाकी समकित तो वीतरागी ज पर्याय छे.

अरे भाई! अनंतकाळे आवुं (दुर्लभ) मनुष्यपणुं मळे छे. उपराउपरी वधारेमां वधारे आठ वखत मनुष्यपणुं मळे, पछी नवमा भवे कां तो मोक्ष थाय, कां तो निगोदमां जाय. अरेरे! एने पोतानी दरकार नथी! एने पोतानी दया नथी! परनी दया तो कोण पाळी शके छे?

सर्वज्ञ भगवाने सर्व जीवोनो जेवो सर्वज्ञस्वभाव ज्ञानमां देख्यो छे एवो पोतानो सर्वज्ञस्वभाव सम्यग्द्रष्टिने देखवामां-प्रतीतिमां आवे छे, तेथी जिन सर्वज्ञ वीतराग स्वभावने देखनारी द्रष्टि वीतरागी पर्याय छे. ज्ञानीना ज्ञानमय परिणाम छे एनो अर्थ एम छे के ज्ञानीना वीतरागतामय परिणाम छे. ज्ञानीने वीतरागी द्रष्टि, वीतरागी ज्ञान अने वीतरागी आचरण थयुं होय छे. ज्ञानीना सर्व भाव वीतरागी छे, तेथी ज्ञानी वीतराग भावना कर्ता छे अने वीतरागी भाव एनुं कर्म छे.

अत्यारे तो चारे बाजु धर्मना नामे मोटा गडबड-गोटा चाले छे. वाणियाने कमावा आडे नवराश नथी एटले सत्य-असत्यनी कसोटी कयारे करे? बिचाराओने खबर नथी के कमाईने क्रोडपति थाय तोय ते धूळपति छे. अने आत्मा? आत्मा तो जेनी संख्यानो पार नथी एवा अनंत-अनंत गुणोनो भंडार एवो भगवान छे. ए बधा गुणो निर्मळ वीतरागी स्वभावे छे. आवा वीतरागस्वभावी आत्मानुं भान थतां तेनी पर्यायमां वीतरागता प्रगट थाय छे. अहो! ज्ञानीना भाव ज्ञानमय ज छे एटला शब्दोमां तो खूब गंभीर भाव भर्या छे. ज्ञानी वीतराग भावनो कर्ता छे पण व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग थाय तेनो ज्ञानी कर्ता नथी. ज्ञानीना बधा भाव ज्ञानमय ज छे. व्यवहाररत्नत्रयनो जे राग थाय तेने ज्ञानी जाणे पण ए राग कांई ज्ञानीनुं कार्य नथी.

भाई! आ कोई लौकिक वार्ता नथी. आ तो चैतन्यनो नाथ एवा भगवान आत्मानी कथा छे. वीतराग सर्वज्ञदेव अरिहंत परमात्मानी अकषाय करुणाथी जे दिव्य वाणी नीकळी तेमां जे वात आवी तेने संतो जगत पासे जाहेर करे छे. कहे छे-प्रभु! तुं वीतरागस्वभावे रहेला अनंत-अनंत निर्मळ गुणोनो एकरूप पिंड छो. राग करे एवो कोई गुण तारामां नथी. दया पाळवी, भक्ति करवी, पूजा करवी इत्यादि रागने


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रचे एवो कोई गुण तारामां नथी. अहाहा...! तुं आत्मा जिनस्वरूप वीतरागरूप छे. एनी द्रष्टि करतां जे वीतरागी पर्याय प्रगटे ते तारुं कार्य छे अने तेनो तुं कर्ता छो. वीतरागस्वभावी आत्मा कर्ता अने वीतरागी पर्याय एनुं कार्य एम कहेवुं ए व्यवहारनय छे. खरेखर तो वीतरागी पर्यायनो कर्ता ते वीतरागी पर्याय पोते छे. आवो वीतरागनो मार्ग खूब गहन छे, भाई! जे वाणीने एकावतारी इन्द्रो अने गणधरो कान दईने सांभळे ते वाणीनी गंभीरतानी शी वात! धन्य ए वाणी अने धन्य ए श्रोता!

पहेलो सौधर्म स्वर्ग नामनो देवलोक छे. तेमां ३२ लाख विमान छे. एकेक विमानमां क्रोडो अप्सरा अने असंख्य देव छे. ते बधानो स्वामी सौधर्म इन्द्र एक भव करीने मोक्ष जवानो छे. इन्द्र अने इन्द्राणी बन्ने क्षायिक समकिती छे. ते एम जाणे छे के-आ स्वर्गना वैभव ते मारी चीज नथी. हुं छुं त्यां ए वैभव नथी अने ए वैभव छे त्यां हुं नथी. आ बत्रीस लाख विमान मारां नहि. अरे, देव अने गुरु ए पण मारी चीज नहि केमके ए सर्व परद्रव्य छे. अहाहा...! हुं तो चैतन्यस्वभावमय प्रभु छुं अने चैतन्यनी प्रभुतारूपे परिणमुं ए मारुं कार्य छे. जुओ, ज्ञानी तो ज्ञानमय भावनो कर्ता छे-एनी आ व्याख्या चाले छे. धर्मी एने कहेवाय के जेना परिणाम धर्ममय, वीतरागतामय होय. वीतरागी परिणाम ए धर्मीनुं कार्य अने वीतरागभावनो ते कर्ता छे. भाई! महापुण्य होय तो आवी वात सांभळवा मळे अने अंतरमां जाग्रत थाय ए तो कोई अलौकिक चीज छे.

कर्तानुं जे कार्य छे ते भाव ज्ञानीना ज्ञानमय ज छे. अहाहा...! ज्ञानमय अने आनंदमय जे भाव प्रगट थाय ते ज्ञानीनुं कार्य छे अने तेना ज्ञानी कर्ता छे. गजब वात छे! अहीं एम कहेवा मागे छे के ज्ञानमय भावमां रागमय भाव नथी. एटले ज्ञानीने सराग समकित होय छे एम कोई माने तो ते यथार्थ नथी. आत्मा वीतराग-स्वरूप छे अने एनी व्यक्तता पण वीतरागस्वरूप होय छे; तेमां रागनी व्यक्तता होती नथी.

