१३०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ तो तारा श्रद्धा-ज्ञान-आनंद इत्यादि अनंत स्वधर्मोमां वसवानो छे. अहा! आवा तारा स्वभावने ओळखीने तेमां वास कर, तेनां श्रद्धा-ज्ञान-रमणता कर; ने विकारनी वासना छोडी दे. अहा! देह ने विकारनी वासना छोडी, अनंतधर्मस्वरूप एकस्वरूपात्मक-एकाकार निज आत्माने ओळखवो ते अनेकान्त छे, अने तेनुं फळ परम अमृत छे, परम सुखनी प्राप्तिरूप परमामृत छे. समजाणुं कांई...?
त्यारे केटलाक वळी कहे छे-आपणे तो आखा विश्व उपर प्रेम करवो जोईए. विश्वप्रेम ते धर्म छे. अरे भाई! विश्वप्रेम ए चीज शुं छे? सर्व विश्वनुं ज्ञान करी, निज चैतन्यवस्तुमां एकता स्थापित करवी एनुं नाम प्रेम छे. आ प्रेम एटले वीतरागता छे. बाकी बीजा प्रत्ये प्रेम करवो, अरे, तीर्थंकर प्रभु प्रत्ये प्रेम करवो ए पण राग छे, ते राग आत्माना एकस्वरूपात्मकपणामां छे ज नहि. शरीरना ने परना धर्मरूप न थतां पोताना धर्मोमां व्यापक थाय एवो ज आत्मानो स्वधर्मव्यापकत्व स्वभाव छे.
परमार्थे भगवान आत्मा पोताना निर्मळ गुणो अने निर्मळ पर्यायोमां व्यापे छे, राग अने शरीरने ए कदी अडतो ज नथी. आवो ज द्रव्यस्वभाव छे. हवे पोतानी चीज केवी छे एनी खबर विना धर्म थई जाय एम केवी रीते बने? कदीय न बने. अरे! एनो अनंत काळ एम ने एम चाल्यो गयो! संसारना धंधा आडे ने विषय- कषाय आडे एने निवृत्ति नहि; आखा दिवसमां मांड कलाक देवदर्शन, भक्ति, पूजा ने स्वाध्यायमां काढे, बाकीनो बधो समय एकला अशुभमां काढे-व्यतीत करे छे. घणो तो कुटुंबने ने लोकोने राजी राखवामां वखत जाय छे, पण भाई! एमां तारो आत्मा नाराज थाय छे तेनी तने खबर नथी; अरेरे! तुं दुःखी-दुःखी थई रह्यो छे! अरे भाई! तारे पर साथे शुं संबंध छे? पर साथे प्रेम करवानुं कहे छे पण प्रेम करवानो अर्थ शुं? पोतानी पर्याय पोताना द्रव्यमां एकाग्र थाय ते प्रेम छे; पर तरफनो प्रेमभाव ए तो राग छे, ने तेने करवामां धर्म माने ए तो भ्रान्ति छे; अने ते हेय छे.
अरे भाई! आ देहथी तुं जुदो अव्यापक छो, तो पर (विश्व) तारुं कयांथी थई गयुं? माटे परथी ने जड देहथी जुदो ने जुदो तारो आत्मा एवो ने एवो एकरूप चिदानंद चैतन्यस्वरूपे रह्यो छे एम जाणीने तुं प्रसन्न था, प्रमुदित था, ने तारा आत्माने स्वधर्ममां रहेलो अनुभव; एम करतां शरीरथी संबंध छूटीने तने अशरीरी मुक्त दशानी प्राप्ति थशे.
आ प्रमाणे अहीं स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति पूरी थइ.
‘स्व-परना समान, असमान अने समानासमान एवा त्रण प्रकारना भावोना धारणस्वरूप साधारण- असाधारण-साधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति’
जुओ, आत्मामां अनंत धर्मो छे. तेमां जे कोई स्व-परना समान धर्मो छे ते साधारण छे, अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व आदि धर्मो साधारण छे, केमके ते धर्मो जेम आत्मामां छे तेम आत्मा सिवायना बीजा अन्य द्रव्योमां पण छे. आवा समान-साधारण धर्मो आत्मामां एकी साथे रहेला अनंत छे. स्वमां अने परमां होय एवा साधारण धर्मो अनंत छे.
वळी कोई धर्मो एकला स्वमां-आत्मामां ज होय छे. ते आत्माना विशेष धर्मो होवाथी असमान- असाधारण धर्मो छे. ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि आत्माना असाधारण धर्मो छे, केमके ते एक आत्मामां ज छे, आत्मा सिवाय अन्य द्रव्योमां नथी. आवा असाधारण धर्मो पण अनंत छे. तेमां ज्ञान आत्मानो स्व-परने चेतवारूप- जाणवारूप धर्म होवाथी ते आत्मानुं असाधारण लक्षण छे. भगवान आत्मा ज्ञानलक्षण वडे लक्षित थाय छे. जो के सत् द्रव्यनुं लक्षण छे, तो पण ते आत्मानुं लक्षण नथी, केमके सत् साधारण धर्म होवाथी ते वडे स्व-परनी भिन्नता पामी शकाती नथी, अर्थात् सत्थी आत्मानुं अन्यद्रव्यथी जुदुं स्वरूप लक्षमां आवतुं नथी. समजाय छे कांई...?
वळी आत्मामां कोई धर्मो एवा छे जे, कोई परद्रव्य साथे समान होय ने कोई परद्रव्य साथे असमान होय. तेवा धर्मो साधारणासाधारण छे. अमूर्तत्वादि आत्माना साधारणासाधारण धर्म छे; केमके अमूर्तत्व धर्म, अधर्म, आकाशादिमां छे, पण ते पुद्गल द्रव्यमां नथी. आकाशादिनी अपेक्षा जीवनो अमूर्तत्व धर्म साधारण छे, ने पुद्गल द्रव्यनी अपेक्षा जीवनो ते धर्म असाधारण छे. तेथी अमूर्तत्व गुण जीवनो साधारणासाधारण धर्म छे. अमूर्तत्व वडे पण