Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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७६ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७

तेवी रीते ‘स्पर्शन’. जे आ स्पर्श-इन्द्रिय छे ते जडनी पर्याय छे, आत्मानी नहि. ते मारो स्वभाव नथी एम धर्मी जीव जाणे छे. अज्ञानी पांचे इन्द्रियो मारी छे अने ते वडे हुं जाणुं छुं-एम माने छे. पण ए तो विपरीतता छे. ज्ञान-जाणवुं ए आत्मानो स्वभाव छे अने इन्द्रियो जड स्वभाव छे. माटे इन्द्रियो मारी छे अने ते वडे हुं जाणुं छुं ए मान्यता मिथ्या छे.

आ रीते जुदाजुदा शब्दो मूकीने सोळ सूत्रो व्याख्यान रूप करवां अने आ उपदेशथी बीजां पण विचारवां. अहाहा...! विकारना, रागना, द्वेषना, विकल्पना, हास्यना अने तेना निमित्तरूप वस्तुना जेटला असंख्य प्रकार पडे छे ते बधाय पर पुद्गलना कार्यरूप छे, मारो स्वभाव नथी. हुं तो शुद्ध ज्ञायकमात्र भगवान आत्मा छुं, चिदानंदमय परमात्मा छुं-एवी द्रष्टि थवी एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे अने एना विना बधां थोथेथोथां छे. आवी वात छे.

[प्रवचन नं. २६८ (शेष), २६९*दिनांक २१-१२-७६ अने २२-१२-७६]