१प८ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
भाई! तारी वर्तमान विद्यमान दशामां कर्मनो-द्रव्यकर्म-भावकर्मनो तो अभाव छे, तदुपरांत अहीं एम कहेवुं छे के-तारी विद्यमान दशामां पूर्व पर्यायनो पण अभाव वर्ते छे. माटे, अरेरे! पूर्वे बहु अपराध-पाप कर्या छे, हवे तेनाथी मुक्त केम थवाय?-एवी कायरता छोडी, तारी वर्तमान पर्यायने स्वभावमां वाळ तो पूर्वना सर्वदोषनुं निवारण थई तने निर्मळ धर्मपरिणति प्रगट थशे. अज्ञानीने पण पोतानी वर्तमान उंधाईनी ज मलिनता छे, कांई पूर्वनी मलिनता वर्तमानमां विद्यमान नथी; पूर्वनी मलिनतानो तो वर्तमानमां अभाव ज छे. अहो! आमां प्रतिसमय वर्तमान वर्तती पर्यायनो ‘भाव’ अने तेमां बीजी पर्यायोनो ‘अभाव’-एम बतावीने तो पर्याय- पर्यायनी स्वतंत्रता सिद्ध करी छे, ने वर्तमान पर्यायने वर्तमान त्रिकाळी द्रव्यनुं ज आलंबन बताव्युं छे. आ तो गजब वात छे भाई!
अहो! द्रव्यमां ज्यारे जुओ (द्रष्टि करो) त्यारे तेनी निर्मळ अवस्था पोताथी ज विद्यमानपणे वर्ते छे, अने ते अवस्थामां बीजी आगळ-पाछळनी बधी अवस्थाओ अविद्यमान ज छे. वर्तमान विद्यमान पर्यायनुं वर्तवापणुं ते ‘भाव’ ने त्यारे बीजी पर्यायनुं नहि वर्तवापणुं, अविद्यमानपणुं ते ‘अभाव’. अहा! आवी बन्ने शक्तिओ आत्मामां एकसाथे त्रिकाळ वर्ते छे.
तारुं ज्ञान अज्ञानना अभाववाळुं छे,
तारी श्रद्धा विपरीतताना अभाववाळी छे,
तारुं चारित्र कषायना अभाववाळुं छे,
तारो आनंद आकुळताना अभाववाळो छे.
-एम तारी बधी ज शक्तिओ विभावना अभाववाळी छे. अहा! आवा निज स्वभावनो स्वीकार करतां ज पर्यायमां पण स्वभावना तद्रूप परिणमन थई जाय छे, -आ ज धर्मनी रीत छे. शुद्ध चैतन्य स्वभावने प्रतीतिमां लईने तेना आश्रये परिणमन कर्या विना धर्मनो बीजो कोई उपाय नथी.
तो केटलाक लोको कहे छे के-दया, दानना शुभभावने नहि मानो तो नरकमां जशो. अरे भाई! सांभळ तो खरो प्रभु! तुं एक वस्तु छो के नहि? जो छो तो तेमां वसेली त्रिकाळी शक्तिओ छे के नहि? वस्तु तो तेने कहीए के जेमां शक्तिनो वसवाट होय, जेम गाम तेने कहीए जेमां प्रजानो वसवाट होय. आ दया, दान, व्रत आदि भाव तो विकारी विभावदशा छे, ते भावकर्म छे; तेनी शक्तिनी विद्यमान निर्मळ दशामां अविद्यमानता ज छे एवी आत्मानी अभावशक्ति छे. अहाहा...! भावकर्मथी भगवान आत्मा शून्य छे, ने तेना निर्मळ परिणमनमां पण भावकर्मनो अभाव ज छे. शुभभावने आ रीते मानवा ते मानवुं यथार्थ छे. बाकी केटलाक आवी वात समजे नहि एटले विरोध करे, पण आ विरोध करवा जेवी चीज नथी बापु! आमां तो तारा हितनी वात छे. एनो विरोध तो पोतानो ज विरोध छे. अमने तो करुणा ज छे. श्रीमदे कह्युं छे ने के-
माने मारग मोक्षनो, करुणा उपजे जोई.
शुभभावनी रुचिवाळाने क्रियाजड कह्या छे, ने बहार ज्ञाननी वातो करे, पण अंदर चैतन्यनुं भिन्न परिणमन थवुं जोईए तेनो जेने स्वाभिमुख उद्यम नथी तेने शुष्कज्ञानी कह्या छे. बन्ने अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे.
तो ज्ञानीने शुभराग तो होय छे? हा, ज्ञानीने शुभरागआवे छे, पण तेने रागनी रुचि, रागनो प्रेम होतो नथी. अहा! आत्मामां विकारी परिणामना अभावरूप स्वभाव छे ते ज्ञानीने परिणम्यो छे, जेथी तेनी निर्मळ विद्यमान दशामां विकारनी अविद्यमानता ज वर्ते छे. किंचित् राग पर्यायमां छे तेने अहीं आत्मा कहेता-गणता नथी. आत्मानी शक्तिना अधिकारमां विकारने शक्तिना कार्यरूप गणवामां आवतो नथी. आ अभावशक्ति द्रव्य-गुण अने पर्याय त्रणेमां व्यापे छे. तेथी शक्तिमां जेनो अभाव छे, शक्तिनी पर्यायमां पण तेनो अभाव-अविद्यमानता ज छे.
ज्ञानावरण आदि आठ कर्मनी अवस्थाथी भगवान आत्मा शून्य छे. अज्ञानी कहे छे-मने कर्म नडे छे. अरे भगवान! कर्म तो बिचारां जड छे. ते तने शुं नडे? पूजानी जयमालामां आवे छे ने के-