मोटो इंधननो ढगलो बळीने अग्निमय थाय छे. इंधननी अग्नि ते अग्निनी अग्नि छे-एम अद्वैत छे. आम आत्मद्रव्य एक छे. आ एक छे ते अपेक्षित धर्म छे. जेम अग्नि इंधनरूप थई जाय छे तेम ज्ञेयनुं ज्ञान अने पोतानुं ज्ञान एकरूप थाय छे. आ अद्वैत नय छे.
द्वैतनये आत्मद्रव्य अनेक छे, परनां प्रतिबिंबोथी संपृक्त अरिसानी जेम. परना प्रतिबिंबना संगवाळो अरीसो जेम अनेक छे, तेम भगवान आत्मा ज्ञानमां ज्ञेयना संगथी अनेकरूप छे. ज्ञान तो पोताथी थाय छे, ज्ञेयनुं तेमां निमित्त छे बस. अरीसामां प्रतिबिंब पडे छे त्यां अरीसो ने प्रतिबिंब बे थई गयां-द्वैत थयुं, तेम ज्ञेयनुं ज्ञान, ने पोतानुं ज्ञान-एम बेरूप थयुं, द्वैत थयुं.
भगवान आत्माने एक अपेक्षाथी सर्वगत कहेवाय छे. प्रवचनसारमां श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे आत्माने अपेक्षाथी सर्वगत कह्यो छे. तेमां लोकालोक-सर्वनुं ज्ञान थई जाय छे ए अपेक्षाए आत्मा सर्वगत छे एम कह्युं छे. पूर्णज्ञान- केवळज्ञान सर्वने जाणे छे माटे सर्वगत कह्युं छे. पण सर्वगत एटले परमां व्यापक थई जाय, प्रसरी जाय एवो तेनो अर्थ नथी. बरफ अने अग्नि अरीसानी बहार होय छे. तेनुं अरीसामां प्रतिबिंब देखाय छे. अरीसानी अंदर कांई बरफ के अग्नि नथी. जे देखाय छे ए तो अरीसानी स्वच्छ अवस्था छे. त्यां अरीसो अने स्वच्छतागत प्रतिबिंब - एम द्वैत थयुं. तेम ज्ञेयनुं ज्ञान अने आत्मानुं ज्ञान-एम द्वैत थयुं. आम द्वैत नये आत्मद्रव्य अनेक छे.
कळश टीकामां एक-अनेक आव्युं, नय अधिकारमां एक-अनेक कह्युं, अने अहीं शक्तिना अधिकारमां एक- अनेक शक्ति कही. आम तत्त्व अति विशाळ छे. अहीं कहे छे-अनेक गुण-पर्यायोमां व्यापक एवा एकद्रव्यमयतारूप आत्मा एक छे. अहा! एकत्व ए आत्मानो स्वभावगुण छे. तेनुं स्वरूप शुं? तो कहे छे-अनेक निर्मळ निर्मळ पर्यायोमां व्यापक थवा छतां, आत्मा द्रव्यरूपथी एक ज रहे छे, अनेक थतो नथी. सूक्ष्म वात छे प्रभु! आ द्वैत- अद्वैत कह्या ते गुण नथी, ए अपेक्षित धर्म छे, एनुं परिणमन न होय. आ एकत्वशक्तिनुं परिणमन थतां द्रव्यना- भगवान ज्ञायकना एकपणानुं ज्ञान थई आनंदनी अनुभूति थाय छे. अहो! आ अलौकिक वात छे. आत्मद्रव्यना एकपणानी अनुभूति-वेदन विना जे कांई-कायकलेश करे, व्रत पाळे, शास्त्र भणे-ए बधो य संसार छे. आवी वात! समजाय छे कांई...?
भगवान आत्मा पोतानी एकत्वशक्तिथी सर्व पर्यायोमां व्यापे, प्रसरे-फेलाय-एकरूप त्रिकाळ एकद्रव्यमय वस्तु छे. गजब वात छे भाई! अहाहा...! पोताना सर्व गुण-पर्यायोमां व्यापक, एवो सर्वव्यापक एकद्रव्यमय, एकत्वरूप भगवान आत्मा छे. अरे भाई! तारो आत्मा परमां व्यापक नथी, अने ते क्रोधादि विकारमां व्यापक थतो नथी, तथा निर्मळ गुण-पर्यायोमां व्यापे एवो ते एक ज्ञायकपणे ज रह्यो छे, अने अनेकरूप-भेदरूप थयो नथी, थतो नथी. माटे अनेकनुं-भेदनुं लक्ष छोडी एक ज्ञायकनुं लक्ष कर. एम करतां तने स्वभाव साथे एकमेक एवी सम्यक्त्वादि निर्मळ पर्यायो प्रगट थशे. आवी वात!
अहा! आ एकत्वशक्तिनुं परिणमन थतां पर्यायमां आत्मद्रव्यनुं एकपणुं प्रगट थाय छे. वेदांतमां जे अद्वैत- एकपणुं कह्युं छे ते वात अहीं नथी. आ तो पोताना गुणपर्यायोमां व्यापकपणुं एवा एकमयपणानी वात छे. जुओ, अहीं शुं कह्युं छे? ‘अनेक पर्यायोमां व्यापक...’ -एम कह्युं छे. सर्व द्रव्योमां व्यापक एम वात नथी. आत्मा परद्रव्यमां कदी य व्यापक नथी. पोताना अनेक पर्यायो-भेदो, अनंतगुणनी निर्मळ पर्यायो साथे आत्मा व्यापक थाय छे एम वात छे. आमां मलिन पर्यायनी कोई वात नथी, केमके आत्मद्रव्य रागादि मलिन पर्यायमां व्यापक थतुं नथी. अहाहा...! पोतानी अनेक... अनंत निर्मळ पर्यायोमां व्यापक एवा एक द्रव्यमय एकत्वशक्ति आत्मद्रव्यमां छे.
हा, पण आमां धर्म शुं आव्यो? अरे भाई! मारो आत्मा शरीरादि परद्रव्यमां ने विकारमां व्यापक नथी, ए तो मात्र पोतानी अनंत निर्मळ पर्यायोमां ज व्यापक थाय छे; आवुं जाणनार-निश्चय करनारनी द्रष्टि विकारथी ने परद्रव्यथी खसी त्रिकाळी निज आत्मद्रव्य उपर स्थिर थाय छे, अने तेनुं ज नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. भाई रे! तारा गुण-पर्यायोथी बहार बीजे कयांय तारो आत्मा नथी, माटे तुं बहार न शोध, अंतरमां शोध, अंतर्मुख थई स्वरूपमां एकमेक ढळी जा, केमके धर्म धर्मी साथे ज एकमेक छे. समजाणुं कांई...! भेदनुं पण लक्ष छोडी निज एकत्वरूप त्रिकाळी आत्मद्रव्यनी द्रष्टि करे तेने पर्यायमां आनंदनो स्वाद आवे छे, ने एनुं ज नाम सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान छे.
शास्त्रज्ञान गमे तेटलुं होय, नवपूर्वनी लब्धि होय तोपण एथी शुं? अभव्यने पण एवुं ज्ञान तो होय छे. एक