Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration). 35 Bhav-AbhavShakti.

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३प-भाव-अभावशक्तिः १६१

अहा! जडकर्म अने भावकर्मनी दशानो तो वर्तमान विद्यमान दशामां अभाव छे, ने भूत-भविष्यनी पोतानी अवस्थाओनो पण तेमां प्रागभाव ने प्रध्वंसाभाव छे. जो तेम न होय ने भूत-भविष्यनी पर्यायो पण वर्तमानमां विद्यमान होय तो वर्तमान साधक पर्यायमां भूतकाळनी अज्ञानदशा पण वर्त्या करे, तथा वर्तमान साधकपर्यायमां केवळज्ञान दशा पण हमणां ज थई जाय. आम थतां साधकदशा वगेरे एकेय पर्याय सिद्ध न थाय, अने पर्याय सिद्ध न थतां, द्रव्य पण सिद्ध न थाय, अर्थात् अज्ञान ज रहे. माटे वर्तमान साधकदशानुं विद्यमान स्वभाववाळापणुं छे तेमां अन्य (आगळ-पाछळनी ने वर्तमान विकारनी) अवस्थाओनो अभाव ज छे एम जाणी शुद्ध चैतन्यना लक्षमां दक्ष था, केमके चैतन्यना लक्षमां दक्ष थतां आत्मा पोतानी निर्मळ अवस्थापणे विद्यमान वर्ते छे. आवो वीतरागनो मारग छे.

आ प्रमाणे अहीं अभावशक्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं.

३पः भाव–अभावशक्ति

‘भवता (-वर्तता, थता, परिणमता) पर्यायना व्ययरूप भावाभावशक्ति’. अहा! आत्मामां एक एवी शक्ति छे जे वडे वर्तमानमां जे पर्याय विद्यमान-भावरूप छे तेनो नियमथी बीजे समये अभाव थाय. भाव-अभावनो एवो अर्थ छे के वर्तमान पवित्रतानी जे विद्यमान-भावरूप अवस्था छे तेनो बीजा समये अभाव थाय छे. जरा शांतिथी सांभळवुं बापु! आ तो भगवान केवळीनो मारग कोई अलौकिक छे. अहा! भगवान केवळीए आत्मामां जेवां निधान प्रत्यक्ष जोयां छे तेवां, भगवान! तने अज्ञान मटीने ज्ञानमां भासित थाय एवी तारी चीज छे.

अहा! अनंत गुणनी जे निर्मळ पर्याय वर्तमान विद्यमान छे ते भवता भावनो-परिणामनो बीजे समये व्यय थाय एवी आत्मानी भाव-अभावशक्ति छे. आ पर्याय छे तेनो हुं अभाव करुं एम नथी, ने तेने हुं पकडी राखुं एम पण नथी, कारण के वर्तमान भावनो बीजे समये अभाव थाय ज एवो आत्मानो भाव-अभाव स्वभाव छे.

अरे भाई! तुं मुंझाईश मा... , अरेरे! घणा लांबा काळथी सेवेलुं अज्ञान हवे केम टळशे, ने सम्यग्ज्ञान केम थशे?-आम तुं मुंझाईश मा; केमके अनादिथी जे अज्ञान सेव्युं ते अज्ञान सदाय टकी ज रहे-एम नथी. अनादिथी समये समये विद्यमान एवा अज्ञाननो अभाव थईने, अपूर्व सम्यग्ज्ञाननो भाव थाय एवी शक्तिओ तारामां त्रिकाळ भरी छे. बस तुं स्व सन्मुख था, ने तारी बधी ज मुंझवण मटी जशे.

जुओ, आ अनेकान्तनो अधिकार छे. आचार्यदेव अहीं अनेकान्तने विशेष चर्चे छे. शिष्ये प्रश्न कर्यो हतो- प्रश्नः– आत्मा अनेकान्तमय होवा छतां पण अहीं तेनो ज्ञानमात्रपणे केम व्यपदेश करवामां आवे छे? (आत्मा अनंत धर्मोवाळो होवा छतां तेने ज्ञानमात्रपणे केम कहेवामां आवे छे? ज्ञानमात्र कहेवाथी तो अन्य धर्मोनो निषेध समजाय छे.) तेनो आचार्यदेव उत्तर करे छे-

उत्तरः– लक्षणनी प्रसिद्धि वडे लक्ष्यनी प्रसिद्धि करवा माटे आत्मानो ज्ञानमात्रपणे व्यपदेश करवामां आवे छे. आत्मानुं ज्ञान लक्षण छे, कारण के ज्ञान आत्मानो असाधारण गुण छे. (-अन्य द्रव्योमां ज्ञानगुण नथी). माटे ज्ञाननी प्रसिद्धि वडे तेना लक्ष्यनी-आत्मानी-प्रसिद्धि थाय छे.

ज्ञानमात्र चेतनस्वरूप आत्मा छे, तेनी परिणतिरूप ज्ञाननी पर्याय छे तेनी साथे अनंत गुणोनी पर्याय उत्पन्न थाय छे. ज्ञानमात्र कहेतां तेमां अनंत शक्तिओ आवी जाय छे, तेमां राग-पुण्य-पाप भावोनो निषेध छे, कांई शक्तिओनो निषेध नथी. आत्मानी पर्यायमां वर्तमान ज्ञाननी दशा विद्यमान होय छे; आ भाव छे ने तेमां रागनो-व्यवहारनो अभाव छे. आ अनेकान्त छे. लोको व्यवहारथी निश्चय थाय एम माने छे, तेमनी आ विपरीत मान्यतानो अनेकान्तनी चर्चा द्वारा आचार्यदेवे निषेध कर्यो छे.

आत्मानी अनंत शक्तिओ छे. तेमां भावशक्तिनुं रूप छे. तेथी तेनी प्रत्येक शक्तिनी वर्तमान निर्मळ अवस्था