समयसार गाथा-१९९ ] [ ७३
हवे ‘कर्म’-जडकर्म पुद्गलरूप छे, ते जीवनुं स्वरूप नथी. पण आठ कर्म तो जीवना छे ने? ते जीवने सुख-दुःख आपे छे ने? भाई! कर्म तारां नथी, बापु! कर्म तो जड कर्मनां पुद्गलनां छे. ए तो तने अडतांय नथी तो पछी तने सुख-दुःख केवी रीते आपे?
तेवी रीते ‘नोकर्म’-शरीरादि. आ शरीर ते कर्मनुं कार्य छे, जीवनुं नहि. पण आ जिनबिंबना दर्शनथी जीवने लाभ थाय छे तो जिनबिंब तो जीवनुं खरुं के नहि?
भाई! जिनबिंबना दर्शनथी शुभभाव के समकित थाय छे एम छे ज नहि. ए तो जीव स्वयं शुभभाव करे वा समकित प्रगट करे तो जिनबिंबने निमित्त कहेवाय परंतु शुभभाव आदि तो पोताने पोताथी ज थाय छे, जिनबिंबथी नहि. बोलाय एम के जिनबिंबना दर्शनथी आ थयुं; पण जो जिनबिंबथी शुभभाव थाय तो तो ईयळ खाईने जिनबिंब पर बेसनारी चकलीने पण शुभभाव थई जवो जोईए. पण एम छे ज नहि. धर्मी ज्ञानी जीव तो समस्त नोकर्मने पोताथी अन्यस्वभाव अर्थात् पुद्गलस्वभाव ज जाणे छे. बापु! सत्यने सत्य नहि समजे अने असत्यने सत्यमां खतवी दईश तो संसारना आरा कोई दि’ नहि आवे.
नोकर्म पछी हवे ‘मन’. अहींयां (छातीमां) मन छे ने! अनंत परमाणुओनो पिंड ते मन छे अने ते कर्ममय छे अर्थात् कर्मनुं कार्य छे, जीवस्वभाव नथी एम ज्ञानी जाणे छे. मननो तो हुं जाणनार-देखनार छुं, पण हुं मन नथी के मन मारुं स्वरूप नथी.
पण मन वडे जीव जाणे छे ने? एम नथी भाई! जाणवुं ए तो जीवनो स्वभाव ज छे. अंदर जे ज्ञानना परिणमनरूप पर्याय थाय छे ते वडे जीव जाणे छे, मन वडे नहि.
हवे ‘वचन’. आ वचन-भाषा जे नीकळे छे ते जीवस्वभाव नथी पण पुद्गलनुं -कर्मनुं कार्य छे. आ वाणी बोलाय छे ते पुद्गलनुं कार्य छे. जीव बोले छे एम नहि.
तो पछी भींत केम बोलती नथी? भाई! भींत बोलती नथी, जीभ पण बोलती नथी, होठ पण नहि अने जीव पण बोलतो नथी. बोलाती भाषा-वचन ए तो भाषावर्गणानुं परिणमन छे. भाषावर्गणा परिणमीने वचनरूप थाय छे पण होठ, जीभ, गळुं के जीव वचनरूप परिणमे छे एम