नामथी भेद उपजावी-व्यवहारमात्रथी ज एवो उपदेश छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे, चारित्र छे. परंतु परमार्थथी जोवामां आवे तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य पी गयुं होवाथी जे एक छे एवुं कांईक-मळी गयेला आस्वादवाळुं, अभेद, एकस्वभावी (तत्त्व)-अनुभवनारने दर्शन पण नथी, ज्ञान पण नथी, चारित्र पण नथी, एक शुद्ध ज्ञायक ज छे.
वात तो दूर ज रहो, पण तेने दर्शन, ज्ञान, चारित्रना पण भेद नथी; कारण के वस्तु अनंतधर्मरूप एकधर्मी छे. परंतु व्यवहारी जन धर्मोने ज समजे छे, धर्मीने नथी जाणता, तेथी वस्तुना कोई असाधारण धर्मोने उपदेशमां लई अभेदरूप वस्तुमां पण धर्मोना नामरूप भेदने उत्पन्न करी एवो उपदेश करवामां आवे छे के ज्ञानीने दर्शन छे, ज्ञान छे, चारित्र छे. आम अभेदमां भेद करवामां आवे छे तेथी ते व्यवहार छे. परमार्थथी विचारवामां आवे तो अनंत पर्यायोने एक द्रव्य अभेदरूपे पीने बेठुं छे तेथी तेमां भेद नथी.
अहीं कोई कहे के पर्याय पण द्रव्यना ज भेद छे, अवस्तु तो नथी; तो तेने व्यवहार केम कही शकाय? तेनुं समाधानः- ए तो खरुं छे पण अहीं द्रव्यद्रष्टिथी अभेदने प्रधान करी उपदेश छे. अभेदद्रष्टिमां भेदने गौण कहेवाथी ज अभेद सारी रीते मालूम पडी शके छे. तेथी भेदने गौण करीने तेने व्यवहार कह्यो छे. अहीं एवो अभिप्राय छे के भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प दशा नथी थती अने सरागीने विकल्प रह्या करे छे; माटे ज्यां सुधी रागादिक मटे नहि त्यां सुधी भेदने गौण करी अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां आव्यो छे. वीतराग थया बाद भेदाभेदरूप वस्तुनो ज्ञाता थई जाय छे त्यां नयनुं आलंबन ज रहेतुं नथी.
हवे प्रश्न थाय छे के दर्शन, ज्ञान, चारित्र-ए आत्माना धर्म कहेवामां आव्या छे, तो ए तो त्रण भेद थया, ए भेदरूप भावोथी आत्माने अशुद्धपणुं आवे छे? आ प्रश्नना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः
प्रवचन नंबर, १८–२० तारीख १७–१२–७प थी २०–१२–७प
ज्ञानीने चारित्र, दर्शन, ज्ञान-ए त्रण भाव व्यवहारथी कहेवामां आवे छे; निश्चयथी ज्ञान पण नथी, चारित्र पण नथी अने दर्शन पण नथी; ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ज छे.