आठमी गाथामां एम कह्युं के-‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रने जे हंमेशां प्राप्त होय ते आत्मा छे.’ आम भेद पाडीने समजाव्युं छे. नवमी-दशमी गाथामां एम कह्युं के ज्ञान छे ते आत्मा छे. आम भेद पाडीने कथन कर्युं ते सद्भूत व्यवहारनय छे. तेनो अहीं निषेध करीने कहे छे के आत्मा तो एक शुद्ध ज्ञायक ज छे, तेमां कोई भेद नथी.
आ ज्ञायक आत्माने बंधपर्यायना निमित्तथी अशुद्धपणुं तो दूर रहो, पण एने दर्शन, ज्ञान, चारित्र पण विद्यमान नथी. त्रिकाळी वस्तु अभेद छे. एमां भेद कयां छे? आचार्य जयसेननी टीकामां अग्निनो दाखलो आप्यो छे. अग्निमां पाचक, प्रकाशक अने दाहक एम त्रण गुण छे. एम आत्मामां दर्शनगुण पाचक छे, ज्ञानगुण प्रकाशक छे, चारित्रगुण दाहक छे. आ त्रण भेद पाडवा ए व्यवहार छे. निश्चयथी एने दर्शन, ज्ञान, चारित्र पण विद्यमान नथी. अभेदनी हयातीमां भेदनी हयाती रहेती नथी. अहा! त्रिकाळ एक ज्ञायकभावनी द्रष्टि करतां पर्यायभेद देखातो नथी ए तो ठीक, पण अंदर गुणो छे छतां गुणभेद पण देखातो नथी.
आ मूळ चीजने जाण्या विना जन्म-मरण मटे एम नथी. एकलो अभेद ज्ञायक ते मूळचीज छे. एने पर्यायमां अनादिथी कर्मबंध छे. ते बंधपर्यायना निमित्तथी अशुद्धपणुं आवे ए तो दूर रहो, पण एमां शुद्धताना भेदो पण नथी. अशुद्धता तो नथी ज, पण भगवान ज्ञायक एकरूप वस्तुमां दर्शन-ज्ञान-चारित्र जे मोक्षनो मार्ग छे, शुद्ध छे ए पण विद्यमान नथी. सम्यग्दर्शननो विषय के निर्विकल्प ध्याननो विषय जे त्रिकाळी ध्रुव एकरूप ज्ञायक तेमां सम्यग्दर्शन आदि शुद्ध पर्यायोना भेद नथी. अहाहा...! एकला अभेद ज्ञायकमां अशुद्धता तो नथी पण दर्शन, ज्ञान, चारित्रनी पर्यायना भेदनो पण अवकाश नथी.
कह्युं ने के ज्ञायकमां ज्ञान, दर्शन, चारित्र विद्यमान नथी. विद्यमान नथी एटले अभेद द्रष्टिमां आ भेदो जणाता नथी. ते अभेदद्रष्टिना विषय नथी. भेदनुं लक्ष करवा जाय त्यां विकल्प थाय छे, राग थाय छे. भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प दशा थती नथी. सम्यग्दर्शन ए निर्विकल्प दशा छे. ते केम प्रगट थाय एनी आ अद्भुत वात छे. आत्मा शुद्ध ज्ञायक छे. तेनी साथे ज्ञान-दर्शन-चारित्रनी शुद्ध पर्याय भेळवो तो निर्विकल्प समकित नहीं थाय. अशुद्धपणानी वात तो छोडी दो, दर्शन, ज्ञान, चारित्रनी शुद्ध पर्यायना भेद पण अखंड ज्ञायकनी द्रष्टिथी बहार रही जाय छे. अभेदद्रष्टिमां पर्यायभेद नजरमां आवतो ज नथी.