तेना स्वकाळे प्रगट थई ते तेनी काळलब्धि छे. काळलब्धि अने भवितव्य कांई जे निर्मळ पर्याय प्रगट थई एनाथी भिन्न वस्तु नथी. वळी ते ज वखते कर्मना उपशमादि पण स्वयं निमित्तपणे होय ज छे. आवो सहज ज योग होय छे. माटे पोताना त्रिकाळी एक ज्ञायकस्वभावनी जे द्रष्टि करे छे तेने ज काळलब्धिनुं साचुं ज्ञान थाय छे बाकी धारणाथी काळलब्धि-काळलब्धि एम कहे, पण तेने काळलब्धिनी खबर नथी अर्थात् तेने काळलब्धि थई ज नथी. समजाणुं कांई...? अहा! आवो वीतरागनो मारग वीतराग मार्गना अंतर-पुरुषार्थथी प्रगट थाय छे.
जुओ, पंचास्तिकायनी गाथा १७२मां चारे अनुयोगनुं तात्पर्य वीतरागता कह्युं छे. त्यां टीकामां कह्युं छे-“ विस्तारथी बस थाओ. जयवंत वर्तो वीतरागपणुं के जे साक्षात्मोक्षमार्गनो सार होवाथी शास्त्रतात्पर्यभूत छे.” आम चारे अनुयोगनो सार वीतरागता छे. आ वीतरागता कयारे प्रगट थाय? के त्रिकाळी शुद्ध एक ज्ञायकभावनो आश्रय करे त्यारे पर्यायमां वीतरागता प्रगट थाय छे; निमित्त, राग के पर्यायना आश्रये वीतरागता प्रगट थती नथी. आम चारे अनुयोगनो सार आ छे के एक स्वद्रव्यनो-निज ज्ञायकवस्तुनो आश्रय करवो. स्वद्रव्यनो आश्रय कर्या विना पर्यायना क्रमबद्धपणानुं साचुं ज्ञान थतुं नथी.
वळी पर्यायना क्रमने आडो-अवळो माने तेनुं तो परलक्षी बाह्य ज्ञान पण जूठुं छे, तो पछी तेने द्रव्यद्रष्टि कयांथी प्रगट थाय? पंचास्तिकायमां पर्यायने अनियत कहेल छे त्यां पर्याय आडी-अवळी के क्रमरहित आगळ- पाछळ थाय छे एवो तेनो अर्थ नथी; त्यां तो विकारी-विभाव पर्यायने अनियत कहेल छे. वास्तवमां विकारी पर्याय पण क्रमबद्ध स्वकाळे प्रगट थाय छे. कोई पण पर्याय आघी-पाछी थाय एवो वस्तुनो स्वभाव ज नथी, एवी वस्तु ज नथी.
दामनगरना एक शेठ हता. तेओ दिगंबर शास्त्रो वांचता, पण तेमनी द्रष्टि विपरीत हती. तेमणे एक वार अमने पूछेलुं के-चोवीस तीर्थंकर, बार चक्रवर्ती-ए बधा काळे (स्वकाळे) थाय छे माटे काळलब्धि आवे त्यारे कार्य थाय. त्यारे कह्युं’तुं के-काळलब्धिनुं ज्ञान कोने होय छे-खबर छे? ज्ञायकस्वरूपी भगवान आत्मानो जे आश्रय करे छे तेने काळलब्धिनुं साचुं ज्ञान होय छे. बाकी काळलब्धि सामे मों ताकीने बेसे तेने काळलब्धि पाकती ज नथी. सवारे आव्युं हतुं ने प्रवचनमां के-
सुद्धतामैं थिरह्यै मगन, अमृतधारा बरसै.
अहाहा...! पोताना शुद्ध एक सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु आत्मानो ज्यारे आश्रय ले, त्यां ज रमे, अने त्यां ज मग्न थई रहे तेने अमृतधारास्वरूप वीतरागता प्रगट थाय छे; अने आ वीतरागता बार अंग अने चौद पूर्वनो सार छे.
यही वचनसे समज ले, जिन प्रवचनका मर्म,
जिनस्वरूप पोते आत्मा छे; एक तेनो आश्रय करे ते ज धर्म छे. बाकी बधुं कर्म छे, संसार छे. आ भगवाननी वाणीनो मर्म नाम रहस्य छे. भाई! समकितथी मांडीने पूरण मोक्ष सुधीनी बधी ज दशा एक शुद्ध आत्मद्रव्यना आश्रये छे.
पण अरे! जैन कुळमां-दिगंबरमां जन्मेलाने पण जैन तत्त्वनी खबर नथी! कोई एक पंडित कहेता हता के-दिगंबर कुळमां जन्म्या ते बधा सम्यग्द्रष्टि छे, हवे व्रत अने चारित्र धारण करी ले एटले बस कल्याण थई जाय. ल्यो, आवी वात! हवे शुं कहेवुं? ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक’मां पं. श्री टोडरमलजीए श्वेतांबरादिने तो अन्यमत कहेल छे, पण त्यां जैन कुळमां जन्मेला अने दिगंबर जैनधर्मनी बाह्य मान्यता होवा छतां पण जीवने अंदर सूक्ष्म मिथ्यात्व रही जाय छे तेनुं विस्तारथी सातमा अधिकारमां वर्णन कर्युं छे. भाई! कुळथी ने जन्मथी जैनपणुं नथी बापु! अहीं तो अंतरमां-अंतःतत्त्वमां समाई जाय ते जैन छे. बाकी बहारना क्रियाकांड तो बधां कर्मनां काम बापु! एनाथी कर्म नाम संसार नीपजे, धर्म नहि.
अहा! मिथ्यात्व ते ज मूळ संसार छे. आ बैरां-छोकरां बधां पर छे तेमां संसार नथी अने पोताना द्रव्य- गुणमांय संसार नथी. एक समयनी पर्यायमां मिथ्यात्वादि भूल छे, अने ते भूल मटाडतां (स्वद्रव्यना आश्रये) मोक्षमार्ग प्रगट थाय छे. अहो! दिगंबर संतो-भगवान केवळीना केडायतीओए मार्ग बहु चोक्खो स्पष्ट करीने बताव्यो छे. पण शुं थाय? लोकोनो झुकाव बहारमां (क्रियाकांडमां वा विषयकषायमां) छे एटले तेओ शुद्ध तत्त्वने जाणवा प्रति उद्यमशील थता नथी!