Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). Kalash: 137.

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७८ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७

(मन्दाक्रान्ता)
सम्यग्द्रष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्या–
दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु।
आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्तवरिक्ताः।। १३७।।
श्लोकार्थः–[अयम् अहं स्वयम् सम्यग्द्रष्टिः, मे जातु बन्धः न स्यात्] आ हुं

पोते सम्यग्द्रष्टि छुं, मने कदी बंध थतो नथी (कारण के शास्त्रमां सम्यग्द्रष्टिने बंध कह्यो नथी) ” [इति] एम मानीने [उत्तान–उत्पुलक–वदनाः] जेमनुं मुख गर्वथी ऊंचुं तथा पुलकित (रोमांचित) थयुं छे एवा [रागिणः] रागी जीवो (-परद्रव्य प्रत्ये रागद्वेषमोहभाववाळा जीवो-) [अपि] भले [आचरन्तु] महाव्रतादिनुं आचरण करो तथा [समितिपरतां आलम्बन्तां] *समितिनी उत्कृष्टतानुं आलंबन करो [अद्य अपि] तोपण [ते पापाः] तेओ पापी (मिथ्याद्रष्टि) ज छे, [यतः] कारण के [आत्म–अनात्म– अवगम–विरहात्] आत्मा अने अनात्माना ज्ञानथी रहित होवाथी [सम्यक्तव–रिक्ताः सन्ति] तेओ सम्यक्त्वथी रहित छे.

भावार्थः–परद्रव्य प्रत्ये राग होवा छतां जे जीव ‘हुं सम्यग्द्रष्टि छुं, मने बंध थतो नथी’ एम माने छे तेने सम्यक्त्व केवुं? ते व्रत-समिति पाळे तोपण स्वपरनुं ज्ञान नहि होवाथी ते पापी ज छे. पोताने बंध नथी थतो एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्ते ते वळी सम्यग्द्रष्टि केवो? कारण के ज्यां सुधी यथाख्यात चारित्र न थाय त्यां सुधी चारित्रमोहना रागथी बंध तो थाय ज छे अने ज्यां सुधी राग रहे त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टि पोतानी निंदा-गर्हा करतो ज रहे छे. ज्ञान थवामात्रथी बंधथी छुटातुं नथी, ज्ञान थया पछी तेमां ज लीनतारूप-शुद्धोपयोगरूप-चारित्रथी बंध कपाय छे. माटे राग होवा छतां, ‘बंध थतो नथी’ एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्तनार जीव मिथ्याद्रष्टि ज छे.

अहीं कोई पूछे के “व्रत-समिति तो शुभ कार्य छे, तो पछी व्रत-समिति पाळतां छतां ते जीवने पापी केम कह्यो?” तेनुं समाधानः–सिद्धांतमां पाप मिथ्यात्वने ज कह्युं छे; ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी शुभ-अशुभ सर्व क्रियाने अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहेवाय छे. वळी व्यवहारनयनी प्रधानतामां, व्यवहारी जीवोने अशुभ छोडावी शुभमां लगाडवा शुभ क्रियाने कथंचित् पुण्य पण कहेवाय छे. आम कहेवाथी स्याद्वादमतमां कांई विरोध नथी. _________________________________________________________________ * समिति = विहार, वचन, आहार वगेरेनी क्रियामां जतनाथी प्रवर्तवुं ते