अनंत नट, ठट, कळा होय छे. आवुं बहु सूक्ष्म वर्णन सवैयामां पं. श्री दीपचंदजीए कर्युं छे. तेओ २०० वर्ष पहेलां थई गया, समकिती धर्मात्मा हता, विशेष क्षयोपशम धरावता हता. तेमणे सूक्ष्म अलौकिक वर्णन कर्युं छे.
अहाहा...! एकेक गुण, एकेक पर्याय, तेमां नृत्य, ठट, रूप, सत्ता, रस, प्रभाव-अहोहो...! अनंत दरबार भर्यो छे. जेम भगवाननुं समोसरण दिव्य, अलौकिक धर्म दरबार छे ने! तेम भगवान आत्मा, चैतन्यरत्नाकर प्रभु-तेमां अनंतगुणनिधानरूप अलौकिक दरबार भर्यो छे. भाई! तारी चीज-चैतन्य वस्तुथी जगतमां ऊंचुं कांई नथी; माटे अंतर्द्रष्टि करी तेनुं सेवन कर.
आगळ वात आवी गई के आत्माना नियत असंख्य प्रदेशमां सर्वज्ञत्व अने सर्वदर्शित्व शक्तिनां अनुपम निधान पडयां छे. आ शक्तिओ ज्यारे पर्यायमां पूरण प्रगट थाय छे त्यारे सर्वदर्शित्व शक्तिनी पर्याय विशेष भेद पाडया विना सामान्य सत्ने देखे छे, अने केवळज्ञाननी पर्याय एकेक द्रव्यना भिन्न भिन्न गुणो, एकेक गुणनी भिन्न भिन्न पर्यायो, एकेक पर्यायना भिन्न भिन्न अनंत अविभाग प्रतिच्छेदो, ने तेनां (पर्यायोनां) नट, ठट, कळा, रूप, रस इत्यादि बधाने एक समयमां जाणे छे. तेने अहीं शास्त्रमां अद्भुत रस कह्यो छे. एक समयमां बे शक्तिनुं परिणमन, तेमां बन्नेनां लक्षण भिन्न भिन्न! अहा! तेने अद्भुत रस कहीए.
अहो! भगवान आत्मानी सत्ता आवी अद्भुत चमत्कारिक छे. ज्ञान साकार छे, दर्शन निराकार छे. बन्नेनी सत्ता एक द्रव्यमां एकी साथे एक समयमां छे. आने अद्भुत रस शास्त्रमां कह्यो छे.
ज्ञान साकार छे एटले शुं? साकारनो अर्थ आकार नहि, पण स्वपर अर्थने ज्ञान भिन्न भिन्न जाणे छे तेथी ज्ञानने साकार कह्युं छे. परनो आकार वा परनी झलक ज्ञानमां पडे छे माटे ज्ञानने साकार कह्युं नथी, ज्ञाननो स्वपर अर्थनो प्रकाशक स्वभाव छे माटे ज्ञानने साकार कह्युं छे. वळी दर्शन निराकार छे एटले तेने प्रदेश नथी एम नहि, पण भेद पाडया विना ज सामान्य अवलोकनमात्र दर्शन छे माटे तेने निराकार कह्युं छे. साकार एटले सविकल्प; स्वपरने ज्ञान भेद करीने जाणे माटे सविकल्प. आवी वात!
अहा! आत्माना असंख्य प्रदेशो सर्वत्र अनंत गुणोथी व्यापक छे. तेमां एम नथी के गुणनो अमुक अंश अमुक प्रदेशमां ने अमुक अंश बीजा प्रदेशमां होय. आत्माना प्रदेशोमां कोई प्रदेश गुणथी हीन के अधिक नथी. हे भाई! जे कांई छे ते सर्वस्व तारुं नियत असंख्य प्रदेशमां ज छे, तारा असंख्य प्रदेशनी बहार तारुं कांई नथी. माटे परद्रव्यथी विराम पामी, अनंत गुणस्वभावमय एक स्वद्रव्यने ज जो, तेथी तने ज्ञान, सुख अने शांतिनी प्राप्ति थशे.
आ प्रमाणे नियतप्रदेशत्वशक्ति अहीं पूरी थई.
‘सर्व शरीरोमां एकस्वरूपात्मक एवी स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति. (शरीरना धर्मरूप न थतां पोताना धर्मोमां व्यापवारूप शक्ति ते स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति)’.
अहाहा...! निगोदथी मांडीने चरम शरीर सुधी जीवे अनंतां शरीर धारण कर्या; पण आ बधा शरीरोमां भगवान आत्मा तो पोताना एकस्वरूपात्मक एक ज्ञायकभावमात्र ज छे एवो एनो स्वधर्मव्यापकत्व स्वभाव छे. अहा! संसार परिभ्रमण करतां जीवे मनुष्य-देव-नारकी अने तिर्यंचनां-प्रत्येकना अनंतां शरीर धारण कर्यां, ते ते शरीरना आकार प्रमाणे पोतानी व्यंजन पर्याय थई, छतां शरीरमां आत्मा व्यापक नथी; केमके शरीर व्याप्य अने भगवान आत्मा व्यापक एम छे नहि. आत्मानुं स्वरूप सदा एक ज्ञायक छे, शरीरमां के रागमां व्यापे एवुं एनुं स्वरूप नथी.
पोताना अनंत गुणो अने पोतानी निर्मळ पर्यायोमां आत्मा व्यापे एवो एनो स्वधर्मव्यापकत्व गुण छे. अहीं निर्मळ पर्यायनी वात छे, मलिननी नहि, केम के मलिन पर्यायमां आत्मा व्यापक नथी. भाई! आत्मा जडमां- शरीरमां