७४ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ नथी. गंभीर सूक्ष्म वात भाई! वळी वचनना काळे जीवने वचनसंबंधी जे विकल्प ऊठे छे ते तेनी पर्याय छे पण ज्ञानी तो ते विकल्पने पण कर्मनुं कार्य जाणे छे, अने तेने काढी नाखे छे. सूक्ष्म वात.
हवे ‘काया’. आ काया नोकर्म छे. नोकर्ममां घणां आवे छे हों. जेटलुं नोकर्म छे ए बधुंय पुद्गलनुं कार्य छे, जीवनुं-मारुं नहि एम ज्ञानी यथार्थ जाणे छे.
तेवी रीते ‘श्रोत्र’ एटले आ कान. जे आ कान छे ते पुद्गलकर्मनुं कार्य छे, ए मारुं-जीवनुं कार्य नथी. आ तो बापु! स्वाध्याय करवो जोईए. आखो दिवस पापना चोपडा फेरवे एने बदले रोज बे-चार कलाक तत्त्वाभ्यास अने तत्त्वनुं चिंतन करवुं जोईए. मध्यस्थ थईने ‘रागादि पुद्गल भिन्न अने आत्मा भिन्न’ एवो तत्त्वविचार अने तत्त्वनिर्णय करे तो अंदरथी शांति प्रगटे.
अहीं ज्ञानी कहे छे-श्रोत्रेन्द्रिय भिन्न छे, कर्ममय छे. हुं तो अतीन्द्रिय भगवान ज्ञायक छुं, मारामां इन्द्रिय केवी? श्रोत्रेन्द्रिय तो जड पुद्गलमय कर्मनुं कार्य छे.
हा, पण जीव श्रोत्रेन्द्रिय वडे सांभळे अने जाणे छे ने? ते भिन्न केम होय? बापु! एम नथी भाई! श्रोत्रेन्द्रियथी जीव सांभळे छे अने एनाथी ज्ञान थाय छे एम नथी. अंदर ज्ञाननुं परिणमन थाय छे ते वडे ज्ञान थाय छे अने स्वना लक्षे- आश्रये परिणमतुं-परिणमेलुं ज्ञान ज सम्यग्ज्ञान होय छे. श्रोत्र तो स्वयं जड छे, एनाथी ज्ञान केम थाय? ज्ञान जीवनो स्वभाव छे, श्रोत्रनो नहि. माटे श्रोत्र भिन्न ज छे. माटे श्रोत्र वडे सांभळवुं ए आत्मानुं कार्य ज नथी.
हवे ‘चक्षु’. चक्षु एटले आंख जड पुद्गलकर्मनुं कार्य छे अने हुं तो जाणवा- देखवाना स्वभाववाळो ज्ञाता-द्रष्टा प्रभु ज्ञायकस्वभावी छुं. मारामां आंख केवी? आंख तो भिन्न पुद्गलमय-कर्ममय वस्तु छे.
पण भगवाननां दर्शन तो आंख वडे थाय छे ने? ना, आंख वडे दर्शन करवां ते आत्मानुं कार्य नथी. झीणी वात भाई! पण आवुं झीणुं कहेवाने बदले आप सामायिक, प्रतिक्रमण, भक्ति, पूजा अने मंदिर बंधाववां इत्यादि सहेली वात करो तो?
ए बधी रागनी अने जडनी क्रियाओमां कयां आत्मा छे? अने मंदिर कोण बनावे? शुं आत्मा बनावे? जडनुं कार्य शुं आत्मा करे? कदीय नहि, तथा ए मंदिर बनाववानो भाव छे ते राग छे, अने ते तरफनुं जे ज्ञान छे ते इन्द्रियज्ञान छे. अहीं कहे छे-ते राग अने इन्द्रियज्ञान पुद्गलनुं कार्य छे, जीवनुं नहि. अहाहा...! धर्मी एम जाणे छे के-मंदिरनुं कार्य तो मारुं नहि पण एना लक्षे