Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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भाग-१ ] ९प

कदीय रागरूप नथी. ज्ञायकमां रागनो अभाव छे अने रागमां ज्ञायकनो अभाव छे. आम होवा छतां अज्ञानीओ कहे छे के शुभभाव करतां करतां धर्म थाय ए मोटी अचरजनी वात छे. अचेतनभाव करतां करतां चेतन केम प्रगटे? राग करतां करतां वीतरागता केम थाय? एम कदीय बने नहीं. तेथी आत्मा जे एक ज्ञायकभाव छे ते प्रमत्त-अप्रमत्तना भेदरूप नथी एम न्याय कह्यो. हवे एने ‘शुद्ध’ केम कहेवो एनी वात करे छे.

ते ज समस्त अन्य द्रव्योना भावोथी भिन्नपणे उपासवामां आवतो ‘शुद्ध’ कहेवाय छे.

अहीं अन्यद्रव्यो एटले कर्मनो उदय अने एनो भाव एम लेवुं. अहीं रागनी वात नथी. जीवने कर्मनो उदय अने एना भाव उपर अनादिथी लक्ष छे. कर्मना उदयने वश थई पोते अटके छे, माटे पुद्गलकर्म अने एना भावनुं लक्ष छोडी एक ज्ञायकभावनुं लक्ष करवानी वात छे.

परभावना त्रण प्रकार छे. एक कर्मनो भाव ते परभाव छे. रागादि जे विकार थाय ते परभाव छे अने जे निर्मळ पर्याय थाय ते पण स्वभावनी अपेक्षाए परभाव छे. अहीं तो जडकर्म अने एनो भाव एने परद्रव्यनो भाव कह्यो छे. चैतन्यदेव ज्ञायक तेने परभावथी भिन्नपणे सेवतां-उपासतां ते ‘शुद्ध’ छे एम कह्युं छे. एटले निमित्तनुं लक्ष छोडी ज्ञायक उपर लक्ष कर्युं त्यारे एणे ज्ञायकनी उपासना करी, त्यारे एने ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञायक जणायो. एने ते ‘शुद्ध’ छे एम कहेवामां आवे छे. जेने जणायो नथी एने ‘शुद्ध’ छे ए क्यांथी आव्युं? अहा! नित्य जे ध्रुवस्वभाव छे त्यां अंदर लक्ष जतां शुद्धता उत्पन्न थाय त्यारे एणे द्रव्यनी सेवा करी अने तेने ज्ञायक ‘शुद्ध’ छे एम जणायुं. अंदर लक्ष गया विना ‘शुद्ध’ छे एम कहे पण तेनो कांई अर्थ नथी.

अहा! भगवान आत्मा चैतन्यरसकंद छे. एवो आत्मा कदी जोयो-जाण्यो नहीं अने तेनी वात सांभळवानी परवा करी नहीं. दुनियाना डहापण डोळ्‌यां, बहारमां कारखानां धंधा-वेपार आदिनी धमालमां रोकाई गयो. पण भाई! ए तो पागलपणुं छे. आ तो देवाधिदेव तीर्थंकरदेवनां कहेण आव्यां के जाणक स्वभाव एवो ज्ञायक अजाण (जड) स्वभाव एवा कर्मपुद्गलरूप अने एना भावरूप केम थाय? अहा! चैतन्यसूर्यनो प्रकाशए कर्म अने रागना अंधारारूप केम थाय? अहो! आत्मा एवो ने एवो चैतन्यरसना तत्त्वथी भरेलो छे. तेने परथी -कर्मथी-निमित्तथी भिन्न पडी उपासवामां आवतां एटले ज्ञायकनो पर्यायमां स्वीकार करतां ए ‘शुद्ध’ छे एम जाणवामां आवे छे, अने तेने सम्यग्दर्शन अर्थात् धर्मनुं पहेलुं पगथियुं कहेवामां आवे छे. वळी शुद्धनयना विषयभूत ते एकनो ज उग्र आश्रय-सेवन करतां विशेष-विशेष शुद्धतारूप रत्नत्रयधर्म प्रगट थाय छे.