समयसार गाथा-१९६ ] [ ४प हुं पंगु (पांगळो) थई गयो छुं. मात्र शरीर नभाववा बे वखत भोजन आपजो. जगतना कोई कार्य प्रति मने उत्साह-रस नथी. जुओ, पोते लाखोपति हता, पण अंदरथी मन ऊठी गयुं हतुं. तेमने अहीं (सोनगढमां) आत्मज्ञान थयुं हतुं.
तेमणे घणां शास्त्रो वांचेलां, घणा बावा-जोगी अने जैनना साधुनो संग करेलो. पण शांति न मळी. पछी अहीं आव्या. तेमने आटलुं कह्युं के-भाई! राग-विकल्प अने आत्मा भिन्न भिन्न चीज छे. रागनी दिशा पर तरफनी छे अने आत्मस्वभाव अंतर्मुख छे. अंतर्मुख वाळतां आत्मस्वभाव प्राप्त थाय छे. बस! सांजथी सवार सुधी आना ज घोलनमां (रटणमां) सवार थता पहेलां समकित-आत्मानो अनुभव (वेदन) करीने ऊठी गया. एक रातमां सम्यग्दर्शन! पण ए तो पोताना अंतर्मुख पुरुषार्थथी थाय ने? ए कोई करी आपे एवुं थोडुं छे? भाई! जेनुं चित्त संसारथी उदास थई अंतर्मुख थाय तेनी दशा कोई अद्भुत अलौकिक थई जाय छे. ए ज कहे छे के-
ज्ञानी सेवतो होवा छतां तेने सेवनारो कही शकातो नथी केमके विषयसेवननुं फळ जे रंजित परिणाम तेने ज्ञानी भोगवतो नथी-पामतो नथी. रागनुं थवुं-रागरूपे परिणमवुं ए विषयसेवननुं फळ छे अने ज्ञानी ते रागना रसपणे परिणमतो नथी. माटे सेवतो छतो ते असेवक छे. आवी वात छे.