१प०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ वार अहीं वात थई हती के अभव्यने त्रिकाळी ज्ञानशक्ति छे, पण तेने ज्ञाननी परिणति नथी. ते ११ अंग अने नव पूर्वनी लब्धि सहित होय तो पण तेने ज्ञान-परिणति नथी. ज्ञान-परिणति एटले शुं? के ज्ञानस्वभाव उपर एकमेक थई द्रष्टि करतां, ज्ञाननी पर्याय ज्ञानस्वभावनो स्पर्श करीने प्रगट थाय तेनुं नाम ज्ञानपरिणति छे. तेने ज्ञान-परिणति कहो, सम्यग्ज्ञान कहो, आत्मज्ञान कहो, के धर्मीनुं ज्ञान कहो-बधुं एक ज छे.
प्रश्नः– तो शुं आवुं समज्या विना धर्म न थाय? उत्तरः– ना, न थाय. समजण-विवेक विना बीजी कोई रीते धर्म न थाय. प्रश्नः– पशुने ज्ञान थाय छे; ते कयां भणवा जाय छे? उत्तरः– पशुने पण ज्ञानमां बधो ख्याल आवी जाय छे. हुं ज्ञानानंदस्वरूप छुं, राग थाय छे ते दुःख छे- आम ज्ञान अने राग वच्चेनुं भेदज्ञान पशुने थाय छे. नाम भले न आवडे, पण तत्त्वोनुं ज्ञान-श्रद्धान एने बराबर थाय छे. मोक्षमार्ग प्रकाशकमां आनो खुलासो कीधो छे. त्यां कह्युं छे के-तिर्यंचने नव तत्त्वनां नाम भले न आवडे, पण तेनुं भावभासन तेने यथार्थ थाय छे. अतीन्द्रिय आनंदस्वरूप हुं भगवान आत्मा छुं एम निश्चय करी, निमित्त, राग ने पर्यायनो आश्रय छोडी, त्रिकाळी निज ज्ञायकभावनो आश्रय करतां अनाकुळ आनंदनो स्वाद आवे छे एनुं नाम सम्यग्दर्शन अने धर्म छे. अहा! आवी धर्म-परिणति पशुने पण थती होय छे; तेमां शास्त्र भणवानी अटक नथी.
आनंद घनजी कहे छेः
मतवाला तो गिर पडे, भिन्नता पडे रचाई.
जे शास्त्रज्ञाननुं अभिमान करे, व्रतादिनुं अभिमान करे तेने अनुभवरस प्रगटतो नथी. अमे व्रत करीए छीए, तपस्या करीए छीए, जीवोनी दया पाळीए छीए-एम मोह-मद वडे जे मतवाला छे तेओ अनुभवथी बहार रही जाय छे, बहिरात्मा रही जाय छे. परंतु परना ममत्वथी भिन्न पडी, पोताना एकत्वस्वरूप एक ज्ञायकनो जेओ आश्रय करे छे तेमने आत्मानुभव प्रगट थाय छे, तेओ धराईने अनुभव-रस पीए छे, आनंदरस पीए छे.
पशुने खीला साथे बांधे तो पछी ते फरी शके नहि. तेम आत्माने एकत्वरूप ध्रुवना खूंटे बांधी दीधो होय तो ते परिभ्रमण न करे. अहाहा...! भगवान आत्मा ज्ञायक प्रभु स्वयं अतीन्द्रिय आनंदमय ध्रुव खूंटो छे. ते ध्रुवने ध्येय बनावी तेनुं जे ध्यान करे छे तेने एकला आनंदनो स्वाद आवे छे, तेने स्वानुभवरस प्रगट थाय छे. हवे ते चार गतिमां परिभ्रमण नहि करे.
हुं ध्रुव छुं-एम ध्येय तरफनो विकल्प करवानी आ वात नथी. ध्रुव तरफ पर्याय लक्ष करी परिणमे एम वात छे. पर्याय, परसन्मुखता छोडी, स्वसन्मुखता-ध्रुव एक ज्ञायकनी सन्मुखता करी परिणमे छे एवी वात छे. अहा! ध्रुवने लक्षमां लेनारी पर्याय ध्रुव साथे एकमेक थई छे, हवे ते परिभ्रमण करशे नहि. जे छूटो फरे छे, स्वद्रव्यथी भिन्न जे रागादि विकार साथे ने परद्रव्य साथे एकमेक थई परिणमे छे ते जीव चार गतिमां परिभ्रमे छे; परंतु रागथी भिन्न अंदर पोते आनंदकंद एक ज्ञायक प्रभु छे त्यां द्रष्टि लगावी पर्यायने ध्रुव खूंटा साथे बांधी दीधी ते हवे भवमां भटकशे नहि, विकारमां भटकशे नहि. ते हवे निर्भय अने निःशंक छे, विकारनो ने भवनो नाशक छे; अल्पकाळमां ज ते मुक्ति पामशे. समजाणुं कांई...!
आ शक्तिना वर्णनमां थोडा शब्दोमां घणुं रहस्य भर्युं छे. हमणां डो. चंदुभाईनो पत्र आव्यो छे. तेमां अमारा ब्लडनो-लोहीनो रिपोर्ट केवो छे ते जणाव्युं छे. डोकटरनुं कहेवुं छे के आ ब्लड-केन्सर नथी, लोहीमां जरा विकृति छे, पण एमां चिंतानुं कोई कारण नथी; आ तो साधारण रोग छे, बहार प्रगट थाय एवो कोई रोग नथी. अरे, आ देहनी स्थिति जे रहेवानी होय ते रहे, अमने एमां शुं चिंता छे? जुओ ने, अहीं संतो कहे छे-हुं एक छुं, शुद्ध ज्ञायक छुं-एवा विकल्पनी चिंतामां पण भगवान आत्मा व्यापक नथी तो पछी ते आ देहमां केम व्यापक थाय? अज्ञानी जीवने एम थाय के आत्मा देहमां रह्यो नथी तो कयां रह्यो छे? शुं अध्धर आकाशमां रह्यो छे? तेने कहीए-भाई! धीरो था बापा! देह जेम जड छे तेम आकाश पण जड छे. शुं जडमां आत्मा रहे? आत्मा तो निज चैतन्यनी निर्मळ निर्मळ पर्यायोमां रह्यो छे. हवे आवो निश्चय थाय तेने देहनी शुं चिंता? अमने तो कांई खबरे य पडती नथी के