१२८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ तो व्यापक नथी, ते रागमां-विकारमां पण व्यापक नथी. अनादि संसारथी एने राग तो विविध प्रकारना अनेक थया छे, असंख्य प्रकारना शुभाशुभ भाव थया छे, पण तेमां भगवान आत्मा व्यापक-तन्मय नथी. आत्मा रागमय थई जतो नथी; ए तो त्रिकाळ एकस्वरूपात्मक ज छे.
जेम एक दीवो वाराफरती अनेक ओरडाओमां फरे, त्यां दीवो तो निज प्रकाशस्वरूप दीवो ज छे, दीवो कांई ओरडारूपे थई जतो नथी. तेम अनंतां शरीरोमां ने असंख्यात प्रकारना रागमां फरवा छतां आ चैतन्यदीवडो प्रभु आत्मा त्रिकाळ निज चैतन्यना प्रकाशरूप-एकस्वरूप-ज्ञायकस्वरूप ज छे; जेम दीवो ओरडामां व्यापतो नथी, तेम चैतन्य-दीवडो-आत्मा शरीरमां ने रागमां व्यापतो नथी. अहाहा...! एनी पर्यायमां जे दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना विकल्प थाय छे तेमां भगवान आत्मा तन्मयपणे व्यापतो नथी. ल्यो, हवे लोको पोकार करे छे के- व्यवहारथी निश्चय थाय; पण अहीं कहे छे-आत्मा व्यवहारमां व्यापतो नथी. भाई! आत्मा व्यापक ने व्यवहार-राग तेनुं व्याप्य एम वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. भगवान आत्मा व्यापक एटले कर्ता छे ते निर्मळ पर्यायरूप व्याप्य अवस्थानो कर्ता छे; खरेखर तो एम कहेवुं एय व्यवहार छे, केमके ते निर्मळ पर्याय पोते पोताथी उत्पन्न थई छे. ते पर्याय कर्ता अने ते पर्याय पोते ज कर्म छे. अहीं तो परथी भिन्नता सिद्ध करवी छे ने? तो कह्युं के-अनंत शरीरोमां आ ज्ञायक प्रभु त्रिकाळ एकस्वरूपात्मक छे एवो एनो स्वधर्मव्यापकत्व स्वभाव छे.
ते एक हजार योजन लंबाईवाळा शरीरने प्राप्त थयो होय के तेने अंगुलना असंख्यातमा भागप्रमाण शरीर मळ्युं होय, भगवान आत्मा तो स्वयं पोताना स्वरूपमां ज व्यापक छे; ते शरीरमां व्यापक नथी, ने रागमां पण कदी व्यापक नथी. अहाहा...! आवो पूर्णानंदनो नाथ सच्चिदानंदस्वरूप प्रभु अंदर आत्मा त्रिकाळ बिराजे छे. भाई! अंदर तारां चैतन्यनां निधान शुं छे तेनी तने खबर नथी. अहाहा...! भगवान! तुं पूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप जिनस्वरूपी प्रभु छो. अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख इत्यादि अनंत गुणस्वरूपथी शोभायमान प्रभु तुं स्वधर्मव्यापक छो. तने नानां-मोटां शरीर मळ्यां, पण तेमां तुं व्यापक नथी. अरे, शरीरने तुं कदी अडयो पण नथी, अने रागने पण तुं अडयो नथी. अहा! आवो त्रिकाळ एकस्वरूपात्मक भगवान आत्मा छे तेने ओळखी तेनो आश्रय करतां निर्मळ निर्मळ पर्यायो प्रगट थाय छे.
असंख्य प्रदेशी अनंत गुणनुं धाम प्रभु आत्मा छे. आ नाम दईने बोलावे छे ने! ए नाम तो शरीरनुं बापा! शरीरनुं नाम पाडयुं ते आत्मा नथी. अरे, अनेक नामवाळां नानां-मोटां शरीरमां रह्यो छतां शरीरने ते स्पर्श्यो पण नथी. अहा! एना अनंत गुणमां ते व्यापक होवा छतां ते गुणभेदने स्पर्श्यो नथी एवो ते नित्य एकस्वरूप छे; ते अनेक-स्वरूपे कदी थयो ज नथी. हवे आम छे त्यां आ लक्ष्मी मारी, ने आ स्त्री-कुटुंब मारां ने आ महेल-मकान मारां-ए कयां रह्युं? ए तो बधी जुदी चीज बापु! संयोग आवे ने जाय; पण तेरूपे-पररूपे आत्मा कदी थतो ज नथी. समजाय छे कांई...?
अनादिथी आत्मा पोताना एकस्वरूपमां ज रह्यो छे. अहा! आवी पोतानी चीजनी द्रष्टि करवी तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. अरेरे! आवा आ मनुष्यदेहमां, पोतानी आवी चीज समजमां न ले, ने तेनी द्रष्टि न करे तो तेणे जीवनमां शुं कर्युं? कांई ज न कर्युं; जीवन व्यर्थ ज खोयुं. भाई! एकस्वरूप एवा निज ज्ञायकस्वरूपने जाण्या- अनुभव्या विना, चाहे जेटलां व्रत, तप, भक्ति, पूजा इत्यादि करे पण एथी शुं? एथी कोई ज लाभ नथी, केमके भगवान आत्मा तेमां व्यापक थतो नथी. जेम भिन्न-भिन्न शरीरोमां रहेवा छतां तेमां आत्मा व्यापक थतो नथी तेम शुभाशुभ राग थाय तेमां पण भगवान आत्मा व्यापक थतो नथी. आ शास्त्रनी-परमागमनी छट्ठी गाथामां आव्युं ने के-
एवं भणंति सुध्दं णादो जो सो दु सो चेव।।
अहाहा...! भगवान आत्मा अप्रमत्त नथी, प्रमत्त नथी, एक ज्ञायकभावस्वरूप छे. अहीं शब्दनी वात न लेवी, शब्दनुं जे वाच्य छे ते ज्ञायक तत्त्वने ग्रहण करवानी वात छे. ‘ज्ञायक’ जे शब्द छे तेमां ज्ञायक पदार्थ नथी. ‘साकर’ शब्द वाचक छे, ने साकर पदार्थ तेनुं वाच्य छे. तेम अहीं ‘ज्ञायक’ शब्द वाचक छे, ने ज्ञायक भाव जे त्रिकाळी द्रव्य छे ते वाच्य छे. अहा! ते त्रिकाळी द्रव्य ज्ञायक प्रभु, अहीं कहे छे, एकरूप रह्यो छे, प्रमत्त-अप्रमत्त थयो नथी. पर्याय भले मलिन के निर्मळ हो, वस्तु तो त्रिकाळ एकस्वरूपे ज रही छे. अहा! आवा निज एकस्वरूपात्मक द्रव्यनी द्रष्टि थतां पर्यायमां पण एकस्वरूपात्मकपणानुं-स्वधर्मव्यापकत्वनुं परिणमन थाय छे. आवी वात बहु सूक्ष्म!