आ दर्शन, ज्ञान, चारित्र एम त्रण भाव ज्ञानीने नथी. शुं कहेवा मागे छे? के त्रिकाळी ज्ञायकमां आ दर्शन, आ ज्ञान, आ चारित्र एवा भेद नथी. ज्ञायक तो अखंड, अभेदरूप छे. एवा ज्ञायकमां त्रण भेद पाडे त्यां विकल्प ऊठे छे, राग थाय छे. त्रिकाळी ज्ञायक परमात्मामां निर्मळ पर्यायने पण भेगी गणे तो व्यवहार थई जाय छे; अशुद्धनय थई जाय छे. अशुद्धनय कहो, अशुद्धद्रव्यार्थिकनय कहो, पर्यायार्थिकनय कहो के व्यवहारनय कहो, -ते एकार्थवाचक छे.
आचार्य भगवाने जे अपेक्षाए जे वात करी होय ते बराबर समजवी जोईए तेमां कांईपण आघुंपाछुं करवा जाय तो विपरीत थई जशे. अहीं कहे छे के ज्ञानीने चारित्र, दर्शन, ज्ञान एम त्रण भाव व्यवहारथी कहेवामां आवे छे, एटले के ते असत्यार्थ कहेवामां आवे छे. निश्चयद्रष्टिमां आ गुण अने आ गुणी एवा भेद छे ज नहीं. ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ज छे. अहाहा...! वस्तु-आत्मा शुद्ध ज्ञायक ज छे, अभेद छे. अभेदमां दर्शन, ज्ञान, चारित्र एम गुणो छे एम कहेवुं ते व्यवहार छे. गुणो छे खरा, पण गुण-भेद नथी. अभेदद्रष्टिथी जोनारने भेद देखातो ज नथी. प्रवचनसारमां अलिंगग्रहणना अढारमा बोलमां कह्युं छे के ‘आत्मा गुणविशेषथी नहि आलिंगित एवुं शुद्ध द्रव्य छे.’ कहे छे के गुणी एवो आत्मा गुणभेदने स्पर्शतो नथी, आलिंगन करतो नथी. अहाहा...! एकलो अभेद, अभेद छे. अभेदमां भेद उपजावतां-आ ज्ञान छे, दर्शन छे, चारित्र छे एम भेद उपजावतां पर्यायमां राग उत्पन्न थाय छे, सम्यग्दर्शनादि थतां नथी.
अहीं छठ्ठी गाथाथी पण हवे आगळ वात लई जाय छे. छठ्ठी गाथामां व्यवहारना त्रण प्रकारनो निषेध करीने हवे अहीं चोथा अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनयनो निषेध करे छे.
११ मी गाथामां व्यवहारनयना चारेय भेदनो निषेध कर्यो छे. बधोय व्यवहार अभूतार्थ छे एम कहीने जैनदर्शननुं वास्तविक स्वरूप बताव्युं छे. असद्भूत व्यवहारना बे प्रकार-एक उपचरित असद्भूत अने बीजो अनुपचरित असद्भूत. तथा सद्भूत व्यवहारना बे भेद-एक उपचरित सद्भूत अने बीजो अनुपचरित सद्भूत. तेमां त्रण भेदोनो छठ्ठी गाथामां निषेध कर्यो छे. अने अनुपचरित सद्भूतव्यवहारनो आ सातमी गाथामां निषेध करे छे.
ज्ञान ते आत्मा, दर्शन ते आत्मा, चारित्र ते आत्मा-आवा भेद ज्ञायकमां नथी. आवा भेद ते अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनयनो विषय छे. ज्ञायक तो ज्ञायक अभेदमात्र छे.