ज्ञानीने जे कमजोरीनो राग आवे छे तेना ते ज्ञाताद्रष्टा रहीने पोते वीतरागभावमां रहे छे; रागमां ज्ञानी रहेता नथी. आवो ज वीतरागनो मार्ग छे. आ सिवाय बधा उन्मार्ग छे. अहा! जगतने रागनी-संसारनी होंश छे, ज्ञानीने रागनी होंश होती नथी. अज्ञानीनो उत्साह रागमां-विकारमां अने परमां होय छे, ज्यारे ज्ञानीनो उत्साह आत्मामां होय छे. ज्ञानीनो उत्साह स्वरूपसन्मुखतानो होय छे. स्वरूप तो वीतरागरूप छे; माटे स्वरूपसन्मुख थतां जे श्रद्धा-ज्ञान प्रगट थयां ते वीतरागी ज होय छे. धर्मीने स्वरूपना लक्षे जे आचरण प्रगट थाय ते पण वीतरागी पर्याय छे. आ प्रमाणे ज्ञानीना जे भाव छे ते ज्ञानमय ज होय छे, कारण के तेने सम्यक् प्रकारे स्वपरना विवेक वडे भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत उदय पामी छे.


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ज्ञानीने सम्यक् प्रकारे-एटले धारणाथी नहि पण स्वरूपना लक्षे-साचो विवेक प्रगट थयो छे. हुं सर्व परद्रव्यभावोथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वभावमय आनंदमूर्ति भगवान आत्मा छुं- एम स्वपरनी भिन्नतानो सम्यक् प्रकारे ज्ञानीने विवेक प्रगट थयो छे. अहाहा...! शरीर, मन, वाणी, कुटुंब ए बधां परद्रव्य छे ए वात तो ठीक; आ दया, दान, भक्ति आदिनो जे शुभराग थाय छे ते पण परद्रव्य छे, ए सर्वथी भिन्न मारुं चैतन्यस्वरूप छे-एम भिन्न आत्मानी ख्याति ज्ञानीने अत्यंत उदय पामी छे. आ टीकानुं नाम आत्मख्याति छे. धर्मीने आत्मख्याति- आत्मप्रसिद्धि प्रगट थई छे तेथी तेना जे भाव छे ते ज्ञानमय ज होय छे.

अज्ञानीने समये-समये विकारनी प्रसिद्धि थया करे छे. सम्यग्दर्शन एटले आत्म- ख्याति पोताथी प्रसिद्ध थाय छे, कोई पासेथी मळती नथी. पोताथी प्रगट थाय त्यारे गुरुगमथी प्रगट थई एम निमित्तनी मुख्यताथी कहेवामां आवे छे. भगवान त्रणलोकना नाथ समोसरणमां बिराजे छे. तेमनी जे दिव्यध्वनि छूटे छे ते इन्द्रिय छे. भगवाननी वाणी इन्द्रियनो विषय होवाथी इन्द्रिय छे ए वात गाथा ३१ मां आवी गई छे. भाई! ए इन्द्रिय प्रत्ये तारुं लक्ष जशे तो राग उत्पन्न थशे. अहाहा...! भगवान एम कहे छे के अमारा प्रति अने दिव्यध्वनि प्रति तारुं लक्ष जशे तो तने चैतन्यनी गति न थतां दुर्गति एटले राग थशे. निमित्तनुं लक्ष छोडी अंतरस्वभावमां एकाग्र थतां जे निर्मळ श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रना परिणाम थाय ते ज्ञानीनुं कार्य छे अने तेना ज्ञानी कर्ता छे. ज्ञानीने देव-गुरु-शास्त्र संबंधी राग आवे छे पण ते राग ज्ञानीनुं कार्य नथी, ज्ञानी तो ते रागना ज्ञातामात्र छे, कर्ता नथी.

धर्मीने सम्यक् प्रकारे भिन्न आत्मानुं भान प्रगट थयुं छे. हुं तो एक शुद्ध चैतन्य छुं, आनंद छुं, शांत छुं, वीतराग छुं, स्वच्छ छुं-आवी आत्मख्याति अत्यंत उदय पामी छे तेथी ज्ञानीना सर्व भाव ज्ञानमय ज छे. अने ते भाव अज्ञानीने तो अज्ञानमय ज छे कारण के तेने सम्यक् प्रकारे स्वपरनो विवेक नहि होवाने लीधे भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत अस्त थई गई छे.

भगवान आत्मा रागथी भिन्न छे एवो विवेक अज्ञानीने नथी. तेथी भिन्न आत्मानी ख्याति तेने अत्यंत अस्त थई गई छे. ए कारणे अज्ञानीना भाव अज्ञानमय ज छे. अज्ञानीना भाव अज्ञानमय एटले रागमय, पुण्य-पापमय होय छे. परनुं कार्य तो अज्ञानी कांई करतो नथी. परंतु कर्ता थईने अज्ञानी अज्ञानभाव एटले के पुण्य-पापरूप शुभाशुभ राग-द्वेषना भावने करतो होय छे अने ते भाव अज्ञानीनुं कार्य छे. परनो कर्ता तो ज्ञानी के अज्ञानी कोई नथी. ज्ञानी ज्ञानमय भावनो कर्ता छे अने अज्ञानी अज्ञाननो एटले रागद्वेषादि भावनो ज कर्ता छे. आ प्रमाणे ज्ञानी अने अज्ञानीना भावनी अत्यंत भिन्नता छे.


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* गाथा १२६ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘ज्ञानीने तो स्व-परनुं भेदज्ञान थयुं छे तेथी तेने पोताना ज्ञानमय भावनुं ज कर्तापणुं छे; अने अज्ञानीने स्व-परनुं भेदज्ञान नथी तेथी तेने अज्ञानमय भावनुं ज कर्तापणुं छे.’

