Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). 27 AnantDharmatvaShakti.

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१३२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ केमके ते शुभराग आत्माना स्वरूपभूत नथी; राग ने ज्ञानस्वभाव तद्न भिन्न चीज छे.

‘ज्ञान ते आत्मा’-एम ज्ञानलक्षणने अनुसरीने शोधतां, परथी ने विकारथी जुदो ने पोताना अनंत स्वभावोथी एकमेक एवो भगवान आत्मा प्राप्त थाय छे. आ ज सम्यग्दर्शन अने आत्मोपलब्धिनी रीत छे.

समान, असमान, ने समानासमान-एम त्रिविध धर्मोनो धारक भगवान आत्मा छे; आवा निज स्वरूपने ओळखी, परथी ने विकारथी भेदज्ञान करी, अंतर्द्रष्टि वडे शुद्ध आत्मानो अनुभव करवो ते धर्म छे, अने ते ज कर्तव्य छे. ल्यो,

आ प्रमाणे अहीं साधारण-असाधारण-साधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति पूरी थई.

*
२७ः अनंतधर्मत्वशक्ति

‘विलक्षण (परस्पर भिन्न लक्षणोवाळा) अनंत स्वभावोथी भावित एवो एक भाव जेनुं लक्षण छे एवी अनंतधर्मत्वशक्ति.’

अहीं ‘अनंतधर्मत्व’ शब्दमां ‘धर्म’ शब्दे गुण-स्वभावनी वात छे; नित्य, अनित्य आदि जे अपेक्षित धर्मो छे एनी वात नथी. अहाहा...! ‘धारयति इति धर्मः’-आत्मद्रव्य जे अनंत गुण-स्वभावने धारण करे छे ते धर्म छे. अहीं धर्म शब्दे त्रिकाळी गुण-स्वभाव-शक्तिनी वात छे. अहाहा...! आत्मामां शक्तिओ केटली?-के अनंत; अहो! अनंत शक्ति-स्वभावोथी अभिनंदित (अभिमंडित) आत्मा त्रिकाळ एकरूप छे; आवो ज तेनो अनंतधर्मत्व स्वभाव छे. अहा! आवा निज आत्मद्रव्यने द्रष्टिमां लई परिणमतां तेनुं निर्मळ परिणमन थाय छे, अने त्यारे भेगो आनंदनो अनुभव थाय छे तथा आत्मज्ञान प्रगट थाय छे.

अहा! अनंतधर्मत्वमय भगवान आत्मा छे. केवा छे तेना अनंत धर्मो? तो कहे छे-विलक्षण छे, अर्थात् परस्पर भिन्न लक्षणवाळा छे. छे ने अंदर के-‘विलक्षण अनंत स्वभावोथी भावित...’ अहाहा...! आत्माना अनंत स्वभावो छे ते परस्पर भिन्न लक्षणवाळा छे. एक गुणथी बीजो गुण विलक्षण छे. ज्ञाननुं लक्षण जाणवुं, दर्शननुं लक्षण देखवुं, वीर्यनुं लक्षण स्वरूपनी रचना करवी, आनंदनुं लक्षण परम आल्हादनो अनुभव थवो, अस्तित्वनुं लक्षण त्रिकाळ सत्पणे रहेवुं-एम प्रत्येक अनंत शक्तिओ विलक्षण स्वभाववाळी छे; कोई गुणनुं लक्षण कोई बीजा गुणमां जतुं नथी, भळी जतुं नथी; जो भळी जाय तो अनंत स्वभाव-गुण सिद्ध न थाय. अहा! आवा अनंत स्वभावोथी भावित एवो एक भाव जेनुं लक्षण छे एवी अनंतधर्मत्व शक्ति जीवमां छे. अनंत धर्मो विलक्षण होवा छतां एकभावपणे रहेवानो आवो भगवान आत्मानो अनंतधर्मत्व स्वभाव छे.

प्रश्नः– हा, पण आवा अनंत धर्मो जणाता तो नथी? उत्तरः– छद्मस्थने भिन्न भिन्नपणे अनंत धर्मो प्रत्यक्ष न जणाय ए तो खरुं, पण अंतर्मुख द्रष्टि वडे अनंत धर्मोथी अभेद एक चिन्मात्र वस्तु आत्मानो अनुभव अवश्य थाय छे; अने ते अनुभवमां बधाय धर्मो समाई जाय छे. शुं कीधुं? जेम औषधिनी एक गोळीमां अनेक प्रकारना ओसडनो भेगो स्वाद होय छे, तेम आत्मवस्तुना अनुभवमां अनंत शक्तिओनो रस भेगो होय छे. अहाहा...! स्वानुभवरसमां अनंत गुणोनो रस समाय छे. तेथी तो कह्युं छे के-

अनुभव चिंतामनि रतन, अनुभव है रसकूप;
अनुभव मारग मोखको, अनुभव मोखसरूप.

अहाहा...! आ अनुभव तो सर्व साररूप छे. भाई! अहीं आ शक्तिओनुं वर्णन भेदमां अटकवा माटे कर्युं नथी, पण अनंत गुणोनो अभेद एक जे रस-अनुभवरस छे तेनी प्राप्ति माटे कर्युं छे. समजाणुं कांई...?

शक्तिओना भेदना लक्षे स्वानुभवरस प्रगटतो नथी, अभेदएक ज्ञायकना ज लक्षे स्वानुभवरस प्रगटे छे, ने त्यारे ज शक्तिओनी यथार्थ प्रतीति थाय छे. अहा! अनंत गुणना भिन्न भिन्न लक्षण होवा छतां ‘आत्मा’-एम कहेतां तेमां बधा गुण एक साथे समाई जाय छे. अहा! आवा अभेद एकरूप चिन्मात्रस्वरूप आत्मामां अंतर्मुख थई परिणमतां स्वानुभवनी दशा प्रगट थाय छे, ने तेमां आत्मा अने तेना अनंत धर्मोनी साची प्रतीति थाय छे. आवी वात छे. आ