ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि।। २०१।।
अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो।
कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो।। २०२।।
नापि स जानात्यात्मानं तु सर्वागमधरोऽपि।। २०१।।
आत्मानमजानन् अनात्मानं चापि सोऽजानन्।
कथं भवति सम्यग्द्रष्टिर्जीवाजीवावजानन्।।
ते सर्वआगमधर भले पण जाणतो नहि आत्मने; २०१.
नहि जाणतो ज्यां आत्मने ज, अनात्म पण नहि जाणतो,
ते केम होय सुद्रष्टि जे जीव–अजीवने नहि जाणतो? २०२.
अपि] परमाणुमात्र-लेशमात्र-पण रागादिक [विद्यते] वर्ते छे [सः] ते जीव [सर्वागमधरः अपि] भले सर्व आगम भणेलो होय तोपण [आत्मानं तु] आत्माने [न अपि जानाति] नथी जाणतो; [च] अने [आत्मानम्] आत्माने [अजानन्] नहि जाणतो थको [सः] ते [अनात्मानं अपि] अनात्माने (परने) पण [अजानन्] नथी जाणतो; [जीवाजीवौ] ए रीते जे जीव अने अजीवने [अजानन्] नथी जाणतो ते [सम्यग्द्रष्टिः] सम्यग्द्रष्टि [कथं भवति] केम होई शके?
टीकाः– जेने रागादि अज्ञानमय भावोना लेशमात्रनो पण सद्भाव छे ते भले श्रुतकेवळी जेवो हो तोपण ज्ञानमय भावना अभावने लीधे आत्माने नथी जाणतो; अने जे आत्माने नथी जाणतो ते अनात्माने पण नथी जाणतो कारण के स्वरूपे सत्ता अने पररूपे असत्ता-ए बन्ने वडे एक वस्तुनो निश्चय थाय छे;