कल्याण थाओ” एवो छे. त्यारे तुरत ज उत्पन्न थता अत्यंत आनंदमय आंसुओथी जेनां नेत्रो भराई जाय छे एवो ते म्लेच्छ ए ‘स्वस्ति’ शब्दनो अर्थ समजी जाय छे; एवी रीते व्यवहारीजन पण ‘आत्मा’ एवो शब्द कहेवामां आवतां जेवो ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ छे ते अर्थना ज्ञानथी रहित होवाथी कांई पण न समजतां मेंढानी जेम आंखो फाडीने टगटग जोई ज रहे छे, पण ज्यारे व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी महारथने चलावनार सारथी समान अन्य कोई आचार्य अथवा तो ‘आत्मा’ शब्द कहेनार पोते ज व्यवहारमार्गमां रहीने “दर्शन-ज्ञान-चारित्रने जे हमेशां प्राप्त होय ते आत्मा छे” एवो ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ समजावे छे त्यारे तुरत ज उत्पन्न थता अत्यंत आनंदथी जेना हृदयमां सुंदर बोधतरंगो (ज्ञानतरंगो) ऊछळे छे एवो ते व्यवहारीजन ते ‘आत्मा’ शब्दनो अर्थ सुंदर रीते समजी जाय छे ए रीते जगत म्लेच्छना स्थाने होवाथी, अने व्यवहारनय पण म्लेच्छभाषाना स्थाने होवाने लीधे परमार्थनो प्रतिपादक (कहेनार) होवाथी व्यवहारनय स्थापन करवायोग्य छे; तेम ज ब्राह्मणे म्लेच्छ न थवुं-ए वचनथी ते (व्यवहारनय) अनुसरवा योग्य नथी.
एकरूप वस्तु छे; तेओ अशुद्धनयने ज जाणे छे केम के तेनो विषय भेदरूप अनेकप्रकार छे; तेथी तेओ व्यवहार द्वारा ज परमार्थने समजी शके छे. आ कारणे व्यवहारनयने परमार्थनो कहेनार जाणी तेनो उपदेश करवामां आवे छे. अहीं एम न समजवुं के व्यवहारनुं आलंबन करावे छे पण अहीं तो व्यवहारनुं आलंबन छोडावी परमार्थे पहोंचाडे छे एम समजवुं.
गाथा ७मां एम कह्युं के आत्मा चिद्घन वस्तु छे. एमां शरीर, मन, वाणी, कर्म तो छे ज नहि, पण कर्मना संगे जे शुभ-अशुभ भावो थाय ए मलिनता, अशुद्धता पण एना स्वरूपमां नथी. ए तो ठीक, पण ज्ञानघन आत्मामां ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद, प्रभुता, स्वच्छता एवी अनंत शक्तिओ छे, छतां आ शक्तिओना भेद अभेद आत्मामां नथी. गुण अने गुणी परमार्थे अभेद छे, भेदरूपे नथी.
आम होवा छतां शिष्यने समजाववा माटे अभेदमां नाममात्र भेद पाडीने ज्ञान ते आत्मा, दर्शन ते आत्मा, चारित्र ते आत्मा एम उपदेश करवामां आवे छे. तोपण भेदद्रष्टिमां निर्विकल्प सम्यग्दर्शन थतुं नथी. माटे भेदने गौण करीने अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव करवो एम उपदेश करवामां आव्यो छे.
त्यारे शिष्यने प्रश्न थाय छे के-जो एम छे तो एक परमार्थनो ज उपदेश करवो जोईए; व्यवहार शा माटे कहो छो? तेना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः