१६२ः प्रवचन रत्नाकर भाग-११ विद्यमान होय छे, आ वर्तमान विद्यमान निर्मळ दशामां व्यवहारनो-रागनो अभाव छे. आनुं नाम अनेकान्त छे. अरे, लोको तो व्रत, तप आदि व्यवहार रत्नत्रयना विकल्पथी धर्म थवानुं माने छे, पण ते मान्यता एकान्त छे; तेओ एकान्तवादी मिथ्याद्रष्टि छे, तेमने अनेकान्तना स्वरूपनी खबर नथी.
पोताना द्रव्यमां जे अनंत शक्तिओ छे तेनी वर्तमान विद्यमान अवस्था होय ज छे. ते अवस्था परनुं कारण थाय के परनुं कार्य थाय एम छे नहि. अज्ञानीओ खाली बहारमां धमाधम करे छे. मंदिर बनावो, ने प्रतिष्ठा करावो ने रथयात्रा काढो-इत्यादि बहारमां अज्ञानी खूब धमाधम करे छे. घणा लोको कहे छे के अहीं जंगलमां आ परमागम मंदिर, ने समोसरण मंदिर ने प्रवचन मंडप इत्यादि करोडोना खर्चे रचना थई छे ते तमारा (कानजी स्वामीना) कारणे थई छे.
अरे भाई! ए बधुं कोण करे? शुं जीव करे? ए तो परमाणुओनी रचना एनी स्वतंत्र योग्यताथी थई छे. अमे तो वारंवार कहीए छीए के ए परमाणुओनी दशा तेना स्वकाळे तेनाथी थई छे, अमारा के बीजा कोईना कारणे ते थई छे एम नथी. आ तो वस्तुस्वरूप छे बापु! दुनियालोक तो अज्ञानमां पडया छे, ते गमे ते माने-कहे तेथी शुं? जुओने, आ शास्त्रनी टीकाना छेल्ला कळशमां आचार्य अमृतचंद्रसूरि शुं कहे छे? के आ टीका में बनावी नथी. तेना शब्दो आ प्रमाणे छेः
“पोतानी शक्तिथी जेमणे वस्तुनुं तत्त्व (-यथार्थ स्वरूप) सारी रीते कह्युं छे एवा शब्दोए आ समयनी व्याख्या (-आत्मवस्तुनुं व्याख्यान अथवा समयप्राभृत शास्त्रनी टीका) करी छे; स्वरूपगुप्त (-अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूपमां गुप्त) अमृतचंद्रसूरिनुं (तेमां) कांई ज कर्तव्य नथी.”
भाई! आ शास्त्रनी वात काने पडे माटे शिष्यने ज्ञान थाय छे एम नथी. शास्त्रना शब्दोना कारणे ज्ञान थाय छे एम, हे जनो! मोहथी मा नाचो; केमके शब्द तो जडनी दशा छे, ने ज्ञाननी दशा तो ज्ञानथी भावशक्तिना कारणे वर्तमान विद्यमान थाय छे.
अरे! लोकोने परमां कार्य करवानुं अभिमान छूटवुं कठण थई पडयुं छे. पण भाई! ते अभिमान तारा अनंत संसारनुं कारण छे. जुओ, सम्यग्द्रष्टि जीवो भगवाननी वाणी सांभळवा आवे छे. एकावतारी इन्द्र क्षायिक समकिती छे ते भगवाननी वाणी सांभळवा आवे छे. पण तेने ज्ञाननी दशा जे प्रगट थई छे ते ज्ञानगुण परिणमीने थई छे, वाणीथी नहि. जे समये, ज्ञाननी जे पर्याय थवा योग्य होय ते समये ते पोताथी प्रगट थाय ज छे, ते पर्याय परथी के शब्दथी उत्पन्न थती नथी. अहा! जैनदर्शन कोई अलौकिक चीज छे बापु! तेनो लौकिक व्यवहार साथे मेळ थई शके एम नथी.
अहीं भाव-अभावशक्तिनी वात चाले छे. अनंत गुणनी प्रवर्तमान-विद्यमान पर्यायनो बीजे समये अभाव थाय ते-रूप भाव-अभावशक्ति छे. वर्तमान पर्यायनो अभाव केम थाय? कोई परथी-निमित्तथी थाय एम नहि, ने व्यवहारना विकल्पथीय नहि. केटलाक कहे छे के-परिणमनमां काळ निमित्त छे तो काळथी थाय छे. पण एम नथी. परिणमनमां काळनुं निमित्तपणुं कह्युं ए तो काळद्रव्यनी सिद्धि करवा माटे छे. वर्तमान पर्यायनो बीजा समये अभाव थाय छे ए तो आत्मद्रव्यनो पोतानो सहज ज भाव-अभाव स्वभाव छे, एमां परनुं-निमित्तनुं रंचमात्र कारणपणुं नथी.
हवे केटलाके तो द्रव्य शुं? गुण शुं? पर्याय शुं?-कदीय सांभळ्युं न होय. त्रिकाळी शक्तिनो पिंड ते द्रव्य छे, तेमां जे शक्तिओ छे ते गुण छे, ने तेनी जे अवस्था बदले छे ते पर्याय छे, त्यां वर्तमान वर्तती पर्यायनो व्यय थाय छे ते कया कारणथी? तो कहे छे-भाव-अभावशक्तिना कारणथी. वर्तमान पर्यायना व्यय थवारूप आ भाव- अभावशक्ति छे. अहीं निर्मळ पर्यायनी वात छे. साधकने निर्मळ वर्तमान पर्यायनो व्यय थई नवी नवी अपूर्व निर्मळ दशा प्रगटे छे, त्यां वर्तमान पर्यायनो व्यय थाय ज, ते लंबाईने बीजा समये न रहे एवो आत्मानो आ भाव-अभाव स्वभाव छे. सिद्धने वर्तमानमां केवळज्ञान छे, ते व्यय पामी बीजे समये नवी केवळज्ञाननी दशा थाय छे. अहा! आवो अद्भुत चमत्कारी द्रव्यनो स्वभाव छे. हवे आम छे त्यां कर्मना अभावथी निर्मळ दशा थई, ने केवळज्ञान थयुं एम वात कयां रहे छे? ए तो निमित्तनी मुख्यताथी व्यवहारनयथी प्ररूपणा करी छे एम यथार्थ समजवुं जोईए.
मोक्षमार्ग प्रकाशकना सातमा अधिकारमां स्पष्टीकरण कर्युं छे के-“व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यने वा तेना भावोने वा कारण-कार्यादिने कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे माटे एवा ज श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे तेथी तेनो त्याग करवो,