जेने राग अने विकल्पथी पोतानो त्रिकाळ ध्रुव चैतन्यस्वभाव भिन्न छे एवुं भेदज्ञान थयुं छे तेने ज्ञानी कहे छे. आवो ज्ञानी पोताना ज्ञानमय भावनो ज कर्ता छे.

ज्ञान अने आनंद ए आत्मानो स्वभाव छे. अने पुण्य, पाप, दया, दान, व्रत, भक्तिना परिणाम छे ते राग छे, विभाव छे. आ स्वभाव-विभावनी भिन्नतानुं सम्यक् प्रकारे जेने ज्ञान थाय ते ज्ञानी छे. ते ज्ञानी पोताना ज्ञान, श्रद्धान, आनंद, शांति, स्वच्छता-एवा निर्मळ परिणामनो कर्ता छे. तेना ते परिणाम ज्ञानमय एटले वीतरागता- मय छे. तेमां राग नथी. चोथे गुणस्थाने समकिती रागथी भिन्न एवा पोताना शुद्ध परिणामनो कर्ता छे.

प्रश्नः– ज्ञानीने यथापदवी राग आवे छे ने?

उत्तरः– हा, देव-गुरु-शास्त्रनी भक्ति, पूजा, व्रत, दान इत्यादिनो ज्ञानीने यथा-पदवी राग आवे छे पण ज्ञानभावे परिणमता ज्ञानीना ज्ञानपरिणमनथी ते राग भिन्न रही जाय छे. रागथी पोतानुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप भिन्न छे एवुं भेदज्ञान प्रगट थयुं होवाथी ज्ञानी जे शुभाशुभ राग आवे छे तेनो ज्ञाता रहे छे, जाणनार रहे छे पण तेनो कर्ता थतो नथी. जे राग आवे तेनां ज्ञानीने रुचि अने स्वामित्व नथी. रागना स्वामित्वपणे नहि परिणमतो एवो ज्ञानी पोताना शुद्ध परिणामनो ज कर्ता छे. ज्ञानीना ज्ञानमय ज भाव छे, जे राग आवे ते कांई ज्ञानीनुं कर्तव्य नथी.

धर्मी तेने कहीए के जेने पोताना निर्मळ ज्ञान अने आनंदनुं ध्रुवधाम एवा चिदानंदस्वरूप परमात्मानुं ध्यान प्रगट थयुं छे. अहाहा...! पोतानुं शुद्ध चैतन्य ध्रुवधाम जेने द्रष्टिमां आव्युं, अनुभूतिमां आव्युं ते ज्ञानी छे. आवा ज्ञानीनुं ज्ञान दया, दान, व्रतादिना विकल्पथी भिन्न पडी गयुं छे तेथी ज्ञानीना परिणाम ज्ञानमय ज छे अने ते ज्ञानमय परिणामनो ज्ञानी कर्ता छे.

भगवान आत्मा शुद्ध चैतन्यघन अनंतगुणमय पवित्रधाम प्रभु पोते स्व छे अने दया, दान, भक्ति आदिना जे विकल्प ऊठे ते पर छे-एवुं स्वपरनुं निर्मळ भेदज्ञान अज्ञानीने होतुं नथी. स्वपरनुं भेदज्ञान नहि होवाथी ते अज्ञानमयभावनो कर्ता थाय छे. दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना जे विकल्प ऊठे तेनो अज्ञानी कर्ता थाय छे. ल्यो, १२६ पूरी थई.

* * *

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किं ज्ञानमयभावात्किमज्ञानमयाद्भवतीत्याह–

अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि। णाणमओ णाणिस्स दु ण कुणदि तम्हा दु कम्माणि।। १२७ ।।

अज्ञानमयो भावोऽज्ञानिनः करोति तेन कर्माणि।
ज्ञानमयो ज्ञानिनस्तु न करोति तस्मात्तु कर्माणि।। १२७ ।।

ज्ञानमय भावथी शुं थाय छे अने अज्ञानमय भावथी शुं थाय छे ते हवे कहे छेः-

अज्ञानमय अज्ञानीनो, तेथी करे ते कर्मने;
पण ज्ञानमय छे ज्ञानीनो, तेथी करे नहि कर्मने. १२७.

गाथार्थः– [अज्ञानिनः] अज्ञानीने [अज्ञानमयः] अज्ञानमय [भावः] भाव छे [तेन] तेथी अज्ञानी [कर्माणि] कर्मोने [करोति] करे छे, [ज्ञानिनः तु] अने ज्ञानीने तो [ज्ञानमयः] ज्ञानमय (भाव) छे [तस्मात् तु] तेथी ज्ञानी [कर्माणि] कर्मोने [न करोति] करतो नथी.

टीकाः– अज्ञानीने सम्यक् प्रकारे स्वपरनो विवेक नहि होवाने लीधे भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत अस्त थई गई होवाथी, अज्ञानमय भाव ज होय छे, अने ते होतां (होवाथी), स्वपरना एकत्वना अध्यासने लीधे ज्ञानमात्र एवा पोतामांथी (आत्मस्वरूपमांथी) भ्रष्ट थयेलो, पर एवा रागद्वेष साथे एक थईने जेने अहंकार प्रवर्त्यो छे एवा पोते ‘आ हुं खरेखर रागी छुं, द्वेषी छुं (अर्थात् आ हुं राग करुं छुं, द्वेष करुं छुं)’ एम (मानतो थको) रागी अने द्वेषी थाय छे; तेथी अज्ञानमय भावने लीधे अज्ञानी पोताने पर एवा रागद्वेषरूप करतो थको कर्मोने करे छे.

