१६०ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११
अहा! तारां चैतन्यनिधान तो जो. तेमां रागनो अभाव छे. जेम नरकमां स्वर्गना सुखनी गंध नथी, स्वर्गमां नरकनी पीडा नथी, परमाणुमां पीडा नथी, तेम भगवान चैतन्यप्रभुमां विकार नथी. अहाहा...! चैतन्य- सूर्यना प्रकाशमां रागना अंधकारनो अभाव छे.
अरे, आ शरीर छे ते तो हाड-मांसनुं दुर्गंधमय पोटलुं छे. तेमां शुं राचवुं? तेमांथी बहुबहु तो राख ने धुमाडो नीकळे, तेनी क्रियामांथी कांई सम्यग्दर्शन आदि रत्नो न नीकळे; तेना लक्षे रागद्वेषना अपवित्र, मलिन- गंधाता भावो थाय, कांई ज्ञानमय भाव न थाय. पण अरे भाई! अंदर आ तारुं चैतन्यनिधान अनंत गुणरत्नोथी भर्युं छे, तेमां एकाग्र थईने तुं जो तो खरो! अहाहा...! तेमां जोता ने जोता रहेतां तेमांथी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र, मुनिदशा, केवळज्ञान अने सिद्धपद इत्यादि निर्मळ निर्मळ रत्नोनी हारमाळा गुंथाएली छे ते क्रमे प्रगट थाय छे. अहो! अहीं कहे छे-कर्म, शरीर ने रागनी दशानी अविद्यमानता ज होय एवो भगवान आत्मानो अभावशक्तिरूप स्वभाव छे.
प्रश्नः– तो प्रवचनसारमां कर्तृनय कह्यो छे ते शुं छे? उत्तरः– प्रवचनसारमां त्यां ज्ञानप्रधान शैलिथी वात छे. त्यां कह्युं छे- ‘आत्मद्रव्य कर्तृनये, रंगरेजनी माफक, रागादिपरिणामनुं करनार छे (अर्थात् आत्मा कर्तानये रागादि परिणामोनो कर्ता छे, जेम रंगारो रंगकामनो करनार छे तेम)’.
अहा! धर्मीने सम्यग्दर्शन साथे ज्ञाननी-सम्यग्ज्ञाननी दशा थई छे. ते ज्ञानमां एम जाणे छे के-मारी पर्यायमां विकार छे. अने परिणमन अपेक्षा तेनो हुं कर्ता छुं. परंतु द्रष्टि विकारने पोताना स्वरूपमां स्वीकारती नथी. तेथी द्रष्टिनी प्रधानतामां ‘हुं तो विकारथी शून्य छुं’ -एम ज्ञानी अनुभवे छे. अहीं समयसारमां द्रष्टिनी प्रधानता छे. द्रष्टिनी प्रधानतामां विकार गौण गणी, नथी-अभावरूप छे एम कथन होय छे. ज्यारे ज्ञान तो क्रममां जे किंचित् राग छे तेने पोताना अपराधरूप जाणे छे. (तेने पोतामां भेळवे छे एम नहि)
आचार्य अमृतचंद्रस्वामी त्रीजा कळशमां कहे छे के-
‘अविरतमनुभाव्य–व्याप्ति कल्माषितायाः’-हुं तो द्रव्यद्रष्टिए शुद्ध चैतन्यमात्र छुं, परंतु मारी परिणति मोहकर्मना उदयनुं निमित्त पामीने मेली छे-रागादिरूप थई रही छे. मारी पर्यायमां दुःखनुं वेदन छे. ज्यारे अहीं शक्तिना वर्णनमां आचार्यदेव कहे छे के-दुःखना वेदननी अवस्थानो मारी वर्तमान विद्यमान निर्मळ अवस्थामां अभाव छे. भाई, ज्यां जे अपेक्षाए कथन होय त्यां तेने अपेक्षाथी यथार्थ समजवुं जोईए. भाई! तारी चीज अलौकिक छे, ते लौकिक क्रियाथी प्राप्त थाय तेवी नथी. द्रव्यसंग्रहमां व्यवहारनयने लौकिक कह्यो छे. माटे पुण्यनी- रागनी रुचि छोडी स्वभावनुं ग्रहण कर. ज्ञानीने राग आवे छे, पण ते रागने ग्रहता-पकडता नथी; तेथी ज्ञानी रागनी अवस्थाथी शून्य छे, एवो ज आत्मद्रव्यनो स्वभाव छे. अरे भाई! आ तो प्रसन्नताना अंकुरो फूटे ने तुं न्याल थई जाय एवी आ वात छे; विदेहक्षेत्रमां भगवान सीमंधरस्वामी बिराजे छे त्यांथी आवेली आ वाणी छे. समजाय छे कांई...?
द्रव्य स्वभाव छे ते अशुद्ध अवस्थाथी शून्य छे, सर्व गुणनी पर्यायो पण अशुद्धताथी शून्य छे. अस्तित्व, वस्तुत्व आदि सामान्य गुणो अशुद्ध थता नथी, अमुक गुणनी पर्याय अशुद्ध थाय छे. सामान्य गुणोमां एक प्रदेशत्व गुणनी पर्याय (संसार दशामां) मलिन थाय छे. अगाउ वात करी हती के अमुक गुणनी पर्यायमां अशुद्धता थाय छे, बधा अनंत गुण कांई अशुद्धरूपे थता नथी. अमुक दर्शन, चारित्र, आनंद इत्यादि गुणनी पर्यायमां अशुद्धता थाय छे. पण आ तो ज्ञान करवा माटे छे, मतलब के ज्ञानी एने जाणे छे बस. (तद्रूप थतो नथी). द्रव्य स्वभावनी द्रष्टिमां तो प्रदेशत्व ने ज्ञान आदि गुणनी अशुद्धतानी दशानो अभाव ज छे.
अरे प्रभु! तने तारी मोटपनी खबर नथी. अशुद्धताथी शुद्धता-धर्म थाय एम मानीने तें तारी चीजनो घात कर्यो छे, केमके शुद्ध दशामां अशुद्धतानो अभाव वर्ते छे. तारा द्रव्यनो ज आवो स्वभाव छे. अंदर पूर्ण शुद्ध चैतन्य द्रव्य छे ते द्रवीने शुद्ध थाय छे एम न मानतां अशुद्धतामांथी शुद्ध दशा प्रगट थाय, वा व्यवहार करतां करतां निश्चय थाय एम मानतां तारा स्वभावनो अनादर थाय छे, अने ते ज आत्मघात छे. माटे व्यवहारनो आश्रय छोडी त्रिकाळी द्रव्यस्वभावनो आश्रय कर; केमके द्रव्यस्वभाव त्रिकाळ पवित्र छे, परम पवित्र छे, अने तेना आश्रये ज पवित्रतानी पर्याय प्रगट थाय छे.