Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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गाथा ३० ] [ ११९

* कळश २६ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *
जिनेन्द्ररूपं परं जयति जिनेन्द्रनुं रूप उत्कृष्टपणे जयवंत वर्ते छे. केवुं छे ते?

नित्यम् अविकारसुस्थितसर्वागम् जेमां सर्व अंग हमेशां अविकार अने सुस्थित (सारी रीते सुखरूप स्थित) छे, जेमां अपूर्वसहजलावण्यम् (जन्मथी ज) अपूर्व अने स्वाभाविक लावण्य छे (अर्थात् जे सर्वने प्रिय लागे छे); समुद्रम् इव अक्षोभम् अने जे समुद्रनी जेम क्षोभरहित छे, चळाचळ नथी. जुओ, भगवाननुं शरीर एवुं होय छे के सूर्यथी पण वधारे प्रकाशवाळुं होय छे सुंदरता (नमणाई) बहु होय छे. दरेक अवयवनी प्रकृति एवी बंधायेली छे के जेथी शरीरनी सुंदरता-नमणाई श्रेष्ठ होय छे. सघळा अंगो निर्विकार अने प्रमाणसर होय छे. वळी ते समुद्रनी जेम शांत-शांत निश्चल होय छे.

आम शरीरनुं स्तवन करवा छतां तेनाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन थतुं नथी. कारण के, जोके तीर्थंकर-केवळीपुरुषने शरीरनुं अधिष्ठातापणुं छे तोपण, सुस्थित सर्वांगपणुं, लावण्य आदि आत्माना गुण नहि होवाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषने ते गुणोनो अभाव छे. जेम नगरना वर्णनमां राजानुं वर्णन आवतुं नथी तेम शरीरना वर्णनमां आत्मानुं वर्णन आवतुं नथी.

[प्रवचन नं ६९ चालु * दिनांक ७-२-७६]