कतकफळ ए ‘निर्मळी’ नामनी औषधि छे. मलिन पाणीमां पोताना हाथथी एटले पोते ज कतकफळ नाखी थोडा लोको शुद्ध पाणीने अनुभवे छे. कतकफळ नाखतां वेंत ज-पडवामात्रथी जळ-कादवनो विवेक प्रगट थाय छे. एटले के कादव नीचे बेसी जाय छे अने पाणी निर्मळ थई जाय छे. आ रीते पोताना पुरुषार्थ वडे पाणीनो सहज एकरूप निर्मळभाव आविर्भूत करवामां आवे छे. कादवना कारणे पाणीनुं निर्मळपणुं ढंकाई गयुं हतुं ते ‘निर्मळी’ना पडवामात्रथी प्रगट थाय छे. आम केटलाक एटले कोई थोडा लोको कादवने जळथी भिन्न करी निर्मळ जळने पीए छे. अहा! आचार्यदेवे करुणा करी केवुं सरळ करीने समजाव्युं छे! पाणीने निर्मळ करे छे तेथी ते औषधिने ‘निर्मळी’ कहे छे. आ तो द्रष्टांत थयुं. हवे सिद्धांत कहे छे.
एवी रीते प्रबळ कर्मना मळवाथी जेनो सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत थई गयो छे एवा आत्मानो अनुभव करनार पुरुषो-आत्मा अने कर्मनो विवेक नहीं करनारा, व्यवहारथी विमोहित हृदयवाळा तो, तेने (आत्माने) जेमां भावोनुं विश्वरूपपणुं प्रगट छे एवो अनुभवे छे.
अहीं कर्म एटले जड पुद्गलकर्मनी वात नथी. पण ते कर्मना निमित्ते जीवनी अवस्थामां थता जे मिथ्यात्व-राग-द्वेषना मलिनभाव तेने अज्ञानी जीव अनुभवे छे एनी वात छे. जडकर्म तो अजीव छे, तेनो अनुभव होई शके नहीं प्रबळ कर्मना मळवाथी एटले पुण्य-पापना जे विकल्पो तेने अनुभववाथी सहज एकरूप निर्मळ ज्ञायकभाव ढंकाई गयो छे. जे शुभाशुभ राग थाय ते हुं एवा मिथ्यात्व अने राग- द्वेषना अनुभवनी आडमां आखो निर्मळानंद ज्ञायकभाव ढंकाई गयो छे, नजरमां आवतो नथी. दया, दान तथा काम-क्रोधादि मलिन वृत्तिओना अनुभवमां एकरूप ज्ञायक द्रष्टिमां आवतो नथी, जणातो नथी एम कह्युं छे. बाकी तो सच्चिदानंदस्वरूप ज्ञायकभाव तो जे छे ते छे, प्रगट ज छे. तिरोभूत थई जाय अने आविर्भूत थाय एवुं ज्ञायकभावमां छे ज नहीं. रागादिना अनुभवमां ज्ञायक नजरमां आवतो नथी तेथी ढंकाई गयो एम कहेवाय छे. अने ज्ञायकना आश्रयमां तेनो अनुभव थाय छे त्यारे ते प्रगट थयो एम कहेवाय छे.
हवे आवा रागादिसंयुक्त आत्मानो अनुभव करनारा, रागादि कर्म अने आत्मानी जुदाई-भिन्नतानो विवेक नहीं करवाथी व्यवहारमां विमोहित रहे छे. शुभाशुभभावो ते हुं एम मूर्च्छित थयेला छे तेथी तेओ जेमां भावोनुं अनेकरूपपणुं प्रगट छे अर्थात् पर्यायमां जे अनेक प्रकारना मलिन विकारी भावो उत्पन्न थाय छे तेने पोतापणे अनुभवे छे.