समयसार गाथा-१९३ ] [ १प इष्ट वा भलां जाणतो के मानतो नथी. ते राग के रागना ईलाजमां तन्मय नथी. आवी अंतरनी सूक्ष्म वात!
आगळ कहे छे-‘वळी निश्चयथी तो, ज्ञातापणाने लीधे सम्यग्द्रष्टि विरागी उदयमां आवेला कर्मने मात्र जाणी ज ले छे, तेना प्रत्ये तेने रागद्वेषमोह नथी.’
अहाहा...! राग आवे छे तेने ज्ञानी ज्ञानमां जाणे ज छे (कर्ता थईने करे छे एम नहि). १२ मी गाथामां कह्युं ने के भूतार्थस्वभावना आश्रये जेने समकित प्रगट थयुं छे एवो ज्ञानी पर्यायमां जे अस्थिरतानो राग आवे छे तेने ते ते काळे जाणे छे अने ते जाणेलो प्रयोजनवान छे, आदरेलो नहि.
ज्ञातापणाने लीधे निश्चयथी सम्यग्द्रष्टि विरागी उदयमां आवेलां कर्मने मात्र जाणी ज ले छे. जुओ, मात्र जाणी ज ले छे एम शब्द छे. भोगोपभोगमां होवा छतां ज्ञानी रागनी अने शरीरादिनी क्रिया बधी पर छे एम जाणे छे. पोते ज्ञातापणे परिणमी रह्यो छे ने? भाई! ज्ञाननो स्वभाव ज एवो छे के ते काळे पोताने जाणतुं ज्ञान, ते ते प्रकारनी रागनी अने शरीरादिनी क्रियाने (तेने अडया विना) जाणतुं थकुं प्रगट थाय छे. भाई! आ बधी अंतरनी वात समजवी पडशे हों; तेने समजवा हमणां ज निवृत्ति लेवी जोईए, नहि तो ८४ ना अवतारमां कयांय गुम थई जईश (पछी तक नहि होय).
कहे छे-उदयमां आवेला कर्म प्रत्ये ज्ञानीने रागद्वेषमोह नथी अर्थात् ज्ञानीने रागनो राग नथी. ज्ञानीने किंचित् राग आवे छे पण तेने रागनो राग नथी अर्थात् रागनी रुचिनुं परिणमन नथी. तेने रागनुं कर्तापणुं के स्वामित्व नथी. राग मारी चीज अने ते मारुं कर्तव्य एम ज्ञानी मानतो नथी. कह्युं छे ने के-
कागविट् सम गिनत है सम्यग्द्रष्टि लोग.
अहाहा...! पुण्यना फळरूप चक्रवर्तीपद अने इन्द्रपदना वैभवने समकिती जीव कागडानी विष्टा समान तुच्छ गणे छे. जेने आत्मा रुच्यो छे ते ज्ञानीने संसारना कोई पदमां-स्थानमां रुचि नथी.
त्यारे कोई कहे छे-अमारे तो आ समजवुं के पछी स्त्री-बाळबच्चांने संभाळवामां अने कमावामां रोकावुं?
अरे भाई! स्त्री-बाळबच्चां संभाळवामां अने धन कमावामां रोकाई रहेवुं ए तो नर्या पापना भाव छे. भगवान! तने खबर नथी के ए स्त्री-पुत्रपरिवार अने धन बधां पडयां रहेशे अने तुं चाल्यो जईश. निरंकुश पाप करीने तुं कयां जईश भगवान! तीव्र पापनुं फळ तो नरक-निगोदादि कह्युं छे.