ज्ञानीने तो, सम्यक् प्रकारे स्वपरना विवेक वडे भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत उदय पामी होवाथी, ज्ञानमय भाव ज होय छे, अने ते होतां, स्वपरना नानात्वना विज्ञानने लीधे ज्ञानमात्र एवा पोतामां सुनिविष्ट (सम्यक् प्रकारे स्थित) थयेलो, पर एवा रागद्वेषथी पृथग्भूतपणाने (भिन्नपणाने) लीधे निजरसथी ज जेने अहंकार निवृत्त थयो छे एवो पोते खरेखर केवळ जाणे ज छे, रागी अने द्वेषी थतो नथी (अर्थात् राग अने द्वेष करतो नथी); तेथी ज्ञानमय भावने लीधे ज्ञानी पोताने पर एवा रागद्वेषरूप नहि करतो थको कर्मोने करतो नथी.


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(आर्या)
ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेत् ज्ञानिनो न पुनरन्यः।
अज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमज्ञानिनो नान्यः।। ६६ ।।

भावार्थः– आ आत्माने क्रोधादिक मोहनीय कर्मनी प्रकृतिनो (अर्थात् रागद्वेषनो) उदय आवतां, पोताना उपयोगमां तेनो रागद्वेषरूप मलिन स्वाद आवे छे. अज्ञानीने स्वपरनुं भेदज्ञान नहि होवाथी ते एम माने छे के “आ रागद्वेषरूप मलिन उपयोग छे तेज मारुं स्वरूप छे-तेज हुं छुं.” आम रागद्वेषमां अहंबुद्धि करतो अज्ञानी पोताने रागीद्वेषी करे छे; तेथी ते कर्मोने करे छे. आ प्रमाणे अज्ञानमय भावथी कर्मबंध थाय छे.

ज्ञानीने भेदज्ञान होवाथी ते एम जाणे छे के “ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग छे ते ज मारुं स्वरूप छे-ते ज हुं छुं; रागद्वेष छे ते कर्मनो रस छे-मारुं स्वरूप नथी.” आम रागद्वेषमां अहंबुद्धि नहि करतो ज्ञानी पोताने रागीद्वेषी करतो नथी, केवळ ज्ञाता ज कहे छे; तेथी ते कर्मोने करतो नथी. आ प्रमाणे ज्ञानमय भावथी कर्मबंध थतो नथी.

हवे आगळनी गाथाना अर्थनी सूचनारूप काव्य कहे छेः-

श्लोकार्थः– [ज्ञानिनः कुतः ज्ञानमयः एव भावः भवेत्] अहीं प्रश्न छे के ज्ञानीने केम ज्ञानमय ज भाव होय [पुनः] अने [अन्यः न] अन्य (अर्थात् अज्ञानमय) न होय? [अज्ञानिनः कुतः सर्वः अयम् अज्ञानमयः] वळी अज्ञानीने केम सर्व भाव अज्ञानमय ज होय अने [अन्यः न] अन्य (अर्थात् ज्ञानमय) न होय? ६६.

* * *
समयसारः गाथा १२७

ज्ञानमय भावथी शुं थाय छे अने अज्ञानमय भावथी शुं थाय छे ते हवे कहे छेः-

* गाथा १२७ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘अज्ञानीने सम्यक् प्रकारे स्वपरनो विवेक नहि होवाने लीधे भिन्न आत्मानी ख्याति अस्त थई गई होवाथी, अज्ञानमय भाव ज होय छे, अने ते होतां स्वपरना एकत्वना अध्यासने लीधे ज्ञानमात्र एवा पोतामांथी (आत्म-स्वरूपमांथी) भ्रष्ट थयेलो, पर एवा रागद्वेष साथे एक थईने जेने अहंकार प्रवर्त्यो छे एवो पोते ‘‘आ हुं खरेखर रागी छुं, द्वेषी छुं (अर्थात् हुं राग करुं छुं, द्वेष करुं छुं)’’ एम (मानतो थको) रागी अने द्वेषी थाय छे; तेथी अज्ञानमय भावने लीधे अज्ञानी पोताने पर एवा राग-द्वेषरूप करतो थको कर्मोने करे छे.’

सूक्ष्म वात छे प्रभु! अनंतकाळमां एणे (जीवे) निर्मळ भेदज्ञान कर्युं नथी.


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कळश (१३१) मां कह्युं छे ने के-

भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।।

जे कोई आज सुधीमां मुक्ति पाम्या ते भेदविज्ञानथी मुक्ति पाम्या छे. रागथी पोतानुं चैतन्यस्वरूप भिन्न छे एवा भेदज्ञानथी मुक्ति पाम्या छे. अने जे बंधाया छे ते भेदज्ञानना अभावथी ज बंधाया छे. पोते शुद्ध ज्ञायकभावरूप चिदानंदमय आत्मा अने राग पररूप मलिन दुःखरूप विभाव-ए बेनी एकताबुद्धिथी बंधाया छे अर्थात् चारगतिरूप संसारमां रखडया करे छे.

अज्ञानीने सम्यक् प्रकारे स्वपरनो विवेक नथी. नव तत्त्व कह्यां छे ने? एमां आत्म- तत्त्व भिन्न छे अने पुण्य-पाप, आस्रव-बंध तत्त्व भिन्न छे. दया, दान, व्रत, भक्तिना भाव आस्रव अने बंध तत्त्व छे अने भगवान आत्मा शुद्धज्ञायक तत्त्व अबंध तत्त्व छे. बन्ने भिन्न-भिन्न छे, पण अज्ञानीने स्वपरनो-स्वभाव-विभावनो सम्यक् प्रकारे विवेक नथी. ‘सम्यक् प्रकारे’-एम केम कह्युं? के धारणामां तो एणे लीधुं हतुं के रागथी आत्मा भिन्न छे. अगियार अंगनो पाठी थयो त्यारे शास्त्रनी वात धारणामां तो लीधी हती के राग छे ते पुण्य-पाप तत्त्व छे, आस्रव-बंध तत्त्व छे अने आत्मा एनाथी भिन्न ज्ञायक अबंध तत्त्व छे. पण सम्यक् प्रकारे एटले स्वरूपना लक्षे एणे भेदज्ञान प्रगट कर्युं नहि. गंभीर वात छे भाई! भगवान जिनेश्वरदेवनो मार्ग खूब सूक्ष्म छे.

