सातमाथी मांडीने अप्रमत्त कहेवाय छे. परंतु ए सर्व गुणस्थानो अशुद्धनयनी कथमांनी छे; शुद्धनयथी आत्मा ज्ञायक ज छे.
आत्मा जे त्रिकाळी ध्रुव ज्ञायकस्वरूप छे ते एकांत सत्य छे. ते कोई अपेक्षाए असत्य न थाय. सत्य-असत्यनी अपेक्षा पर्यायमां लागु पडे. पर्याय पोताना होवापणानी अपेक्षाए सत्य छे अने त्रिकाळी ध्रुवनी द्रष्टि करतां गौण-असत्य छे. सर्व गुणस्थानो अशुद्धनयनो विषय छे तेथी गौण छे, असत्यार्थ छे. केमके तेनो आश्रय ले तो संसार ऊभो थाय अने त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यनो आश्रय ले तो दुःख मटी जाय अने मोक्ष थाय.
शुद्धनयथी आत्मा ज्ञायक ज छे. एटले आत्मा जे एक चैतन्य-चैतन्य सामान्य एकरूप अभेद ध्रुवस्वरूप छे ते ज्ञायक ज छे. तेमां चौदेय गुणस्थानोना भेदो नथी. द्रव्य अने पर्याय ए बन्ने वस्तुमां होवा छतां आ एकरूप ज्ञायकभावमां पर्यायो नथी. मलिन, विकारी पर्यायो तो नथी पण संवर, निर्जरा अने मोक्षनी शुद्ध पर्यायो पण नथी. आवो एकरूप अभेद जे ज्ञायकभाव ए ज ध्येयरूप छे. अहीं अशुद्धनुं लक्ष छोडाव्युं तेनो अर्थ ए छे के जे निर्मळ पर्याय छे ते तो द्रव्यनो ज आश्रय ले छे. अशुद्धता छे ते पर्यायमां छे, द्रव्य-गुणमां नथी. तेथी अशुद्धताने गौण करी, निर्मळानंद, ध्रुव ज्ञायकनुं लक्ष करतां सम्यग्दर्शनादि प्रगट थाय छे अने ते धर्म छे.
भाई! आ (ज्ञायक) तो वीतराग थवानुं कारखानुं छे. कोई कहे छे के सोनगढमां सिद्ध थवानी फेक्टरी छे. वात साची छे. आ तत्त्व समजीने कोई द्रव्यनो- ध्रुवनो आश्रय ले तो जरूर सिद्धपद पामे एवी अफर आ वात छे. शुद्ध पर्याय त्रिकाळी द्रव्यनो आश्रय ले छे ते मार्ग छे. पर्याय ध्रुवनुं ध्यान करे छे. आगळ गाथा ३२०नी आचार्य जयसेननी टीकामां आवे छे के-‘ध्याता पुरुष एम भावे छे के जे सकळ निरावरण अखंड एक प्रत्यक्षप्रतिभासमय अविनश्चर शुद्ध पारिणामिक परमभावलक्षण निज परमात्मद्रव्य ते हुं छुं.’ पर्याय एम जाणे-अनुभवे छे के त्रिकाळी द्रव्य ते हुं छुं. न्यालभाईए कह्युं छे के -‘पर्याय मारुं ध्यान करे तो करो, हुं कोनुं ध्यान करुं?’ माटे एकलो जे ज्ञायक ध्रुव भगवान छे ते एक ज द्रष्टिनो विषय आश्रय करवा योग्य छे, निर्मळ पर्याय पण आश्रय करवा योग्य नथी एम निश्चय करवो.