देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति।। ३० ।।
देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणाः स्तुता भवन्ति।। ३० ।।
पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम्।। २५ ।।
हवे शिष्यनो प्रश्न छे के आत्मा तो शरीरनो अधिष्ठाता छे तेथी शरीरना स्तवनथी आत्मानुं स्तवन निश्चये केम युक्त नथी? एवा प्रश्नना उत्तररूपे द्रष्टांत सहित गाथा कहे छेः-
कीधे शरीरगुणनी स्तुति नहि स्तवन केवळीगुणनुं. ३०.
गाथार्थः– [यथा] जेम [नगरे] नगरनुं [वर्णिते अपि] वर्णन करतां छतां [राज्ञः वर्णना] राजानुं वर्णन [न कृता भवति] करातुं (थतुं) नथी, तेम [देहगुणे स्तूयमाने] देहना गुणनुं स्तवन करतां [केवलिगुणाः] केवळीना गुणोनुं [स्तुताः न भवन्ति] स्तवन थतुं नथी.
टीकाः– उपरना अर्थनुं (टीकामां) काव्य कहे छेः-
श्लोकार्थः– [इदं नगरम् हि] आ नगर एवुं छे के जेणे [प्राकार–कवलित– अम्बरम्] कोट वडे आकाशने ग्रस्युं छे (अर्थात् तेनो गढ बहु ऊंचो छे), [उपवन– राजी–निगीर्ण–भूमितलम्] बगीचाओनी पंक्तिओथी जे भूमितळने गळी गयुं छे (अर्थात् चारे तरफ बगीचाओथी पृथ्वी ढंकाई गई छे) अने [परिखावलयेन पातालम् पिबति इव] कोटनी चारे तरफ खाईना घेराथी जाणे के पाताळने पी रह्युं छे (अर्थात् खाई बहु ऊंडी छे). रप.