दुनियामां बीजे कयांय मार्गनी आवी वात छे नहि. अज्ञानीने सम्यक् प्रकारे तत्त्वोनी भिन्नतानो उपदेश मळ्‌यो नथी. कदाचित् मळ्‌यो तो तेणे सम्यक् प्रकारे स्वपरनी जुदाईनुं ज्ञान कर्युं नथी. रागनी क्रिया अने स्वभावनी क्रिया बे भिन्न छे एवुं शुद्ध चैतन्यना लक्षे रागथी भिन्न पडीने भेदज्ञान कर्युं नथी. आ प्रमाणे स्वभाव-विभावनी भिन्नतानुं भान नहि होवाथी स्वपरना विवेकना अभावने कारणे मिथ्याद्रष्टिने अनादिकाळथी आत्मानी ख्याति अत्यंत अस्त थई गई छे. अहाहा...! अज्ञानी जीवने भिन्न आत्मानी-शुद्ध चैतन्यनी प्रसिद्धि अत्यंत आथमी गई छे अर्थात् ते (मोहभाव वडे) अंध थई गयो छे.

जुओ, आ माल-माल वात छे. देवाधिदेव भगवान जिनेश्वरदेवनी आ वाणी छे. श्री कुंदकुंदाचार्यदेव सीमंधर भगवान पासे गया हता अने त्यांथी आवीने आ शास्त्रो रच्यां छे. तेओ कहे छे-भगवान आत्मा अनंतगुणनो पिंड आनंदमूर्ति प्रभु साक्षात् परमात्मस्वरूप छे. तेने भूलीने रागमां अहंबुद्धि-एकताबुद्धि करवाथी अज्ञानी जीवने आत्मानी प्रसिद्धि अत्यंत अस्त थई गई छे. राग, पुण्य अने पापनी प्रसिद्धि आडे


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तेने आत्मानी प्रसिद्धि अस्त थई गई छे अर्थात् ते अंध थई गयो छे. ते राग अने पुण्यने देखे छे, पण पोताना शुद्ध चैतन्यसूर्यने देखतो नथी. पुण्यना फळमां पांच-पचीस क्रोडनी धूळ मळे एने अज्ञानी जीव देखे छे पण पोताना शुद्ध ज्ञायक तत्त्वने देखतो नथी. पुण्य-पापना भाव मारा, एम माननारो ते एवो मोहांध बन्यो छे के ते चैतन्य महाप्रभु शुद्ध आत्मद्रव्यने देखतो नथी. तेथी तेने रागादिमय-अज्ञानमय भाव ज होय छे. रागादि भाव छे ते अज्ञानमय भाव छे केमके तेमां आत्मानां ज्ञान अने आनंद नथी. चाहे भगवाननी भक्तिनो राग हो के शास्त्रना श्रवणनो राग हो, रागभाव छे ते अज्ञानमय भाव छे केमके तेमां ज्ञाननुं किरण नथी, ज्ञाननो अंश नथी. अहो! आचार्यदेवे अद्भुत अलौकिक वात करी छे!

भाई! भाग्यवान होय तेने आ वात रुचे एम छे. संसारनो जेने अंत करवो छे तेना माटे आ वात छे. भगवान आत्मा पुण्य-पापना भावथी भिन्न छे. अज्ञानीने भिन्ननो भास नथी, अनुभव नथी. तेथी अंतरंगमां आत्मा प्रगट प्रसिद्ध होवा छतां, तेनी प्रसिद्धिनो तेने अभाव थई गयो छे. परिणामे तेने राग ज प्रसिद्ध छे. अज्ञानीने पुण्य-पापना भाव ज प्रसिद्ध छे, माटे तेने अज्ञानमय भाव ज होय छे.

भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव महामुनि भावलिंगी दिगंबर संत स्वानुभवनी अतीन्द्रिय आनंदनी मस्तीमां झूली रह्या हता. तेओ कहे छे-ज्ञानीने जे राग आवे छे तेने, ते पोताना ज्ञानस्वरूपमां रहीने, पर तरीके जाणे छे; राग मारो छे एम ते जाणता नथी. पोतानी चीजमां अने पोतानी निर्मळ परिणतिमां ज्ञानी रागने भेळवता नथी तेथी तेने ज्ञानमय ज भाव छे. परंतु अज्ञानी पुण्य-पापना भाव मारा छे एम माने छे, तेथी भेदज्ञानना अभावे तेने आत्म-प्रसिद्धि थती नथी, परंतु रागादि भावनी ज प्रसिद्धि रहे छे. माटे अज्ञानीने अज्ञानमय भाव ज होय छे. अज्ञानमय एटले (एकलुं) मिथ्यात्व एम अर्थ नथी. रागादि भावमां चैतन्यनो-ज्ञाननो अंश नथी तेथी पुण्य-पापमय रागादि भावने अज्ञानमय भाव कहेवामां आव्या छे. हवे कहे छे-

अज्ञानमय भाव होवाथी, स्वपरनी एकताना अध्यासने लीधे ज्ञानमात्र एवा पोताना आत्मस्वरूपमांथी अज्ञानी भ्रष्ट थयेलो छे. पोते आत्मा ज्ञान अने आनंदस्वरूप छे अने राग अज्ञान अने आकुळतारूप दुःखस्वरूप छे; आ बंनेनी एकतानो अज्ञानीने अध्यास छे. बेनी एकतानी तेने टेव पडी गई छे. अनादिथी स्वपरनी एकतानी वात तेणे सांभळी छे, तेनो ज एने परिचय छे अने तेनो ज एने अनुभव छे तेथी ते पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपथी भ्रष्ट थई गयो छे. जुओ, आ कोईना घरनी वात नथी, के सोनगढनी आ वात नथी. आ तो भगवाननी कहेली वात भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवे अने अमृतचंद्राचार्यदेवे जगत पासे जाहेर करी छे.

