आगळ अगियारमी गाथामां तो ज्ञायकने शुद्धनय कह्यो छे, अने ए एकना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे तेथी शुद्धनय ए ज एक आदरणीय छे. आत्मानो आश्रय लईने जे शुद्ध परिणमन थयुं एने शुद्धनय थयो एम पण कहेवामां आवे छे. एटले के शुद्धनयनो आश्रय लईने जे पर्याय थई ते पर्यायमां ‘शुद्ध’ नुं भान थयुं माटे तेने शुद्धनय कह्यो छे. परिणमन ते शुद्धनय, परिणमनमां जे ध्रुव लक्षमां आव्यो तेने पण शुद्धनय कहे छे. समयसार आस्रव अधिकार कळश १२० मां आवे छे के शुद्धनयनो आश्रय करीने जेओ सदाय एकाग्रतानो अभ्यास करे छे तेओ बंधरहित एवा समयना सारने देखे छे-अनुभवे छे. हुं केवळज्ञानस्वरूप शुद्ध छुं एवुं जे आत्मद्रव्यनुं परिणमन ते शुद्धनय. एनो अर्थ एम छे के त्रिकाळी वस्तु जे छे ते जे ज्ञानमां ख्यालमां आवी तेने शुद्धनय कह्यो. साक्षात् शुद्धनय तो केवळज्ञान थये थाय छे. केवळज्ञान थतां चैतन्यनो आश्रय संपूर्ण पूरो थई गयो ए अपेक्षाए केवळज्ञानने साक्षात् शुद्धनय कहेलो छे. वळी शुद्धनयस्वरूप द्रव्यस्वभावमां केवळज्ञाननी पर्यायनो अभाव छे. तथा पर्याय होवाथी केवळज्ञानने सद्भूत व्यवहारनयनो विषय कह्यो छे. तेथी ज्यां जे अपेक्षा होय त्यां ते बराबर समजवी जोईए. जीव अनादिथी कर्मना उदयने वश थई परिणमतां रागादिनुं सेवन करतो हतो. तेथी संसार हतो. अहीं ज्ञायकने लक्षमां लई ते एकने ज उपासवामां आवतां, तेने रागादि संसार छूटी जतां, शुद्ध कहेवामां आवे छे. उत्पाद-व्यय, रहित जे एकरूप ज्ञायकभाव तेना लक्षे जे निर्मळ परिणमन थयुं तेमां आत्मा शुद्ध प्रतिभास्यो तेने ‘शुद्ध’ कहेवामां आवे छे. आ प्रमाणे त्रण पदोनी व्याख्या थई. हवे चोथुं पद छे णादो जो सो दु सो चेव। दाह्य एटले बळवा योग्य पदार्थना आकारे थवाथी अग्निने दहन कहेवाय छे. छाणां, लाकडां वगेरेने दाह्य कहेवाय छे. अग्नि तेना आकारे थाय छे तेथी अग्निने दहन कहेवाय छे. तोपण दाह्यकृत अशुद्धता तेने नथी. बळवा योग्य पदार्थना आकारे अग्नि थयो ए पोते पोताना परिणमननी लायकातथी थयो छे. तेना आकारे परिणम्यो माटे अग्नि पराधीन छे एम नथी. छाणाना आकारे अग्नि परिणम्यो तेथी तेने अशुद्धता नथी. स्वयं अग्नि तेवा आकाररूपे परिणम्यो छे. दाह्यना आकारे परिणमतो अग्नि दाह्यना कारणे नहीं, पण स्वयं पोताना कारणे तेवा आकारे परिणमे छे. आतो द्रष्टांत थयुं, हवे सिद्धांत कहे छे. ज्ञेयाकार थवाथी ते ‘भाव’ ने ज्ञायकपणुं प्रसिद्ध छे. जेवो राग होय, पुण्य- पापना भाव होय तेने ते स्वरूपे ज ज्ञान जाणे, शरीर, मन, वाणी, राग, आदि ज्ञानमां जणाय ते काळे ज्ञान ज्ञेयाकारे परिणमे छे, छतां ज्ञेयना ज्ञेयाकार थाय छे एवी पराधीनता