Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१२६ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ छे, ने एनी पर्याय केवी छे-ए समजवा-विचारवानी एने फुरसद नथी! निश्चयथी असंख्यप्रदेशी क्षेत्रमां अनंत गुणनी निर्मळ पर्यायो प्रगट थाय एवुं एनुं स्वरूप छे. अहीं शक्तिना वर्णनमां निर्मळ पर्यायनी वात छे, मलिननी वात नथी. संकोचविस्तार थाय एवी मलिन पर्यायनो निर्मळ पर्यायमां अभाव छे. झीणी वात भाई!

आत्माना असंख्य प्रदेशोने अहीं नियत कहेल छे. नियत प्रदेश ते निश्चय छे; एनो अर्थ एम छे के जे प्रदेशो छे ते नियत संख्याए-असंख्य छे, ने तेना स्वस्थान पण नियत छे. भले संकोचविस्तार थाय, पण प्रदेशोनी संख्या नियत ज छे. वस्तुनुं निजघररूपी द्रव्य, निजघररूपी असंख्य प्रदेशी नियत क्षेत्र, त्रिकाळ निजघररूपी काळ अने निजघररूपी भाव-चारेय एक छे भाई! भेदनी द्रष्टि छोडी, अभेद एकनी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. कळशटीकाना कळश २प२मां कह्युं छेः- द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव चारेय अभेद एकरूप वस्तु छे. तेमां पर्यायना भेदने ग्रहण करवो ते परकाळ छे, ने असंख्य प्रदेशना भेदनुं लक्ष करवुं ते परक्षेत्र छे. स्वकाळमां परकाळनी नास्ति छे, स्वक्षेत्रमां परक्षेत्रनी नास्ति छे. परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाळ, परभाव परपणे तो अस्तिरूप छे, पण परद्रव्य-क्षेत्र- काळ-भावनी आत्मामां नास्ति छे. झीणी वात छे भाई! स्वचतुष्टयमां परचतुष्टयनो अभाव छे ए तो स्थूळ वात छे. अहीं तो त्रिकाळी पोतानुं स्वरूप ते स्वद्रव्य, स्वकाळ छे, ने एक समयनी विकारी-निर्विकारी पर्यायना भेद उपर लक्ष करवुं ते परद्रव्य, परकाळ छे. नियमसारमां (गाथा-प०) एक समयनी पर्यायने परद्रव्य कह्युं छे. त्यां कह्युं छे- “पूर्वोक्त सर्व भावो परस्वभावो छे, परद्रव्य छे, तेथी हेय छे; अंतःतत्त्व एवुं स्वद्रव्य-आत्मा-उपादेय छे.” आवी वात! तत्त्वज्ञाननो विषय बहु सूक्ष्म छे भाई! अभेद एक शुद्ध ज्ञायकमात्र वस्तु द्रष्टिनो विषय छे ए मूळवात छे.

शक्ति एटले आत्माना गुणोनुं आ वर्णन छे. गुणी नाम आत्मा अनंत गुणरत्नोनो भंडार-खजानो छे. त्यां गुण-गुणीना भेदनुं लक्ष छोडी, गुणी नाम अभेद ज्ञायकस्वरूपनी द्रष्टि करवी ते सम्यग्दर्शन छे. निर्मळ रत्नत्रयस्वरूप मोक्षनो मार्ग कह्यो छे ने? अहा! ते रत्नत्रय केम प्रगट थाय? आत्मा शुद्ध चैतन्यरत्नाकर छे, तेना उपर द्रष्टि करी तेमां ज रमणता करवाथी-त्यां ज लीनता करवाथी-सम्यग्दर्शन सहित निर्मळ रत्नत्रय प्रगट थाय छे. आनुं नाम धर्म छे, ने आ मोक्षमार्ग छे. भाई! जाणपणुं (क्षयोपशम) घणुं बधु न होय, वा क्षेत्र-अवगाहना नानी-मोटी होय तेनी साथे कोई संबंध नथी; अभेद एक निज चैतन्यवस्तुनी द्रष्टि अने रमणता करवी ते रत्नत्रयरूप धर्म छे, ने तेनुं फळ पूर्णदशारूप मोक्ष छे. समजाणुं कांई...?

प्रवचनसारनी ९९मी गाथामां लीधुं छे के असंख्यप्रदेशस्वरूप तिर्यक्प्रचय छे; तेमां एक प्रदेशमां बीजा प्रदेशनो अभाव छे, अर्थात् कोई प्रदेश बीजा प्रदेशमां भळी जतो नथी. एम होय तो ज असंख्य प्रदेश सिद्ध थाय. आ असंख्य प्रदेशरूप क्षेत्रनी जे आकृत्ति छे तेने व्यंजन पर्याय कहे छे. ते व्यंजन पर्याय संसारदशामां संकोचविस्तार पामे छे. सिद्धमां छेल्ला शरीरथी कांईक न्यून आकारे व्यंजन पर्याय अवस्थित रहे छे.

प्रदेशत्व गुणनी पर्यायने व्यंजन पर्याय कहे छे; प्रदेशत्व सिवायना अन्य गुणोनी पर्यायने अर्थपर्याय कहे छे. व्यंजन पर्याय अने अर्थपर्यायनी क्रमवर्ती पर्याय अने अक्रमवर्ती गुणो-ए बेना समुदायने अहीं आत्मा कह्यो छे. अहीं अशुद्ध पर्याय न लेवी. वळी प्रदेशमां जे कंपन थाय छे तेनो अहीं अभाव लेवो, आ वात पहेलां निष्क्रियत्वशक्तिमां आवी गई छे. निष्क्रियत्वशक्ति अनंत गुणमां व्यापक छे. असंख्य प्रदेशमां जे व्यंजन पर्याय छे तेमां निष्क्रियत्वशक्ति व्यापे छे; ते प्रदेश त्यां स्थिर थई गया. जेटली अस्थिरता छे तेनो आ व्यंजन पर्यायमां अभाव छे. बहु झीणी वात प्रभु!

चिद्दविलासमां गुण अधिकार पान ८ उपर आम कह्युं छेः- “एक ज्ञाननृत्यमां अनंत गुणनो घाट जाणवामां आव्यो छे. तेथी (ते अनंत गुणनो घाट) ज्ञानमां छे; अनंत गुणना घाटमां एकेक गुण अनंतरूपे थईने पोताना ज लक्षणने धारे छे, ते कळा छे; एकेक कळा गुणरूप होवाथी अनंत रूपने धारे छे; एकेक रूप जे रूपे थयुं तेनी अनंत सत्ता छे; एकेक सत्ता अनंत भावने धारे छे; एकेक भावमां अनंत रस छे; एकेक रसमां अनंत प्रभाव छे. आ प्रकारे आ भेदो अनंत सुधी जाणवा.” सवैया टीकामां आ विषयनुं विस्तारथी वर्णन कर्युं छे.

एक ज्ञाननी पर्याय द्रव्यने जाणे, गुणने जाणे, पर्यायने जाणे; ए रीते एक समयनी अनंत गुणनी पर्याय सहित द्रव्यने जाणे-एवुं ज्ञाननी पर्यायनुं नृत्य थाय छे. एक समयनी ज्ञाननी पर्यायमां अनंत नट, ठट होय छे. सामान्य-विशेष वस्तुने ज्ञान जाणे, संकोचविस्तारने जाणे, अवस्थितने जाणे, अनंत गुण, अनंत पर्यायने जाणे. एकेक पर्यायमां