११० ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-७ छे-अपद छे, (तमारुं स्थान नथी,) [विबुध्यध्वम्] एम तमे समजो. (बे वार कहेवाथी अति करुणाभाव सूचित थाय छे.) [इतः एत एत] आ तरफ आवो-आ तरफ आवो, (अहीं निवास करो,) [पदम् इदम् इदं] तमारुं पद आ छे-आ छे [यत्र] ज्यां [शुद्धः शुद्धः चैतन्यधातुः] शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु [स्व–रस–भरतः] निज रसनी अतिशयताने लीधे [स्थायिभावत्वम् एति] स्थायीभावपणाने प्राप्त छे अर्थात् स्थिर छे-अविनाशी छे. (अहीं ‘शुद्ध’ शब्द बे वार कह्यो छे ते द्रव्य अने भाव बन्नेनी शुद्धता सूचवे छे. सर्व अन्यद्रव्योथी जुदो होवाने लीधे आत्मा द्रव्ये शुद्ध छे अने परना निमित्ते थता पोताना भावोथी रहित होवाने लीधे भावे शुद्ध छे.)
भावार्थः– जेम कोई महान पुरुष मद्य पीने मलिन जग्यामां सूतो होय तेने कोई आवीने जगाडे-संबोधन करे के “तारी सूवानी जग्या आ नथी; तारी जग्या तो शुद्ध सुवर्णमय धातुनी बनेली छे, अन्य कुधातुना भेळथी रहित शुद्ध छे अने अति मजबूत छे; माटे हुं तने बतावुं छुं त्यां आव, त्यां शयन आदि करी आनंदित था”; तेवी रीते आ प्राणीओ अनादि संसारथी मांडीने रागादिकने भला जाणी, तेमने ज पोतानो स्वभाव जाणी, तेमां ज निश्चिंत सूतां छे-स्थित छे, तेमने श्री गुरु करुणापूर्वक संबोधे छे-जगाडे छे-सावधान करे छे के “हे अंध प्राणीओ! तमे जे पदमां सूतां छो ते तमारुं पद नथी; तमारुं पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय छे, बहारमां अन्य द्रव्योना भेळ विनानुं तेम ज अंतरंगमां विकार विनानुं शुद्ध छे अने स्थायी छे; ते पदने प्राप्त थाओ-शुद्ध चैतन्यरूप पोताना भावनो आश्रय करो”. १३८.
हवे पूछे छे के रागी (जीव) केम सम्यग्द्रष्टि न होय? तेनो उत्तर कहे छेः-
‘जेने रागादि अज्ञानमय भावोना लेशमात्रनो पण सद्भाव छे ते भले श्रुतकेवळी जेवो हो तोपण ज्ञानमय भावना अभावने लीधे आत्माने नथी जाणतो;...’
भाषा जुओ! ‘जेने रागादि अज्ञानमय भावोना’ एम कही अहीं, रागादि, अज्ञानमय भावो छे एम कह्युं छे. आ व्रत, तप, भक्ति इत्यादिनो जे राग छे ते अज्ञानमय भाव छे. एटले शुं? एटले के ते मिथ्यात्व छे एम नहि, पण एमां चैतन्यनो-ज्ञाननो अभाव छे. अहाहा...! भगवान आत्मा आनंदनो नाथ प्रभु झळहळ ज्योतिस्वरूप चैतन्यबिंब छे. आवा चैतन्यबिंबनुं किरण दया, दान, व्रत, भक्ति आदि रागना विकल्पोमां छे नहि माटे ते अज्ञानमय छे. समजाणुं कांई...?