११८ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-२
अक्षोभमिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति।। २६ ।।
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आम नगरनुं वर्णन करवा छतां तेनाथी राजानुं वर्णन थतुं नथी कारण के, जोके राजा तेनो अधिष्ठाता छे तोपण, कोट-बाग-खाइ-आदिवाळो राजा नथी.
तेवी रीते शरीरनुं स्तवन कर्ये तीर्थंकरनुं स्तवन थतुं नथी तेनो पण श्लोक कहे छेः-
श्लोकार्थः– [जिनेन्द्ररूपं परं जयति] जिनेन्द्रनुं रूप उत्कृष्टपणे जयवंत वर्ते छे. केवुं छे ते? [नित्यम्–अविकार–सुस्थित–सर्वाङ्गम्] जेमां सर्व अंग हंमेशां अविकार अने सुस्थित (सारी रीते सुखरूप स्थित) छे, [अपूर्व–सहज–लावण्यम्] जेमां (जन्मथी ज) अपूर्व अने स्वाभाविक लावण्य छे (अर्थात् जे सर्वने प्रिय लागे छे) अने [समुद्रं इव अक्षोभम्] जे समुद्रनी जेम क्षोभरहित छे, चळाचळ नथी. र६.
आम शरीरनुं स्तवन करवा छतां तेनाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषनुं स्तवन थतुं नथी कारण के, जोके तीर्थंकर-केवळीपुरुषने शरीरनुं अधिष्ठातापणुं छे तोपण, सुस्थित सर्वांगपणुं, लावण्य आदि आत्माना गुण नहि होवाथी तीर्थंकर-केवळीपुरुषने ते गुणोनो अभाव छे.
उपरना (गाथामां कहेला) अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
‘इदं नगरम् हि’ आ नगर एवुं छे के जेणे ‘प्राकारकवलिताम्बरम्’ कोट वडे आकाशने ग्रस्युं छे. एटले के एनो कोट एटलो बधो ऊंचो छे के जाणे आकाशने आंबतो होय; ‘उपवनराजीनिगीर्णभूमितलम्’ तथा बगीचाओनी पंक्तिओथी जाणे भूमितळने गळी गयुं होय (अर्थात् चारे तरफ बगीचाओथी भूमि ढंकाई गई छे); अने ‘परिखावलयेन पातालम् पिबति इव’ कोटनी चारे तरफ खाईना घेराथी जाणे के पाताळने पी रह्युं छे (अर्थात् खाई बहु ऊंडी छे). जुओ, जेना भूमितळ उपर बगीचा पथराएला छे, कोट जाणे आकाशमां व्यापी रह्यो छे अने खाई जाणे पाताळ सुधी ऊंडी गई छे-‘आम नगरनुं वर्णन करवा छतां तेनाथी राजानुं वर्णन थतुं नथी. कारण के, जोके राजा तेनो अधिष्ठाता छे तोपण कोट-बाग-खाई आदिवाळो राजा नथी.’
तेवी रीते शरीरनुं स्तवन कर्ये तीर्थंकरनुं स्तवन थतुं नथी तेनो पण कळशरूप श्लोक कहे छेः-