भगवान आत्मा जाणन-देखनस्वभावरूप ज्ञाता-द्रष्टा प्रभु छे. अहाहा...! आत्मा


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अनादि सामान्य ज्ञानस्वभाव, अनादि सामान्य दर्शनस्वभाव, अनादि सामान्य आनंद- स्वभाव, अनादि सामान्य पुरुषार्थस्वभाव-एम अनादि सामान्य अनंतगुणस्वभावमय वस्तु छे. अने रागादि भाव एनाथी भिन्न चीज छे. परंतु स्वपरना एकत्वना अध्यासने कारणे अज्ञानी पोताना स्वभावथी भ्रष्ट थई गयो छे.

दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा करो तो एनाथी आत्मानुं कल्याण थई जशे एवी अज्ञानीने मिथ्या श्रद्धा छे; अने जगतमां एवी मिथ्या प्ररूपणा चाले छे. अरे भाई! रागथी लाभ (धर्म) थाय ए वीतरागनो, जैन परमेश्वरनो मार्ग नथी. ए तो रागी अज्ञानीओनो मार्ग छे. आत्मा जिनस्वरूप-वीतरागस्वरूप छे; ते रागथी भिन्न छे. अज्ञानीने पोतानो वीतराग स्वभाव अने राग-ए बेनी एकतानो अध्यास थई गयो छे. आम भिन्न पदार्थमां एकत्वना अध्यासना कारणे ज्ञानमात्र एवा निजस्वरूपथी ते भ्रष्ट थई गयो छे. आत्मानां अतीन्द्रिय आनंद अने शांतिथी अज्ञानी भ्रष्ट थई गयो छे. हवे कहे छे-

अज्ञानी जीव, पर एवा राग साथे एकत्व थईने जेने अहंकार प्रवर्त्यो छे एवो पोते आ हुं खरेखर रागी छुं, द्वेषी छुं एम मानतो थको रागी अने द्वेषी थाय छे; तेथी अज्ञानमय भावने लीधे अज्ञानी पोताने पर एवा राग-द्वेषरूप करतो थको कर्मोने करे छे.

अहा! हुं रागी छुं, हुं रागनो करनारो छुं-एम एने रागमां अहम् आवी गयुं छे. हुं रागथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप छुं एवुं भेदज्ञान तेने आथमी गयुं छे. सूक्ष्म वात छे, प्रभु! बीजुं बधुं कर्युं पण अनंतकाळमां एणे भेदज्ञान कर्युं नहि तेथी दुःखी थई रह्यो छे. दोलतरामजीए कह्युं छे ने के-

‘‘मुनिव्रत धार अनंत वार, ग्रीवक उपजायौ;
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ.’’

मुनिव्रत धारण करी महाव्रतनुं पालन कर्युं, अठ्ठावीस मूळगुण पाळ्‌या, नग्न दिगंबर थयो; पण ए बधी तो रागनी-जडनी क्रिया हती. पृथक् आत्मानी ओळखाण करीने अंतरनो सम्यक् पुरुषार्थ कर्यो नहि तो काळलब्धि शुं करे? काळलब्धि पण पुरुषार्थ थतां पाके छे. भाई! क्रमबद्धमां तो अकर्तापणानो अनंत पुरुषार्थ रहेलो छे. काळलब्धि एटले जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ज थाय, पण आवो निर्णय करनारने ज्ञाताद्रष्टानो सम्यक् पुरुषार्थ होय छे (अने तेनुं क्रमबद्ध परिणमन पण निर्मळ ज होय छे).

सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमां आवे छे के समय-समयमां जे पर्याय थाय ते प्रत्येक क्रमबद्ध थाय छे. परंतु क्रमबद्धनो साचो निर्णय कोने होय छे? जेने पोताना ज्ञाता-


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द्रष्टा स्वभावनुं भान थयुं छे तेने क्रमबद्धनो साचो निर्णय छे. (अने तेनी परिणमन-धारा पण क्रमबद्ध सम्यक् छे).

अज्ञानीने क्रमबद्धनो निर्णय कयां छे? एने तो राग-द्वेष साथे एकत्व थईने रागमां अहम्पणुं प्रवर्ते छे. अज्ञानी पोताने हुं रागी छुं, द्वेषी छुं एम माने छे; दया, दान, पूजा आदि रागनो कर्ता छुं एम ते माने छे. पोतानी चीज अंदर त्रिकाळी निर्मळानंद प्रभु छे तेने न जाणतां हुं रागी छुं, द्वेषी छुं एम मानतो थको ते रागी अने द्वेषी एटले राग-द्वेषनो कर्ता थाय छे. जाणे के हुं आत्मा छुं ज नहि एम अज्ञानी रागमां अहंपणे प्रवर्ती रह्यो छे.

आ अज्ञानमय भावना कारणे पोताने पर एवा रागद्वेषरूप करतो थको अज्ञानी कर्मोने करे छे. कर्मोने करे छे एटले रागद्वेषना भावनो कर्ता थाय छे. अहीं कर्म एटले जडकर्मनी वात नथी. कर्म एटले शुभाशुभभाव रूप जे राग-द्वेषना परिणाम ते राग-द्वेषना परिणामनो अज्ञानी कर्ता थाय छे. आ तो थोडामां घणा गंभीर भावो भरी दीधा छे.

हवे ज्ञानी एटले धर्मी जीव केवा होय छे ते वात करे छेः-

‘ज्ञानीने तो, सम्यक् प्रकारे स्वपरना विवेक वडे भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत उदय पामी होवाथी, ज्ञानमय भाव ज होय छे.’

धर्मीने स्वपरना विवेक द्वारा आनंदमूर्ति भगवान आत्मा अने दुःखस्वरूप एवो राग- ए बेनी भिन्नतानुं सम्यक् प्रकारे ज्ञान थयुं छे. सम्यक् प्रकारे एटले के स्वरूपना लक्षे यथार्थपणे. अहाहा...! ज्ञानीने सम्यक् प्रकारे स्वपरनुं भेदज्ञान प्रगट थतां भिन्न आत्मानी ख्याति अत्यंत उदय पामी छे. हुं तो आनंद छुं, शांत छुं, वीतरागस्वभाव छुं, अकषायस्वरूप छुं-एम रागथी भिन्न आत्मानी ज्ञानीने प्रसिद्धि थई छे. भाषा बहु टुंकी पण भाव खूब गहन भरी दीधा छे.

