गाथा ३६ ] [ १९प
पूर्णानंदनो नाथ स्वभावनो सागर छे, गुणनुं गोदाम छे एम जेनी द्रष्टि- प्रतीतिना जोरमां आव्युं छे ते आत्मा अंतरमां विशेष विशेष स्थिर थईने शक्तिनी ज्ञान अने आनंदनी व्यक्तताओ प्रगट करी रागथी-भावकना भावथी-भिन्न पडी जाय छे.
हवे आ अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-
आ कळशनो ‘कहै विचच्छन....’ एम समयसार नाटकमां श्री बनारसीदासे छंद लख्यो छे. छंद आ प्रमाणे छेः-
धर्मात्मा ज्ञानीने विचक्षण पुरुष कहेवाय छे. दुनियाना डाह्या तो खरेखर पागल छे. अहीं सम्यग्द्रष्टि-विचक्षण पुरुष एम कहे छे अर्थात् एम विचारे छे के-हुं तो सदा एक छुं. रागना संबंधवाळो हुं नथी. हुं तो ज्ञायकनी परिणति जे निर्मळ प्रत्यक्ष आस्वादरूप छे तेना स्वभावथी एकरूप छुं. मारा एकस्वरूपमां बगडे बे एम बीजा भाव-रागना भावनो बगाड नथी. हुं तो निज चैतन्यरसथी भरपूर भरेलो मारा पोताना आश्रये छुं. एटले के मारी पर्यायनो दोर चैतन्यना त्रिकाळी ध्रुव (स्वरूप) उपर लाग्यो छे. पर्यायनी धारा द्रव्यथी तन्मयपणे छे तेथी कह्युं के सदाय हुं एक छुं, मारा ज्ञानरसथी भरपूर, मारा आश्रये ज छुं. रागनो आश्रय मने नथी. अहाहा! हुं अतीन्द्रिय आनंदरस अने ज्ञानरसथी अनादिथी भरपूर भरेलो छुं. ए ज्ञानदर्शनस्वभावनी मने रुचि थई एटले के स्वभावनो रस प्रगट थयो तेथी रागना रसनी जे रुचि हती ते नीकळी गई. रस एटले के तदाकार-एकाकार थवुं. एक ज्ञायकमां एकाकार लीन थवुं अने बीजे एकाकार न थवुं ते ज्ञान-दर्शननो रस छे.
रागादि छे ए तो भ्रमणानो कूवो छे, ए मारुं स्वरूप नथी. आ राग-द्वेष, अने पुण्य-पापनो विकार ए भ्रमकूप छे. भावकना भावथी उत्पन्न थयेली विकारी दशा, पर तरफनी सावधानीनी दशा ए मारी नथी. कारण के हुं तो एकलो शुद्ध चेतनानो सिंधु- दरियो छुं. शुद्ध चैतन्यसिंधु ए मारुं स्वरूप छे. अरे! पोते आत्मा कोण छे अने ते केवो छे एनी वात कदी सांभळी नहि अने बहारनी कडाकूटमां अनादिथी एम ने एम मरी गयो छे.
जीव अधिकारनी आ बधी आखरनी गाथाओ छे. तेथी कहे छे के-‘चेतये स्वयम् अहम् स्वम् इह एकम्’ आ लोकमां हुं पोताथी ज पोताना एक आत्मस्वरूपने अनुभवुं छुं.