द्रव्य-गुण तो एकस्वरूप त्रिकाळ छे ज, तेनो अंतरमां स्वीकार करवाथी पर्यायमां पण एकस्वरूपात्मकपणानुं परिणमन थाय छे. अहाहा...! निज ज्ञानानंदस्वरूपी-एकस्वरूपी भगवाननो अंतरमां सत्कार करवो, आदर करवो तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. आत्माने-निज स्वरूपने शरीरपणे मानवो, वा रागपणे मानवो वा पर्यायमात्र मानवो ए तो पूर्ण वस्तु पोते आत्मा छे तेनो अनादर छे. अने ते ज आत्मानो घात नाम हिंसा छे. अहा! त्रिकाळ सच्चिदानंदस्वरूप पोते छे तेने रागवाळो मानवो ते तेनो घात एटले हिंसा छे. हिंसा बीजी शुं चीज छे? परजीवना घात करवाना परिणाम थाय ते तो हिंसा छे; पण पोताने शरीरमय ने रागमय मानवो ते स्वघातरूप महा हिंसा छे; केमके सर्व हिंसानुं ते मूळ छे. समजाय छे कांई...?
अहाहा...! अंदर अनंतगुणमय एकस्वरूपात्मक जीवन छे एवुं स्वीकार करवाथी पर्यायमां निर्मळ परिणतिरूप परिणमन थाय छे; एकस्वरूपात्मक द्रव्य छे तेनुं पर्यायमां परिणमन थाय छे. अहा! आत्मानी आवी स्वधर्मव्यापकत्व-शक्ति छे. पोताना धर्मोमां-पोताना गुणो ने निर्मळ पर्यायमां आत्मा व्यापक छे, पण देहमां के मलिन पर्यायमां ते व्यापक नथी. तो पछी शुभराग अने शुभजोगथी धर्म थाय ए वात कयां रहे छे? भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे तो शुभरागने हेय कह्यो छे. पं. कैलासचंदजीए लख्युं छे के-आचार्यदेवनी वात बराबर छे.
परमात्म प्रकाशमां कह्युं छे के जे शुभरागने उपादेय माने छे ते निज आत्माने हेय माने छे. व्यवहार रत्नत्रयरूप जे शुभयोग छे तेने जे आदरणीय अने उपादेय माने छे तेणे चिदानंदस्वरूप पोताना अखंडानंद प्रभुने हेय मान्यो छे, हेय करी दीधो छे. ज्यारे धर्मी जीवो तो रागने हेय मानी शुद्ध त्रिकाळी निज आत्मद्रव्यने उपादेय करता थका प्रवर्ते छे. भाई! तारी चीज जे जे प्रकारे छे ते प्रकारे तेनो स्वीकार कर तेमां ज तारुं हित छे, अन्यथा तो आत्मघात ज छे. सत् परिपूर्ण विज्ञानघन प्रभु त्रिकाळ एकस्वरूप ज छे, ते स्वधर्ममां ज व्यापक छे, पोताना गुण-पर्यायमां ज व्यापक छे, अन्यत्र व्यापक नथी.
प्रश्नः– आत्मा स्वधर्ममां सदाय व्यापक छे, तो पछी तेने धर्म करवानुं कयां रह्युं? उत्तरः– आत्मा स्वभावथी स्वधर्मव्यापक छे ए तो बराबर ज छे, पण अज्ञानीने एनी कयां खबर छे? ए तो देहमय ने रागमय हुं छुं एम जाणे छे. तेथी ‘हुं सदाय स्वधर्ममां रहेलो एकस्वरूप छुं’ एवुं जो अंदरमां भान करे तो तेने पर्यायमां सम्यग्दर्शन आदि धर्म थाय. तेथी ज आ उपदेश छे के-हे भाई! अनंत गुणस्वभावमय निज आत्मद्रव्यने ओळखी तेनी ज द्रष्टि कर, जेथी तने मोक्षमार्ग प्रगट थशे.
समयसारनी गाथा १७-१८नी टीकामां आवो ज प्रश्न पूछयो छे. त्यां शिष्य पूछे छे-प्रभो! आत्मा तो ज्ञान साथे तादात्म्यरूप-एकमेक छे, जुदो नथी; तेथी ज्ञानने सेवे ज छे, तो पछी तेने ज्ञाननी उपासना करवानो उपदेश केम आपवामां आवे छे? त्यां आचार्यदेवे समाधान कर्युं छे के-“ते एम नथी. जोके आत्मा ज्ञान साथे तादात्म्यस्वरूपे छे तोपण एक क्षणमात्र पण ज्ञानने सेवतो नथी; कारण के स्वयंबुद्धत्व अथवा बोधितबुद्धत्व-ए कारणपूर्वक ज्ञाननी उत्पत्ति थाय छे.” आम स्वभावथी पोते एक ज्ञानस्वरूप होवा छतां, ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थई तेनुं सेवन न करे त्यां सुधी जीव अज्ञानी ज रहे छे, अने तेथी ज तेने ज्ञाननी उपासनानो-अंतर एकाग्रतानो उपदेश करवामां आवे छे.
अहो! आ पंचम काळमां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे तीर्थंकर तुल्य काम कर्युं छे. भाई! शब्दो थोडा छे, पण एथी एनुं महत्त्व ओछुं न आंकवुं. जुओ, ‘जगत’ त्रण अक्षरनो शब्द छे, पण तेमां शुं न आव्युं? बधुं ज आवी गयुं. अहा! एक ‘जगत’ शब्दे अनंता निगोद, अनंत सिद्ध, छ द्रव्य ने छ द्रव्यनां द्रव्य-गुण-पर्याय... ओहोहो...! बधुं ज आवी गयुं. त्रण अक्षरना कानामात्रा विनाना एक ‘जगत’ शब्दमां केटलुं समाई जाय छे? भगवाननी वाणीमां ‘ॐ’ नीकळे छे तेमां बधुं आवी जाय छे. अहा! आवी वाणी!
प्रश्नः– गुरुदेव! आपे पण गजबनुं काम कर्युं छे? उत्तरः– शुं काम कर्युं छे? आचार्य भगवंतोए जे कह्युं छे तेनुं अमे तो स्पष्टीकरण करीए छीए. गायना आंचळमां दूध भर्युं होय तेने कोई कुशळ दोहनार दोहीने बहार काढे तेम शास्त्रोमां तत्त्व भर्युं छे तेने समर्थ आचार्य अमृतचंद्रदेवे तर्क वडे बहार काढी प्रकाश्युं छे. तेमां अमारुं कांई नथी. अमे तो मात्र तेनुं स्पष्टीकरण करीए छीए, बस.
अरे! मूढ-अज्ञानी जीवो निज चिदानंदमय चैतन्यनुं वास्तु छोडीने, जड देहमां ने विकारमां पोतानो वास मानी रह्या छे. तेने कहे छे-हे जीव! ते तारो वास नथी; जड देहमां ने विकारमां वसवानो तारो स्वभाव नथी. तारो स्वभाव