भिन्न आत्मानी ख्याति उदय पामी होवाथी ज्ञानीने ज्ञानमय भाव ज होय छे. धर्मीने ज्ञानमय एटले आत्मामय, वीतरागमय भाव ज होय छे. अहाहा...! शुद्ध चैतन्यस्वरूप वीतरागस्वभावी आत्मानी जेने द्रष्टि थई छे एवा ज्ञानीने ज्ञानमय भाव ज होय छे. हवे कहे छे-

‘अने ते होतां, स्वपरना नानात्वना विज्ञानने लीधे ज्ञानमात्र एवा पोतामां सुनिविष्ट (सम्यक् प्रकारे स्थित) थयेलो, पर एवा रागद्वेषथी पृथग्भूतपणाने (भिन्नपणाने) लीधे निजरसथी ज जेने अहंकार निवृत्त थयो छे एवो पोते खरेखर केवळ जाणे ज छे, रागी अने द्वेषी थतो नथी (अर्थात् राग अने द्वेष करतो नथी); तेथी ज्ञानमय भावने लीधे ज्ञानी पोताने पर एवा रागद्वेषरूप नहि करतो थको कर्मोने करतो नथी.’


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स्वपरना भेदविज्ञानने लीधे ज्ञानी पोताना चैतन्यस्वभावमां स्थित छे. धर्मी रागमां स्थित नथी. पुण्य-पापना जे भाव आवे छे ते पर छे, भिन्न छे एम ज्ञानी जाणे छे. धर्मी पोताना चिदानंदरसमां, शांतरसमां स्थित होवाथी राग मारो छे एवो अहंकार एमने निवृत्त थयो छे, छूटी गयो छे. लक्ष्मी मारी, मकान मारां, बैरां-छोकरां मारां-ए तो कयांय रही गयुं. अहीं तो कहे छे के दया, दान, व्रत, भक्ति इत्यादि जे शुभराग आवे छे ते मारो छे एवो अहंकार ज्ञानीने निवृत्त थई गयो छे. पोताना शुद्ध चिदानंदघनस्वरूप भगवान आत्मामां अहं स्थापित थतां राग मारो छे एवो अहंकार ज्ञानीने छूटी गयो छे.

भले रागनी प्रवृत्ति न छूटे पण श्रद्धामां रागनो अहंकार छूटी जवो जोईए. व्यवहारना रागनी प्रवृत्तिना परिणाम ज्ञानीने पण होय छे; पण ए व्यवहारनो राग मारो छे एवो अहंकार ज्ञानीने छूटी गयेलो होय छे. आवी वात! लोकोने एकान्त छे, व्यवहारनो लोप करे छे एम लागे छे, पण वात तो आ ज परम सत्य छे. भाई! व्यवहारनी जेटली रागनी क्रिया थाय ते मारी छे एम जे माने ते मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी जीव छे. शरीर मारुं, शरीरनी क्रिया मारी, कर्म मारां एम माने ए स्थूळ मिथ्यात्व छे. तथा दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा इत्यादि शुभरागनी क्रिया मारी एम माने ते पण मिथ्यात्व छे.

प्रश्नः– अनासक्तिभावे कर्म करीए एमां कोई दोष नथी ने?

उत्तरः– अरे भाई! कर्म करीए एवो जे अभिप्राय छे ते ज आसक्ति अने मिथ्यात्वभाव छे. कर्म करवुं अने अनासक्तिभावे करवुं ए वात ज खोटी छे. कर्म करवुं-एवा अभिप्रायमां अनासक्ति होई शके ज नहि.

ज्ञानीने अस्थिरतानो राग छे पण राग मारो छे एवो अहंकार एमने निवृत्त थई गयो छे. राग मारुं कर्तव्य छे एम ज्ञानी मानता नथी. ज्ञानीने रागनुं स्वामित्व-धणीपणुं छूटी गयुं छे. अहा! हुं तो शुद्ध चैतन्यमय आनंदकंद प्रभु छुं; एना लक्षे जे वीतरागी पर्याय पाके ते मारुं कर्तव्य छे एम ज्ञानी जाणे छे. ज्ञानी रागथी लंगडो (भिन्न) थई गयो होय छे.

पर एवा राग-द्वेषथी भिन्नपणाना कारणे निजरसथी ज अहंकार निवृत्त थयो छे एवो पोते केवळ जाणे ज छे, रागी अने द्वेषी थतो नथी अर्थात् राग अने द्वेषनो कर्ता थतो नथी. समकिती चक्रवर्ती बहारथी छ खंडना राज्यने साधता देखाय पण खरेखर ते अंतरमां अखंडने साधता होय छे. अभिप्रायमां तेमने रागनुं एकत्व छूटी गयुं छे. जे रागादि थाय तेने केवळ जाणे ज छे. बहु सूक्ष्म वात, भाई!

आवी वात सांभळवाय न मळे ते के दि समजण करशे? बापु! आ मनुष्यपणानो


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एकेक समय कौस्तुभ-मणि करतां पण वधारे किंमती छे. अने आ भेदज्ञान अति दुर्लभ वस्तु छे. आ अवसरमां जो भेदज्ञान प्रगट न कर्युं तो जन्म-मरण करतां करतां मिथ्या श्रद्धानना फळमां निगोदमां चाल्यो जईश. फरी अनंतकाळे त्रस नहि थाय. भाई! शुभरागथी धर्म थाय ए मिथ्या श्रद्धान छे, अने मिथ्या श्रद्धाननुं फळ निगोद छे.

