गाथा ३८ ] [ २१३
आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः।
____________________________________________________________ टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भाव वडे, अत्यंत जुदो छुं माटे हुं शुद्ध छुं; चिन्मात्र होवाथी सामान्य-विशेष उपयोगात्मकपणाने उल्लंघतो नथी माटे हुं दर्शनज्ञानमय छुं; स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जेनुं निमित्त छे एवा संवेदनरूपे परिणम्यो होवा छतां पण स्पर्शादिरूपे पोते परिणम्यो नथी माटे परमार्थे हुं सदाय अरूपी छुं. आम सर्वथी जुदा एवा स्वरूपने अनुभवतो आ हुं प्रतापवंत रह्यो. एम प्रतापवंत वर्तता एवा मने, जोके (मारी) बहार अनेक प्रकारनी स्वरूपनी संपदा वडे समस्त परद्रव्यो स्फुरायमान छे तोपण, कोई पण परद्रव्य परमाणुमात्र पण मारापणे भासतुं नथी के जे मने भावकपणे तथा ज्ञेयपणे मारी साथे एक थईने फरी मोह उत्पन्न करे; कारण के निजरसथी ज मोहने मूळथी उखाडीने-फरी अंकुर न ऊपजे एवो नाश करीने, महान ज्ञानप्रकाश मने प्रगट थयो छे.
गुरुओना उपदेशथी अने पोतानी काळलब्धिथी ज्ञानी थयो अने पोताना स्वरूपने परमार्थथी जाण्युं के हुं एक छुं, शुद्ध छुं, अरूपी छुं, दर्शनज्ञानमय छुं. आवुं जाणवाथी मोहनो समूळ नाश थयो, भावकभाव ने ज्ञेयभावथी भेदज्ञान थयुं, पोतानी स्वरूपसंपदा अनुभवमां आवी; हवे फरी मोह केम उत्पन्न थाय? न थाय.
हवे, एवो आत्मानो अनुभव थयो तेनो महिमा कही प्रेरणारूप काव्य आचार्य कहे छे के आवा ज्ञानस्वरूप आत्मामां समस्त लोक निमग्न थाओः-
श्लोकार्थः– [एषः भगवान् अवबोधसिन्धुः] आ ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा [विभ्रम–तिरस्करिणीं भरेण आप्लाव्य] विभ्रमरूप आडी चादरने समूळगी डुबाडी दईने (दूर करीने) [प्रोन्मग्नः] पोते सर्वांग प्रगट थयो छे; [अमी समस्ताः लोकाः] तेथी हवे आ समस्त लोक [शान्तरसे] तेना शांत रसमां [समम् एव] एकीसाथे ज [निर्भरम्] अत्यन्त [मज्जन्तु] मग्न थाओ. केवो छे शांत रस? [आलोकम् उच्छलति] समस्त लोक पर्यंत ऊछळी रह्यो छे.
भावार्थः– जेम समुद्रनी आडुं कांई आवी जाय त्यारे जळ नथी देखातुं अने ज्यारे आड दूर थाय त्यारे जळ प्रगट थाय; प्रगट थतां, लोकने प्रेरणायोग्य थाय के ‘आ जळमां सर्व लोक स्नान करो’; तेवी रीते आ आत्मा विभ्रमथी आच्छादित हतो त्यारे तेनुं स्वरूप नहोतुं देखातुं; हवे विभ्रम दूर थयो त्यारे यथास्वरूप (जेवुं छे