Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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८० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७

समयसार गाथा २००ः मथाळुं

आ रीते सम्यग्द्रष्टि पोताने जाणतो अने रागने छोडतो थको नियमथी ज्ञान- वैराग्यसंपन्न होय छे-एम हवेनी गाथामां कहे छेः-

जोयुं? ‘स्वने जाणतो अने रागने छोडतो’-एम कह्युं छे. विकार थाय छे तो पोतानी पर्यायमां पोताथी ज, पण ते पोतानो स्वभाव नथी एम जाणी ज्ञानी तेने छोडे छे. आ राग ते हुं नहि, हुं तो शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा आत्मा छुं-आवी अंतर्द्रष्टिना बळे रागने छोडतो ते ज्ञानी नियमथी ज्ञान-वैराग्यसंपन्न होय छे एम हवे कहे छेः-

* गाथा २००ः टीका उपरनुं प्रवचन *

‘आ रीते सम्यग्द्रष्टि सामान्यपणे अने विशेषपणे परभावस्वरूप सर्व भावोथी विवेक करीने, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवुं जे आत्मानुं तत्त्व तेने (सारी रीते) जाणे छे.’

जुओ, अहीं सम्यग्द्रष्टिनी वात छे. सम्यग्द्रष्टि कोने कहीए? के जेणे पुण्य- पापना भावथी भेद करीने पोताना शुद्ध चैतन्यस्वभावनुं भान कर्युं छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. ते सामान्यपणे एटले समग्र विकारने अने विशेषपणे एटले विकारना-रागद्वेषादिना एक-एक भेदने के जे परभावस्वरूप छे तेने छोडे छे. चाहे पुण्यभाव हो के पापभाव हो-बेय विकार-विभाव परभाव छे. ते परभावस्वरूप सर्वभावोने भेद करीने छोडतो थको धर्मी ज्ञानानंदस्वरूप भगवान आत्माने उपादेयपणे ग्रहण करे छे. ल्यो, आ धर्म, व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि धर्म नहि. ए तो बधो राग छे. एनाथी तो भेद करवानी वात छे.

शुं कह्युं? वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर एम फरमावे छे के-पुण्यना विकल्पथी पण भिन्न पडीने टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जेनो स्वभाव छे एवुं आत्मतत्त्व हुं छुं एम ज्ञानी अनुभवे छे. आत्मानुं तत्त्व, निजसत्त्व जाणकस्वभाव एक ज्ञायकभाव छे. दया, दान आदि रागना-पुण्यना परिणाम कांई आत्मानुं सत्त्व नथी, ए तो परभाव छे. ज्ञानी सर्व परभावथी भिन्न पडीने एक ज्ञायकस्वभावी निज चैतन्यतत्त्वने अनुभवे छे, सारी रीते जाणे छे.

पण आमां करवानुं शुं आव्युं? उत्तरः– आव्युं ने के-पुण्य-पापना सर्व भावथी भेद करवो अने शुद्ध चैतन्यस्वरूप जाणगस्वभावी आनंदस्वरूप भगवान आत्मानो अनुभव करवो, तेमां ज