दर्शनज्ञानचारित्रवत्त्वेनास्याशुद्धत्वमिति चेत्–
ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो।।
नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः।। ७।।
हवे प्रश्न थाय छे के दर्शन, ज्ञान, चारित्र-ए आत्माना धर्म कहेवामां आव्या छे, तो ए तो त्रण भेद थया, ए भेदरूप भावोथी आत्माने अशुद्धपणुं आवे छे! आ प्रश्नना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः-
गाथार्थः– [ज्ञानिनः] ज्ञानीने [चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्] चारित्र, दर्शन, ज्ञान- ए त्रण भाव [व्यवहारेण] व्यवहारथी [उपदिश्यते] कहेवामां आवे छे; निश्चयथी [ज्ञानं अपि न] ज्ञान पण नथी, [चरित्रं न] चारित्र पण नथी अने [दर्शनं न] दर्शन पण नथी; ज्ञानी तो एक [ज्ञायकः शुद्धः] शुद्ध ज्ञायक ज छे.
टीकाः– आ ज्ञायक आत्माने बंधपर्यायना निमित्तथी अशुद्धपणुं तो दूर रहो, पण एने दर्शन, ज्ञान, चारित्र पण विद्यमान नथी; कारण के अनंत धर्मोवाळा एक धर्मीमां जे निष्णात नथी एवा निकटवर्ती शिष्यजनने, धर्मीने ओळखावनारा केटलाक धर्मो वडे, उपदेश करता आचार्योनो-जोके धर्म अने धर्मीनो स्वभावथी अभेद छे तोपण