प६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
छए द्रव्यमां काळलब्धि छे. द्रव्यनी प्रत्येक पर्याय स्वकाळे प्रगट थाय तेनुं नाम काळलब्धि छे, ते एनी जन्मक्षण छे. पर्याय पोताना स्वकाळे प्रगट थाय एवो ज ज्ञेयनो स्वभाव छे. श्री जयसेनाचार्यदेवे प्रवचनसारना ज्ञेयाधिकारने सम्यग्दर्शननो अधिकार कह्यो छे. ज्ञेयनो स्वभाव ज एवो छे के जे समये जे पर्याय थवानी होय ते ज थाय; ते तेनी जन्मक्षण छे एम सम्यग्द्रष्टि प्रतीति करे छे. सम्यग्दर्शननो विषय भले अभेद एक ज्ञायक छे, पण ज्ञानप्रधान शैलीथी ज्ञान अने ज्ञेय-बन्नेनी यथार्थ प्रतीतिने सम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे. एकला द्रव्यनी अभेद द्रष्टि ते सम्यग्दर्शन-ए दर्शनप्रधान कथन छे. ज्यारे-
प्रवचनसार गाथा २४२मां ज्ञानप्रधान शैलीथी सम्यग्दर्शननी व्याख्या करी छे. त्यां कह्युं छे-“ज्ञेयतत्त्व अने ज्ञातृतत्त्वनी तथा प्रकारे (जेम छे तेम, यथार्थ) प्रतीति जेनुं लक्षण छे ते सम्यग्दर्शनपर्याय छे; ज्ञेयतत्त्व अने ज्ञातृतत्त्वनी तथाप्रकारे अनुभूति जेनुं लक्षण छे ते ज्ञानपर्याय छे; ज्ञेय अने ज्ञातानी जे क्रियान्तरथी निवृत्ति तेना वडे रचाती द्रष्टिज्ञातृतत्त्वमां परिणति जेनुं लक्षण छे ते चारित्रपर्याय छे.”
जुओ, अहीं ज्ञानप्रधान शैलीथी सम्यग्दर्शननी व्याख्या छे. द्रष्टिप्रधान कथनमां एकला अभेदनी श्रद्धाने सम्यग्दर्शन कह्युं छे. श्रीमद् राजचंद्ररचित आत्मसिद्धिमां ‘अनुभव, लक्ष, प्रतीत’-एम शब्दो आवे छे. त्यां अनुभव ते चारित्रपर्याय, लक्ष ते ज्ञाननी पर्याय ने प्रतीत ते श्रद्धानी पर्याय छे. प्रवचनसारमां अनुभवने ज्ञानपर्याय कही छे, तथा शुभरागनी क्रियाथी निवृत्ति अने जाणनार-देखनार स्वभावमां रमणताने चारित्रनी पर्याय कही छे. नग्नदशा अने पंच-महाव्रतनी क्रिया ए कांई वास्तविक चारित्र नथी.
प्रश्नः– तो सम्यग्दर्शन बे प्रकारनुं छे? उत्तरः– ना, सम्यग्दर्शन बे प्रकारे नथी. सम्यग्दर्शन तो एकली निर्विकल्प प्रतीतिरूप एक ज प्रकारनुं छे; तेनुं कथन बे प्रकारे छे-एक दर्शनप्रधान अने बीजुं ज्ञानप्रधान. प्रवचनसारमां ज्ञानप्रधान निरूपण छे, समयसारमां दर्शनप्रधान निरूपण छे.
अहाहा...! जे जीव विभु एवा पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो विश्वास-प्रतीति करी तेमां ज ठरे छे ते अनंत गुणनी विभूति-अनंत चतुष्टयादि निजवैभवने प्राप्त थाय छे.
आ प्रमाणे अहीं विभुत्वशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.
‘समस्त विश्वना सामान्य भावने देखवारूपे (अर्थात् सर्व पदार्थोना समूहरूप लोकालोकने सत्तामात्र ग्रहवारूपे) परिणमता एवा आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति.’
आखा विश्वने सामान्यपणे भेद पाडया विना देखे एवी सर्वदर्शित्वशक्तिनुं अहीं वर्णन छे. आ जीव छे, आ जड अजीव छे, आ गुण छे, आ गुणी छे, आ भवि छे, आ अभवि छे इत्यादि भेद पाडया विना सर्व लोकालोकने सामान्य सत्तापणे देखवारूप परिणमती एवी आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति छे. लोकालोकने सत्तामात्र सामान्यपणे देखे एटले पदार्थ छे बस एटलुं देखे. आ आत्मा छे एम भेद पाडे ए तो ज्ञान थई गयुं. दर्शन कोई भेद पाडतुं नथी.
अहीं आ जे सर्वदर्शित्वशक्ति कही छे ते आत्मदर्शनमयी छे. त्यारे कोई कहे छे-सर्वने देखे एम कहेतां सर्वमां अनंता पर आवी गया, अने तेथी परने देखे एम पण आवी गयुं; तो आत्मदर्शनमयी केवी रीते छे? अर्थात् पूरा लोकालोकने देखे तो तेनी अपेक्षा आवी के नहि?
समाधानः– अरे भाई! सर्वदर्शित्वशक्ति देखवारूपे परिणमे ते आत्मदर्शनमयी परिणाम छे. जरा सूक्ष्म वात छे. आत्मदर्शनमयी परिणाम छे एटले शुं? के स्वने देखतां सहज ज आखा विश्वने देखी ले छे, विश्वने देखवा माटे विश्व प्रति उपयोग जोडवो पडतो नथी. सर्व शब्दे स्व-पर सहित आखुं लोकालोक आवी गयुं. सर्वने देखे छे एम कहीए एमां परने देखे छे एम पण आवी गयुं पण परने देखे छे एम कहीए ए तो असद्भूत व्यवहारनय छे. बाकी सर्वदर्शित्वशक्तिना देखवारूप जे परिणाम थाय ते आत्मदर्शनमयी परिणाम छे, स्वाश्रयी परिणाम छे. तेमां परनी