अनेकांतमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम्।। २।।
जुओ, देव, शास्त्र, अने गुरु एम त्रण छे ने? एमां प्रथम कळशमां ईष्टदेवनी स्तुति करीने मांगळिक कर्युं. अहीं बीजा कळशमां सरस्वतीने नमस्कार करे छे. आमां अर्थकार श्रुतज्ञान, केवळज्ञान अने वाणी त्रणेयने नमस्कार करे छे, ज्यारे कळश टीकाकारे (राजमल्लजीए) आ कळशमां एकली वाणीने सरस्वतीनी मूर्ति कहीने नमस्कार कर्यो छे. आवी वात छे, भाई! आ तो वीतरागनो अनेकांत मार्ग छे. जे अपेक्षाए कहेवुं होय ए प्रमाणे लागु पडी जाय.
श्लोकार्थः– ‘अनेकांतमयी मूर्ति कहेतां जेमां अनेक अंत (धर्म) छे एवुं जे ज्ञान तथा वचन-तेमय मूर्ति सदाय प्रकाशरूप हो. अहीं समयसारमां ‘अनेकांतमयी मूर्ति’ मां ज्ञान अने वचन बे लईने ज्ञानना बे भेद-श्रुतज्ञान अने केवळज्ञान एम लीधा छे; ज्यारे कळशटीकाकारे ‘अनेकांतमयी मूर्ति’ एटले अनेकांतधर्मने बतावनारी वीतरागनी वाणी अर्थात् अनेकांत कहेतां अनेक जेमां धर्म छे एवो भगवान आत्मा-चैतन्यतत्त्व-तेने बतावनारी वाणीने -अनेकांतधर्मवाळी गणी एकली वाणीने लीधी छे.
आचार्य कहे छे के जेणे आत्माने प्रत्यक्षपणे पूर्ण जोयो एवुं केवळज्ञान जगतमां नित्य प्रकाशरूप हो, तथा आत्माने परोक्षपणे पूर्ण जोयो एवुं श्रुतज्ञान नित्य प्रकाशरूप हो. केवळज्ञान अने श्रुतज्ञान एमां प्रत्यक्ष अने परोक्षनो ज फेर छे. वळी आत्माना स्वरूपने देखाडनार एवी सर्वज्ञ वीतरागनी दिव्यध्वनि-वाणी ते पण सदा प्रकाशरूप हो; केमके जगतने सत् आत्मा-तेनुं स्वरूप समजवामां (वाणी) निमित्त छे. नियमसारमां आवे छे के ईष्टफळनी सिद्धिनो उपाय सुबोध छे, (एटले मुक्तिनी प्राप्तिनो उपाय सम्यग्ज्ञान छे), सुबोध सुशास्त्रथी थाय छे अने सुशास्त्रनी उत्पत्ति भगवाननी दिव्यध्वनिथी थाय छे. माटे तेमना प्रसादने लीधे ‘आप्त पुरुष’ बुधजनो वडे पूजवा योग्य छे. अर्थात् मुक्ति