Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार गाथा-२०० ] [ ७९

वळी कोई पूछे छे के-“परद्रव्यमां राग रहे त्यां सुधी जीवने मिथ्याद्रष्टि कह्यो ते वातमां अमे समज्या नहि. अविरतसम्यग्द्रष्टि वगेरेने चारित्रमोहना उदयथी रागादिभाव तो होय छे, तेमने सम्यक्त्व केम छे?” तेनुं समाधानः–अहीं मिथ्यात्व सहित अनंतानुबंधी राग प्रधानपणे कह्यो छे. जेने एवो राग होय छे अर्थात् जेने परद्रव्यमां तथा परद्रव्यथी थता भावोमां आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति-अप्रीति थाय छे, तेने स्वपरनुं ज्ञानश्रद्धान नथी-भेदज्ञान नथी एम समजवुं. जीव मुनिपद लई व्रत-समिति पाळे तोपण ज्यां सुधी (व्रत-समिति पाळतां) पर जीवोनी रक्षा, शरीर संबंधी जतनाथी प्रवर्तवुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रियाथी तथा परद्रव्यना निमित्ते थता पोताना शुभ भावोथी पोतानो मोक्ष माने छे अने पर जीवोनो घात थवो, अयत्नाचाररूपे प्रवर्तवुं इत्यादि परद्रव्यनी क्रियाथी तथा परद्रव्यना निमित्ते थता पोताना अशुभ भावोथी ज पोताने बंध थतो माने छे त्यां सुधी तेने स्वपरनुं ज्ञान थयुं नथी एम जाणवुं; कारण के बंध-मोक्ष तो पोताना अशुद्ध तथा शुद्ध भावोथी ज थता हता, शुभाशुभ भावो तो बंधनां ज कारण हता अने परद्रव्य तो निमित्तमात्र ज हतुं, तेमां तेणे विपर्ययरूप मान्युं. आ रीते ज्यां सुधी जीव परद्रव्यथी ज भलुंबूरुं मानी रागद्वेष करे छे त्यां सुधी ते सम्यग्द्रष्टि नथी. सम्यग्द्रष्टि जीव तो ज्यां सुधी पोताने चारित्रमोहसंबंधी रागादिक रहे छे त्यां सुधी ते रागादिक विषे तथा रागादिकनी प्रेरणाथी जे परद्रव्यसंबंधी शुभाशुभ क्रियामां ते प्रवर्ते छे ते प्रवृत्तिओ विषे एम माने छे के-आ कर्मनुं जोर छे; तेनाथी निवृत्त थये ज मारुं भलुं छे. ते तेमने रोगवत् जाणे छे. पीडा सही शकाती नथी तेथी तेमनो इलाज करवारूपे प्रवर्ते छे तोपण तेने तेमना प्रत्ये राग कही शकातो नथी; कारण के जेने रोग माने तेना प्रत्ये राग केवो? ते तेने मटाडवानो ज उपाय करे छे अने ते मटवुं पण पोताना ज ज्ञानपरिणामरूप परिणमनथी माने छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने राग नथी. आ प्रमाणे परमार्थ अध्यात्मद्रष्टिथी अहीं व्याख्यान जाणवुं. अहीं मिथ्यात्व सहित रागने ज राग कह्यो छे, मिथ्यात्व विना चारित्रमोहसंबंधी उदयना परिणामने राग कह्यो नथी; माटे सम्यग्द्रष्टिने ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य होय ज छे. मिथ्यात्व सहित राग सम्यग्द्रष्टिने होतो नथी अने मिथ्यात्व सहित राग होय ते सम्यग्द्रष्टि नथी. आवा (मिथ्याद्रष्टिना अने सम्यग्द्रष्टिना भावोना) तफावतने सम्यग्द्रष्टि ज जाणे छे. मिथ्याद्रष्टिनो अध्यात्मशास्त्रमां प्रथम तो प्रवेश नथी अने जो प्रवेश करे तो विपरीत समजे छे-व्यवहारने सर्वथा छोडी भ्रष्ट थाय छे अथवा तो निश्चयने सारी रीते जाण्या विना व्यवहारथी ज मोक्ष माने छे, परमार्थ तत्त्वमां मूढ रहे छे. जो कोई विरल जीव यथार्थ स्याद्वादन्यायथी सत्यार्थ समजी जाय तो तेने अवश्य सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय ज छे-ते अवश्य सम्यग्द्रष्टि बनी जाय छे. १३७.