अहीं कहे छे के शुद्ध चैतन्यस्वरूपना लक्षे जेने भेदज्ञान प्रगट थयुं छे एवा ज्ञानी राग-द्वेषना कर्ता नथी. ज्ञानी चैतन्यमय, आनंदमय, वीतरागतामय भावना कारणे पोताने पर एवा रागद्वेषरूप नहि करता थका कर्मोने करता नथी. ज्ञानी रागद्वेषरूप कार्यना कर्ता नथी. अहीं कर्म एटले जडकर्मनी वात नथी. जडकर्मनो तो अज्ञानी पण कर्ता नथी. जडकर्मनी पर्याय तो जडथी स्वतंत्र थाय छे. अहीं तो एम कहेवुं छे के राग-द्वेषरूप भावकर्मना ज्ञानी कर्ता नथी, मात्र ज्ञाता-द्रष्टा छे. अभिप्रायमां ज्ञानी रागना कर्ता नथी; अज्ञानी अभिप्रायमां रागनो कर्ता थईने मिथ्यात्वभावे परिणमे छे.

रागनो कर्ता न थतां ज्ञाताद्रष्टा रहीने जे रागने केवळ जाणे छे तेने धर्मी अने ज्ञानी कहेवामां आवे छे.

* गाथा १२७ः भावार्थ उपरनुं प्रवचन *

‘आ आत्माने क्रोधादिक मोहनीय कर्मनी प्रकृतिनो (अर्थात् रागद्वेषनो) उदय आवतां, पोताना उपयोगमां तेनो रागद्वेषरूप मलिन स्वाद आवे छे.’

क्रोध अने मान ते द्वेषना बे भेद छे; माया अने लोभ ते रागना बे भेद छे. आ बधा सामान्य शब्दथी मोह कहेवाय छे. मोहकर्मनी प्रकृतिनो उदय आवतां पोताना उपयोगमां तेनो रागद्वेषरूप मलिन स्वाद आवे छे. जेवो उदय आवे तेवो ज राग थाय एम नहि. उदयना प्रसंगे रागद्वेष थाय छे एम अहीं सिद्ध करवुं छे. जे प्रकारे उदय आवे ते ज प्रकारे रागद्वेष थाय एम छे नहि. पोतानी योग्यता प्रमाणे रागद्वेष थाय छे. आ रागद्वेषनो स्वाद मलिन छे.

‘अज्ञानीने स्वपरनुं भेदज्ञान नहि होवाथी ते एम माने छे के ‘‘आ रागद्वेषरूप मलिन उपयोग छे ते ज मारुं स्वरूप छे-ते ज हुं छुं.’’ आम रागद्वेषमां अहंबुद्धि करतो अज्ञानी पोताने रागी-द्वेषी करे छे; तेथी ते कर्मोने करे छे. आ प्रमाणे अज्ञानमय भावथी कर्मबंध थाय छे.’

अज्ञानीने भेदज्ञान नथी. तेने रागद्वेष अने पोताना उपयोगनी भिन्नतानुं ज्ञान नथी, तेथी ते रागद्वेष अने उपयोगने एक करीने एम माने छे के आ राग-द्वेषरूप जे मलिन उपयोग छे ते ज हुं छुं. आ प्रमाणे राग-द्वेषमां अहंबुद्धि करतो अज्ञानी पोताने रागी-द्वेषी करे छे, तेथी ते कर्मोने करे छे. आ प्रमाणे अज्ञानमय भावथी कर्मबंध थाय छे.


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जे रागद्वेष थाय छे ते तेनी पोतानी योग्यताथी थाय छे. ते रागद्वेष मारा भाव नथी एम ज्ञानी जाणे छे.

‘ज्ञानीने भेदज्ञान होवाथी ते एम जाणे छे के ‘‘ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग छे ते ज मारुं स्वरूप छे-ते ज हुं छुं; रागद्वेष छे ते कर्मनो रस छे-मारुं स्वरूप नथी.’’ आम रागद्वेषमां अहंबुद्धि नहि करतो ज्ञानी पोताने रागीद्वेषी करतो नथी, केवळ ज्ञाता ज रहे छे; तेथी ते कर्मोने करतो नथी. आ प्रमाणे ज्ञानमय भावथी कर्मबंध थतो नथी.’

समकितीने स्वपरनुं भेदज्ञान वर्ते छे. तेने यथापदवी राग आवे छे; पण तेनी द्रष्टि एक शुद्ध ज्ञायक उपर छे. ते जाणे छे के हुं तो शुद्ध चैतन्यउपयोगमय छुं. तेथी ते जे राग आवे छे तेनो ज्ञाता रहे छे पण कर्ता थतो नथी. धर्मी जाणे छे के ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग ए ज मारुं स्वरूप छे. राग-द्वेषना भाव तो कर्मनो रस छे, कर्मपुद्गलनो विपाक छे. रागद्वेष ते मारुं स्वरूप नथी. आ रीते रागद्वेषमां एकत्व नहि करतो ज्ञानी पोताने रागी-द्वेषी करतो नथी, केवळ ज्ञाता ज रहे छे. तेथी ते कर्मोने करतो नथी. आ प्रमाणे ज्ञानमय भावथी कर्मबंध थतो नथी.

हवे आगळनी गाथाना अर्थनी सूचनारूप काव्य कहे छेः-

* कळश ६६ः श्लोकार्थ *

‘ज्ञानिनः कुतः ज्ञानमयः एव भावः भवेत्’ अहीं प्रश्न छे के ज्ञानीने केम ज्ञानमय ज भाव होय ‘पुनः’ अने ‘अन्यः न’ अन्य (अर्थात् अज्ञानमय) न होय? ‘अज्ञानिनः कुतः सर्वः अयम् अज्ञानमयः’ वळी अज्ञानीने केम सर्व भाव अज्ञानमय ज होय अने ‘अन्यः न’ अन्य (अर्थात् ज्ञानमय) न होय?

ज्ञानीने केम ज्ञानमय ज भाव होय छे अने अज्ञानीने केम सर्व भाव अज्ञानमय ज होय छे? आवो शिष्यनो प्रश्न छे. तेना उत्तररूप हवे गाथाओ कहेशे.